विचार / लेख
-गोपाल राठी
जाति और उपजाति में बटे भारतीय समाज में जाति एक सच्चाई है जिसे आप नकार नहीं सकते। जाति के आधार पर ही आप सम्मान या तिरस्कार पाने के अधिकारी बन जाते है। हमारे समाज मे जातीय विषमता का हमें कदम कदम पर साक्षात्कार होता है। भारतीय व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति का नाम और ठांव पूछने के पहले जाति जानने की कोशिश करता है और उनके आपसी सम्बन्ध और व्यवहार जाति के आधार पर ही निर्धारित होते हैं । एक दूसरे से बिल्कुल अपरिचित और भाषा और संस्कृति के लिहाज से अलग अलग व्यक्ति अगर सजातीय होते है तो उनकी आंखों में चमक आ जाती है और भाव भंगिमा बदल जाती है।
नर्मदा की परिक्रमा हजारों साल से की जा रही है । परिक्रमा वासियों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था जगह जगह पर रहती है । कहीं किसी आश्रम में या कही गांव में सामूहिक रूप से यह व्यवस्था चल रही है ।
परिक्रमा में मेरा जो अवलोकन रहा वह यह है कि नर्मदा तट के हर गांव में परिक्रमा को एक तपस्या माना जाता है और परिक्रमा करने वाले को तपस्वी। इस भावना के कारण नर्मदा परिक्रमा वासियों को हर जगह श्रद्धा पूर्वक सम्मान मिलता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सम्मान किसी को उसकी जाति देखकर नहीं मिलता। रास्ते मे हम चाय आदि के लिए कई जगह।के तो दुकानदार ने हमसे पैसे ही नहीं लिए । दुकानदार ने ना हमारा नाम पूछा ,ना जाति पूछी ,ना गांव पूछा । उसके लिए हमारा परिकमा वासी होना ही पर्याप्त था । बड़वानी जिले के परसूद में तो चाय वाले के बाजू में एक मुस्लिम भाई की पान की दुकान थी उसने भी हमसे पान के पैसे नहीं लिए बल्कि रास्ते के लिए पान के चार बीड़े बनाकर रख दिए।
हमने सिवनी जिले के कहानी ग्राम में रात्रि विश्राम किया । वहां ग्राम पंचायत भवन में ठहरे हम सभी परिक्रमा वासियों का रात्रि भोजन एक परिवार में था । वहां हमारे साथ गए सभी परिकमा वासियों को भोजन उपरांत एक नारियल और दस ।पये भेंट के साथ परिवार के सदस्यों ने हम सबके बारी बारी से पांव पड़े । इस तरह पांव पढ़वाने से हम थोड़े असहज हुए ,थोड़ा पीछे हटे लेकिन कोई नहीं माना । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम परिक्रमा वासियों के समूह में एक सज्जन आदिवासी समाज के जो उदयपुरा तहसील जिला रायसेन के निवासी थे और एक दम्पत्ति दलित समाज से थे जो दमोह जिले के रहने वाले थे । हम सबको "महाराज" के संबोधन से पुकारा जा रहा था । जात पांत की कोई बात ही नहीं थी । आगे अन्य आश्रमों में भी जात पांत पूछे बिना भोजन और आवास की व्यवस्था हो गई ।
नर्मदा परिक्रमा जैसे धार्मिक अनुष्ठान में कोई पूछता ही नहीं है कि तुम कौन जात हो ? जातिगत भेदभाव से मुक्त परिक्रमा के इस पक्ष से हमें अत्यंत खुशी हुई । ऐसा लगा कि जैसे जाति विहीन ,वर्ग विहीन समाज बनाने का हमारा सपना साकार हो गया है ।
हमारे संत भी तो यही कहते रहे हैं ।
जात-पात पूछे ना कोई,
हरि को भजे सो हरि का होई
*जाति न पूछो साधु की,
पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का,
पड़ा रहन दो म्यान।