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अर्नब गोस्वामी की लीक हुई चैट और प्रेस की आजादी
20-Jan-2021 3:18 PM
अर्नब गोस्वामी की लीक हुई चैट और प्रेस की आजादी

photo/dw

अर्नब गोस्वामी और पार्थो दासगुप्ता के बीच व्हाट्सऐप पर हुई बातचीत ने मीडिया के बदलते स्वरूप पर सवाल खड़े किए हैं. मीडिया संस्थान यदि सरकार के प्रचार तंत्र का हिस्सा बन जाएं तो इसका मीडिया की विश्वसनीयता पर असर पड़ेगा ही.

 डायचेवेले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट 

मीडिया और सत्ता का बड़ा अजीब रिश्ता होता है. पत्रकारों का काम है सरकार के काम-काज पर लगातार नजर रखना और कहीं कोई खामी दिखे तो उसे जनता के सामने लाना. इसके लिए सिर्फ सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है क्योंकि वे एकतरफा होती हैं. असली तथ्यों को निकालने के लिए पत्रकारों को वार्षिक रिपोर्ट, सीएजी की रिपोर्ट, सरकार द्वारा संसद में दी गई जानकारी, संसदीय समितियों की जानकारी, आरटीआई इत्यादि जैसे बीसियों साधनों का इस्तेमाल करना पड़ता है. इनके अलावा पत्रकारों को सरकारी महकमों में और सत्ता के गलियारों में अपने सूत्र भी बनाने पड़ते हैं. सालों लग जाते हैं एक ऐसा सूत्र बनाने में जो आपको जनहित में ऐसी आवश्यक जानकारी देगा जो गोपनीय होगी और "लीक" किए बिना जनता के सामने नहीं आएगी. यह जानकारी उपलब्ध करवाने में इन सूत्रों को भारी खतरा उठाना पड़ता है. इसीलिए पत्रकारों को अपने इन सूत्रों की पहचान हमेशा गुप्त रखनी होती है और किसी भी हालात में उन्हें दुनिया के सामने नहीं लाना होता है.

लेकिन पत्रकार और उसके सूत्र के बीच के इस रिश्ते का एक काला पहलू भी है, जो तब सामने आता है जब पत्रकार "जनहित" की लक्ष्मण रेखा को लांघ जाते हैं. सरकारी सूत्रों के साथ पत्रकारों की नजदीकी को तभी तक स्वीकार्य माना जाता है जब तक काम जनहित में हो रहा हो. कई बार पत्रकार उस सूत्र से अपनी इस नजदीकी का इस्तेमाल निजी हित के लिए करना शुरू कर देते हैं और यहीं से ऐसे सफर की शुरुआत होती है जिसका रास्ता पत्रकार को एक ऐसी खाई की ओर ले जाता है जिसमें गिरकर वो अपनी विश्वसनीयता तो खो ही देता है, साथ में पत्रकारिता पर भी धब्बा लगाता हुआ चला जाता है.

सत्ता से नजदीकी
"राडिया टेप" कांड में भी यही हुआ था और अब "अर्नब लीक्स" में भी वही त्रासदी दोहराई जा रही है. रिपब्लिक टीवी के संस्थापक और सेलिब्रिटी एंकर अर्नब गोस्वामी और टीवी चैनलों को रेटिंग देनी वाली संस्था बीएआरसी के सीईओ पार्थो दासगुप्ता के बीच व्हाट्सऐप पर हुई बातचीत मुंबई पुलिस की चार्जशीट से लीक हो गई है. जगह जगह छप चुके उस चैट के विस्तृत ब्यौरे ने कई सवाल खड़े किए हैं. चैट से स्पष्ट नजर आ रहा है कि अर्नब के उनके पेशे से संबंधित दो तरह के लोगों से करीबी रिश्ते थे, एक खुद पार्थो और संभवतः बीएआरसी में उनके अन्य सहयोगी और दूसरा केंद्र सरकार में शीर्षस्थ पदों पर बैठे लोग.

अर्नब ना सिर्फ इन लोगों के करीब थे बल्कि वो उस करीबी का इस्तेमाल अपने निजी हित के लिए कर रहे थे. पार्थो के साथ अपनी निजी संबंधों का इस्तेमाल अर्नब अपने चैनल की रेटिंग ऊंची रखने के लिए और उनके प्रतिद्वंदी चैनलों की रेटिंग को नीचे करने के लिए करते हुए नजर आए हैं. पार्थो भी अर्नब का साथ देते हुए, उनकी तरक्की की कामना करते हुए, उनके प्रतिद्वंदी एंकरों को नीचा दिखाने के उपायों पर चर्चा करते हुए और सरकार में शीर्षस्थ पदों पर बैठे नेताओं से अपना काम निकलवाने की चर्चा करते हुए नजर आए हैं. आखिरी बिंदु सबसे महत्वपूर्ण है. लीक हुए चैट से साबित होता है कि अर्नब वाकई मौजूदा केंद्र सरकार और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के नेताओं के करीब हैं.

वो खुद केंद्रीय मंत्रियों स्मृति ईरानी और राज्यवर्धन राठौड़ से करीबी होने की डींगें नहीं हांक रहे हैं बल्कि उसका प्रमाण भी दे रहे हैं. उनका दावा है कि उनके कहने पर गलत तरीके से उनके चैनल की रेटिंग को बढ़ाने के खिलाफ की गई शिकायत को केंद्रीय मंत्री राठौड़ ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है. वो कभी कभी प्रधानमंत्री कार्यालय का भी जिक्र करते हैं और पार्थो भी उनसे गुजारिश करते हैं कि वो उन्हें वहां मीडिया सलाहकार की नौकरी दिलवा दें. अगर सिर्फ सरकार के अंदर की खबरों को बाहर निकालने की बात होती तो वहां तक तो यह नजदीकी जायज होती, लेकिन अर्नब के बीते कुछ सालों के काम को देखते हुए इसके मायने बदल जाते हैं.

सरकार का प्रचार
अर्नब ना सिर्फ चीखने-चिल्लाने वाली टीवी न्यूज एंकरिंग के अगुआ हैं, हाल के सालों में उन्होंने सरकारी प्रचार और विपक्ष से सवाल पूछने की पत्रकारिता की एक नई मिसाल कायम की है. पूरा दिन उनका चैनल सरकार के हर कदम को ऐतिहासिक और सिर्फ विपक्ष को भ्रष्टाचारी और देशद्रोही साबित करने में लगा रहता है. संतुलित रिपोर्टिंग का आडम्बर भी नहीं किया जाता. फरवरी 2019 में जब पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के 40 जवान मारे गए थे, तो चैनल ने सरकार से एक बार भी पूछना मुनासिब नहीं समझा कि आखिर गुप्तचर एजेंसियां इसकी पुख्ता खबर लाने में क्यों नाकाम रहीं या अगर एजेंसियों से कुछ जानकारी मिली थी तो सरकार हमले को रोकने में विफल क्यों रही.

रिपब्लिक टीवी सिर्फ हमले के लिए पाकिस्तान को और इन सवालों को उठाने के लिए विपक्ष के नेताओं को कोसने में व्यस्त रहा. और अब  लीक हुए चैट से सामने आ रहा है कि हमला हो जाने के बाद अर्नब ने पार्थो के साथ बातचीत में हमले पर खुशी जाहिर की थी क्योंकि बीजेपी इसे चुनाव में भुना सकेगी. इसका क्या मतलब निकाला जाए? मीडिया का स्वतंत्र और न्याय-संगत होना उसके तटस्थ होने पर ही टिका है. पत्रकार जब खुल कर सत्ता पक्ष का हिस्सा ही हो जाएंगे तो पत्रकारिता में क्या बचेगा?

सरकारों के पास अपना प्रचार तंत्र होता है, जो पूरी तरह से वैध होता है और बाकायदा जनता के पैसों पर चलता है. भारत में प्रेस सूचना ब्यूरो, दूरदर्शन, आकाशवाणी इत्यादि समेत कई संस्थान यही काम करते हैं. लेकिन आज भारत में सिर्फ रिपब्लिक ही नहीं बल्कि और भी कई निजी मीडिया संस्थानों ने यह जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली है. प्रेस की स्वतंत्रता के साथ समझौता भारत में पहले भी देखने को मिला है, लेकिन इस पैमाने पर नहीं. यह ना सिर्फ भारत में प्रेस की साख के लिए बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए गहरी चिंता का विषय है.
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