विचार / लेख
-गुरप्रीत सैनी
साप्ताहिक टीआरपी यानी टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट जारी होते ही तमाम न्यूज़ रूम मैनेजर या एडिटर के बीच चर्चा शुरू हो जाती है कि पहले, दूसरे, तीसरे नंबर पर रहे फ़लाने चैनल को किस तरह के कंटेंट से फ़ायदा हुआ. विश्लेषण किया जाता है कि उनके ख़ुद के आधे या एक घंटे के प्रोग्राम कितनी टीआरपी बटोर पा रहे हैं.
ये देखने के बाद तय किया जाता है कि इस तरह का कंटेंट उन्हें आगे भी अपने यहां चलाना चाहिए या नहीं. जिस तरह का कंटेंट ज़्यादा टीआरपी लेकर आता है उसे बढ़ा दिया जाता है और जिस कंटेंट में दर्शकों की रुचि नहीं होती या कम होती है वो चैनलों से ग़ायब हो जाता है.
कुछ वरिष्ठ टीवी पत्रकारों के मुताबिक़, टीआरपी के आंकड़े ही तय करते हैं कि न्यूज़ चैनलों के दर्शक आने वाले दिनों में क्या देखेंगे.
लेकिन हाल में रेटिंग प्रणाली में छेड़छाड़ के आरोपों के बाद भारत में टेलीविज़न रेटिंग जारी करने वाली संस्था ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) ने 15 अक्टूबर से न्यूज़ चैनलों की रेटिंग पर तीन महीनों के लिए अस्थाई रोक लगा दी है.
इससे टीआरपी सिस्टम में गंभीर ख़ामियों की बात सामने आई है, जिसे बार्क ने ठीक करने की बात कही है.
हालांकि ये रोक सिर्फ़ 12 हफ़्ते के लिए है और एक आधिकारिक बयान में बार्क ने कहा है कि इस दौरान उसकी तकनीकी समिति डेटा को मापने और रिपोर्ट करने के वर्तमान मानकों की समीक्षा करेगी और उसमें सुधार करेगी.
टीवी न्यूज़ चैनल कितने बदलेंगे
इस बीच सवाल ये है कि इस टीआरपी बैन और इस रेटिंग प्रणाली में सुधार की कोशिशों से टीवी न्यूज़ चैनल कितने बदलेंगे?
साफ़ तौर पर टीआरपी न्यूज़ चैनलों को मिलने वाले विज्ञापनों पर असर डालती है. इसलिए इसका सीधा असर न्यूज़ कंटेंट पर देखने को मिलता है और हमेशा ये आरोप लगे हैं कि टीआरपी की लालसा में न्यूज़ चैनल दर्शकों के सामने जो सामग्री परोस रहे हैं, वो पत्रकारिता के स्तर को गिराने का काम कर रही है.
कई टीवी चैनलों में शीर्ष पदों पर रह चुके वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम कहते हैं कि टीआरपी बंद नहीं हुई है बल्कि महज़ 12 हफ़्तों के लिए स्थगित हुई है, इसलिए इससे बहुत बदलाव आने की उम्मीद नहीं की जा सकती.
लेकिन उनका कहना है कि रेटिंग स्थगित होने से कुछ फ़र्क़ पड़ना चाहिए.
वो कहते हैं, "अब थोड़ा फ़र्क़ ये आ सकता है कि अगर कोई चैनल या कोई एडिटर सिर्फ़ मजबूरी में रेटिंग में प्रतिस्पर्धा के लिए कोई ऐसी सामग्री चला रहा है जो वो नहीं चलाना चाहता तो उसके पास ये मौक़ा है कि वो प्रयोग कर सकता है और कुछ हफ़्ते प्रेशर के बिना दर्शकों को कुछ बेहतर दिखा सकता है."
हालांकि वो कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि ये फ़र्क़ सबमें देखने को मिलेगा. उनके मुताबिक़, "जो चैनल पूरी आस्था के साथ एजेंडा चला रहे हैं उनमें बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं आएगा, क्योंकि ये अब उनकी फ़ितरत बन गई है और उनके डीएनए में शामिल हो गया है. 6-7 साल पहले तक यानी 2014 से पहले और अब में ये फ़र्क़ आया है कि पहले सिर्फ़ रेटिंग के लिए सामग्री बनती थी, लेकिन अब एक एजेंडा भी चलता है, इसलिए सिर्फ़ रेटिंग स्थगित होने से वो एजेंडा तो नहीं रोकेंगे."
उनका ये भी मानना है कि 12 हफ़्तों में बेहतर कंटेट देने की सोचने वालों को ये डर भी रहेगा कि इन हफ़्तों के लिए सामग्री बदली तो दर्शक छोड़कर दूसरे चैनल पर न चले जाएं और फिर बाद में उन्हें वापस लाना मुश्किल हो जाए.
रेटिंग सिस्टम की ख़ामियों को दूर करने से बनेगी बात?
टीआरपी, टीवी न्यूज़ और बाज़ार का एक ऐसा आपसी रिश्ता बन गया है, जिसमें सुधार के लिए निर्णायक क़दम उठाए जाने की माँग होती रही है. कई मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि असली समाधान यही हो सकता है कि टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट के इस सिस्टम को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए.
हालांकि बार्क ने टीआरपी सिस्टम की ख़ामियों को ठीक करने की बात कही है.
बीबीसी हिंदी के साथ साझा किए गए एक बयान में बार्क इंडिया के सीईओ सुनील लुल्ला ने कहा, "बार्क में हम बहुत ही ज़िम्मेदारी के साथ सच्चाई और ईमानदारी से बताते हैं कि भारत क्या देख रहा है. हम सुनिश्चित करते हैं कि दर्शकों के अनुमान (रेटिंग) को उसी तरह से सबके सामने रखें."
साथ ही उन्होंने कहा कि हम ऐसे और विकल्प तलाश रहे हैं, जिससे टीआरपी में गड़बड़ी की इस तरह की ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों पर पूरी तरह रोक लगाई जा सके.
हालांकि बार्क की तकनीकी समिति (टैक कॉम) मौजूदा सिस्टम की समीक्षा करेगी. इसका मतलब डेटा इकट्ठा करने वाले सिस्टम को ठीक किया जाएगा और बैरोमीटर वाले जिन घरों की पहचान हो जा रही है, उसे रोकने के उपाय किए जाएंगे.
लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि ये सुधार सिर्फ़ तकनीकी पहलू पर होंगे. उनका मानना है कि असल सुधार टीआरपी के मूल चरित्र में होना चाहिए.
वरिष्ठ पत्रकार और सत्य हिंदी डॉट कॉम के सह-संस्थापक क़मर वहीद नक़वी कहते हैं, "सीधी बात है कि तीन महीने के बैन के बाद तो टीआरपी वही आएगी. आप सिर्फ़ उसका सिस्टम ठीक करोगे, जिसकी वजह से डेटा चोरी और गड़बड़ी संभव हो पा रही थी. साथ ही उस गड़बड़ी को दूर करेंगे जिसकी वजह से उन घरों की पहचान करके उन्हें पैसे देकर कहा जा रहा है कि आप हमारा चैनल बड़ी देर तक देखो, ताकि हमारी टीआरपी बढ़ जाए."
वो कहते हैं कि बार्क सिर्फ़ यही रोक सकता है. "हालांकि जब तक ये सामने नहीं आता कि वो कैसे रोकेंगे, तब तक हम बहुत आश्वस्त हो भी नहीं सकते कि ये रुक पाएगा या नहीं."
टीआरपी को पूरी तरह बंद करने से होगा सब ठीक?
वहीं वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश कहते हैं कि असल बदलाव तभी आएगा जब टीआरपी सिस्टम को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए और उसकी जगह एक नई व्यवस्था लाई जाए.
उनका कहना है कि मौजूदा टीआरपी सिस्टम फ़ेक, बेबुनियाद, अवैज्ञानिक और पूरी तरह से हेरफेर पर आधारित लगता है.
उनका मानना है कि इसकी जगह एक स्वतंत्र मेकैनिज़्म होना चाहिए. वो कहते हैं कि 'कोई स्वतंत्र शिकायत आयोग हो या स्वतंत्र मीडिया कमीशन बनाया जाना चाहिए.'
कुछ ऐसी ही सिफ़ारिश 2013 में एक संसदीय समिति की ओर से पेश रिपोर्ट में भी की गई थी. उस समय कांग्रेस की सरकार थी और रिपोर्ट तैयार करने वालों में अलग-अलग दलों के प्रतिनिधि शामिल थे. रिपोर्ट पेश करने वाली समिति के चैयरमैन मौजूदा बीजेपी नेता राव इंद्रजीत सिंह थे. इस रिपोर्ट में एक मीडिया काउंसिल की वकालत की गई थी.
उर्मिलेश कहते हैं, "इस मामले में किसी वरिष्ठ पत्रकार, पार्टी या सरकार की बात पर ना भी जाया जाए लेकिन संसद की बात मानी जानी चाहिए जो सुप्रीम बॉडी है और जिसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व है. इसलिए संसद की रिपोर्ट को लागू कर मीडिया काउंसिल बनाया जाना चाहिए."
वो कहते हैं, "मीडिया काउंसिल में सरकारी नियंत्रण ना हो. उसमें सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भी प्रतिनिधि रखिए. दो बड़े पत्रकारों को लीजिए. जो पार्टी बंदी वाले ना हों बल्कि स्वतंत्र तरह के लोग हों. इसके अलावा न्यायपालिका से शीर्ष लोगों को लीजिए. उन्हीं को आप चेयरमैन बना दीजिए. इसके अलावा बड़े बुद्धिजीवियों को लीजिए, जो गणमान्य हों यानी बीजेपी या कांग्रेस से उनका जुड़ाव ना हो. इस तरह का एक स्वतंत्र मीडिया काउंसिल बने. ये काउंसिल तय करे कि न्यूज़ चैनलों पर क्या चलेगा और न्यूज़ चैनल पर ख़बरों और विज्ञापन का अनुपात कितना होगा."
टीआरपी बंद करने से निकलेगा समाधान?
न्यूज़ चैनलों पर पत्रकारिता को ताक पर रखने के जो आरोप लगते हैं उसकी बड़ी वजह टीआरपी को माना जा रहा है, जिसका सीधा संबंध विज्ञापन यानी चैनलों की कमाई से होता है.
तो ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि अगर ये रेटिंग सिस्टम विश्वसनीय नहीं है तो विज्ञापनदाता और मार्केटिंग समुदाय क्यों इसमें सुधार की या इसे बंद करने की माँग नहीं करते?
टीवी चैनलों पर लंबे वक़्त से नज़र रखने वाले और मार्केट को समझने वाले एक्सचेंज फ़ॉर मीडिया के संस्थापक और बिज़नेस वर्ल्ड के एडिटर इन चीफ़ अनुराग बत्रा कहते हैं कि हर चीज़ के लिए टीआरपी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.
उनके मुताबिक़ ये समझना ज़रूरी है कि विज्ञापनदाता इस इको-सिस्टम का अहम हिस्सा हैं, क्योंकि न्यूज़ चैनल फ्री टू एयर हैं जिसके लिए दर्शक पैसा नहीं देते.
उनका कहना है कि विज्ञापनदाता रेटिंग ज़रूर देखते हैं लेकिन गुणवत्ता पर भी ध्यान देने लगे हैं. वो कहते हैं कि वो चैनल की विश्वस्नीयता और बैलेंस भी देखते हैं और इनोवेशन भी देखते हैं.
वो कहते हैं, "टीआरपी सिस्टम को पूरी तरह बंद कर देना कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि हर चीज़ के मापदंड की ज़रूरत होती है. इसके बजाए रेटिंग को पुख़्ता बनाने की ज़रूरत है. साथ ही सैंपल साइज़ को पुख़्ता बनाने की ज़रूरत है. इसके लिए तकनीक की मदद लेनी होगी."
अनुराग बत्रा मानते हैं कि इस वक़्त समुद्र मंथन हो रहा है और उम्मीद जताते हैं कि आने वाले हफ़्तों में रेटिंग सिस्टम बेहतर हो जाएगा.
देखने वाली बात होगी कि 12 हफ़्तों बाद रेटिंग सिस्टम में क्या तकनीकी बदलाव आता है और क्या कभी टीआरपी की इस जंग का कोई स्थाई समाधान निकल पाएगा? या विज्ञापनदाता आगे आकर इस मसले के हल में अपनी भूमिका निभाएंगे? (bbc)