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मंदिर के बाद अब समान नागरिक संहिता की बारी?
08-Aug-2020 9:04 AM
मंदिर के बाद अब समान नागरिक संहिता की बारी?

अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के बाद अब कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र के दो अहम मुद्दे पूरे कर लिए हैं. पहला-जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाना और दूसरा-राम मंदिर के निर्माण की राह प्रशस्त करना.

राम मंदिर के शिलान्यास के अगले ही दिन सोशल मीडिया पर लोगों ने बीजेपी का ध्यान तीसरे वादे, यानी समान नागरिक संहिता यानी 'यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड' लागू करने की तरफ़ खींचा.

इसको लेकर सुबह से ही लोगों ने ट्वीट करने शुरू कर दिए. इनमें से सबसे ज़्यादा ग़ौर करने वाला ट्वीट पत्रकार शाहिद सिद्दीक़ी का था जिन्होंने समान नागरिक संहिता के लागू होने की तारीख़ का भी अंदाज़ा लगा लिया और लिखा कि ये काम भी सरकार पांच अगस्त 2021 तक पूरा कर देगी.

भारत में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को लेकर बहस आज़ादी के ज़माने से ही चल रही है.

भारत के संविधान के निर्माताओं ने सुझाव दिया था कि सभी नागरिकों के लिए एक ही तरह का क़ानून रहना चाहिए ताकि इसके तहत उनके विवाह, तलाक़, संपत्ति-विरासत का उत्तराधिकार और गोद लेने के अधिकार को लाया जा सके.

इन मुद्दों का निपटारा वैसे आम तौर पर अलग-अलग धर्म के लोग अपने स्तर पर ही करते रहे हैं.

हर धर्म के लिए समान क़ानून की बहस

इस पेशकश को 'डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी' यानी राज्य के नीति निदेशक तत्वों में रखा गया. फिर भी संविधान निर्माताओं को लगा था कि देश में समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए.

क़ानून के जानकार कहते हैं भारत में समाजिक विविधता देखकर अंग्रेज़ शासक भी हैरान थे. वो इस बात पर भी हैरान थे कि चाहे वो हिन्दू हों या मुसलमान, पारसी हों या ईसाई, सभी के अपने अलग क़ायदे क़ानून हैं.

इसी वजह से तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत ने धार्मिक मामलों का निपटारा भी उन्हीं समाजों के परंपरागत क़ानूनों के आधार पर ही करना शुरू कर दिया.

जानकार कहते हैं कि इस दौरान राजा राममोहन रॉय से लेकर कई समाजसेवियों ने हिंदू समाज के अंदर बदलाव लाने का काम किया जिसमें सती प्रथा और बाल विवाह जैसे प्रावधानों को ख़त्म करने की मुहिम चलाई गयी.

आज़ादी के बाद भारत में बनी पहली सरकार 'हिंदू कोड बिल' लेकर आई जिसका उद्देश्य बताया गया कि ये हिंदू समाज की महिलाओं को उन पर लगी बेड़ियों से मुक्ति दिलाने काम करेगा. मगर हिंदू कोड बिल को संसद में ज़ोरदार विरोध का सामना करना पड़ा.

विरोध कर रहे सांसदों का तर्क था कि जनता के चुने गए प्रतिनिधि ही इस पर निर्णय ले सकेंगे क्योंकि यह बहुसंख्यक हिंदू समाज के अधिकारों का मामला है.

कुछ लोगों की नाराज़गी थी कि नेहरू की सरकार सिर्फ़ हिंदुओं को ही इससे बाँधना चाहती है, जबकि दूसरे धर्मों के अनुयायी अपनी पारम्परिक रीतियों के हिसाब से चल सकते हैं.

हिंदू कोड बिल पारित तो नहीं हो पाया मगर 1952 में हिन्दुओं की शादी और दूसरे मामलों पर अलग-अलग कोड बनाए गए.

कुछ प्रमुख कोड

1955 में 'हिंदू मैरिज एक्ट' बनाया गया जिसमें तलाक़ को क़ानूनी मान्यता देने के अलावा अंतरजातीय विवाह को भी मान्यता दी गई. मगर एक से ज़्यादा शादी को ग़ैरक़ानूनी ही रखा गया.

1956 में ही 'हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम', 'हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम' और 'हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम' लाया गया.

हिन्दुओं के लिए बनाए गए कोड के दायरे में सिखों, बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायियों को भी लाया गया.

अंग्रेज़ों की हुकूमत के दौरान भी भारत में मुसलमानों के शादी-ब्याह, तलाक़ और उत्तराधिकार के मामलों का फ़ैसला, शरीयत के अनुसार ही होता था.

जिस क़ानून के तहत ऐसा किया जाता रहा, उसे 'मोहम्मडन लॉ' के नाम से जाना जाता है. हालांकि इसकी ज़्यादा व्याख्या नहीं की गई है मगर 'मोहम्मडन लॉ' को 'हिंदू कोड बिल' और इस तरह के दूसरे क़ानूनों के बराबर की ही मान्यता मिली. यह क़ानून 1937 से ही चला आ रहा है.

शाह बानो मामले से आया मोड़

ये क़ानूनी व्यवस्था, संविधान में धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार यानी अनुच्छेद-26 के तहत की गई. इसके तहत सभी धार्मिक संप्रदायों और पंथों को सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के मामलों का स्वयं प्रबंधन करने की आज़ादी मिली.

इसमें मोड़ तब आया जब वर्ष 1985 में मध्य प्रदेश की रहने वाली शाह बानो को उनके पति ने तलाक़ दे दिया और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट ने उनके पति को आदेश दिया कि वो शाह बानो को आजीवन गुजारा भत्ता देते रहें.

शाह बानो के मामले पर जमकर हंगामा हुआ और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने संसद में 'मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स आफ डिवोर्स) एक्ट पास कराया जिसने सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो के मामले में दिए गए फ़ैसले को निरस्त करते हुए निर्वाह भत्ते को आजीवन न रखते हुए तलाक़ के बाद के 90 दिन तक सीमित रख दिया गया.

इसी के साथ ही 'सिविल मैरिज एक्ट' भी आया जो देश के सभी लोगों पर लागू होता है. इस क़ानून के तहत मुसलमान भी कोर्ट में शादी कर सकते हैं.

एक से अधिक विवाह को इस क़ानून के तहत अवैध क़रार दिया गया. इस एक्ट के तहत शादी करने वालों को भारत उत्तराधिकार अधिनियम के दायरे में लाया गया और तलाक़ की सूरत में गुज़ारा भत्ता भी सभी समुदायों के लिए एक सामान रखने का प्रावधान किया गया.

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तीन तलाक़ और मुसलमान महिलाओं के हक़

यहाँ ग़ौर करने वाली बात ये है कि विश्व में 22 इस्लामिक देश ऐसे हैं जिन्होंने तीन बार तलाक़ बोलने की प्रथा को पूरी तरह ख़त्म कर दिया है. इनमें पकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया जैसे देश शामिल हैं.

पकिस्तानी तीन तलाक़ की प्रथा में बदलाव लाने की प्रक्रिया 1955 की एक घटना के बाद शुरू हुई जब वहाँ के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने पत्नी के रहते हुए अपनी निजी सचिव से शादी की थी.

इस शादी का पकिस्तान में जमकर विरोध हुआ था जिसके बाद पकिस्तान की सरकार ने सात सदस्यों वाली एक आयोग का का गठन किया था.

अब जो प्रावधान पकिस्तान में बनाए गए हैं उनके तहत पहली बार तलाक़ बोलने के बाद व्यक्ति को 'यूनियन काउन्सिल' के अध्यक्ष को नोटिस देना अनिवार्य है. इसकी एक प्रति पत्नी को भी देना उसपर अनिवार्य किया गया है.

इन नियमों के उल्लंघन पर पकिस्तान जैसे इस्लामिक देश में एक साल की सज़ा और 5000 रुपये के आर्थिक दंड का प्रावधान किया गया है. भारत में काफी बहस और विवाद के बाद आख़िरकार तीन बार तलाक़ बोलने के ख़िलाफ़ एक क़ानून बनाने में कामियाबी हासिल की गई.

केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी का दावा है कि नए क़ानून का लाभ हज़ारों मुस्लिम समाज की महिलाओं को मिला. उनका कहना था कि क़ानून की वजह से ही तलाक़ के मामलों में भी काफ़ी कमी आई है.

वर्ष 2016 में भारत के विधि आयोग ने 'यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड' यानी समान नागरिक संहिता को लेकर आम लोगों की राय माँगी थी. इसके लिए आयोग ने प्रश्नावली भी जारी की जिसे सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित किया गया था.

इसमें कुल मिलाकर 16 बिंदुओं पर लोगों से राय माँगी गयी थी. हालांकि पूरा फ़ोकस इस बात पर था कि क्या देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान संहिता होनी चाहिए?


अब समान नागरिक संहिता की बारी?

प्रश्नावली में विवाह, तलाक़, गोद लेना, गार्डियनशिप, गुज़ारा भत्ता, उत्तराधिकार और विरासत से जुड़े पूछे गए थे.

आयोग ने इस बारे में भी राय मांगी थी कि क्या ऐसी संहिता बनाई जाए जिससे अधिकार समान तो मिले ही साथ ही साथ, देश की विविधता भी बनी रहे. लोगों से यह भी पूछा गया था कि क्या समान नागरिक संहिता 'ऑप्शनल' यानी वैकल्पिक होनी चाहिए?

लोगों की राय पॉलीगेमी यानी बहुपत्नी प्रथा, पोलियानडरी (बहु पति प्रथा), गुजरात में प्रचलित मैत्री क़रार सहित समाज की कुछ ऐसी प्रथाओं के बारे में भी माँगी गयी थी जो अन्य समुदायों और जातियों में प्रचलित हैं.

इन प्रथाओं को क़ानूनी मान्यता तो नहीं है मगर समाज में इन्हें कहीं-कहीं पर स्वीकृति मिलती रही है. देश के कई प्रांत हैं जहां आज भी इनमे से कुछ मान्यताओं का प्रचलन जारी है.

गुजरात में 'मैत्री क़रार' एकमात्र ऐसा प्रचलन है जिसकी क़ानूनी मान्यता है क्योंकि यह क़रार मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर से ही अनुमोदित होता है.

विधि आयोग ने पूछा था कि क्या ऐसी मान्यताओं को पूरी तरह समाप्त कर देना चाहिए या फिर इन्हें क़ानून के ज़रिए नियंत्रित करना चाहिए?

आयोग ने लोगों से मिले सुझाव के बिनाह पर सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है. मगर अभी तक पता नहीं चल पाया है कि इस रिपोर्ट का आख़िर क्या हुआ.

वैसे, जानकारों को लगता है कि जिस तरह सरकार ने 'ट्रिपल तलाक़' पर क़ानून बनाया है, उसी तरह समान नागरिक संहिता पर भी कोई क़ानून भी आ सकता है.

एक नज़र डालते हैं समाज में चल रहीं कुछ प्रथाओं पर:

पॉलीगैमी (बहुपत्नी प्रथा)

वर्ष 1860 में भारतीय दंड विधान की धारा 494 और 495 के तहत ईसाइयों में पॉलीगैमी को प्रतिबंधित किया गया था. 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट में उन हिन्दुओं के लिए दूसरी शादी को ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया गया जिनकी पत्नी जीवित हो.

1956 में इस क़ानून को गोवा के हिन्दुओं के अलावा सब पर लागू कर दिया गया. मुसलमानों को चार शादियां करने की छूट दी गई क्योंकि उनके लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ था. लेकिन हिन्दुओं में भी पॉलीगैमी का चलन काफी चिंता का विषय रहा है.

सिविल मैरिज एक्ट के तहत की गयी शादियों में सभी समुदाय के लोगों के लिए पॉलीगैमी ग़ैरक़ानूनी है.

पोलिऐंड्री (बहु-पति प्रथा)

बहुपति प्रथा का चलन वैसे तो पूरी तरह से ख़त्म हो चुका है. फिर भी कुछ सुदूर इलाक़े ऐसे हैं जहां से कभी कभी इसके प्रचलन की ख़बर आती रहती है.

इस प्रथा का प्रचलन ज़्यादातर हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में ही हुआ करता था जो तिब्बत के पास भारत-चीन सीमा के आस-पास का इलाक़ा है.कई लोगों का मानना है कि महाभारत के मुताबिक इसी इलाक़े में पांडवों का पड़ाव रहा. इसीलिए कहा जाता है कि बहुपति प्रथा का चलन यहां रहा है.

इसके अलावा इस प्रथा को दक्षिण भारत में मालाबार के इज़्हावास, केरल के त्रावनकोर के नायरों और नीलगिरी के टोडास जनजाति में भी देखा गया है. विधि आयोग की प्रश्नावली में बहुपति प्रथा के बारे में भी सुझाव मांगे गए थे.

मुत्तह निकाह

इसका प्रचलन ज़्यादातर ईरान में रहा है जहां मुसलमानों के शिया पंथ के लोग रहते हैं. ये मर्द और औरत के बीच एक तरह का अल्पकालिक समझौता है जिसकी अवधि दो या तीन महीनों की होती है.

अब ईरान में भी यह ख़त्म होने के कगार पर है. भारत में शिया समुदाय में इसका प्रचलन नहीं के बराबर ही है.

चिन्ना वीडु

चिन्ना वीडु यानी छोटा घर का संबंध मूल रूप से दूसरे विवाह से जुड़ा हुआ है. इसे कभी तमिलनाडु के समाज में मान्यता मिली हुई थी. यहां तक कि एक बड़े राजनेता ने भी एक पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह किया था.

हालांकि तमिलनाडु में इस प्रथा को बड़ी सामाजिक बुराई के तौर पर देखा जाने लगा और अब ये पूरी तरह से ख़त्म होने के कगार पर है.

मैत्री क़रार

ये प्रथा गुजरात की रही है जिसे स्थानीय स्तर पर क़ानूनी मान्यता भी मिली हुई है क्योंकि इस 'लिखित क़रार' का अनुमोदन मजिस्ट्रेट ही करता है. इसमें पुरुष हमेशा शादीशुदा ही होता है.

यही कारण है कि ये आज भी जारी है. मैत्री क़रार यानी दो वयस्कों के बीच एक तरह का समझौता जिसे मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में लिखित तौर पर तय किया जाता है. ये मर्द और औरत के बीच एक तरह का 'लिव-इन रिलेशनशिप' है. इसीलिए इसे 'मैत्री क़रार' कहा जाता है.

गुजरात में सभी जानते हैं कि कई नामी-गिरामी लोग इस तरह के रिश्ते में रह रहे हैं. ये प्रथा मूलतः विवाहित पुरुष और पत्नी के अलावा किसी दूसरी महिला मित्र के साथ रहने को सामजिक मान्यता देने के लिए एक ढाल का काम करती रही है.

इस्लामी क़ानून वक़्त के साथ नहीं बदले?

बहुत सारे प्रगतिशील लोगों को लगता है कि अब समय के साथ बदलने का वक़्त आ गया है और बहुत सारे समाज सुधारों की आवश्यकता ज़रूरी हो गई है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संदीप महापात्रा बीबीसी से कहते हैं कि हिंदू समाज ने कई सुधारों का दौर देखा है. इसलिए समय समय पर कई प्रथाएं पूरी तरह समाप्त हो चुकी हैं. लेकिन मुस्लिम समाज में सामाजिक स्तर पर सुधार के काम नहीं हुए हैं और बहुत ही प्राचीन मान्यताओं के आधार पर ही सबकुछ चल रहा है.

उन्होंने समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए कहा कि अगर ये लागू होता है तो इसमें ज़्यादा लाभ हर समाज की महिलाओं को होगा जो पितृसत्ता का शिकार होने को मजबूर हैं.

पेशे से वकील महापात्रा कहते हैं कि जिस तरह भारतीय दंड संहिता और 'सीआरपीसी' सब पर लागू हैं, उसी तर्ज़ पर समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए, जो सबके लिए हो-चाहे वो हिंदू हों मुसलमान या फिर किसी भी धर्म को माननेवाले क्यों ना हों.

संदीप महापात्रा कहते हैं, "बहस वहाँ शुरू होती है जहाँ हम मुसलमानों की बात करते हैं. 1937 से मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई सुधार नहीं हुए हैं. समान नागरिक संहिता की बात आज़ादी के बाद हुई थी, लेकिन उसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया. मगर यह संभव है. हमारे पास गोवा का उदाहरण भी है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है."

समान नागरिक संहिता बाकी धर्मों पर 'थोपी' जाएगी?

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव वाली रहमानी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि भारत विभिन्नताओं का देश है. धर्मों, यातियों और जनजातियों की अपनी प्रथाएं हैं. उनका कहना है कि समान नागरिक संहिता पर सिर्फ राजनीति हो सकती है मगर किसी का भला नहीं हो सकता.

उनका कहना था कि सभी धर्माविलाम्बी अपनी संस्कृति और परमपराओं के अनुसार चलने के लिए स्वतंत्र हैं.

सामजिक कार्यकर्ता जॉन दयाल कहते हैं कि वो हर उस क़ानून का समर्थन करते हैं जो महिलाओं को सशक्त करने वाला हो और बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने वाला हो. मगर उनका आरोप है कि समान नागरिक संहिता का प्रारूप बहुसंख्यकवादी ही होगा और उसे बाक़ी सब पर थोप दिया जाएगा.

दयाल कहते हैं कि अगर सरकार समान नागरिक संहिता लाना चाहती है तो उसका प्रारूप एक छतरी जैसा होना चाहिए जिसमें सभी परम्पराओं और संस्कृतियों को साथ में लेकर चलने की बात हो. उसे थोपा नहीं जाना चाहिए क्योंकि भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक विभिनता है.

उनको लगता है कि ये बड़ी चुनौती होगी क्योंकि हिंदू धर्म में ही कई प्रचलित प्रथाएं हैं जिनको अवैध क़रार देने का जोख़िम सरकार नहीं उठा सकती है. मिसाल के तौर वो कहते हैं कि दक्षिण भारत में सगा मामा अपनी सगी भांजी से विवाह कर सकता है.

दयाल कहते हैं, "क्या सरकार इस पर प्रतिबन्ध लगाएगी? क्या सरकार, जाट और गुज्जरों या दुसरे समाज में प्रचलित प्रथाओं को समाप्त करने की पहल कर सकती है? मुझे नहीं लगता कि ये इतनी आसानी से हो पाएगा. ये एक टेढ़ी खीर है."(bbc)

-सलमान रावी

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