विचार / लेख

मोदी ही अब सत्ता, विपक्ष और मध्यस्थ भी
07-Aug-2020 9:41 AM
मोदी ही अब सत्ता, विपक्ष और मध्यस्थ भी

मधुकर उपाध्याय का नज़रिया

सच्चाई और ज़मीनी माहौल इन दोनों में कितना फ़ासला है, इसे समझने के लिए कालयात्री होने की आवश्यकता नहीं है. कई बार चीज़ें एकदम सामने होती हैं लेकिन हम उसे जानते-समझते और स्वीकार नहीं कर पाते.

जिसने अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर का भूमि पूजन समारोह देखा, उसने यह भी देखा होगा कि भारत बहुत तेज़ रफ़्तार से एक ख़ास दिशा में चल रहा है, जिसे मोड़ना संभव नहीं दिख रहा.

अयोध्या व्यापक जन-मानस के लिए आस्था का केंद्र है, रामलला की जन्मस्थली है, सामूहिक स्मृति का हिस्सा है. इस पर प्रश्न उठाना ख़ुद को कठघरे में खड़ा करना है. पहाड़ से लुढ़कती बड़ी चट्टान के सामने खड़े होने जैसा दुस्साहस है.

जो कुछ बचा-खुचा था, भूमि पूजन ने उसे इतने गहरे गड्ढे में दबा दिया है कि वहाँ से निकलना तक़रीबन असंभव लगता है.

'राम से चार गुना बड़े मोदी'

जहाँ लोग कहते हों कि 'उन्होंने नरेंद्र मोदी को चीज़ों के दाम घटाने या बीमारी रोकने के लिए प्रधानमंत्री नहीं चुना है, उन्हें बड़े काम करने हैं और वे बड़े काम कर रहे हैं', वहाँ भूख, बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे तथाकथित छोटे सवालों का कोई अर्थ नहीं रह गया है.

तालाबंदी के समय सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर गाँव जाने वाले कहते हैं कि 'अकेले मोदी जी क्या-क्या करेंगे? कुछ तो हमें भी करना होगा', तो वो ग़लत नहीं कहते. प्रधानमंत्री उनके लिए 'आस्था के नए प्रतीक' हैं, सवालों से परे हैं.

सार्वजनिक बहसों में नरेंद्र मोदी को 'राष्ट्रपिता' कहने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, 'हर हर मोदी' पर आपत्ति लापता हो गई है, उन्हें 'ईश्वर का अवतार' कहा जाता है, बल्कि एक वर्ग उनको सीधे ईश्वर मानता है. यह ज़मीनी हक़ीक़त आँख मूंदने से ग़ायब नहीं होने वाली.

जिस समय प्रधानमंत्री भूमि पूजन के लिए अयोध्या में थे, इंटरनेट पर एक तस्वीर तैर रही थी. तस्वीर में वे धनुष वाले रामलला का हाथ पकड़े बनने वाले भव्य मंदिर की ओर जा रहे हैं. इसमें राम से चार गुना बड़े मोदी दिखाए गए हैं, लेकिन इसका विरोध ना होना प्रधानमंत्री की विराट छवि की व्यापक स्वीकार्यता को ही दिखाता है.

विपक्ष की भूमिका में मोदी

नरेंद्र मोदी इस समय सत्ता में हैं. वे विपक्ष भी हैं और मध्यस्थता भी उन्हें ही करनी है.

छवि के मामले में वे अपने समकालीनों से मीलों नहीं, दशकों आगे हैं. और ये फ़ासला हर बीतते दिन के साथ बढ़ता दिखाई देता है.

यह पता लगाने का कोई गणितीय आधार उपलब्ध नहीं है कि यह फ़ासला कितने समय में भरेगा? आगे निकलना तो दूर, कितने वक़्त में बराबरी हासिल हो सकती है?

केवल इतना पूछा जा सकता है कि अगर एक व्यक्ति एक दिन में एक टोकरी मिट्टी डालता है, तो एक हज़ार घन मीटर का गड्ढा भरने में कितना समय लगेगा?

प्रधानमंत्री ने अयोध्या में बार-बार 'जय सिया राम' का उद्घोष किया, एक बार भी 'जय श्रीराम' नहीं कहा, तो लोगों ने अतीत को याद करते हुए इसे सहज स्वीकार कर लिया. उन्हें इस पर आपत्ति क्यों होती? सीता मैया उसी तरह उनकी स्मृति का हिस्सा हैं, जैसे राम हैं.

तो फिर भगवान राम की जयकार का यह संबोधन किसके लिए था? निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मंदिर के मुहूर्त या समय के नाम पर की गई सतही आलोचनाओं पर जवाब नहीं दे रहे थे.

वे विपक्ष को संबोधित नहीं कर रहे थे, बल्कि स्वयं विपक्ष की भूमिका में थे. विपक्ष ने बहुत ही दबे-दबे स्वर में जय श्रीराम के उग्र उद्घोष पर एकाध बार सवाल उठाए थे, लेकिन उसे जय सिया राम में मोदी ने ही बदला.

'अब सौम्य राम की वापसी का इशारा'

भारतीय जनता पार्टी के पालमपुर अधिवेशन के बाद से उसका और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी आनुषांगिक संगठनों का नारा 'जय श्रीराम' ही था.

वे 'विनय न मानत जलधि जड़' वाले क्रुद्ध राम का आह्वान कर रहे थे. क्रुद्ध हनुमान की छवि भी इसी सोच का हिस्सा थी.

अयोध्या के लोगों का अभिवादन 'जय सिया राम' से कब 'जय श्रीराम' हो गया उन्हें पता नहीं चला.

इतना ही नहीं, माथे पर रखने और गले में लटकाने वाला 'सियारामी' पटका ग़ायब हो गया. दुकानदार कहने लगे कि कंपनियाँ अब 'सियारामी' नहीं बनातीं, सारे पटके 'जय श्रीराम' वाले ही आते हैं.

प्रधानमंत्री ने 'जय सियाराम' का उद्घोष करके अपने ही समर्थकों और व्यापक जन-मानस से कहा कि अब देश नए तरह के समाज की ओर बढ़ रहा है.

शायद वे यह संदेश देना चाहते थे कि नया समाज पुरुष प्रधान नहीं होगा. उनका संदेश शायद ये था कि नए समाज में स्त्री का स्थान बराबरी का होगा, पुरुष से पहले होगा.

जिस अतुलित बल के प्रतीक पुरूष के तौर पर राम का नाम लिया जाता रहा है, उसकी जगह अब सौम्य राम की वापसी की ओर उनका इशारा रहा होगा.

'भूमि पूजन भारत के लिए सामान्य घटना नहीं'

उन्होंने केवट, शबरी और यहाँ तक गिलहरी की बात करके समाज के हर वर्ग को स्वीकार्य प्रतीक की छवि सामने रखी.

उस विपक्ष की समझ पर सिर क्यों नहीं पीट लेना चाहिए, जिसे इतना बड़ा सामाजिक परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा. इस आशंका में कि इस परिवर्तन को लक्षित करना, संघ और भाजपा के पाले में जाकर खेलना होगा, धर्म की राजनीति करना होगा, उसने अपनी भूमिका भी नरेंद्र मोदी को सौंप दी है.

राजनीतिक रूप से कितने दलों ने कितनी बार अपनी अंदरूनी कलह में मोदी को मध्यस्थता का अवसर दिया है, उसकी गिनती नहीं है.

अयोध्या में प्रधानमंत्री की उपस्थिति और रामलला के समक्ष साष्टांग प्रणाम की छवि स्पष्ट करती है कि उन्होंने स्वयं को सत्ता के छोटे खेल से ऊपर कर लिया है, आलोचनाओं से परे कर लिया है, जबकि शेष सारे खिलाड़ी गाँव गँवाकर हंडिया-डलिया बचा लेने में व्यस्त हैं.

सब जानते हैं कि अयोध्या का भूमि पूजन भारत के लिए सामान्य घटना नहीं है.

इसका प्रभाव दूरगामी होगा. इस बहाव में बचे रहने के लिए धारा के ख़िलाफ़ तैराकी सबसे अच्छा उपाय नहीं है लेकिन कुछ और करने का विकल्प भी नहीं है जो सत्तारूढ़ दल के लिए नया खाद-पानी होगा.

ऐसे में घर बचाने के लिए, ढह रही जर्जर दीवार की लीपा-पोती करने वाले विपक्ष से कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती.(bbc)

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