विचार / लेख

शकुंतला देवी के हवाले से संघर्ष दिखाना
02-Aug-2020 9:34 PM
शकुंतला देवी के हवाले से संघर्ष दिखाना

कनुप्रिया

एक स्त्री महज माँ, बहन, पत्नी, बहू, भाभी ही नहीं होती अगर वो यही बनने के लिए पाली न गई हो, अगर उसकी शिक्षा महज ब्याह की उम्र आने तक किया जाने वाला टाईमपास न हो, उसका अपना व्यक्तित्व, सोच, सपने, महत्वाकांक्षाएँ भी होती हैं जैसे किसी भी आदमी के लिए। माँ बनना जहाँ एक नए इंसान और भविष्य के विश्व नागरिक के सृजन का अवसर होता है वहीं व्यक्ति के रूप में खुद को स्थगित करने का भी। स्त्री का समय, मानसिक शारीरिक और भावनात्मक ऊर्जा बच्चे के पालन-पोषण में लग जाती है, सामाजिक रूप से उससे यही अपेक्षा भी होती है, वहीं बच्चे के समुचित विकास के लिए कहीं न कहीं ये जरूरी भी, स्वयं को ही दूसरे पायदान पर रखना इतना आसान भी नहीं होता अगर आप इसी के लिए प्रशिक्षित न हों।

आजकल कार्यक्षेत्रों में मातृत्व अवकाश, क्रेच आदि की सुविधा की बात होती है, मगर व्यक्तिगत अनुभव से जानती हूँ कि स्त्री अधिकार की बात करने वाली विश्व संस्थाएँ भी ऐसी स्त्री को नया अपॉइंटमेंट नहीं देना पसंद करतीं। को प्रेग्नेंट हों, भले आप इंटरव्यू में सेलेक्ट ही क्यों न हो गए हों क्योंकि ऐसी स्थिति में स्त्री उतना वर्क आउटपुट नही दे पाएगी, इसके अलावा मातृत्व अवकाश का ख़र्च और काम की हानि कोई कम्पनी या संस्था जानबूझकर यह भार उठाना पसंद नहीं करती, ख़ासकर आजकल की गलाकाट प्रतियोगिता में जहाँ ढेरों विकल्प उपलब्ध हैं। करियर ग्रोथ के लिहाज से भी माँ बनना एक भीतरी द्वंद्व का समय होता है।

खुद बच्चे भी माँ से पिता की तुलना में ज़्यादा अपेक्षा करते हैं, पिता का काम, महत्वाकांक्षा उनके लिये सहज स्वीकार्य होती है, वो उनकी व्यस्तता के लिये उन्हें अपेक्षाकृत आसानी से माफ़ कर देते हैं, मगर स्त्रियों के लिये ऐसा नही होता। मुझे याद है कि हम अपनी कामकाजी माँ से कई बार उनके काम से अवकाश लेने की शिकायत करते थे, काफी बड़े होने तक भी, तब वो दुखी होकर हमसे यही पूछती थीं कि यह बात तुम कभी पापा से क्यों नही कहते और तब हमें ये अजीब लगता था कि पापा से यह बात की जाए क्योंकि ऐसी अपेक्षा तो माँ से ही की जा सकती है.

बच्चे होने के बाद कामकाजी स्त्री खुद भी अपने काम को लेकर गिल्ट में रहती है, कई बार यह अपराधबोध परिवार, एक्सटेंटेड फैमिली, दोस्तों परिचितों की तरफ़ से भी मिलता है, कई बार बच्चे ख़ुद यह गिल्ट भी बढ़ा देते हैं. ख़ुद को लगातार दोयम स्थान पर रखने के लिये जो शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक ऊर्जा लगती है, इसके सिवा करियर लॉस, अवसरों की कमी, ख़ुद की प्रतिभा और महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखने से जो निराशा होता है उसे मातृत्व के त्याग, बलिदान और महानता जैसे शब्दों से ढँक भले लिया जाए, मगर उस मानसिक द्वंद्व से स्त्रियाँ लगातार गुजरती हैं जब तक बच्चे कुछ हद तक अपनी सार सम्भाल करने लायक नही हो जाते।

यही द्वंद्व एक विलक्षण प्रतिभा की धनी और अत्यंत सफल स्त्री में किस हद तक हो सकता है  ‘शकुंतला देवी’ में यह दिखाया गया है. फिल्म शकुंतला देवी की बेटी की नजर से कही गई है जो अपनी माँ के विराट व्यक्तित्व की छाया से निकलने के लिए लगातार कोशिश करती नजर आती है, उसके लिए माँ उसके प्रति एक अपराधी है जिसने उसे अपने पिता से दूर रखा और एक साधारण बचपन नहीं जीने दिया।

वह अपनी माँ को एक स्त्री की तरह नही देखती जिसकी प्रतिभा निर्विवाद है, जो लगातार एक गणितज्ञ, एक लेखक के तौर पर खुद की ग्रोथ के लिये काम करती रहती है और अत्यंत सफल है बल्कि ऐसी माँ की तरह देखती है जो उसके प्रति पजेसिव है और सब कुछ करने के प्रयासों के बाद भी अपनी संतान के लिए सही साबित नहीं हो पाती। फिल्म में एक डायलॉग माँ के अच्छी माँ न बन पाने से जुड़े गिल्ट पर है, हर माँ एक बुरी माँ ही होती है, वो बहुत प्यार करे बच्चों को तब भी बच्चों को खराब कर सकती है, कम करे तब भी।

अंत मे उनकी नाराज बेटी उन्हें तब समझ पाती है जब वो खुद माँ बनती है और शकुंतला देवी भी तब अपनी बेटी को समझ पाती हैं जब वो खुद पूरी उम्र अपनी माँ से नाराज रहने के बाद माँ को माफ कर देती हैं। इस फिल्म को अगर शकुंतला देवी की बायोपिक के तौर पर देखेंगे तो थोड़ी निराशा हो सकती है क्योंकि विद्या बालन एक आजाद खय़ाल, घोर आत्मविश्वासी, किसी से न डरने वाली, प्रतिभाशाली और सफल स्त्री को तो उकेरने में कामयाब रही हैं मगर वो शकुंतला देवी नही लगतीं, उन्होंने इसे कई जगह ओवरप्ले किया है, शकुंतला देवी के वीडियो देखेंगे तो यह फर्क साफ नजर आता है।

एक बायोपिक के तौर पर फिल्म और बेहतर बन सकती थी, मगर शकुंतला देवी के हवाले से एक सफल कामकाजी स्त्री और उसके माँ होने के बीच के संघर्ष को दिखाने में कामयाब रही है।

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