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जान बचाएं या स्कूल-कॉलेज खोल दें
31-Jul-2020 8:24 AM
जान बचाएं या स्कूल-कॉलेज  खोल दें

-चैतन्य नागर

कुछ महीने पहले तक हमारी बहस का मुद्दा यह था कि हमारी शिक्षा प्रणाली में क्या खामियां हैं और वे कैसे दूर होंगी| महामारी ने हमें इस हालत में पहुंचा दिया है कि अब हमें यह भी नहीं मालूम कि शिक्षा के नाम पर जो कुछ हमारे पास है, उसका भी भविष्य क्या होगा | कोरोना वायरस से फैली बीमारी और उसके भय ने शिक्षा की दुनिया को महासंकट में डाल दिया है| देश में करीब 32 करोड़ छात्र और छात्राएं इस समय अपनी पढ़ाई-लिखाई को लेकर पशोपेश में हैं| यह संख्या अमेरिका की पूरी आबादी से थोड़ी ही कम है! इसके अलावा पूरी दुनिया में तो 193 देशों में 157 करोड़ बच्चों को लेकर असमंजस बना हुआ है| उनके स्कूल कब खुलेंगे, और खुलेंगें भी तो कैसे| एक वैश्विक महामारी के साए में अब  किस तरीके से उन्हें पढ़ाया जाएगा? ये सवाल नेताओं, शिक्षाविदों, नीति निर्धारकों, शिक्षकों और छात्रों को लगातार परेशान कर रहे हैं|

शिक्षा के सम्बन्ध में फिलहाल कोई भी फैसला सही नहीं लग रहा रहा| हर जवाब के साथ कई सवाल, हर समाधान के साथ अगिनत समस्याएं भी सामने आ रही हैं| स्कूल और कॉलेज फिर से खोलने या न खोलने का फैसला संभवतः अब वायरस के गम्भीर वैज्ञानिक अध्ययन से आने वाले परिणामों पर ही निर्भर करेगा| आने वाले समय में वायरस की  हरकतें कैसी होगी, क्या उसे किसी टीके की खोज के बाद काबू में कर लिया जाएगा, क्या ये टीके इस स्तर पर लोगों को उपलब्ध होंगें  कि देश भर के स्कूल जाने वाले बच्चों, उनके सम्पर्क में आने वाले शिक्षकों और अन्य स्कूल कर्मियों को ये लगाये जा सकें और उन्हें सुरक्षित घोषित किया जा सके?  

इस बात का फिलहाल अंदाजा नहीं कि स्कूल खुलेंगे कब| मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ने थोड़े दिन पहले कहा कि स्कूल 15 अगस्त के बाद ही शायद खुल पायेंगें| केंद्र सरकार सभी राज्य सरकारों के साथ विचार विमर्श करने के बाद ही स्कूलों को खोलने का फैसला कर सकेगी| गौरतलब है कि इस सम्बन्ध में अंतिम फैसला राज्य सरकारों को ही लेना होगा| देश में कई अभिभावक संघों का मानना है कि वर्ष 2020-21 को ‘शून्य शैक्षणिक वर्ष’ घोषित कर दिया जाना चाहिए| मौजूदा हालात को देखते हुए यह बात काफी तर्कसंगत भी लगती है| रोज़-रोज़ नए फैसले करने और छात्रों को भ्रमित करने से बेहतर है कि इस बारे में एक बार स्पष्ट फैसला किया जाए| किसी भी वैज्ञानिक और बड़े चिकित्सक ने स्पष्ट तौर पर अभी तक यह नहीं कहा है कि ये महामारी कब इस हद तक नियंत्रित हो जायेगी कि छोटे बच्चों को लेकर कोई फैसला किया जा सकेगा| कई जगहों पर अभिभावकों ने कहा है कि जब उनके जिले में पिछले 21 दिनों में संक्रमण का एक भी मामला नहीं आएगा, तभी वे बच्चों को स्कूल वापस भेजने पर विचार करेंगें| कइयों ने कहा कि पूरे राज्य और देश में भी तीन हफ्ते तक एक भी मामला न आने पर वे बच्चों को स्कूल भेजेंगें| बड़ी संख्या में अभिभावकों ने साफ़-साफ कहा है कि जब तक टीका नहीं आएगा, और सभी को नहीं लगा दिया जाएगा, वे बच्चों को स्कूल नहीं भेजने वाले| शिक्षा में बच्चों के साथ अभिभावकों की भी समान हिस्सेदारी है| उनकी सहमति के बगैर न ही सरकार स्कूल खोल सकती है और न ही शिक्षा बोर्ड इस मामले में कोई निर्देशावाली जारी कर सकेंगें| इजराइल का उदाहरण सामने है| वहां स्कूल खुलने के दो हफ्तों बाद महामारी ने फिर से हमला किया और एक ही स्कूल में 130 संक्रमित मामले सामने आये| सरकार ने फिर स्कूल बंद किये, और नए निर्देशों के अनुसार जैसे ही किसी स्कूल में कोविड-19 संक्रमण का एक भी मामला आएगा, उसे बंद कर दिया जाएगा| स्कूलों को खोलने के फैसले के तुरंत बाद इजराइल में करीब 6800 छात्रों और शिक्षकों को क्वारंटाइन किया गया| चीन के शंघाई में बच्चों को स्कूल आने के समय और उसके बाद भी बार-बार थर्मल स्कैनर से जांच करवानी पड़ी है और पूरे स्कूल में जगह जगह पोस्टरों के माध्यम से बच्चों को संक्रमण से बचने के तरीके बताये गए हैं| स्कूल के डाइनिंग हॉल में हर बच्चे के पास एक स्क्रीन लगाई गयी जिससे वह बिलकुल भी दूसरे बच्चे के संपर्क में न आ पाए| हमारे देश के स्कूलों में इतनी जगह कहाँ कि इस तरह के नियमों का पालन हो सकेगा| एक कक्षा में कम से कम सत्तर बच्चे बैठते हैं, वहां कैसे शारीरिक दूरी  के नियमों का पालन होगा? बहुत महंगे रिहायशी स्कूलों में भी इतनी जगह कहाँ है कि बच्चों को डाइनिंग हॉल में भोजन के समय दो या तीन मीटर की दूरी पर बैठाया जाए|  

जीवन का प्रश्न शिक्षा से ज्यादा बड़ा प्रश्न है| जान है तो पढ़ाई-लिखाई है| सरकार को माता पिता,शिक्षकों और समूचे स्कूल समुदाय को पहले आश्वस्त करना होगा कि बच्चों, शिक्षकों और संस्थान में काम करने वाले बाकी लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं होगा| क्या स्कूल से संक्रमण फ़ैल सकता है, क्या वहां सफाई के लिए पर्याप्त व्यवस्था है? वहां काम करने वाले बाहर से भी आयेंगें, उनकी साफ़ सफाई और स्वच्छता पर कैसे निगरानी रखे जाएगी? क्लास रूम के आकार को कैसे बदला जायेगा, जिससे वहां सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को माना जा सके? स्कूल को किस तरह की मानसिक और मनोवैज्ञानिक सहायता की जरूरत पड़ेगी और वह कैसे मुहैया करवाई जायेगी? हर देश में, और देश के भी हरेक राज्य में स्थितियां अलग-अलग हैं और उनको ध्यान में रखते हुए इन सवालों का जवाब ढूंढना होगा, तभी स्कूल-कॉलेज खोलने पर समेकित ढंग से विचार किया जा सकता है| यह एक ऐसा मामला है जिसमे स्वास्थ्य मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय को बहुत गहरा सामंजस्य और तालमेल बनाकर काम करना होगा, नहीं तो भविष्य में स्थितियां और भी ज्यादा बिगड़ने की संभावना है|

स्कूलों को भी इस बात पर विचार करना होगा कि क्या वे बदली हुई परिस्थितियों का सही तरीके से प्रबंधन करने के लिए प्रस्तुत हैं| क्या उसके पास पर्याप्त कर्मी हैं, इतने शिक्षक हैं कि वह इन तमाम शर्तों को पूरा करते हुए शिक्षा संस्थान खोल पायेंगें? यदि स्कूलों को दो शिफ्ट में चलाना पड़ा, तो क्या प्रबंधन और शिक्षक इस स्थिति के लिए तैयार होंगें?  क्या सरकार को बड़े पैमाने पर अब होम स्कूलिंग, या घर से बच्चों को पढ़ाने को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए, जिससे कि बच्चे घरों में पढ़ सकें, और स्कूल के जरिये अपना पंजीकरण करवा कर इम्तहान दे सकें? इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए| मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए यह एक विचारणीय विकल्प होगा, पर यह सभी वर्ग के बच्चों पर लागू नहीं किया जा सकता|  

अब जब स्कूल खुलेंगें तो उनका खुलने और बंद होने का समय भी बदलना पड़ सकता है| साथ ही रोज़ की समय-सारणी में भी बड़ा बदलाव लाना पड़ सकता है| स्कूल बसों से आने-जाने वाले बच्चों के लिए एक और सवाल सामने खड़ा हो जाएगा, और वह यह कि स्कूल क्षमता से आधे बच्चों को लेकर बसें कैसे चलाएगा| इस तरह की व्यवस्था से उसका खर्च बढ़ेगाऔर वह इस खर्च को अभिभावकों से फीस के रूप में वसूलने की कोशिश करेगा| अभिभावक फीस बढ़ाये जाने का विरोध करेंगें, क्योंकि उन्हें लगेगा कि किसी अजीबोगरीब आपदा के लिए उन्हें सज़ा दी जा रही है| इस तरह दोनों असहाय पक्षों के बीच अनावश्यक मनोमालिन्य बढेगा| बच्चों को किताब-कापियों और पानी की बोतलों के साथ सैनिटाइज़र और फेस मास्क भी सम्भालने पड़ेंगें| स्कूलों में शौचालयों की सफाई का विशेष ध्यान देना पड़ेगा और लगातार उनकी निगरानी करनी पड़ेगी| ये सारी बातें इतनी जरुरी है कि इनकी कल्पना से ही मन परेशान हो रहा है| स्कूल पढ़ाई-लिखाई की जगह कम और अस्पताल जैसे ज्यादा दिखेंगें| यह कितना भयावह है!

हाल ही में भारतीय जन स्वास्थ्य फाउंडेशन के अध्यक्ष के श्रीनाथ रेड्डी ने बताया कि अब यह समझ आ रहा है कि बच्चों में भी संक्रमण फैलने के खतरे बहुत अधिक हैं| उनके जल्दी ठीक होने की संभावना भी अधिक है, पर वे दूसरों में यह संक्रमण फैला सकते हैं| ख़ास कर स्कूलों में वे वयस्क शिक्षकों और अन्य कर्मियों के लिए खतरा बन सकते हैं| घर जाकर वे अपने परिवार वालों के लिए भी संक्रमण का स्रोत बन सकते हैं| यह खतरा इसलिए भी बड़ा है क्योंकि बच्चे शारीरिक दूरी के नियमों का पालन उतनी गंभीरता के साथ नहीं कर पाते| इस अनिश्चित स्थिति से निपटने के लिए सी बी एस ई ने पाठ्यक्रम को हल्का करने का निर्णय लिया पर जिन अध्यायों को हटाने के लिए उसने सिफारिश की वे लोकतान्त्रिक अधिकारों, संघीय ढाँचे, और धर्म निरपेक्षता से सम्बंधित थे| इसे लेकर एक राजनीतिक विवाद खड़ा हो रहा है| पाठ्यक्रम को हल्का करने के नाम पर ग़ालिब, अमीरखुसरो और टैगोर को भी किताबों से हटाने की चर्चा हुई है, और यह निर्णय भी आगे चल कर एक नया बवाल पैदा करेगा, इसकी पूरी आशंका है| इस तरह के फैसले शिक्षा विदों को लेने चाहिए, न कि सरकारी अफसरों को| और ये शिक्षाविद किसी ख़ास पार्टी से जुड़े नहीं होने चाहिए| तमाम उलझनें बनी हुईं हैं; प्रश्न आक्रामक मुद्रा में हैं, झेंपते हुए  उत्तर बगलें झांक रहे हैं|          

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