संपादकीय
फेसबुक दुनिया का सबसे कामयाब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है, और सच तो यह है कि सोशल मीडिया शब्द कहते ही पहला ख्याल फेसबुक का ही आता है। इस शब्द के इतिहास पर जाएं तो शायद सबसे असरदार फेसबुक ही दिखाई पड़ता है, और यह इतिहास वर्तमान बन चुका है, और बहुत से लोगों को इसका खासा लंबा भविष्य दिखता है। लेकिन अपनी तमाम शोहरत के बावजूद फेसबुक पर ये तोहमतें हमेशा लगती रहीं कि वह अपने इस्तेमाल करने वालों की निजी जानकारियों को बाजार की कंपनियों को विश्लेषण के लिए बेचता है, और अमरीका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में उस पर ये आरोप भी लगे कि उसने चुनाव को प्रभावित करने वाली दुर्भावना की पोस्ट, विज्ञापन, इनको मालूम होते हुए भी नहीं रोका। बात बढ़ते-बढ़ते यहां तक आ गई कि अभी अमरीका की कई कंपनियों ने फेसबुक की लोकप्रियता के बावजूद उस पर इश्तहार देना बंद कर दिया, और इसकी खुली घोषणा भी कर दी। उनका मानना है कि फेसबुक पर गलत जानकारियां पोस्ट होती हैं, लोकतांत्रिक चुनावों को प्रभावित करने का काम होता है, और फेसबुक इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करता। इस बहिष्कार से फेसबुक से 7.2 बिलियन डॉलर के इश्तहार हट गए, जिससे इस कंपनी के शेयर का दाम 8.3 फीसदी गिर गया। एक कंपनी, यूनीलीवर, ने यह भी कहा कि वह इस साल के अंत तक फेसबुक के दूसरे कारोबारों से भी अपने विज्ञापन बंद कर देगी। शेयर बाजार में रेट टूटने से फेसबुक की मार्केट वेल्यू 56 बिलियन डॉलर हट गई, और इसके मालिक मार्क जुकरबर्ग की निजी संपत्ति 82.3 बिलियन डॉलर घट गई।
इस तरह का कारोबारी नुकसान पहले कभी देखा-सुना नहीं है, क्योंकि सोशल मीडिया पर कुछ और कंपनियां भी हैं, और अमरीका में मीडिया कारोबार में भी बहुत सी कंपनियां हैं जिन पर पूर्वाग्रह का आरोप लगता है। लेकिन ऐसा बहिष्कार पहले किसी का याद नहीं पड़ता। दरअसल पिछले राष्ट्रपति चुनाव को लेकर अमरीका ने यह महसूस किया कि ट्रंप की जीत के पीछे रूस की मदद से लेकर फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म के अनैतिक इस्तेमाल सबका बड़ा हाथ रहा। अमरीकी कंपनियां दुनिया के बाहर चाहे जैसी हों, देश के भीतर उन्होंने कम से कम इस बार एक अलग तरह की जागरूकता दिखाई है, और जिससे शिकायत है उसके पेट पर लात मारी है। अब अमरीका के इस घरेलू मुद्दे को लेकर आज हमें इस जगह पर क्यों लिखना चाहिए? शायद इसलिए कि हिन्दुस्तान की कंपनियों और यहां के कारोबार का इस बात से कोई लेना-देना नहीं रहा कि कौन सा मीडिया, कौन सा सोशल मीडिया किस तरह के सरोकार वाला है, या बिना सरोकार का है। व्यापार की दिलचस्पी अखबारों की प्रसार संख्या, टीवी चैनलों की टीआरपी, और वेबसाईटों की हिट्स पर रही। किसी मीडिया को महत्वपूर्ण मानने का एकमात्र पैमाना अंकगणित रहा, और अंकों का खुद का भला क्या सरोकार हो सकता है? अंक तो लोगों के हाथ के खिलौने होते हैं जिन्हें इस्तेमाल करने वाले अपने हिसाब से अच्छे या बुरे काम में काम लाते हैं। मदर टेरेसा की संस्था भी शून्य से 9 तक के अंकों से अपने खातेबही चलाती है, और किसी समाजसेवी संस्था को दान देने वाले दुनिया के बहुत से माफिया भी इन्हीं 10 अंकों से अपना हिसाब रखते हैं। हिन्दुस्तान में विज्ञापन देने के लिए कारोबारी और विज्ञापनदाता जिन अंकों के फैसले मानते हैं, उन अंकों को हासिल करने के लिए तरह-तरह के अनैतिक काम किए जाते हैं। हिट्स बढ़ाने के लिए वेबसाईटें जिस तरह के अश्लील फोटो और वीडियो पोस्ट करती हैं, और उनकी वजह से पोर्नोग्राफी के जिस तरह के इश्तहार भी उन पर आते हैं, उनसे हिन्दुस्तान के बाजार तो बाजार, यहां की सरकारों के इश्तहारों के फैसले भी प्रभावित नहीं होते। अंकों की स्केल पर नापना आसान होता है, उत्कृष्टता, सरोकार, और नीयत की स्केल पर नापना बड़ा मुश्किल होता है।
आज अमरीका की कई कंपनियों ने जो जागरूकता दिखाई है, और अपने कारोबारी हितों से परे जाकर सामाजिक सरोकार के लिए, लोकतंत्र को नाजायज असर से बचाने के लिए जो फैसला लिया है, उसके बारे में दूसरे देशों के जिम्मेदार और समझदार कारोबारियों को भी सोचना चाहिए। चोली के पीछे क्या है, ऐसी तस्वीरों और ऐसे वीडियो पर हजार गुना अधिक हिट्स मिलते हैं, बजाय भूखे-सूखे पेट के पीछे वजह क्या है, के मुकाबले। हिन्दुस्तान का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी आत्मा को बेच देने के लिए तोहमतें झेल-झेलकर अब जायज ही बदनाम होते दिख रहा है। दूसरी तरफ बाजार से अधिक सरकार और राजनीतिक दल सभी किस्म के मीडिया को जेब में रखते दिख रहे हैं। जब बाजार अच्छे और बुरे में कोई फर्क नहीं करेगा, और मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक लोग अपने अस्तित्व के लिए सरकार के मोहताज रहेंगे, तो ऐसी ही नौबत आएगी। हिन्दुस्तान के उद्योग-व्यापार के जवाबदार लोगों को सोचना चाहिए कि उनका कारोबारी सहयोग लोकतंत्र को बचाने वाले मीडिया को होना चाहिए, या लोकतंत्र को मिटाने के लिए अपनी आत्मा बेच चुके मीडिया को? अगर महज आंकड़े ही लोगों की समझ हैं, तो फिर हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराए गए बम बनाने वाले वैज्ञानिकों ने भी तो सिर्फ आंकड़ों की समझ से बम बनाया था, उसके गिरने से इंसानों की होने वाली तबाही को नापना उतना आसान नहीं था। लोग महज बम गिराकर तबाही नहीं लाते, लोग लोकतंत्र में किसी जिम्मेदार सरोकार को अनदेखा करके भी तबाही ला सकते हैं। कारोबार में समझ है, या महज केलकुलेटर, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है, और अमरीकी कारोबारियों ने दुनिया के सामने एक मिसाल रखी है जिस पर चर्चा होनी चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)