विचार / लेख

विनोद कुमार शुक्ल के लिखने की नहीं, कुछ पाठकों के नजरिए की दिक्कत..
26-Mar-2025 6:23 PM
विनोद कुमार शुक्ल के लिखने की नहीं,  कुछ पाठकों के नजरिए की दिक्कत..

-जय सुशील

लिखने या लेखक होने का अर्थ सिर्फ झंडा लेकर खड़ा होना नहीं होता। जिन लोगों को ये लग रहा है कि विनोद कुमार शुक्ल ने अन्याय, शोषण आदि आदि आदि (जो उनके कथित मुद्दे हैं) उन पर नहीं लिखा, उनके लिए ज़रूरी है कि वे दोबारा विनोद कुमार शुक्ल को ठीक से पढ़ें.

अगर उन्हें विनोद जी के उपन्यासों में कविताओं में आम आदमी का जीवन नहीं दिखता है तो यह उनकी समस्या है विनोद जी की नहीं. नौकर की कमीज में अगर आपको पूंजीवाद से पीडि़त एक ऐसा व्यक्ति नहीं दिखता तो जो नौकरी की कमीज उतार कर अपना जीवन जीने की कोशिश करता है या फिर दीवाल में खिडक़ी रहती है में आपको यह नहीं दिखता कि वह करोड़ों भारतीयों का जीवन है (बिना किसी महागाथा के जैसा कि अंग्रेजी के उपन्यासों में होता है) तो फिर दिक्कत आपके पढऩे में है। लिखने वाले में नहीं।

असल में समस्या कुछ और है. दिक्कत हिंदी की है जिसके सबसे महान लेखक प्रेमचंद को लोगों ने गरीब गुरबों शोषितों का लेखक बनाकर एक लकीर खींच दी है कि हिंदी में लेखक वही होगा जो गरीबों के हक के लिए लड़ेगा लिखेगा। साहित्य की यह उथली समझ है। इसका कुछ नहीं किया जा सकता है।

साहित्य क्या है। हम रचते क्यों हैं। यह मूल प्रश्न है। लिखने वाला ज़रूरी नहीं कि झंडे और डंडे के ज़रिए ही अपनी समझ को रेखांकित करे। अफ्रीकी लेखक न्गूगी वा थियोंगो और चिनुआ अचेबे के उदाहरण से समझिए। न्गूगी रैडिकल लेखक हुए। वह अचेबे की भी आलोचना करते थे। न्गूगी के लेखन में आपको विरोध ही विरोध मिलेगा।

अचेबे कालजयी लेखक हुए। उनका लेखन मुलायम है। थिंग्स फॉल अपार्ट में वह अंग्रेज़ों का नाम लिए बिना पूरी किताब लिख देते हैं जिसे अंग्रेजी साम्राज्य के दुष्प्रभाव की कटुतम आलोचनाओं में गिना जाता है। इससे कोई छोटा बड़ा नहीं हो गया। दोनों बड़े लेखक हुए।

साहित्य क्या है। हम रचते क्यों हैं। हमारे रचे में क्या होता है। यह सब निर्भर करता है कि लेखक किस ज़मीन पर खड़ा है। दिल्ली का लेखक ज़रूरी नहीं वो लिखे जो छत्तीसगढ़ का लेखक लिखता है। कानपुर के लेखक की जमीन और कोलकाता के लेखक की ज़मीन और दुनिया की समझ अलग-अलग होगी। हर किसी को इस डंडे से क्यों हांकना कि मोदी के ख़िलाफ क्यों नहीं लिखा क्योंकि मैं तो मोदी के खिलाफ हूं तो आपको भी होना चाहिए।

एक सस्ते इतिहासकार ने दो तीन साल पहले ऐसे ही मूर्खतापूर्ण बात कही थी विनोद जी के बारे में। जबकि वह खुद विनोद जी के साथ फोटो खिंचवा कर फेसबुक पर लगा चुके थे।

साहित्य क्या है इस पर शम्सुर्रहमान फारूकी जी का एक लेक्चर है जो सुना जाना चाहिए। जिसका लब्बोलुआब यह है कि लिटरेचर होता क्यों है रचा क्यों जाता है। जब पूंजीवाद नहीं था तब भी लिटरेचर लिखा जा रहा था। जब लोग कंदराओं गुफाओं में रह रहे थे तब भी कविताएं बोली सुनी जा रही थीं। तब गरीब गुरबा शोषित कौन था? जानवर या इंसान।

राजाओं के तारीफ़ में लिखे हज़ारों पन्ने हैं साहित्य में। जिन्हें महान साहित्य माना ही जाता है। कालिदास ने तो मेघदूत और शाकुंतलम लिखा। वह किसी के विरोध में नहीं थे तो उन्हें कूड़ा कवि मान लेने में एतराज़ नहीं होना चाहिए? दुनिया कार्ल माक्र्स या स्टेट सिस्टम के आने के बाद से ही शुरू नहीं हुई है। उससे पहले भी दुनिया थी। राजा-महाराजाओं से पहले भी यह कायनात थी लोग थे, कविताएं थीं, कहानियां थीं।

इसलिए साहित्य की इस उथली समझ से बाहर निकलना चाहिए और देखना चाहिए कि लिखने वाला जो लिख रहा है उससे आपके अंदर कुछ नया कंपित हो रहा है या नहीं।

एक और बात कि गरीबों के लिए आवाज़ उठाने का मतलब बयान देना, टीवी पर चिल्लाना, फेसबुक पर पोस्ट लिखना और झंडा उठाना ही नहीं होता है। कला की दुनिया इन पैमानों पर नहीं चलती है। उसके पैमाने अलग हैं। पिकासो ने शांति का प्रतीक कबूतर डिजाइन किया था कितने लोगों को उनकी वह पेंटिंग याद है? उन्हें क्यूबिज्?म के लिए याद किया जाता है और आर्ट में अनोखा करने के लिए. इसी तरह लेखक भी होते हैं। ज़रूरी नहीं कि हर लेखक गरीब गरीब कर के ही साहित्य लिखे।

काफ्का की कहानियों में पूंजीवाद का विरोध है या नहीं यह मैं आपके पाठ पर छोड़ता हूं. मेटामॉरफोसिस अगर पूंजीवाद की मशीन में फंसे एक क्लर्क की कहानी नहीं है (हालांकि कहानी में पूंजीवाद का जिक्र कहीं नहीं आएगा) तो और क्या है।

दिक्कत ये है कि हम सब हर चीज़ को अपने चश्मे से देखते हैं। चश्मा बदलिए। ठीक से देखिए. उसके लिए ठीक से पढऩा होगा। कुछ लोगों ने विनोद जी की आदिवासी पर लिखी कविता लगाई। यह लिटरल चीज़ है। साहित्य हमेशा लिटरल नहीं होता है। उसकी अपनी गहराई होती है। विनोद जी के लिखे में प्रकृति है, जानवर हैं, आम लोग हैं। जो हमारे चारों तरफ है। विष्णु खरे ने उनके बारे में कितना अच्छा लिखा है कि बिना किसी महागाथा के वह भारतीयों की दुनिया बुनते हैं एक ऐसी भाषा में जो अपनी सी लगती है। सरल भाषा में कितनी गहरी बात कही जा सकती है यह विनोद जी के लेखन से सीखा ही जा सकता है। उनके जीते जी उनकी कॉपी कर के लोग अच्छे लेखक माने जा रहे हैं।

ऐसी आलोचनाएं कि फलां ने गरीबों के लिए क्या क्या फलां ने फलां के लिए क्या कहा, किसी भी अच्छे साहित्यकार की, किसी भी अच्छे कलाकार की छिछली आलोचना है। इससे बचना चाहिए। खुश होइए कि दिल्ली से दूर बैठे एक लेखक को इज्जत मिली है। वर्ना तो सब अवार्डों पर दिल्ली वालों का आधिपत्य रहता है.

खैर....क्या ही कहें......

चार फूल हैं और दुनिया है की तर्ज पर.....

सुंदर दुनिया में चार मूर्ख भी हैं......

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