-डॉ.परिवेश मिश्रा
गोसाईं अपनी उत्पत्ति शंकराचार्य से मानते हैं जिन्होंने आठवीं और दसवीं शताब्दी के बीच के काल में शिव आराधना पद्धति को पुनर्जीवित किया था। शंकराचाdर्य के चार प्रमुख शिष्य थे जिनके माध्यम से गोसाईंयों के दस धार्मिक समूहों (या परिवारों) की उत्पत्ति हुई। इस तरह गोसाईं दस वर्गों में विभक्त हुए। सभी को एक अलग नाम दिया गया। शायद इन नामों का महत्व उस स्थान को दर्शाने के लिये था जहां इन समूहों के साधुओं और संन्यासियों से साधना की अपेक्षा थी। पहाड़ी के शिखर के नाम पर ‘गिरी’, शहर के नाम पर ‘पुरी’, और इसी तरह सागर, परबत, बन या वन, तीर्थ, भारती, सरस्वती, अरण्य (वन), और आश्रम नाम अस्तित्व में आए। आमतौर पर इन्हीं दस शब्दों का इस्तेमाल नाम के आगे ‘सरनेम’ के रूप में होने लगा। (हालाँकि वर्तमान काल में कई कारणों के चलते गोस्वामी शब्द भी सरनेम में जोड़ा जा रहा है)।
इन सब को अलग-अलग मठों/पीठों/मुख्यालयों के साथ संबद्ध किया गया। जैसे सरस्वती, भारती और पुरी को श्रृंगेरी (कर्नाटक) के साथ, तीर्थ और आश्रम को द्वारका, बन तथा अरण्य को पुरी, तथा गिरी, परबत, और सागर को बद्रीनाथ पीठ के साथ संबद्ध किया गया।
छत्तीसगढ़ में इनमें से तीन-गिरी, पुरी और भारती की संख्या सबसे अधिक है। सारंगढ़ के पास कोतरी गाँव के स्व. टेकचंद गिरी अपने इस समाज के स्वाभाविक, सर्वमान्य, लोकप्रिय और सक्रिय नेता थे। उनका निधन कुछ वर्ष पूर्व हुआ। हाल ही में टेकचंद गिरी जी की पत्नी, डमरूधर गिरी की भाभी, और गोपाल, केशव और कन्हैया की माँ श्रीमती आनन्द कुँवर गोस्वामी ने शरीर त्याग किया।
समाज की परम्परा के अनुसार उन्होंने समाधि ली। माना जाता है कि ‘मृत्यु’ के बाद शरीर/व्यक्ति/ आत्मा का शिव में विलय हो जाता है। समाधि के स्थान पर परम्परानुसार शिवलिंग की स्थापना की गई है।
कल चंदनपान (पगड़ी) और तेरहवीं का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। उससे एक दिन पूर्व चूल (चूल्हा) और ‘ताई’ (कड़ाही जैसा चौड़ा बर्तन) की पूजा पूरे विधि विधान से सम्पन्न की गयी। चूल और ताई के शुद्धिकरण के बाद मालपुए बनाए गये। एक समय था जब इसमें उपयोग होने वाले गेहूं को दूर दूर से आने वाले रिश्तेदार और समाज के सदस्य साथ लाया करते थे। अब इस प्रथा को व्यावहारिक बना दिया गया है। गेहूं को छू लेना पर्याप्त मान लिया जाता है। मालपुओं से मठों और मंदिरों में भोग लगाया जाता है। अगले दिन, अर्थात् तेरहवीं के भोज के अवसर पर मालपुआ प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।
छत्तीसगढ़ में लगभग दो या तीन पीढ़ी पहले तक इस समाज के अधिकांश पुरुष मंदिरों में पूजा-पाठ और प्रबंधन का कार्य करते थे। साथ में कृषि भी सम्मानजनक पैमाने पर की। समय के साथ परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ी और ये सरकारी तथा अन्य नौकरियों और व्यवसायों की ओर उन्मुख हुए।
परम्परा के अनुसार जब एक सामान्य हिंदू इनसे भेंट करता है तो अभिनन्दन के रूप में ‘नमो-नारायण’ कहता है। गोसाईं की ओर से जवाब में कहा जाता है ‘नारायण’। शिव के भक्त अभिनन्दन करते समय विष्णु को याद करें यह थोड़ा विस्मय पैदा करता है, पर ऐसा ही है। वहीं दूसरी तरफ़ पूर्व में कुम्भ के अवसरों पर यही बात शिवभक्त गोसाईंयों और विष्णुभक्त बैरागियों के बीच अनेक बार विवाद का विषय बन चुकी है। विवाद का एक आम कारण यह प्रश्न रहा है कि गंगा में पहले स्नान का अधिकार किसका है।
गोसाईं कहते हैं कि गंगा की उत्पत्ति शिव की जटाओं से हुई है, और बैरागी कहते हैं कि गंगा का स्रोत विष्णु के चरण हैं। दोनों के दावे मजबूत रहे। (संतोष की बात यह है कि हरिद्वार और प्रयाग में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी तक होने वाले खूनी संघर्षों का सिलसिला समय के साथ समाप्त होता गया।)
अंत में एक रोचक तथ्य-ऐतिहासिक रूप से गोसाईंयों ने अपने-आपको सिफऱ् धार्मिक परम्पराओं में बाँधकर नहीं रखा। एक समय वे सैनिक के रूप में भी जाने गए। इन सैनिक साधुओं में संभवत: सबसे मशहूर हैं जयपुर राज्य की सेनाओं की ओर से लडऩे वाले नागा गोसाईं। उनकी परंपरा के अनुसार उनके गुरु का आदेश था कि जब भी आवश्यकता पड़े वे जयपुर के राजा की ओर से युद्ध में भाग लें। इसके एवज में राज्य की ओर से उन्हें शुल्क-मुक्त भूमि के साथ-साथ दो पैसे प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान भी किया जाता था। इन पैसों को सामूहिक रूप से सुरक्षित रखा जाता था और इस का उपयोग समय पडऩे पर अस्त्र-शस्त्र खरीदने के लिए किया जाता था।
वर्तमान में कोतरी के शालीन और लोकप्रिय गिरी परिवार की तरह अधिकांश गोसाईं गृहस्थ हैं।