-मुहम्मद हनीफ
बलूचिस्तान में एक ट्रेन का अपहरण हुआ, अभी मृतकों की गिनती पूरी नहीं हुई थी, शव अभी घरों तक नहीं पहुंचे थे। जिन लोगों के सदस्य उस ट्रेन में थे।
वे अभी दुआऐं कर रहे थे, फ़ोन कर रहे थे। और शोर मच गया। कि हे पंजाबियों, तुम्हारे मजदूर भाइयों को बलूच विद्रोहियों ने मार डाला है। आप आलोचना क्यों नहीं करते? कहां है आपकी पंजाबी गैरत? गालियाँ क्यों नहीं देते इन बलूचों को? और नारे क्यों नहीं लगाते अपने फौजी भाइयों के लिए?
और सबसे पहले संवेदना व्यक्त करनी चाहिए।
जिनकी जानें गयी हैं उनके लिए दुआ और जो खुद बच गए हैं लेकिन अपने शरीर के कुछ हिस्से खो चुके हैं, उनके लिए धैर्य की प्रार्थना।
सरकार कहती है कि ‘अब हम किसी को नहीं छोड़ेंगे, उनके लिए भी प्रार्थना।’
हकूमत का कहती है कि हमने बख़्तरबंद गाडिय़ां (एपीसी) बुलानी हैं। तो एपीसी के लिए भी दुआ है।
अब, हमें कोई इतना बता दे कि बलूच विद्रोही जो बसें रोकते हैं, ट्रेनें हाईजैक करते हैं और पहचान पत्र चेक करके हमारे लोगों को मारते हैं, यह आए कहां से हैं?
ये आक्रमणकारी बलूच आए कहाँ से हैं?
सरकार के पास सीधा सा जवाब है । वह कहती हैं कि ये भारत के, अफगानिस्तान के और न जाने किन-किन देशों के एजेंट हैं।
भारत की बात तो समझ आती है कि वह हमारा पुराना दुश्मन है और वह करेगा ही ।
अफग़ानिस्तान तो हमारा मुस्लिम भाई था। हमने कितने युद्ध उनके साथ मिलकर लड़े हैं और जीते भी हैं।
और उन्होंने अब बलूचिस्तान में हमारे साथ ऐसा क्यों किया। बलूचिस्तान में हाइजैक होने वाली ट्रेन में जो लोग मारे गए हैं, वे वास्तव में मजदूरी करने वाले लोग थे ।
जिन्होंने पहाड़ से उतर कर मारा है , वे मारने और मरने के लिए आए थे। उन्हें आतंकवादी कहना है तो कह लीजिये। आलोचना करनी हो तो कर लो। ऑपरेशन पर ऑपरेशन लॉन्च करते जायो।
लेकिन ये जो लडक़े पहाड़ों से आए थे, ये पहले यहाँ हमारे ही स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते थे। बलूचिस्तान की यह नयी बगावत लगभग 25 वर्ष पहले शुरू हुई थी।
बल्कि, सच तो यह है कि तब जनरल मुशर्रफ ने बलूच बुजुर्ग अकबर बुगती को रॉकेट लॉन्चर हमले में मारकर इसकी शुरुआत खुद की थी। और साथ ही सीने पर हाथ मारते हुए यह भी कहा था कि - देय विल नॉट नाउ व्हाट हिट देम ।
अब, पच्चीस साल बाद, यह प्रश्न कुछ घिसा-पिटा सा हो गया है और हम एक-दूसरे से पूछ रहे हैं - व्हाट जस्ट हिट अस?
मैंने बलूचिस्तान के कई दोस्तों को देखा है, उनका बेटा थोड़ा बड़ा हो जाता है, कॉलेज की उम्र का हो जाता है, तो वे अपने बेटे को या तो पंजाब या सिंध के कॉलेज में भेज देते हैं।
मैंने पूछा ‘क्यों’?
उन्होंने कहा, 'यहां बलूचिस्तान में लडक़ा कॉलेज जाएगा और सियासी हो जाएगा और उसे उठा लिया जाएगा ।' अगर सियासी न भी हुआ, किसी राजनेता के साथ बैठकर चाय पी ली, फिर भी उठा लिया जाएगा । 'अगर वह कुछ भी न करे, लाइब्रेरी में, हॉस्टल के कमरे में अकेले बैठकर बलोची भाषा की किताब पढ़ रहा होगा तो भी उठाया जाएगा।' इसलिए उसे पंजाब भेज दिया जाता है , ताकि हमारा बेटा उठाया न जाए।'
‘अगर आप बलूच हैं, तो संभावना है कि आपको एक दिन उठा लिया जाएगा।’
फिर पिछले सालों में बलूच तालिबान पंजाब से भी उठाये जाने लगे हैं ।
यह पूरी नस्ल, जो पहाड़ों पर चढ़ी है, यह हमने अपने हाथों से तैयार की है। अगर लडक़ों को कम उम्र में ही समझा दिया जाए कि चाहे आप कितने भी गैर-राजनीतिक हों, चाहे कितने भी पढ़े-लिखे हों, चाहे पाकिस्तान जिंदाबाद के कितने भी नारे लगा लें, अगर आप बलूच हैं, तो संभावना यही है कि एक दिन आपको उठा लिया जाएगा।
और फिर सारी जिंदगी आपकी माताओं, आपकी बहनों को आपकी फोटो लेकर विरोध प्रदर्शनों के कैंपों में बैठे रहना है। और उनकी भी किसी ने नहीं सुननी।
पहाड़ों का रास्ता हमने खुद दिखाया है। बाकी ज़हर भरने के लिए हमारे पास पहले से ही दुश्मनों की कमी नहीं है ।
कभी धरती पर कान लगाकर उसकी बात भी सुनो
ऊपर से वे शोर भी मचाते हैं, इस धरती पर बैठे जो लोग आलोचना नहीं करते, वे भी आतंकवादी हैं।
धरती के साथ इतना प्रेम है कि इसके लिए अपनी जान देने को भी तैयार हैं और जान लेने को भी।
लेकिन कभी-कभी यह भी सोचना चाहिए कि जो चीजें पच्चीस साल पहले कभी तुरबत में, कभी बोलान की बैठकों में होती थीं, वे बातें अब लायलपुर और बुरेला में क्यों शुरू हो गई हैं ।
यदि धरती के साथ इतना ही प्यार है तो कभी-कभी धरती पर कान लगाकर यह भी सुनना चाहिए कि धरती कह क्या रही है ।
मोहम्मद हनीफ का व्लॉग (bbc.com/hindi)