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खेल के मैदान पर महिला कोचों को कब मिलेगा बराबरी का हक
11-Mar-2025 3:55 PM
खेल के मैदान पर महिला कोचों को  कब मिलेगा बराबरी का हक

खेल के मैदान पर अकसर पुरुष कोच ही महिला टीमों को प्रशिक्षण देते दिखते हैं, इससे उलट शायद ही कभी देखने को मिलता है. फुटबॉल में इस रिवाज को तोड़ने वाली कुछ महिला कोच चाहती हैं कि यह स्थिति बदलनी चाहिए.

(पढ़ें डॉयचे वैले पर मैट पियर्सन का लिखा)-

पेरिस ओलंपिक में खचाखच भरे स्टेडियम, खेलों का बढ़ता व्यवसायीकरण और महिला और पुरुष एथलीटों की समान संख्या से यह पता चला कि महिला खेलों के प्रति लोकप्रियता बढ़ रही है। यह एक बड़ा संकेत है कि खेल के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन दशकों से कम फंडिंग, मौकों की कमी और लैंगिक भेदभाव को पूरी तरह से खत्म होने में वक्त लगेगा।

यह बात खासकर कोचिंग यानी प्रशिक्षण जैसे नेतृत्व वाले पदों के लिए सच है। 2024 के ओलंपिक में एथलीटों के लिए समानता हासिल की गई, लेकिन उन्हें प्रशिक्षण देकर बेहतर बनाने वालों के लिए ऐसा बिल्कुल नहीं था।

अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने डेटा जारी नहीं किया है, लेकिन ज्यादातर अनुमानों के मुताबिक पेरिस में महिला कोचों का प्रतिशत तीन साल पहले टोक्यो में आयोजित हुए खेलों के बराबर ही रहा यानी 13 फीसदी।

यह एक ऐसा सिलसिला है जो पूरे खेल जगत में दिखता है। 2023 के महिला फुटबॉल विश्व कप में सिर्फ एक तिहाई से कुछ ज्यादा कोच महिलाएं थीं और पुरुषों के खेलों में महिला कोच मिलना लगभग नामुमकिन है।

हेलेन नक्वोचा एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने उन परंपराओं को तोडऩे के लिए जरूरी बाधाओं को पार किया। 2021 में, जब उन्होंने फेरो आइलैंड्स के त्वोरोयार बोल्टफेलाग की मुख्य कोच का पद संभाला, तो वे पुरुषों की यूरोपीय टॉप-डिवीजन फुटबॉल टीम को प्रशिक्षण देने वाली पहली महिला बनीं। उस उपलब्धि के बावजूद, उन्हें लगता है कि भविष्य में नौकरी मिलने में उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ेगा।

निराशाजनक है सुधार की गति

उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, ‘मैं बस यह कहने का मौका चाहती हूं कि मैं एक फुटबॉल कोच हूं, बस इतना ही। हालांकि, आपको भी यह लगना चाहिए कि आप कम काबिल लोगों के साथ गलत तरीके से मुकाबला नहीं कर रही हैं। अगर आप नौकरी पाने की कोशिश कर रही हैं, तो यहां बराबरी का मैदान नहीं है। यहां उन लोगों की भरमार है जिनके साथ आम तौर पर आपका मुकाबला नहीं होता।’

नक्वोचा अब अमेरिकी युवा फुटबॉल संगठन ‘रश सॉकर’ में कोचिंग के निदेशक के रूप में काम करती हैं। उन्हें यह महसूस हुआ है कि एक दशक से भी ज्यादा समय पहले जब उन्होंने शुरुआत की थी, तब से महिला कोच के लिए स्थिति और अवसरों में सुधार हुआ है, लेकिन बदलाव की गति निराशाजनक हो सकती है, जैसा कि 2025 के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अभियान में कहा गया है- ‘एक्सेलरेट एक्शन’ यानी तेजी से काम करें।

महिला कोच को काम पर रखने और पुराने ढर्रे को तोडऩे की झिझक, प्रभावित लोगों के लिए निराशा का कारण है। खेल में निर्णय लेने की भूमिकाओं में आमतौर पर पुरुष होते हैं और कई लोग महिला कोच पर विचार भी नहीं करते हैं। इसका एक कारण प्रतिक्रिया का डर हो सकता है, कुछ लोगों में महिलाओं के प्रति गलत भावना हो सकती है, लेकिन ज्यादातर मामलों में यह उनकी सोच में शामिल ही नहीं होता है।

इंग्लिश रग्बी यूनियन की नेशनल कोच डेवलपर तमारा टेलर ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘मैं हमेशा विजिबिलिटी (दिखाई देने) और अवसर के बारे में बात करती हूं। कुछ लोगों को किसी चीज को हासिल करने के लिए, चाहे वह चीज कुछ भी हो, ऐसे किसी व्यक्ति को देखना जरूरी होता है जो थोड़ा उनके जैसा हो। कुछ लोग ऐसा करेंगे, चाहे विजिबिलिटी हो या नहीं, लेकिन क्या उन्हें मौका मिलेगा? मैं शायद यह कहूंगी कि अब भी उन्हें वह मौका नहीं मिल रहा है।’

जारी है भेदभाव

टेलर अपनी बात को साबित करने के लिए इंग्लिश महिला रग्बी के टॉप डिविजन ‘प्रीमियरशिप विमेंस रग्बी' (पीडब्ल्यूआर) का हवाला देती हैं। तीन साल पहले, वहां सात महिलाएं मुख्य कोच थीं और 20 से ज्यादा महिलाएं सहायक कोच के रूप में कार्यरत थीं। अब पांच से भी कम महिला सहायक कोच हैं और कोई भी महिला मुख्य कोच नहीं है।

पुरुषों के क्लबों से नजदीकी की वजह से कभी-कभी ऐसे लोग फैसले लेते हैं जिन्हें महिला खेल का ज्यादा अनुभव नहीं होता और उनके पास पुरुषों के खेल से जुड़े लोगों की सूची होती है। एक सोच यह भी है कि महिलाएं पुरुषों का खेल नहीं समझ सकतीं, जिससे टेलर को गुस्सा आता है।

उन्होंने कहा, ‘आपको ऐसे पुरुष कोच मिल जाएंगे जिन्होंने सिर्फ पुरुषों की रग्बी खेली है और पुरुषों के खेल में ही कोचिंग दी है और वो पीडब्ल्यूआर में जाकर कोचिंग देने में बहुत खुश हैं। इससे किसी को भी कोई परेशानी नहीं होती। वहीं, आपको इसका उल्टा देखने को नहीं मिलता है, यानी कोई महिला कोच जिसने सिर्फ महिलाओं की रग्बी खेली हो और पुरुषों के खेल में कोच बनी हो। ऐसा बदलाव दिखता ही नहीं है।’

नक्वोचा और टेलर दोनों ने उस असंतुलन को दूर करने का प्रयास करने वाले कार्यक्रमों से लाभ उठाया है। नक्वोचा अब अगली पीढ़ी की मदद करने के लिए वैसा ही एक कार्यक्रम चलाती हैं।

उन्होंने कहा, ‘मैं इस कार्यक्रम को चला रही हूं, जिससे मुझे भी वैसा ही कुछ करने का मौका मिलता है। इसलिए मैं उन महिलाओं को काम पर रख रही हूं और उनसे बातचीत कर रही हूं जो पहले खिलाड़ी थीं और मैं उनसे पूछती हूं कि आप कोचिंग क्यों नहीं कर रही हैं?’

उन्होंने आगे कहा, ’यह उन्हें गलतियां करने का मौका भी देता है, क्योंकि फुटबॉल में फैसला बहुत सख्त होता है। हम लोगों को इस वास्तविकता से भी अवगत कराना चाहते हैं कि शायद आपके साथ इसलिए अलग तरह से बर्ताव किया जा रहा है, क्योंकि आप एक महिला हैं।’

शीर्ष स्तर से हो बदलाव की शुरुआत

दोनों कोच का मानना है कि महिला कोचिंग के रास्ते और मौके बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेल संस्थाओं को दखल देना चाहिए। साथ ही, महिलाओं के पद संभालने के बाद उन्हें मदद मिलना भी जरूरी है।

टेलर ने आईओसी के विमेन इन स्पोर्ट हाई-परफॉर्मेंस (डब्ल्यूआईएसएच) प्रोग्राम में स्नातक किया है, जिसका मकसद ओलंपिक खेलों में कोचिंग के मामले में बराबरी लाने में मदद करना है।

उन्होंने कहा, ‘मुझे अलग-अलग खेलों के साथ जुडऩे और उन सभी से जुड़ी एक जैसी चुनौतियों को खोजने में बहुत अच्छा लगा जिनका सामना सभी जगह करना पड़ता है। हालांकि, इससे आपको यह एहसास भी होता है कि कभी-कभी आपका खेल उतना पिछड़ा हुआ नहीं होता जितना आपने सोचा था। जब आप दूसरे देशों के, दूसरे खेलों के लोगों से बात करते हैं तो आप सोचते हैं: 'ओह माय गॉड, यह ठीक है।’

दोनों को भविष्य को लेकर सकारात्मक उम्मीद है, भले ही उन्हें और उनकी साथी महिला कोचों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस दिशा में प्रगति भी हुई है। बड़ी यूरोपीय लीगों की निचली लीग की फुटबॉल टीमें महिला कोचों को मौका देने लगी हैं। आईओसी और दूसरी संस्थाएं डब्ल्यूआईएसएच जैसे सकारात्मक कार्यक्रम शुरू करने पर विचार कर रहे हैं।

टेलर ने कहा, ‘मुझे उम्मीद है कि एक दिन इन कार्यक्रमों की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि असल में, खेल सिर्फ खेल होगा और कोच सिर्फ कोच होंगे।’ उन्होंने आगे कहा, ‘हालात सुधर रहे हैं, लेकिन जब तक हम फैसले लेने और भर्ती करने वाले लोगों को समझा नहीं लेते, कोचों को बराबरी के मौके नहीं दिला देते और लैंगिक भेदभाव खत्म नहीं हो जाता, तब तक हमें संघर्ष जारी रखना होगा। (डॉयचेवैले)

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