संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आम जनता के हक चूसकर गुठली बना डाला अपने को वीआईपी कहलाने वालों ने
02-Feb-2025 5:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : आम जनता के हक चूसकर गुठली बना डाला अपने को वीआईपी कहलाने वालों ने

आरटीआई हिन्दुस्तान में बहुत सी गड़बडिय़ों को उजागर करने का अपने किस्म का अनोखा जरिया बन गया है। सरकारी जानकारी के साथ-साथ बहुत किस्म की दूसरी संस्थाओं की जानकारी भी इसके तहत आती है, और लोग आरटीआई के तहत जानकारी निकालकर भ्रष्टाचार, गड़बड़ी, और कई दूसरे किस्म के भेदभाव उजागर करते हैं। अभी रेलवे से एक आरटीआई एक्टिविस्ट ने जानकारी निकाली है कि 2021 से 2023 के बीच पौने दो करोड़ से अधिक सीटें/बर्थ वीआईपी/इमरजेंसी कोटे में आबंटित की गईं, और दूसरी तरफ इसी दौरान सवा चार करोड़ से अधिक मुसाफिर टिकट कन्फर्म न होने से यात्रा नहीं कर सके। इसमें और गजब की बात यह है कि बारह साल पहले रेल मंत्रालय ने यह प्रस्ताव रखा था कि वीआईपी कोटे की सीटों पर रेलवे के तत्काल दर्जे जितना किराया लिया जाए, लेकिन सरकार ने उसे मंजूरी नहीं दी। इस प्रस्ताव से सरकार को 27 सौ करोड़ रूपए अधिक मिल सकते थे। मतलब यह कि वीआईपी दर्जे के नाम पर इन मुसाफिरों से कोई अतिरिक्त शुल्क भी नहीं लिया जाता, और तत्काल टिकट खरीदने वालों को इनके मुकाबले बहुत अधिक भाड़ा चुकाना पड़ता है। आम जनता के हक छीनकर कुछ खास जनता को दिया जाए, और फिर उस देने को भी रियायती रेट पर दिया जाए, इसे क्या ही कहा जाए!

दरअसल हिन्दुस्तान आजाद तो हो गया, उसकी पौन सदी भी मना रहा है, लेकिन उसके दिमाग से अब तक सामंती सोच हटी नहीं है। हम बार-बार देश में वीआईपी संस्कृति के खिलाफ लिखते हैं। लेकिन सत्ता का मिजाज विशेषाधिकार की इस संस्कृति से परे सोच नहीं पाता है। एक वक्त था जब हिन्दुस्तान में टेलीफोन की कमी रहती थी, और उस वक्त हमारे सरीखे लोगों के घर-दफ्तर में केन्द्रीय संचार मंत्री के कोटे से टेलीफोन लगे थे। अभी हाल के बरसों तक केन्द्रीय विद्यालय में दाखिले के लिए केन्द्रीय मंत्री या सांसद का कोई कोटा होता था, अब वह है या नहीं, पता नहीं। ट्रेन में सफर के लिए जब अंधाधुंध अधिक भाड़े वाला एक तत्काल नाम का दर्जा बनाया गया है, और जिससे सरकार को मोटी कमाई होती है, उसे भी अनदेखा करके नेताओं और अफसरों की मर्जी से, जजों और पत्रकारों सरीखे लोगों को वीआईपी दर्जे के नाम पर ट्रेन में जगह दी जाती है, और आम मुसाफिर कतार में लगे-लगे घर लौटने को मजबूर रहते हैं। सुना है कि ऐसे ही किसी वीआईपी इंतजाम के चक्कर में कुम्भ में सरकार ने आम लोगों के लिए सीमित जगह रखी थी, जहां भगदड़ मची क्योंकि सरकारी अमला वीआईपी इंतजाम पर अधिक ध्यान दे रहा था।

यह तो भला हो यूपीए सरकार के समय बने आरटीआई सरीखे कानून का जिसकी वजह से बहुत किस्म की चीजें सामने आती हैं, वरना सत्ता तो हर नाजुक फाइल को अपनी कुर्सी की गद्दी के नीचे दबाकर रखने की आदी रहती है। जहां जनता के खजाने को नुकसान पहुंचता है, उस कीमत पर भी इस देश में अपने को वीआईपी दर्जा देने वाले लोग मुफ्तखोरी करते हैं। संसद की कैंटीन में अविश्वसनीय सस्ते दामों पर मिलने वाला खाना अक्सर ही सांसदों और दूसरे नेताओं के खिलाफ जनता में नाराजगी और नफरत पैदा करते आया है। एक वक्त तो ऐसा भी था जब सांसदों और विधायकों को भारतीय सेना की सेकेंडहैंड जीप और मोटरसाइकिल रियायती दाम पर मिलती थीं, और उनका कोटा रहता था। आज भी रायपुर सरीखे एयरपोर्ट पर कारों के जाकर रूकने की जगह पर एक बहुत बड़ा हिस्सा सिर्फ नेताओं और अफसरों के लिए रखा जाता है, जिसकी वजह से बाकी तमाम जनता के लिए बड़ा छोटा सा हिस्सा बचता है। देश में लोकतंत्र की पौन सदी मनाई जा रही है, लेकिन लोगों की सोच ताकत पाने के साथ-साथ और अधिक सामंती होते चलती है।

दरअसल इस देश की बड़ी अदालतें बड़ी सहूलियत पाने वाली हैं, इसलिए वहां भी वीआईपी दर्जे खत्म करने की अधिक सुनवाई नहीं होती है। कुछ अरसा पहले हाईकोर्ट के एक जज ने ट्रेन में उन्हें पर्याप्त सुविधा न मिलने को लेकर रेलवे को नोटिस जारी कर दिए थे, बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने इस बारे में लिखा था कि जजों को ऐसे किसी प्रोटोकॉल का कोई हक नहीं है, और न ही उन्हें ऐसे नोटिस जारी करने चाहिए। जब संविधान की व्याख्या करने और लोकतंत्र के मूल्यों का सम्मान करने के लिए जिम्मेदार बड़े जजों में नाजायज सहूलियतों की चाह इतनी अधिक रहती है, तो वे भला खास और आम जनता का फर्क कैसे कर सकेंगे, वे तो खुद ही खास के दर्जे की सहूलियत चाहते हैं।

जिस मीडिया पर खास और आम के ऐसे भेदभाव को उजागर करने की जिम्मेदारी रहती है, वह खुद भी खास बनने, और खास दर्जे की सहूलियतें पाने की कोशिश में लगे रहता है। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के स्थापित स्तंभ सुविधाभोगी होते चले गए हैं, और ऐसे में एक वक्त जनसंगठन और जनआंदोलन के लोग भेदभाव उजागर कर सकते थे, अब वह काम आरटीआई एक्टिविस्ट कर रहे हैं, और जब वे महीनों और सालों की मेहनत से जानकारी पाते हैं, तो फिर मीडिया उसका नगदीकरण कर लेता है, उससे खबरें बना लेता है। हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट को तमाम सरकारी इंतजाम से वीआईपी शब्द हटाने की पहल करनी चाहिए। अदालत कम से कम यह तो कर ही सकता है कि तमाम जजों को ऐसे किसी भी प्रोटोकॉल से परे कर दे जो कि उन्हें आम लोगों से अलग करते हैं। इसके साथ ही जनहित याचिकाओं का संघर्ष चलते रहना चाहिए, न जाने कब कौन मुख्य न्यायाधीश आम जनता के हक का हिमायती निकल आए, और इस देश में सामंती संस्कृति खत्म हो। वैसे तो जनता ही अगर अधिक जागरूक हो जाए, और सडक़ों पर, स्टेशन और एयरपोर्ट पर, और नेताओं की मौजूदगी वाले दूसरे मौकों पर घेराबंदी करके सवाल करने लगे, तब भी नौबत सुधर सकती है। फिलहाल इस अश्लील और हिंसक, अलोकतांत्रिक और अमानवीय वीआईपी संस्कृति का मजा भोगने वाले लोगों को हमारा धिक्कार।

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