हर कुछ दिनों में आसपास से ऐसी खबर आती है कि नवजात शिशु को नाले या घूरे पर फेंका गया। कभी-कभी ये जिंदा भी रहते हैं, और अस्पताल इन्हें बचाने की भरसक कोशिश भी करते हैं, कभी वे बचा पाते हैं, कभी नहीं बचा पाते। उन नवजात शिशुओं की तकलीफ को बखान करने वाले लोग नहीं रहते, लेकिन बहुत आसानी से इस बात का अहसास किया जा सकता है कि जिन बच्चों को पैदा होने के बाद गोद से ही नहीं हटाया जाता, जिन्हें लिटाने के लिए पुराने घिसे हुए कपड़ों की गुदड़ी बनाई जाती है कि उनकी नाजुक चमड़ी को नुकसान न पहुंचे, ऐसे बच्चों को जब नालियों और घूरों में फेंक दिया जाता है, तो उनके साथ क्या गुजरती होगी? कभी-कभी ऐसे बच्चे नजर आने के पहले ही कुत्तों के शिकार हो जाते हैं, और या तो इनके कुछ अंग चले जाते हैं, या पूरी जान ही चली जाती है। फिर इसे समाज की इस हकीकत से जोडक़र देखने की जरूरत है कि किस तरह कुछ लोग बच्चों की चाह में दशकों तक पूजा-पाठ करते रहते हैं, चिकित्सा विज्ञान की सुविधाओं से कोशिश करते हैं, और फिर भी उन्हें बच्चे नहीं हो पाते। एक तरफ बच्चों की चाह में बहुत से जोड़े लगातार अंधाधुंध मेहनत और खर्च करते हैं, दूसरी तरफ कुछ अवांछित माने जाने वाले बच्चों को फेंक दिया जाता है।
दरअसल बच्चे तो कोई भी अवांछित नहीं होते, न वे नाजायज होते हैं, और न ही हरामजादे या हरामी होते हैं। बच्चे तो बच्चे होते हैं, और अगर सामाजिक नजरिए से उनके पैदा होने में कोई बुराई है, तो उसके जिम्मेदार उन्हें पैदा करने वाले मां-बाप हैं, या मां अगर अनचाहे गर्भ से लाद दी जाती है, तो बलात्कारी पिता पैदा होने वाले बच्चे के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन इन बच्चों को मारने वाला समाज है। जब कहीं किसी कुंवारी, तलाकशुदा, या विधवा महिला की संतान हो, तो समाज के तमाम ठेकेदार झंडे-डंडे लेकर खड़े हो जाते हैं कि शादी से परे यह संतान हुई कैसे? समाज का इतना बड़ा दबाव रहता है कि इन तीनों तबकों में से किसी की भी महिला गर्भवती होने के बाद या तो गर्भपात को मजबूर हो जाती है, या फिर बच्चे का जन्म हो जाने पर उसे फेंक देने के लिए। किसी भी मां के लिए नवजात शिशु को फेंक देना आसान नहीं रहता है, क्योंकि उसे नौ महीने पेट के भीतर रखा है, लेकिन समाज की बेरहमी जीना जिस हद तक हराम कर देगी, जितनी सामाजिक प्रताडऩा देगी, उसे झेल पाना हर किसी के लिए आसान नहीं रहता, और समाज की परिभाषा में अवांछित संतान को खुद को भी जिंदगी भर अपने से जुड़े सवालों के जवाब देना आसान नहीं रहता। नतीजा यह रहता है कि नवजात शिशु को फेंक देना कई मुसीबतों का एक इलाज मान लिया जाता है, और एक ताजा-ताजा पैदा हुए बच्चे की जिंदगी का महत्व ही क्या रहता है। अभी-अभी छत्तीसगढ़ में एक हॉस्टल में नाबालिग छात्रा ने वहां शौचालय में एक बच्चे को जन्म दिया, और खुद ही उसे वहां की खिडक़ी से बाहर फेंक दिया। बुरी तरह जख्मी हालत में बच्चे को अस्पताल में बचाने की कोशिश की जा रही है, और इस नाबालिग लडक़ी को जिस परिचित बालिग ने गर्भवती किया था, उसे गिरफ्तार भी कर लिया गया है।
दरअसल समाज में सैकड़ों बरस पहले कुछ जातियों में कुंवारी लडक़ी के मां बनने को उतना बुरा नहीं माना जाता था, और उसकी भी शादी हो जाती थी, और वह साथ में बच्चों को लेकर जाती थी। महाभारत काल के कथानक पर कन्नड़ लेखक भैरप्पा के लिखे उपन्यास ययाति को पढ़ें, तो उसमें इस किस्म की समाज व्यवस्था का जिक्र है, और उस वक्त कुछ समाजों में इसे बुरा माना जाता था कि लडक़ी के गर्भधारण की उम्र आ जाने के बाद भी वह गर्भवती नहीं हो रही है। अब वैसी समाज व्यवस्था बाद के बरसों में किस तरह इतनी कट्टर हो गई कि शादी से परे होने वाले बच्चों को मार डालना ही माताओं के लिए अकेला विकल्प हो गया है। इस नौबत का एक दूसरा इलाज बच्चों को फेंक दिए जाने से बचाकर उन्हें छोड़ दिए जाने का समाधान उपलब्ध कराने वाले अनाथाश्रम थे। मदर टेरेसा की संस्था दशकों से भारत में ऐसे अनाथाश्रम चलाती थीं जहां बाहर रखे झूलों में बच्चों को छोडक़र जाया जा सकता था, और कोई जानकारी नहीं देनी पड़ती थी। अभी हाल के बरसों में ऐसी कई संस्थाओं को विदेशों से दान मिलने में रोक लगने लगी है, और मदर टेरेसा की मिशनरीज ऑफ चैरिटी का विदेशी अनुदान पाने का अधिकार रोक दिया गया था, जिसे बाद में वापिस शुरू किया गया। हाल ही में देश में हजारों संस्थाओं के ऐसे पंजीयन रद्द किए गए, लेकिन उनमें से सब अनाथ बच्चों के काम में नहीं लगे हुए थे, वे अलग-अलग कई तरह के सामाजिक काम करते थे।
कुल मिलाकर हम इस बात पर लौटते हैं कि इस देश की बहुत सी धार्मिक, आध्यात्मिक, और सामाजिक संस्थाओं के लिए यह आसान काम हो सकता था कि वे ऐसे अनाथाश्रम शुरू करें जहां लोगों से बिना किसी सवाल-जवाब के अनचाहे बच्चों को लिया जा सके, और उन्हें बच्चों की चाह वाले परिवारों को कानूनी औपचारिकताओं के बाद दिया जा सके। किसी नवजात की जिंदगी ले लेना उसकी मां की क्रूरता कम है, समाज व्यवस्था की क्रूरता अधिक है जो कि ऐेसे मां-बच्चे का जीना हराम कर देती है। लोगों को इसी के बारे में सोचना चाहिए, और किसी उदार संगठन को ऐसे संस्थान शुरू करने चाहिए जहां निजता और गोपनीयता के साथ गर्भवती लड़कियां और महिलाएं जा सकें, वहां सुरक्षित जन्म दे सकें, और फिर अगर उन्हें बच्चों को छोडक़र आना है, तो छोडक़र आ सकें। इससे अजन्मे और नवजात बच्चों के सुरक्षित जिंदगी के अधिकार की गारंटी हो सकेगी। बहुत सी स्थितियों में अकेली लडक़ी और महिला के लिए पूरी गर्भावस्था उसे छुपा पाना आसान नहीं रहता, और न ही जन्म देना और बच्चे को पालना। इसलिए या तो संसद, या कोई सरकार, या कोई अदालत ऐसा इंतजाम करे कि गर्भवती लड़कियों और महिलाओं को बिना किसी भी सवाल-जवाब के, पूरी गोपनीयता के साथ ऐसे संस्थान में दाखिला मिले, और बाद में कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करके उनसे मिले बच्चों को जरूरतमंद परिवारों को दिया जा सके। कोई भी संवेदनशील सरकार आसानी से ऐसा कर सकती है, और यह बहुत महंगा इंतजाम भी नहीं रहेगा। अजन्मे और नवजात इंसानों की जिंदगी बचाना किसी भी जिम्मेदार समाज की एक बुनियादी जिम्मेदारी है, और जो समाज अपने आपको बड़ा गौरवशाली मानता है, उसे नवजात मौतों के ऐसे कलंक से छुटकारा भी पाना चाहिए।