दिल्ली विधानसभा के चुनाव सामने खड़े हैं, और जाहिर है कि पिछले कुछ चुनावों से लगातार वहां जीतकर आ रही आम आदमी पार्टी को कई किस्म के सवालों के लिए तैयार रहनी चाहिए। इस पार्टी के पिछले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, जो कि अभी कथित शराब घोटाले में जमानत पर छूटे हुए हैं, और एक बार फिर चुनाव मैदान में उतर रहे हैं, उनका अपने सरकारी घर पर खर्च फिर खबरों में हैं। 2020 में मुख्यमंत्री के सरकारी निवास पर साज-सज्जा और दीगर कामों के लिए 7.9 करोड़ का अनुमान लगाया गया था, और 8.6 करोड़ में वह काम दिया गया था। लेकिन दो बरस बाद जब वह काम पूरा हुआ तो उसकी लागत 33.66 करोड़ रूपए हो चुकी थी। ये भाजपा के लगाए गए आरोपों के आंकड़े नहीं हैं, ये आंकड़े सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट के आधार पर सामने आए हैं, और इन्हें केजरीवाल के विरोधी पहले दिन से ही बादशाह के शीश महल पर खर्च करार दे रहे थे। अभी कल केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने यह आरोप लगाया कि केजरीवाल ने सीएम हाऊस में सरकारी खर्च पर कई ऐसी बहुत महंगी चीजें लगवाईं जिनका उन्होंने तो कभी नाम भी नहीं सुना था। उन्होंने याद दिलाया कि जब केजरीवाल राजनीति में आए थे, तो उन्होंने कसम खाई थी कि सरकारी कार या बंगला नहीं लेंगे, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल ने एक के बाद बंगले लिए, और बाद में 45 करोड़ रूपए से कई एकड़ पर शीशमहल बनवाया। अमित शाह ने कहा कि केजरीवाल ने दिल्ली में पानी की सप्लाई के लिए इंतजाम तो नहीं किया, लेकिन चार सदस्यों के अपने परिवार के लिए 15 करोड़ रूपए का पानी का संयंत्र लगाया। उन्होंने कहा कि केजरीवाल ने अपने बंगले पर डिजाइनर मार्बल पर 6 करोड़ रूपए, आधुनिक पर्दों पर 6 करोड़ रूपए, ऑटोमेटिक दरवाजों पर 70 लाख रूपए, कालीनों पर 50 लाख रूपए, और स्मार्टटीवी पर 64 लाख रूपए खर्च किए। केन्द्रीय गृहमंत्री शायद सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट से ही आंकड़े गिना रहे थे। इस रिपोर्ट में सीएजी ने बंगले पर किए गए खर्च के आधे से अधिक हिस्सा कलात्मक, ऐशोआराम के सामान, सजावटी सामान गिनाए थे जिन्हें पीडब्ल्यूडी ने एक्स्ट्रा आइटम बताते हुए वह खर्च किया था।
हम यहां पर कोई समाचार नहीं बना रहे हैं जिसमें एक-एक जानकारी और एक-एक आंकड़े देना जरूरी हो। हम तो महज इस पूरे विवाद पर अपनी सोच सामने रख रहे हैं कि किस तरह गांधी टोपी और खादी को खाल की तरह ओढक़र अन्ना हजारे नाम का एक आदमी यूपीए सरकार को हटाने की नीयत से एक वक्त आमरण अनशन पर बैठ गया था, और उस वक्त इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल केजरीवाल और उनके साथी तरह-तरह की सादगी की बातें करते हुए मनमोहन सरकार को खत्म करने की मुहिम छेड़े हुए थे। उस वक्त केजरीवाल ऐसे ढीले कपड़े पहनकर जनता के सामने रहते थे कि एक वक्त के खाते-पीते इंसान के अब भूखे मरने के दिन आ गए हैं, और मानो ये कपड़े बता रहे हों कि यूपीए सरकार के राज में केजरीवाल खा भी नहीं पा रहे हैं। वहां से लेकर आम आदमी पार्टी नाम का राजनीतिक दल बनाना, चुनाव लडऩा और कई बार दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना केजरीवाल का राजनीति के आसमान पर सूरज की तरह दमकना था। लेकिन गांधीवादी सादगी और आमरण अनशन के बीच से नेता बना यह नौजवान कब ऐसे ऐशोआराम का हिमायती हो गया वह पता ही नहीं लगा। कहां तो वह सरकारी बंगला और गाड़ी नहीं लेने वाला था, और अब जब बंगलों का शौक सिर चढक़र बोलने लगा, तो अपनी पार्टी के नाम के ठीक खिलाफ जाकर केजरीवाल नाम के स्वघोषित आम आदमी ने अपने आप पर आधा अरब रूपया खर्च करके अपने आपको दिल्ली का सबसे खास आदमी साबित किया, जनता के पैसों से।
हो सकता है कि केन्द्र सरकार, और दूसरी राज्य सरकारों में भी मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के खर्च इसी दर्जे के होते हों, लेकिन हमें ऐसे दूसरे नेता याद नहीं पड़ते जिन्होंने सत्ता पर आने के लिए केजरीवाल की टक्कर के सादगी के नारे उछाले रहे हों। हमें यह जरूर याद पड़ता है कि त्रिपुरा में सीपीएम के एक से अधिक मुख्यमंत्री ऐसे रहे जो परले दर्जे की सादगी की जिंदगी जीते रहे, और एक अकेले मुख्यमंत्री अपने चीफ सेक्रेटरी के साथ एक ही कमरे में रह लेते थे, अपने-अपने कपड़े धो लेते थे, और एक ही कार में बैठकर ऑफिस जाना-आना कर लेते थे। एक दूसरे मुख्यमंत्री की पत्नी केन्द्र सरकार के किसी दफ्तर में काम करती थी, और मुख्यमंत्री निवास से ऑटोरिक्शा में अपने दफ्तर आने-जाने का इंतजाम खुद करती थीं। इसलिए ऐसा भी नहीं है कि इस देश ने कभी सादगी और ईमानदारी देखी नहीं है। और लोगों ने केजरीवाल पर भरोसा कर लिया था कि वे स्वघोषित गांधीवादी और खादी ओढ़े हुए, आमरण अनशन पर बैठे हुए अन्ना हजारे के सबसे करीबी साथी बने हुए महीनों तक मीडिया में छाए रहे थे, और आम आदमी के नाम पर पार्टी बनाने के बाद सादगी का नारा देकर वे सत्ता पर पहुंचे थे।
हमारा यह मानना है कि देश की किसी भी सरकार को अपने नेताओं और अफसरों के लिए, जजों, और दूसरे ओहदों पर बैठे लोगों के लिए बंगले बनवाना बंद कर देना चाहिए। कई-कई एकड़ पर दर्जनों या सैकड़ों करोड़ की लागत से बनने वाले ऐसे बंगलों का रख-रखाव भी दसियों लाख रूपए महीने बैठता है, फिर चाहे इसे किसी एक सरकारी मद में एक साथ न दिखाया जाता हो। यह विकराल खर्च उस जनता के खून-पसीने की कमाई से निकाला जाता है जिसका पेट भरने के लिए उसे हर महीने पांच किलो चावल देने की नौबत देश में बनी हुई है। सरकारों को हर ओहदे का एक भत्ता तय करना चाहिए, उतने में वे जैसा चाहे वैसा मकान लें, चाहे तो अपने ही घर में रहते हुए उतना मकान भत्ता ले लें, और एक सीमित रकम उन्हें रख-रखाव के लिए मिलनी चाहिए। हालांकि हमारा पूरा भरोसा है कि ऐसा कोई सुझाव जनहित याचिका की शक्ल में भी अगर किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचेगा, तो शायद ही कोई जज इसे जनहित के नजरिए से देख पाएंगे, क्योंकि अनुपातहीन ऐशोआराम पाने वाले लोगों में बड़े जज भी तो सबसे आगे हैं। हमें छत्तीसगढ़ का हाईकोर्ट बनने का दौर याद है जब राज्य सरकार के रखे गए बजट से असंतुष्ट जजों ने सरकार से और भारी-भरकम मंजूरी करवाई थी, और सरकार ने न चाहते हुए भी वह मंजूरी दी थी।
भारतीय लोकतंत्र अभी तक एक राजतंत्र और सामंती व्यवस्था के मुताबिक चलता है। यहां सत्ता पर काबिज तमाम राजा प्रजा के खून-पसीने पर बंगलों को महल में बदलने पर उतारू रहते हैं, और जब तक सत्ता शाही सहूलियतों में सांस लेगी, वह गरीब रियाया की तकलीफों से अनजान बनी रहेगी। इस सिलसिले को तोडऩा चाहिए, आज अमित शाह ने केजरीवाल पर हमला बोला है, और इसी तथ्य और तर्क का विस्तार करते हुए किसी जनसंगठन को पूरे देश में जनता के पैसों पर चलने और पलने वाली सरकारों के खुद पर खर्च का सोशल ऑडिट करना चाहिए।
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