संपादकीय
हिन्दुस्तान के अधिकतर शहरों के साथ यह एक आम दिक्कत है कि वहां जमकर अवैध निर्माण होता है, कुछ या अधिक हद तक सार्वजनिक जगह पर अवैध कब्जा होता है, और उसके साथ-साथ अपने दायरे से बाहर जाकर सामान फैलाकर कारोबार होता है। दूसरी तरफ सडक़ों पर जमकर ट्रैफिक जाम भी रहता है। जिन जगहों से गाडिय़ां निकलनी चाहिए वहां दुकानदारों का सामान पटे रहता है, नुमाइशी पुतले सजाकर खड़े कर दिए जाते हैं, और फुटपाथी कारोबारी भी सडक़ की चौड़ाई को खत्म कर देते हैं। जिनको बड़ी दुकान हासिल है, उनकी नीयत भी सामने सडक़ को दस-पन्द्रह फीट तक घेरने की रहती है। अभी कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस, प्रशासन, और म्युनिसिपल की मिलीजुली टीम ने एक-दो जगह से ऐसे अवैध कब्जे हटाए, तो लोगों का तर्क था कि वे 20-25 बरस से वहां कारोबार कर रहे हैं। इसका मतलब यही है कि 20-25 बरस में अवैध कब्जा करने वालों को हटाने की कार्रवाई की नहीं गई थी।
हिन्दुस्तान के अधिकतर शहर किसी योजनाबद्ध कॉलोनी की तरह नहीं हैं, और वे धीरे-धीरे फैलते हुए मनमाने बने हुए हैं, लेकिन किसी भी तरह का अवैध काम अगर वह सडक़ किनारे के निर्माण का है तो वह छुप तो नहीं सकता, और वह जब कभी बनना शुरू होता है, तब से ही वह म्युनिसिपल के अधिकारियों और कर्मचारियों को दिखता ही है, हर इलाके के चुने हुए वार्ड मेम्बर रहते हैं, और ऐसे पार्षदों की मर्जी के बिना तो उनके वार्ड में एक गुमटी भी नहीं लग सकती। इसलिए ऐसे कब्जे चाहे दस बरस से हों, चाहे पच्चीस बरस से, ये इन तमाम जिम्मेदार लोगों की नजरों में रहते हैं, और वे लोग ऐसे अवैध कब्जे या अवैध निर्माण के लिए जिम्मेदार भी रहते हैं। प्रमुख सडक़ों के किनारे कई मंजिलों की इमारत अगर अवैध बन जाती है, तो इसमें जब तक तमाम जिम्मेदार लोगों की कम या अधिक हिस्सेदारी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। स्थानीय संस्थाओं में तकरीबन सौ फीसदी कर्मचारी और मझले अधिकारी स्थानीय ही होते हैं, और गलत निर्माण, गलत कब्जा करने वाले लोगों के साथ उनके पुराने रिश्ते रहते हैं, इसलिए इन पर कार्रवाई आसान नहीं रहती है। गिने-चुने बड़े अफसर म्युनिसिपल के बाहर से आते हैं, और वे अकेले कुछ अधिक कर नहीं पाते।
स्थानीय निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के अपने कई किस्म के स्वार्थ रहते हैं। अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वालों से उन्हें मोटी कमाई होती है, और इसलिए वे कई जगहों पर तो अवैध कामों को बढ़ावा देने में लगे रहते हैं। अगर सब कुछ नियम से बने, तो न कोई चुने हुए नेताओं को पैसे दे, और न ही म्युनिसिपल के कर्मचारियों-अधिकारियों को। जहां से गैरकानूनी काम शुरू होते हैं, वहीं से ऊपरी कमाई की संभावना भी शुरू होती है। इसलिए अभी जब 20-25 बरस से किसी जगह पर काबिज लोगों को हटाया गया, तो यह अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं था कि आम जनता की सहूलियत खत्म करने वाले ऐसे कब्जों को इतने बरस किसकी मेहरबानी से रहने दिया गया था।
कुछ लोगों को यह लग रहा है कि राजधानी रायपुर में पुलिस, प्रशासन, और म्युनिसिपल ने मिलकर पहली बार ऐसी कार्रवाई की है। आज से 40 बरस पहले भी इस शहर में एक सीएसपी, और एक एडीएम, म्युनिसिपल कमिश्नर के साथ सडक़ों पर निकलते थे, और तमाम अवैध कब्जे कुछ घंटों में ही अपने आप हट जाते थे, सडक़ तक रखे गए सामान जब्त हो जाते थे। यह तो बाद के बरसों में वोटरों से डरे हुए सांसदों, विधायकों, और म्युनिसिपल नेताओं ने गैरकानूनी कामों को अनदेखा करना शुरू किया, और जब अनदेखा ही करना था, तो फिर जिस-जिससे बन पड़ता था, उन्होंने वसूली और उगाही भी शुरू कर दी। बहुत से नेता तो अपने समर्थकों से ही कब्जा करवा देते हैं ताकि उनकी कमाई चलती रहे तो वे नेता के उपकार के बदले उनका काम करते रहें।
यह तो भारत में पंचायती राज व्यवस्था के तहत म्युनिसिपल और पंचायत के चुनाव अनिवार्य हो गए हैं, और हर इलाके को स्थानीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व मिलना जरूरी है। वरना इसके पहले बीच-बीच में चुनाव न होने पर राज्य शासन किसी म्युनिसिपल में प्रशासक बिठा देती थी। और वैसे प्रशासक कभी-कभी निर्वाचित नेताओं के मुकाबले ज्यादा अच्छा काम करते थे क्योंकि उन पर स्थानीय दबाव नहीं रहता था। कुछ लोग प्रशासक की व्यवस्था को ही बेहतर मान लेते थे, लेकिन अगर इसी पैमाने पर देखें, तो फिर राज्य शासन ठीक न चलने पर मुख्य सचिव को उसका प्रशासक बना देना चाहिए, और प्रधानमंत्री का काम ठीक न रहने पर कैबिनेट सचिव को देश का प्रशासक बना देना चाहिए। लोकतंत्र की भावना को देखते हुए स्थानीय संस्थाएं चाहे कितनी ही भ्रष्ट हो जाएं, चाहे कितना ही खराब काम करें, उन्हें निर्वाचित लोगों के तहत ही काम करना है। इसलिए चुनाव होते रहेंगे, और अच्छे या बुरे जैसे भी हों, नेता उन पर काबिज रहेंगे।
स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था इस किस्म की रहती है कि वहां म्युनिसिपल कमिश्नर राज्य शासन की तरफ से तैनात होते हैं, जो कि शासन के लिए ही जवाबदेह रहते हैं, और निर्वाचित नेताओं के मनमाने फैसलों पर काफी हद तक रोक-टोक करने का हक उनको रहता है। अगर वे ही ईमानदारी और सख्ती से काम करें, तो वे बहुत सारे गलत काम रोक सकते हैं। हमें इस सिलसिले में नागपुर में एक वक्त तैनात म्युनिसिपल कमिश्नर याद पड़ते हैं जो कि वहां के एक आईएएस अफसर थे, और उन्हें राज्य सरकार ने शहर को सुधारने की खुली छूट दी थी। एक अकेले अफसर ने पूरे शहर की सडक़ों से अवैध कब्जे हटवा दिए थे, सारे रास्ते चौड़े हो गए थे, और शहर एक बार फिर जिम्मेदार शहर लगने लगा था, खूबसूरत भी, और सहूलियतों वाला भी। इसलिए शहरों को सुधारने का काम उन नेताओं पर नहीं छोड़ा जा सकता जिन्हें उसी शहर से वोट पाकर म्युनिसिपल, या विधानसभा-लोकसभा तक जाने की हसरत रहती है। इसके लिए एक संतुलन बनाकर राज्य सरकार को काबिल अफसरों को म्युनिसिपल भेजना चाहिए, और इस तैनाती को कम से कम दो बरस का रखना चाहिए ताकि ये अफसर शहर को समझ भी सकें।
बरसों बाद जब किसी शहर में कार्रवाई शुरू होती है, तो लोग इंतजार इसी बात का करते हैं कि कब राजनीतिक दबाव इसे रोक देगा। सरकार को प्रदेश के हित में ऐसी राजनीतिक दखल से बचना चाहिए, और अफसरों को कड़ाई से सुधार करने का जिम्मा देना चाहिए। कोई शहर कितना व्यवस्थित है, उससे न सिर्फ उस शहर की साख बनती है, बल्कि उस प्रदेश की भी इज्जत बनती या बिगड़ती है। अब तो टेक्नॉलॉजी बड़ी सस्ती हो गई, इसलिए म्युनिसिपल को अपने पूरे इलाके की हर बरस वीडियो रिकॉर्डिंग करानी चाहिए ताकि यह अच्छी तरह दर्ज रहे कि कहां पर नए कब्जे हो रहे हैं, या नए अवैध निर्माण हो रहे हैं। एक तरफ गैरकानूनी काम करने वाले सडक़ों पर कब्जा करें, और दूसरी तरफ आम लोग सडक़ों से गुजर न पाएं, यह बहुत शर्मनाक नौबत है। यह सारा काम सरकार और स्थानीय संस्थाओं की बुनियादी जिम्मेदारी है, इसलिए इसके लिए अदालत तक जाने की नौबत लाना ठीक नहीं है।