संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संविधान के शब्द जिंदा, भावना अब स्मृति-शेष
26-Nov-2024 12:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : संविधान के शब्द जिंदा, भावना अब स्मृति-शेष

संविधान के 75 बरस होने का मौका किसी भी देश के लिए बड़ी अहमियत रखता है, 75वां बरस शुरू होने का मौका भी। यह साल हिन्दुस्तान में संविधान की पौन सदी पूरी होने के जलसों से भरा रहेगा। लेकिन जब कभी ऐसी सालगिरह या ऐसे जलसों की बात आती है तो वैसे में यह भी सूझता है कि क्या जलसों से परे संविधान का सम्मान भी हो रहा है, उस पर अमल भी हो रही है? इसके साथ ही यह भी याद पड़ता है कि संविधान निर्माताओं में जो प्रमुख नाम डॉ.भीमराव अंबेडकर का है, उन्होंने इस संविधान को लेकर कैसी कल्पनाएं की थी, उन्होंने कौन सी सावधानियां गिनाई थी। फिर हमारा मानना है कि संविधान अपने शब्दों को लेकर बहुत हद तक एक स्थिर दस्तावेज रहता है, तब तक, जब तक कि उसमें किसी फेरबदल की जरूरत न लगे। लेकिन संविधान के गिने-चुने शब्दों से कई गुना अधिक मायने उसकी भावना रखती है, और वह भावना बुनियादी तौर पर तो नहीं बदलती, लेकिन वह समय के साथ-साथ देश, काल, और परिस्थितियों के मुताबिक अपने मायने बदलती है। शब्द स्थिर और जड़ होते हैं, लेकिन भावना वक्त-जरूरत के साथ, बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल बदल सकती है। संविधान को एक मुर्दा दस्तावेज मानना ठीक नहीं होगा। उसके शब्द लिखे गए हैं, लेकिन उसकी भावना उसकी आत्मा से निकलती है।

अब हम एक छोटे से मुद्दे की चर्चा जरूरी समझते हैं जो कि अंबेडकर ने बतौर चेतावनी देश के सामने रखा था। उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र में जब तक संवैधानिक रास्ते खुले हैं, तब तक उन चीजों के लिए आंदोलन नहीं होना चाहिए। उनकी दूसरी बात यह थी कि राजनीतिक लोकतंत्र पा लेने से ही सामाजिक असमानता खत्म नहीं हो जाती। अगर समाज लंबे समय तक समानता से वंचित रहा, तो वह देश राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल देता है, इसलिए लोगों को महज इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए कि देश आजाद हो गया। उनकी कही तीसरी बात यह है कि राजनीति में भक्ति, या नायक की पूजा तानाशाही की राह खोलती है। हम अंबेडकर की चेतावनियों को भी ऐसा स्थिर नहीं मानते कि पौन सदी बाद भी उसकी व्याख्या दुबारा न कर सकें। हमारा मानना है कि उनकी पहली बात कि जब तक संवैधानिक रास्ते खुले हैं आंदोलन जैसे तरीके अख्तियार नहीं करने चाहिए, यह आज प्रासंगिक और अमल में लाने लायक बात नहीं है। इसके बजाय हमें लोहिया की कही हुई वह बात अधिक माकूल लगती है कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करतीं। संवैधानिक रास्ते खुले रहने के कई मतलब निकलते हैं, एक मतलब तो यह निकलता है कि लोग हाईकोर्ट से होकर सुप्रीम कोर्ट तक किसी मुद्दे को लेकर लड़ते रहें, और फिर सुप्रीम कोर्ट से संतुष्ट न होने पर पुनर्विचार याचिका लगाएं, और फिर सुप्रीम कोर्ट किसी बड़ी बेंच में उसकी सुनवाई करे, और इन सबमें कुछ दशक भी लग सकते हैं। तो क्या एक जीवंत लोकतंत्र में संवैधानिक विकल्प की राह देखते हुए दशकों तक कोई आंदोलन ही न किया जाए? हम अंबेडकर की बात को पूरे के पूरे संदर्भ में पढक़र यहां नहीं लिख रहे, इसलिए अगर उनकी बात का संदर्भ कुछ और होगा, तो हम महज एक बात पर अपनी टिप्पणी कर रहे हैं कि लोकतंत्र कभी संवैधानिक विकल्पों का इंतजार करते हुए अपने आपको आंदोलनों से परे नहीं रखता। आंदोलन लोकतंत्र का एक अविभाज्य अंग है, और उसके बिना जीवंत लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। फिर चाहे सत्ता को आंदोलनों के नाम से भी परहेज क्यों न हो। इस देश के इतिहास में लोकतंत्र का विकास अनिवार्य रूप से आंदोलनों के कंधों पर चढक़र आगे बढ़ा है, और संवैधानिक विकल्प का एक हिस्सा हम लोकतांत्रिक विकल्पों को भी मानते हैं क्योंकि संविधान और लोकतंत्र को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। अंबेडकर की दूसरी बात हमें बहुत प्रासंगिक और जरूरी लगती है कि जो लोग देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद पाकर संतुष्ट हैं, और जिन्हें समाज की असमानता फिक्र में नहीं डालती, वे लोग संविधान को ही, भारत के लोकतंत्र को ही खतरे में डालने का खतरा उठा रहे हैं। सामाजिक असमानता गुलामी का एक बड़ा प्रतीक है, सुबूत भी। यह असमानता मर्द और औरत के बीच की हो, सवर्ण और गैरसवर्ण के बीच की हो, संपन्न और विपन्न के बीच की हो, ताकतवर और कमजोर के बीच की हो, किसी भी तरह की हो, असमानता स्वतंत्रता न होने का सुबूत है, शोषित तबकों के परतंत्र होने का। इस मुद्दे पर हिन्दुस्तान में लगातार काम करने की जरूरत इसलिए है कि एक तरफ एक तबका अपनी गाड़ी के हॉर्सपॉवर, या अपने ओहदे और संपन्नता की ताकत, या अपनी मर्दानगी के अहंकार से हर किस्म की स्वतंत्रता भोग रहा है, और उसके शोषण के शिकार तबके परतंत्रता के शिकार हैं। संविधान सभा का काम पूरा होने पर अंबेडकर ने एक भाषण में इस बात का खुलासा भी किया था कि जो लोग असमानता से पीडि़त हैं, वे उस लोकतांत्रिक ढांचे को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं, जिसे संविधान सभा ने बड़ी ही मेहनत से खड़ा किया है।

अब अंबेडकर की कही हुई एक तीसरी बात को देखें, तो उन्होंने कहा था कि राजनीति में भक्ति, या नायक की पूजा तानाशाही की राह प्रशस्त करती हैं। इस बात को उन्होंने 1950 के वक्त गांधी को लेकर कहा हो, या हिटलर को लेकर, या किसी और को लेकर, या फिर उन्होंने दुनिया के दूसरे देशों की मिसालें देखकर इसे कहा हो, या फिर किसी भविष्यवक्ता की तरह उन्होंने अंदाज लगाया हो, उनकी यह बात पूरी दुनिया में कारगर साबित हो रही है, और जहां-जहां लोग हीरो-वारशिप करते हैं, जीते-जागते लोगों की पूजा करते हैं, वहां-वहां तानाशाही आने लगती है। तानाशाही जरूरी नहीं है कि संविधान को कुचलकर आए, वह संविधान के ढांचे के भीतर अपने आपको न्यायोचित ठहराने के लिए कई तरह के छेद ढूंढकर घुस जाती है, और लोकतंत्र का घर संभाल बैठती है। दुनिया का इतिहास इस बात को साबित करता है, और ऐसा लगता है कि अंबेडकर के सामने उस वक्त भी कई मिसालें थीं, और उनकी आशंकाएं भी बहुत गलत साबित नहीं हुई हैं।

हमने अंबेडकर से सहमति और असहमति के साथ संविधान को लेकर आज इस मौके पर अपनी सोच का एक कतरा पेश किया है। इस व्यापक मुद्दे पर एकमुश्त तो सब कुछ लिख पाना मुमकिन नहीं है, लेकिन यह जरूरी है कि संविधान को लेकर होने वाले जलसों के इस साल में इस बात को ध्यान रखा जाए कि संविधान की उस वक्त की भावनाएं, और आज बदले हुए वक्त-जरूरत में उन भावनाओं की नई व्याख्या को शब्दोंतले दम न तोडऩे दिया जाए। जब कभी संविधान के शब्दों पर चर्चा हो, उसकी भावना पर भी चर्चा होनी चाहिए। और आज इस देश के माहौल में जब संविधान के शब्दों को लेकर भी कोई सम्मान नहीं रह गया है, तो इस बात की अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती कि उसकी भावना को लेकर कोई सम्मान होगा। जलसा जरूर हो सकता है। दुनिया में जलसा होना सबसे आसान है, क्योंकि वह सरकारी खर्च से भी हो सकता है, और समाज के किसी तबके की दीवानगी को ठीक लगे, तो जनता भी अपनी जेब का खर्च ऐसे जलसे पर कर सकती है। जिस तरह हर दीवाली समाज के उन गरीबों की याद भी दिलाती है जो अगली सुबह बूझे हुए दियों से तेल निकालने जगह-जगह घूमते हैं, उसी तरह संविधान की हर चर्चा उन कमजोर लोगों की याद दिलाती है जिन्हें संविधान उनका हक नहीं दिला पाया है। संविधान के शब्दों पर इस बरस बड़े-बड़े व्याख्यान होंगे, लेख लिखे जाएंगे, बहसें होंगी, और हो सकता है कि किताबें भी छपेंगी, लेकिन संविधान की भावना को याद करके उसकी शेष-स्मृतियों की तस्वीर पर चंदन की माला चढ़ाने जितनी जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए।

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