विचार / लेख

पराली पर ओछी राजनीति
21-Nov-2024 7:20 PM
पराली पर ओछी राजनीति

-डॉ. आर.के. पालीवाल

दिल्ली की मुख्यमंत्री के बयान से पराली जलाने पर भी ओछी राजनीति शुरू हो गई है। आम आदमी पार्टी और दिल्ली निवासी पहले दिल्ली के प्रदूषण को पंजाब की पराली के मत्थे मढ़ा करते थे। अब पंजाब में आप सरकार बनने के बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री ने मध्य प्रदेश के किसानों को पराली जलाने का दोषी ठहराया है।पंजाब और हरियाणा सिंचाई की अच्छी व्यवस्था और ठीक-ठाक बारिश की बदौलत खरीफ सीजऩ में खूब धान उगाते हैं और धान की पराली ठिकाने लगाने के लिए उसे जलाना सबसे आसान मानते हैं। पशुपालन कम होने और मजदूरों के अभाव में पराली जलाना ही उन्हें सबसे उचित समाधान नजऱ आता है।

हमारी सरकारों को समस्याओं के सही और सकारात्मक समाधानों के लिए न समय है और न इस मामले में वे अनुभवी विशेषज्ञों से कोई समाधान मांगते हैं। उन्हें कानून बनाकर और कड़ी पेनल्टी लगाकर इंस्पेक्टर राज को बढ़ावा देने और दूसरे दलों को दोषी बताने के विकल्प सबसे आसान और उत्तम लगते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कई बार आदेश दिए हैं लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए सरकारों के अपने एजेंडे हैं। वे हर मुद्दे को वोट बैंक की दृष्टि से देखते हैं और समस्या को जड़ से खत्म करने के बजाय बचकाने आरोप प्रत्यारोप लगाकर विपक्षी दलों की सरकारों को समस्या की जड़ बता जनता को भटकाने की कोशिश करते हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री का बयान इसी की एक कड़ी है।

दिल्ली में केंद्र सरकार का मुख्यालय है। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि लेफ्टिनेंट गवर्नर दिल्ली की आप सरकार के साथ आए रोज सींग लड़ाते रहते हैं। दिल्ली के बड़े अधिकारियों पर भी केंद्र सरकार का ही शिकंजा है जिसके लिए केंद्र सरकार कभी अध्यादेश जारी करती है और कभी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ती है लेकिन दिल्ली के प्रदूषण से निबटने के लिए उसने भी कोई ऐसी पहल नहीं की जिससे अन्य महानगरों के लिए कोई आदर्श स्थापित हो सके। दिल्ली के प्रदूषण पर सरकारी विफलता का दाग केंद्र और राज्य सरकार पर संयुक्त रूप से लगा है। जब तक दोनों सरकार कंधे से कंधा मिलाकर इस राक्षसी समस्या का समुचित समाधान नहीं खोजेंगी दिल्ली वासी प्रदूषण से हलाकान होते रहेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की अपनी सीमाएं हैं। वह सरकारों को निर्देश जारी कर सकता है, डांट फटकार सकता है लेकिन सडक़ पर उतरकर समस्या का समाधान नहीं कर सकता।

 दिल्ली के निवासियों को भी अपनी जीवनशैली बदलने की जरूरत है। लोकतंत्र और सभ्य एवं सजग समाज में जनता ही सर्वोपरि है। दिल्लीवासियों को अपने अपने स्तर पर कुछ सकारात्मक प्रयास करने चाहिए। दिल्ली की कालोनियों, बंगलों और सडक़ों पर इतनी कारें रेंगती और पार्क होती हैं कि निकलने की जगह नहीं बचती। इन कारों और स्कूटरों के धुएँ से भी अच्छा खासा प्रदूषण होता है। कंक्रीट की ऊंची ऊंची इमारतें बड़े बड़े पेड़ काटने के बाद खड़ी हुई हैं जो छोटे मोटे पेड़ों की धूप रोककर प्रदूषण कम करने वाले पौधों की क्षमता कम कर रही हैं। सारा दोष गरीब किसानों की पराली पर मढक़र दिल्ली के नागरिक और नेता अपने गुनाहों और अकर्मण्यता पर पर्दा नहीं डाल सकते। प्रकृति को नष्ट भ्रष्ट करने में कमोबेश हम सब नागरिकों का हाथ है। चंद पर्यावरणविद लेख लिखकर, भाषण, सेमिनार कर कुंभकर्णी नींद से सोए लोगों को जगाने की कोशिश तो करते हैं लेकिन सुविधा भोगी स्वार्थी समाज चेतने की कोई कोशिश ही नहीं करता। राजनीतिक दलों में प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हद दर्जे की संवेदनहीनता है। यही कारण है कि किसी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र या चुनावी भाषण में प्रकृति और पर्यावरण का जिक्र नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यदि बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन हो सकती है, प्राइवेट कंपनियों का काम ऑन लाइन हो सकता है तब सरकारी कामकाज भी ऑन लाइन किया जा सकता है। यहां तक कि न्यायालयों के कार्य भी काफी हद तक ऑन लाइन हो सकते हैं। दिल्ली वाले कुछ दिन कार और स्कूटर की जगह पैदल या साइकिल का इस्तेमाल करने की ठान लें तो इससे भी प्रदूषण काफी कम हो सकता है।

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