संपादकीय
तस्वीर / सोशल मीडिया
छत्तीसगढ़ के एक जिले अंबिकापुर में कलेक्टर के जनदर्शन में पहुंचे लोगों में से एक नौजवान ने तब सबको हक्का-बक्का कर दिया जब उसने कलेक्टर से ब्याज पर साढ़े 8 हजार रूपए एक महीने के लिए मांगे। उसने कहा कि पटवारी ने नक्शा दुरूस्त कराने के लिए 10 हजार रूपए मांगे हैं, जिसमें से ढाई हजार रूपए वह दे चुका है, और अब वह साढ़े 8 हजार रूपए और मांग रहा है। अब कलेक्टर इस पर जो भी कार्रवाई करे, सच तो यह है कि जिन लोगों का पटवारी दफ्तर से लेकर तहसील दफ्तर तक कोई वास्ता पड़ता है, या इसके बाद एसडीएम के राजस्व न्यायालय में जाना पड़ता है, उन सभी का तजुर्बा इसी के आसपास रहता है। हर पटवारी अपने हलके के बाजार भाव, और वहां पर रिकॉर्ड की जटिलता को देखते हुए अपने निजी दफ्तर में निजी कर्मचारियों को तनख्वाह पर रखता है, और यहीं से भ्रष्टाचार का सिलसिला शुरू होता है। लोगों को याद होगा कि एक वक्त पुलिस थानों में शिकायत लिखने के लिए कागज भी नहीं रहता था, और हर शिकायतकर्ता से एक दस्ता कागज बुलवा लिया जाता था, ठीक उसी तरह जिस तरह कि किसी अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में हर ऑपरेशन में लगने वाले कुछ इंजेक्शन की बड़ी बोतलें हर किसी से मंगवा ली जाती हैं, और फिर एक-एक बोतल कई मरीजों के काम आती हैं, बाकी बच जाती हैं। लेकिन पटवारी की बात पर लौटें तो पटवारी, तहसीलदार, और आमतौर पर एसडीएम के दफ्तरोंं में बिना लेन-देन कोई काम हमने तो कहीं सुना भी नहीं है। बहुत से लोग जो तहसीलदार, और एसडीएम के राजस्व न्यायालय में वकीलों के मार्फत अर्जी लगाते हैं, उनकी तरफ से वकील ही लेन-देन का काम करते हैं, और वे उसे वकील की फीस, और ऑफिस का खर्च, दोनों मिलाजुला मानकर चलते हैं। हमारा ख्याल है कि किसी सत्तारूढ़ पार्टी की जीत-हार में सरकार की जो दो बातें सबसे अधिक मायने रखती हैं, उनमें पटवारी से एसडीएम तक के राजस्व मामले, और किसी भी दर्जे के सरकारी अस्पताल में पहुंचने वाले मरीजों के मामले, इन्हीं दो के तजुर्बे से सत्तारूढ़ पार्टी पर सबसे अधिक असर पड़ता है। प्रदेश में सरकारी इलाज का हाल एकदम बर्बाद चल रहा है, और तहसील सहित उसके ऊपर-नीचे काम कैसा चल रहा है इसे देखने के लिए तहसीलदारों के संगठन के वे बयान याद रखने चाहिए जिनमें उन्होंने अपने तबादलों के लिए राजस्व मंत्री टंकराम वर्मा पर उगाही के आरोप लगाए थे। यह भी याद रखना चाहिए कि तहसीलदारों के तबादलों की लंबी-चौड़ी लिस्ट पूरी की पूरी हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी क्योंकि वे तबादले गलत तरीके से किए गए थे। सरकार को अपने इन दोनों नाजुक विभागों पर अधिक ध्यान देना चाहिए क्योंकि एक विभाग ने अभी गरीब आदिवासियों की आंखें थोक में बर्बाद करके अपना हाल साबित कर दिया है, और दूसरे विभाग का हाल टंकराम वर्मा पर लगे आरोपों से लेकर तो अभी अंबिकापुर कलेक्टर से मांगे गए कर्ज तक हर जगह साबित हो रहा है।
हमको याद है कि छत्तीसगढ़ की पहली सरकार के मुख्य सचिव रहे अरूण कुमार इस बात के लिए जाने जाते थे कि अपनी पूरी नौकरी में किसी पद पर उन्होंने कोई काम नहीं किया था, और जब वे तबादले पर दूसरी जगह जाते थे तो पीछे फाइलों का अंबार छोड़ जाते थे। लेकिन उनके रिटायर होने के बाद उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने प्रशासनिक सुधार आयोग का अध्यक्ष जैसा कुछ बनाकर आगे और मुफ्तखोरी का मौका दिया था। जिन अफसरों ने अपनी पूरी नौकरी में अपने मातहत अमलों में कोई सुधार नहीं किया, उनसे रिटायर होने के बाद चमत्कार की उम्मीद करना किसी बैगा-गुनिया से इलाज कराने जैसी बात है। लेकिन पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी कॉलेज के दिनों के अपने गुरू रहे विवेक ढांड का सम्मान करने के लिए उनके रिटायर हो जाने के बाद एक नवाचार आयोग बनाकर उन्हें उसमें अध्यक्ष बना दिया था। यह तो आईटी और ईडी की जांच, और हाईकोर्ट में चल रहे हजार करोड़ के भ्रष्टाचार के एक मामले की मेहरबानी से विवेक ढांड कुछ करने की हालत में नहीं थे, और चुनाव के बाद भूपेश की सरकार ही नहीं रही, इसलिए नवाचार आयोग भी नहीं रहा। सरकारें प्रशासनिक सुधार के लिए घिसे-पिटे चिड़ी के दुक्कों का ऐसा इस्तेमाल करती हैं, मानो वे तुरूप के इक्के हों। और ऐसे में नतीजा तो क्या निकलना है यह साफ रहता है।
सरकार में भला ऐसे कौन हैं जिन्हें पटवारी और तहसील-एसडीएम तक की पूरी तरह से संगठित भ्रष्ट-व्यवस्था की जानकारी न हो। तहसील के अहाते में मौजूद जानवरों से भी पूछने पर वे अलग-अलग किस्म के काम का अलग-अलग रेट बता सकते हैं, लेकिन बड़े अफसर और मंत्री इससे ऐसे अनजान बने रहते हैं कि मानो भ्रष्टाचार की यह पूरी बातचीत फ्रेंच भाषा में चलती है जिसे वे नहीं समझते। सांसद, विधायक, या मंत्री-मुख्यमंत्री बनने तक अधिकतर लोग एक लंबे राजनीतिक जीवन से गुजरते हैं, और उनके पास भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायतें लेकर आने वाले लोग सारे ही वक्त बने रहते हैं। ऐसे में वे अनजान मासूम तो रहते नहीं। जिस तरह आरटीओ दफ्तरों में निजी कर्मचारी काम पर लगाए जाते हैं, उसी तरह तहसील और पटवारी दफ्तर में भी निजी कर्मचारी काम करते हैं क्योंकि काम के लायक पर्याप्त अमला यहां रहता नहीं है, और निजी अमले को तनख्वाह देने की भरपूर गुंजाइश यहां के भ्रष्टाचार में ठीक उसी तरह निकलती है, जिस तरह आरटीओ के चेकपोस्ट पर निजी लठैत रखे जाते हैं ताकि कैमरों में रिकॉर्ड होने पर, या किसी एजेंसी के छापे में पकड़ में आने पर ये लोग अनजाने साबित किए जा सकें।
राज्य सरकार को राजस्व विभाग के कामकाज को दो घटनाओं से बारीकी से समझना चाहिए, इसकी लंबी-चौड़ी तबादला लिस्ट को हाईकोर्ट ने किस कदर गलत मानकर पूरा का पूरा रद्द कर दिया था। दूसरी बात इस भ्रष्ट विभाग में पहली बार तहसीलदारों ने मंत्री पर उगाही का आरोप खुलकर लगाया था। यह अलग बात है कि सरकार ने अपनी साख बचाने के लिए तहसीलदार संघ के ऐसे अफसर को सस्पेंड कर दिया, लेकिन उससे विभाग के आम भ्रष्टाचार की सच्चाई नहीं मिट जाती है। राज्य की भाजपा सरकार को आए अभी साल भर भी नहीं हुआ है, और अगर अभी से कोशिश की जाए तो इस विभाग के दफ्तरों में भ्रष्टाचार कुछ घटाया जा सकता है, और काम को समय पर करवाया जा सकता है। ऐसे दो सुधार होने पर ही सत्तारूढ़ पार्टी की अगले चुनाव में जीतने की संभावना बढ़ सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)