संपादकीय
आंध्र के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू का कल का एक बयान बहुत से लोगों को हैरान कर सकता है और कई लोगों को निराश कर सकता है। आम हिंदुस्तानी देश में बढ़ती हुई आबादी को लेकर फिक्र में डूबे हुए दिखते हैं। आपातकाल के संजय गांधी आबादी पर काबू के नाम पर देश में खलनायक बन गए थे, लेकिन बाद में कई लोगों ने उनके बाकी जुर्म अलग रखकर सिर्फ जनसंख्या नियंत्रण वाले हिस्से की तारीफ भी की थी। अभी चंद्रबाबू नायडू का ये बयान इस तर्क के साथ है कि आंध्र के कई जिलों में गांवों में सिर्फ बुजुर्ग बचे हैं क्योंकि नौजवान पीढ़ी विदेश में, या दूसरे राज्यों में काम करने चली गई है। उनका तर्क यह है कि दो से कम बच्चे होने से युवा आबादी तेजी से घटी है, इसलिए दो से अधिक बच्चे होने पर नौजवान कामकाजी आबादी बढ़ेगी।
जिन लोगों को नायडू की यह बात अटपटी लगती है उन्हें दक्षिण और उत्तर भारत के फर्क को समझना होगा। आज हालत यह है कि देश में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े अगर राज्यवार देखें तो दक्षिण के सारे राज्य ऊपर के पंद्रह राज्यों में आ जाते हैं, और सारे ही हिंदी भाषी राज्य नीचे के पंद्रह राज्यों में। जब प्रति व्यक्ति उत्पादकता और आय में उत्तर और दक्षिण में इतना बड़ा फर्क है, तो यह बात जाहिर है कि दक्षिण के राज्यों में आबादी बोझ नहीं है, वह उत्पादक संपत्ति है। दूसरी तरफ अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी से भरे हुए उत्तर भारत और हिंदी राज्यों में बढ़ती आबादी बहुत बड़ा बोझ है। हम जब देश के राज्यों की फेहरिस्त देखते हैं तो यूपी और बिहार 32वें और 33वें, सबसे आखिर में हैं। आंध्र और तेलंगाना का हाल यह है कि वहां के अधिकतर परिवारों के लोग प्रदेश या देश के बाहर जाकर कामयाबी से काम कर रहे हैं। देश के बाहर से जिन राज्यों को कमाई आती है, उनमें आंध्र और तेलंगाना सहित दक्षिण के सारे ही राज्य हैं बल्कि केंद्र सरकार को अलग-अलग राज्यों से मिलने वाले केंद्रीय टैक्स के आंकड़े देखें तो दक्षिण से प्रति व्यक्ति टैक्स अधिक मिलता है, और केंद्र सरकार से उत्तर भारत को मदद अधिक मिलती है क्योंकि उत्तर के राज्य पिछड़े हुए हैं, उनकी आर्थिक स्थिति खराब है।
हालत यह है कि भारत के राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने दक्षिण के राज्यों पर यह रोक लगा दी है कि वे मेडिकल कॉलेजों में सीटें नहीं बढ़ा सकते। इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि दक्षिण में वैसे भी आबादी के अनुपात में मेडिकल सीटें राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है और यूपी-बिहार जैसे उत्तर के राज्यों में मेडिकल कॉलेज और मेडिकल सीटें आबादी के अनुपात में बहुत कम हैं। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का यह तर्क इतना खोखला और बेहूदा है कि यह दक्षिण के राज्यों से अधिक डॉक्टर निकलने की संभावनाओं को खत्म करता है जबकि हिंदुस्तान में आज रूस, यूक्रेन, चीन, और बांग्लादेश से भी मेडिकल पढ़ाई करके आए हुए डॉक्टरों को काम करने की इजाजत मिल रही है। यह हैरानी की बात है कि भारत के चिकित्सा छात्रों को दूसरे देशों में पढऩे की छूट है लेकिन दक्षिण भारत को मेडिकल सीटें बढ़ाने की इजाजत नहीं दी जा रही है। ख़ुद उत्तर भारत में अगर मेडिकल सीटें बढ़ाना है, तो उसके लिए भी मेडिकल-शिक्षक दक्षिण से ही मिल सकेंगे। उत्तर भारत के हिंदी राज्यों की नालायकी का दाम दक्षिण चुका रहा है। यह सिलसिला देश में उत्तर-दक्षिण के बीच विभाजन की खाई को और गहरा, और चौड़ा करते चले जाएगा। इस सिलसिले में यह भी याद दिलाना जरूरी है कि दक्षिण ने आबादी को घटाकर देश की जनसंख्या नियंत्रण की नीति में बड़ा योगदान दिया था और इसके बदले उसे डिलिमिटेशन में कम संख्या में लोकसभा सीटें मिलने जा रही हैं यानी जिन राज्यों ने देश की जनसंख्या-नीति में अधिक योगदान दिया, उन्हें सजा दी जा रही है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने देश के अलग-अलग राज्यों के संदर्भ में यह बात कई बार लिखी है कि आबादी को बोझ समझने की नौबत देश और प्रदेश की सरकारों की नालायकी के अलावा और कुछ नहीं रहती। जब सरकारें जनता को काम मुहैया नहीं करा पाती हैं तभी आबादी बोझ लगती है। दुनिया के बहुत से विकसित देश आज अधिक आबादी की तरफ बढ़ रहे हैं क्योंकि उन्हें कामगारों की कमी पड़ रही है। भारत जैसा देश और इसके अधिकतर प्रदेश अगर अपने लोगों को उत्पादक काम दे पाएंगे, तो यहां पर आबादी कमाई का बहुत बड़ा जरिया हो सकती है। दुनिया की कंपनियां चीन से परे भारत को भी एक बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब मानकर चल रही हैं, और चीन प्लस वन अंतरराष्ट्रीय कारोबार में भारत के ही संदर्भ में अधिक इस्तेमाल हो रहा है। चंद्रबाबू नायडू ने जो कहा है उसे आंध्र-तेलंगाना के लोगों की पढ़ाई-लिखाई, उनके हुनर, और प्रदेश और देश के बाहर जाकर काम करने की उनकी भाषा के आधार पर कहा है। कोई काबिल प्रदेश और जिम्मेदार नेता ही भारत में ऐसी बात कहने का हौसला दिखा सकता था। हम पूरी तरह से चंद्रबाबू नायडू की बात के हिमायती हैं कि आंध्र में पंचायत और म्युनिसिपल चुनाव लडऩे के लिए दो या इससे ज्यादा बच्चे होना जरूरी किया जा रहा है। जब आंध्र के इस कानून की तैयारी को देखें तो छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्यों के कानून वहां की हालत बताते हैं कि दो से अधिक बच्चे होने पर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के चुनाव भी रद्द हो जाएंगे।
हमने राज्यों के बारे में यह बार-बार कहा है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य की खनिज संपदा की वजह से उसकी जो प्रति व्यक्ति आय है उससे संतुष्ट होकर बैठ जाना सरकार के लिए समझदारी की बात नहीं है। राज्यों को अपने लोगों के हुनर, उनकी शिक्षा, और दुनिया भर में जाकर काम करने की उनकी क्षमता-महत्वाकांक्षा को इस हद तक बढ़ा देना चाहिए कि राज्य अधिक से अधिक आबादी पर अधिक से अधिक कमाई कर सके। जो प्रदेश अपने लोगों को धर्म के आयोजनों जैसे अनुत्पादक कामों में झोंककर रखते हैं, पढ़ाई-लिखाई, महत्वाकांक्षा और संभावना से दूर रखते हैं, उन प्रदेशों में बड़ी आबादी बड़ी समस्या हो सकती है। उत्तर भारत को देश के अधिक प्रधानमंत्री बनाने के अहंकार से मुक्ति पानी चाहिए, और उसे अपने आम लोगों की क्षमता बढ़ाने की ठोस कोशिशें करनी चाहिए। आज दक्षिण के टैक्स से उत्तर में राशन बंटता है तो यह अच्छी नौबत नहीं है। राज्यों को अपने लोगों को पूरी दुनिया के प्रतियोगी माहौल में जाकर काम करने के लायक तैयार करने को अपनी जिम्मेदारी मानना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)