विचार / लेख
शैलजा पाइक ‘मैकआर्थर’ फैलोशिप पाने वाली पहली दलित महिला बन गई हैं
-विनायक होगाडे
पुणे के येरवडा की झुग्गी-झोपड़ी से लेकर अमेरिका में प्रोफेसर बनने तक का बेहतरीन सफर तय करने वाली शैलजा पाइक अब प्रतिष्ठित ‘मैकआर्थर’ फैलोशिप पाने वाली पहली दलित महिला बन गई हैं।
इस फैलोशिप के तहत चयनित उम्मीदवारों को पांच साल के लिए कई चरणों में 8 लाख डॉलर (भारतीय मुद्रा में 6 करोड़ 71 लाख रुपये) की राशि मिलती है।
शैलजा पाइक ने अपने शोध अध्ययन के माध्यम से दलित महिलाओं के जीवन को गहराई से प्रस्तुत किया है। उन्हें एक ऐसी इतिहासकार के रूप में जाना जाता है जिन्होंने दलित महिलाओं के योगदान और उनकी आत्मचेतना की जागृति का इतिहास लिखा है।
जॉन डी. और कैथरीन टी. मैकआर्थर फाउंडेशन की ओर से ‘मैकआर्थर फैलो प्रोग्राम’ की ‘जीनियस ग्रांट’ फैलोशिप अमेरिका में अलग-अलग क्षेत्रों के 20 से 30 शोधकर्ताओं और विद्वानों को हर साल दी जाती है।
इस साल भी लेखकों, कलाकारों, समाजशास्त्रियों, शिक्षकों, मीडियाकर्मियों, आईटी, उद्योग, अनुसंधान जैसे विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित लोगों के लिए इस फ़ैलोशिप की घोषणा की गई है और इसमें इतिहासकार के तौर पर शैलजा पाइक भी शामिल हैं।
बीबीसी मराठी से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं इस फैलोशिप को पाकर बहुत खुश हूं। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं बादलों पर चल रही हूं।’
येरवडा से अमरीका का दौरा
शैलजा पाइक पुणे के येरवडा की रहने वाली हैं। वह अपनी तीन बहनों के साथ येरवडा की झुग्गियों में बीस बाई बीस फीट के छोटे से घर में पली बढ़ीं।
अपने बचपन के बारे में बीबीसी मराठी से वो बताती हैं, ‘हमारे पास न तो पीने के पानी की सुविधा थी, न ही शौचालय। यह सच है कि मैं कचरे और यहां तक कि गंदगी से घिरे इलाके, जहां सूअर घूमते रहते थे, वहां बड़ी हुई, सार्वजनिक शौचलायों की वो यादें, मुझे आज भी परेशान करती हैं।’
बस्ती में सार्वजनिक नल का पानी ही घर में खाना पकाने या सफाई जैसे कामों का आधार था।
उन्हें यह भी याद है कि इस पानी के लिए उन्हें लंबी कतार में लगना पड़ता था। शैलजा का कहना है कि इसके बावजूद उनके पिता देवराम और मां सरिता ने उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शिक्षा दिलाई।
शैलजा कहती हैं, ‘सामाजिक, शैक्षिक, भावनात्मक और मानसिक सभी स्तरों पर, इन सबका निश्चित रूप से गहरा प्रभाव पड़ता है। इतना मुश्किल जीवन जीने और येरवडा जैसे इलाके़ में रहने के बाद भी इन हालात से बाहर निकलने में शिक्षा के महत्व को मेरे माता-पिता ने पहचाना और मुझे इसके लिए प्रोत्साहित किया। यही कारण है कि मैं ख़ुद को पढ़ाई के लिए समर्पित कर पायी।’
उस समय की अपनी यादों को साझा करते हुए वो बताती हैं, ‘वास्तव में ऐसे माहौल में पढ़ाई करना एक बड़ी चुनौती थी। मैं शाम को 7.30 बजे सो जाती थी और आधी रात को 2-3 बजे उठकर सुबह के छह सात बजे तक पढ़ती थी, फिर स्कूल जाती थी।’
अपने संघर्ष के बारे में बात करते हुए उन्होंने यह भी कहा, ‘एक दलित होने के नाते निश्चित रूप से कई बार मुझे भेदभाव का सामना करना पड़ा।’
‘उदाहरण के लिए, जब मुझे ‘फोर्ड फाउंडेशन फैलोशिप’ मिली, तो मेरे आस-पास के कुछ लोगों को इस पर विश्वास नहीं हुआ। वे अक्सर मुझसे पूछते थे, तुम्हें यह कैसे मिला? मुझे जो फैलोशिप मिली वह मेरे काम के लिए थी, लेकिन एक दलित महिला को मिली फैलोशिप से वे बहुत आश्चर्यचकित थे।’
इस फैलोशिप का क्या महत्व है?
‘जीनियस ग्रांट’ के नाम से मशहूर यह फ़ैलोशिप इस साल 22 लोगों को दी गई है।
‘रचनात्मकता’ मैकआर्थर फैलोशिप का एक मूलभूत मानदंड है। इस फ़ैलोशिप का उद्देश्य नवीन विचारों वाले उभरते इनोवेटर्स के काम में निवेश करना, उसे प्रोत्साहित करना और उसका समर्थन करना है।
इस फ़ैलोशिप को देने के पीछे मूल विचार उन लोगों को सामने लाना है जो जोखिम उठाते हुए समाज की जटिल समस्याओं का सामना करते हैं और जो लोग लीक से हटकर सोचते हैं और सुंदर, रचनात्मक और प्रेरणादायक चीजें बनाते हैं।
फैलोशिप के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, ‘मुझे उम्मीद है कि यह फैलोशिप दक्षिण एशिया और उसके बाहर दलितों और गैर-दलितों दोनों के लिए जातिवाद के खिलाफ लड़ाई को मजबूत करेगी।’
इस फैलोशिप के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग की प्रमुख श्रद्धा कुम्बोजकर ने बीबीसी मराठी को बताया, ‘इस फ़ैलोशिप की राशि भारतीय मुद्रा में भी बहुत बड़ी है। मैकआर्थर फाउंडेशन प्रतिभाशाली लोगों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से यह फ़ैलोशिप प्रदान करता है। यह फैलोशिप इन लोगों की प्रतिभा में यकीन करती है।’
इस फैलोशिप के लिए कोई आवेदन या साक्षात्कार प्रक्रिया नहीं है। फैलोशिप के लिए विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा नामांकित विद्वान और होनहार उम्मीदवारों पर विचार किया जाता है।
‘दलितों में दलित यानी दलित महिलाएं’
शैलजा पाइक का अध्ययन दलित महिलाओं के जीवन के नजरिए से आधुनिक भारत में जाति, लिंग और सेक्सुअलिटी की पड़ताल करता है।
अपने समग्र अध्ययन के बारे में उन्होंने कहा, ‘भारत की कुल आबादी में दलित 17 प्रतिशत हैं। मैंने देखा कि दलित महिलाओं की शिक्षा पर बहुत काम नहीं किया गया है। आंकड़े तो हैं लेकिन सटीक स्थिति के बारे में कोई गुणात्मक शोध नहीं है। इन दलित महिलाओं का इतिहास किसी ने ठीक से नहीं लिखा इसलिए मैंने तय किया कि मुझे ये काम करना है।’
‘ऐतिहासिक रूप से इतनी बड़ी आबादी को किसी भी प्रकार की शिक्षा, सार्वजनिक बुनियादी ढांचे, सार्वजनिक जल निकायों या कुओं के इस्तेमाल की अनुमति नहीं थी, चप्पल या नए कपड़े पहनने की तो बात ही छोड़ दें, भले ही कोई उनका ख़र्च उठाने की स्थिति में ही क्यों न हो।’
‘दलित महिलाएं निस्संदेह सबसे अधिक वंचित और उत्पीडि़त हैं। दलितों में उनकी स्थिति ‘दलित’जैसी है। यही वह समाज है जहां से मैं आती हूं। यही कारण है कि पिछले 25 वर्षों से मेरे अध्ययन, शोध और लेखन का विषय यही रहा है।’
दलित महिलाओं के जीवन का अध्ययन
शैलजा पाइक एक आधुनिक इतिहासकार हैं जो जाति, लिंग और सेक्सुअलिटी के चश्मे से दलित महिलाओं के जीवन का अध्ययन करती हैं।
पाइक ने अपने अध्ययन के माध्यम से जाति प्रभुत्व के इतिहास पर एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया है। इसके साथ ही, उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए बताया है कि लिंग और सेक्सुअलिटी ने दलित महिलाओं के आत्मसम्मान और उनके व्यक्तित्व के शोषण को कैसे प्रभावित किया है।
उनके संपूर्ण लेखन के केंद्र में दलित और दलित महिलाएं हैं। अंग्रेजी, मराठी और हिंदी भाषाओं के साहित्य के अलावा उन्होंने समकालीन दलित महिलाओं के साक्षात्कार और उनके अनुभवों को जोडक़र आज के संदर्भ में एक नया दृष्टिकोण तैयार किया है।
उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘आधुनिक भारत में दलित महिला शिक्षा: दोहरा भेदभाव’ (2014) और ‘जाति की अश्लीलता: दलित, सेक्सुअलिटी और आधुनिक भारत में मानवता’। पहली किताब में उन्होंने महाराष्ट्र के शहरी इलाकों में शिक्षा के लिए दलित महिलाओं के संघर्ष की तुलना ब्रिटिश कालीन हालात से की है।
पढ़ाई लिखाई कहां से हुई?
शैलजा पाइक 2010 से ‘सिनसिनाटी विश्वविद्यालय’ से जुड़ी हुई हैं जहां वह ‘महिला, लिंग और सेक्सुअलिटी अध्ययन और एशियाई अध्ययन’ की शोध प्रोफेसर हैं।
निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आने वालीं शैलजा ने एमए की पढ़ाई 1994-96 के दौरान सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से पूरी की है।
2000 में, उन्हें एमफिल के लिए विदेश जाने के लिए भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएसएसआर) से फैलोशिप मिली। फिर वह इंग्लैंड चली गईं।
इसके बाद उन्हें आगे की शिक्षा के लिए अमेरिका जाने का मौका मिला। आज तक उनके शोध लेखन को अमेरिकन काउंसिल ऑफ लर्नड सोसाइटीज, स्टैनफर्ड ह्यूमैनिटीज़ सेंटर, नेशनल एंडोमेंट फॉर द ह्यूमैनिटीज़, अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज, येल यूनिवर्सिटी, एमोरी यूनिवर्सिटी, फोर्ड फाउंडेशन और चाल्र्स फेल्प्स टैफ्ट रिसर्च सेंटर से फंडिंग मिली है।
उन्होंने 2007 में इंग्लैंड के वारविक विश्वविद्यालय से पीएचडी प्राप्त की। उन्होंने 2008-2010 के दौरान यूनियन कॉलेज में इतिहास के विजि़टिंग सहायक प्रोफेसर और येल विश्वविद्यालय में 2012-2013 के दौरान दक्षिण एशियाई इतिहास के पोस्ट डॉक्टरल एसोसिएट और सहायक प्रोफेसर के रूप में भी काम किया है। (bbc.com/hindi)