कुमार सिद्धार्थ
साल 2024 में ‘मतदाता’ फिर केंद्र में आ गया है। देश में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है। राजनीतिक दल अपने वादे, दावे और नये संकल्पों को बुनने में लगे है। राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र भी सामने आने लगे है। लेकिन आजादी के 76 साल बीत जाने के बाद भी चुनावी समर में कोई नयापन दिखाई नहीं दे रहा है। भारतीय सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य में ‘पर्यावरण’ मुद्दा नहीं होता है, क्योंकि राजनीतिक तंत्र को इसमें ‘वोट बैंक’ नजर नहीं आता है।
इस चुनाव में राजनीतिक दलों के तो वहीं मुद्दे होंगे, जिनसे उन्हें ‘वोट’ मिल सकें। जल, जंगल, जमीन, प्रदूषण जैसी समस्याओं से कोई सरोकार ही नहीं दिखता है। चुनावी वर्ष में यह सवाल फिर उभरने लगा है कि क्या चुनावी विमर्श और बहस में प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों को कोई स्थान मिल पाएंगा? क्या पर्यावरण के मुद्दे 2024 के चुनाव अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होंगे? क्या पार्टियां जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नई नीतियों को पेश करेंगी? अब तक के अनुभव बताते है कि वर्तमान परिस्थिति में बाजारवाद इतना हावी हो गया है कि पर्यावरण से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे ‘गौण’ से हो गए हैं।
कई बड़े-छोटे राजनीतिक दलों ने पिछले चुनावों में अपने घोषणापत्रों में ‘जलवायु परिवर्तन’ को मुद्दा बनाया थी, इसमें टिकाऊ कृषि, पर्यावरण-पर्यटन और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया था।
हम सब की चिंताओं में है कि दुनिया में जलवायु परिवर्तन का संकट लगातार गहराता जा रहा है और लोगों के जन-जीवन एवं आजीविका पर इसका बहुत ही मारक प्रभाव पड़ रहा है। आंकड़े देखें तो पता चलता हैं कि देश के 9 शहर प्रदूषण के मामले में दुनिया के शीर्ष 10 शहरों में शामिल हैं। वहीं विश्व के शीर्ष 50 प्रदूषित शहरों में से 43 शहर तो भारत के ही हैं। प्रदूषण की स्थिति को लेकर हम दुनिया में 9वें नंबर पर हैं।
देश में बढ़ती आबादी के साथ तेजी से जल संकट बढ़ रहा है। कई बड़ी नदियां मौजूदा समय में अबतक के सबसे खराब हालात से गुजर रही हैं। देश भर के प्रमुख शहरों और नदियों में प्रदूषण की बड़ी चिंताएं बनी हुई हैं। पानी की कमी जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है।
दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि अकेले प्रदूषण से भारत में हर साल लगभग 15 लाख लोगों की मौतें होती हैं। अकेले दिल्ली के 50 फीसदी बच्चों के फेफड़े प्रदूषण के कारण प्रभावित हो रहे हैं जिससे न सिर्फ उनकी पढऩे-लिखने की क्षमता प्रभावित हो रही है, बल्कि वे खतरनाक बीमारियों के शिकार भी हो रहे हैं। ऐसे तमात आंकड़े डराते हैं। आखिर हम किस प्रकार के ‘विकास’ की दिशा में बढ़ रहे हैं?
यह भी सही है कि प्रकृति और पर्यावरण के प्रति उदासीनता के लिए राजनीतिक दलों के साथ आम जन भी बराबर के भागीदार प्रतीत होते है। सच यह है कि समाज भी आज प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों से परे हटकर अन्य मुद्दों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है। इसीलिए राजनैतिक दलों के घोषणापत्रों में पर्यावरण के मुद्दों को तवज्जो नहीं दी जाती है। जब तक आम जनता प्रदूषण, जंगल, बांध, विस्थापन आदि के प्रति जागरूक नहीं होगी, तब तक पर्यावरण के मुद्दे चुनावी मुद्दे नहीं बन सकते।
इसी संदर्भ में लोकसभा चुनाव 2024 से पहले कई राज्यों की सैकड़ों पर्यावरण संस्थाओं ने घोषणा पत्र बनाकर मांग पत्र (डिमांड चार्टर) जारी किया है। ताकि, हिमालय के पारिस्थिकी (इकोलॉजी) को बचाया जा सके। इसके लिए पीपल फॉर हिमालय अभियान शुरू किया गया है, जिसके तहत आपदा मुक्त हिमालय की दिशा में मांग पत्र जारी किया गया है।
हाल ही में लद्दाख में सोनम वांगचुक के 21 दिन की भूख हड़ताल ने पूरे देशभर के पर्यावरणविदों और पर्यावरण से जुड़ी समाज सेवी संस्थाओं का ध्यान खींचा है। उत्तराखंड में भी लगातार लंबे समय से जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति और यूथ फॉर हिमालय इस तरह के अभियान चलाते आ रहे हैं तो वहीं, अब अलग-अलग हिमालय राज्यों में एक तरह की समस्याओं का सामना कर रहे सभी लोग एकजुट होकर अपनी आवाज मजबूत कर रहे हैं। यह सभी संस्थाएं ‘पीपल फॉर हिमालय अभियान’ के तहत अपनी मांगों को लोकसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों के सामने रख रहे हैं।
यह सही है कि अब पर्यावरण के प्रति सजग होना समय की मांग है। जनता के बीच से गिने-चुने लोग ही पर्यावरण की बात उठाते हैं। सत्ता की धुंध ने आमजनों के मस्तिष्क को इतना प्रदूषित कर दिया है कि लोगों को अब वास्तविक बिगड़ते पर्यावरण के पहलु नजर ही नहीं आ रहे है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जल, जंगल, जमीन ही जीवन का आधार हैं। कहीं-कहीं चुनावों में राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में पर्यावरण संरक्षण को शामिल तो करते हैं, लेकिन कोई चुनाव ऐसा नहीं रहा, जब पर्यावरण के मुद्दे पर वोट मांगे गए हों। असल में पर्यावरण से जुड़े तीन सबसे अहम बिंदु हवा, मिट्टी व पानी प्रकृति की देन हैं। इनकी बिगड़ती सेहत को लेकर मु_ीभर लोग आवाज तो उठाते हैं, आंदोलन करते है, लेकिन जनता की आवाज आज भी चुनावी मुद्दे का रूप नहीं ले पाती है।
वर्तमान में हम सभी पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं। कभी भी हमारी हवा और पानी इतने खराब नहीं हुए, जितने आज हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों का कहना था कि प्रदूषण की वजह से लोगों की जिंदगी को भारी नुकसान पहुंच रहा है। लोग बीमार पड़ते हैं, इससे न सिर्फ उनका स्वास्थ्य खराब होता है, बल्कि उन्हें भारी आर्थिक नुकसान भी होता है। ऐसे में राजनीतिक दलों के साथ साथ सिविल सोसायटी की भी जिम्मेदारी बनती है कि ‘पर्यावरण’ को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए जमीनी स्तर पर पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के साथ विकास के संतुलन के संदेश को लेकर जाये। लोगों को अब स्वच्छ सांसों के लिए प्रदूषण के खिलाफ जागरूक होना होगा।
देश में राजनीतिक नेतृत्व को न केवल अपने घोषणापत्रों और कार्यों में सामान्य उपायों को मजबूत करने की जरूरत है, बल्कि लोगों के सामने आ रही दुशवारियों को भी को कम करने के लिए जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन और लचीलेपन पर भी निर्माण लेने की जरूरत है। शुद्ध हवा, पानी व भोजन की जरूरत इस समय हर किसी की जरूरत है। सभी राजनीतिक पार्टियों को मुफ्त सुविधाएं देने के बजाय पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गंभीर होना चाहिए।
आमजन को चाहिए कि राजनीतिक दलों की पहल का इंतजार न कर स्थानीय स्तर पर पर्यावरण से जुडे पहलुओं को चुनावी मुद्दा बनाया जाए, तभी सभी में पर्यावरण संरक्षण के प्रति नई ऊर्जा का संचार होगा।