विचार / लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
क्या नरेंद्र मोदी तानाशाह हैं? एक टीवी चैनल के इस प्रश्न का जवाब देते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि नहीं, बिल्कुल नहीं। यह विरोधियों का कुप्रचार-मात्र है। नरेंद्र मोदी सबकी बात बहुत धैर्य से सुनते हैं। इस समय मोदी सरकार जितने लोकतांत्रिक ढंग से काम कर रही है, अब तक किसी अन्य सरकार ने नहीं किया। देश के भले के लिए मोदी आनन-फानन फैसले करते हैं और छोटे-से-छोटे अफसर से सलाह करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता। अमित शाह ने ऐसे कई कदम गिनाए, जो मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री रहते हुए उठाए और उन अपूर्व कदमों से लोक-कल्याण संपन्न हुआ। अमित भाई के इस कथन से कौन असहमत हो सकता है? क्या हम भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के बारे में कह सकते हैं कि उसने लोक-कल्याण के कदम नहीं उठाए? चंद्रशेखर, देवगौड़ा और इंदर गुजराल तो कुछ माह तक ही प्रधानमंत्री रहे लेकिन उन्होंने भी कई उल्लेखनीय कदम उठाए। शास्त्रीजी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह और वि.प्र. सिंह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए लेकिन उन्होंने भी भरसक कोशिश की कि वे जनता की सेवा कर सकें।
जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, नरसिंहराव, अटलजी और राजीव गांधी की आप जो भी कमियाँ गिनाएँ लेकिन इन पूर्वकालिक प्रधानमंत्रियों ने कई एतिहासिक कार्य संपन्न किए। मनमोहनसिंह हालांकि नेता नहीं हैं लेकिन प्रधानमंत्री दो अवधियों तक रहे और उन्होंने भी अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने में उल्लेखनीय योगदान किया। इसी प्रकार नरेंद्र मोदी भी लगातार कुछ न कुछ योगदान कर रहे हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यदि उनका योगदान शून्य होता तो भारत की जनता उन्हें 2019 में दुबारा क्यों चुनती ? उनका वोट प्रतिशत क्यों बढ़ जाता? सारा विपक्ष मोदी को अपदस्थ करने के लिए बेताब है लेकिन वह एकजुट क्यों नहीं हो पाता है? क्योंकि उसके पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं है। उसके पास न तो कोई नेता है और न ही कोई नीति है। यह तथ्य है, इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि देश की व्यवस्था में हम कोई मौलिक परिवर्तन नहीं देख पा रहे हैं। यह ठीक है कि कोरोना महामारी का मुकाबला सरकार ने जमकर किया और साक्षरता भी बढ़ी है।
धारा 370 और तीन तलाक को खत्म करना भी सराहनीय रहा। गरीबों, पिछड़ों, दलितों, किसानों और सभी वंचितों को तरह-तरह के तात्कालिक लाभ भी इस सरकार ने दिए हैं लेकिन अभी भी राहत की पारंपरिक राजनीति ही चल रही है। इसका मूल कारण हमारे नेताओं में सुदूर और मौलिक दृष्टि का अभाव है। वे अपनी नीतियों के लिए नौकरशाहों पर निर्भर हैं। नौकरशाहों की यह नौकरी तानाशाही से भी बुरी है। नरेंद्र मोदी का निजी जीवन निष्कलंक है लेकिन न तो वे अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह जनता-दरबार लगाते हैं, न उन्होंने आज तक अपने 'मार्गदर्शक मंडल' की एक भी बैठक बुलाई। उन्होंने अपने तीन-चार अत्यंत महत्वपूर्ण मंत्रालय नौकरशाहों के भरोसे छोड़ रखे हैं। मैंने कभी नहीं सुना कि अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह वे विशेषज्ञों से नम्रतापूर्वक कभी कोई सलाह भी लेते हैं। इसका नतीजा क्या है? नोटबंदी बुरी तरह से मार खा गई और हमारी विदेश नीति दुमछल्ला बनकर रह गई। यदि मंत्रिमंडल में नोटबंदी पर बहस हुई होती तो देश पर उसक कहर टूटता क्या? डर यही है कि भाजपा कहीं आपात्काल के पहले की इंदिरा कांग्रेस न बन जाए? सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र शून्य होता जा रहा है। पत्रकारिता पर कोई प्रत्यक्ष बंधन नहीं है लेकिन पता नहीं, पत्रकार क्यों घबराए हुए हैं? जब आप अपने आप को चूहाशाह बना दे रहे हैं तो सामनेवाले को आप तानाशाह क्यों नहीं कहेंगे?
(नया इंडिया की अनुमति से)