विचार / लेख
चित्र-गूगल
-अवधेश बाजपेयी
कोई भी सम्पन्न सफल व्यक्ति अपने बच्चों को, किसी भी फाइन आर्ट्स में नहीं भेजना चाहता होगा भी तो लाखों में एक। सभी बच्चों को, आईआईएम, आईआईटी, आईएफएस, एमबीबीएस, आईएएस, एमएमबी आदि जगहों या सीधे यूरोप और अमेरिका भेज देते हैं। ज्यादातर वही बच्चे कला और साहित्य की तरफ जाते हैं जिनके घर, परिवार या माहौल में कला, संस्कृति का वातावरण रहता है या जिन युवाओं के मा बाप का करियर ले लिए बहुत प्रेशर नहीं होता। ज्यादातर ये युवा गांव से आते हैं। क्योंकि किसी भी कला में, भविष्य में कला के साथ आर्थिक सफलता मिले इसकी कोई गारंटी नहीं होती और जीवन-मरण का रिस्क भी है।
कोई भी धनिक अमीर अपने बच्चों को किसी भी फाइन आर्ट में नहीं भेजेगा, जो जाएगा भी तो विद्रोह करके जाएगा पर यह अब पुराने जमाने की बात है। तो सीधी बात है जो देश दुनिया के नीति निर्धारक हैं वो अमीर सफल व्यक्ति ही होते हैं और जिस समाज में वह जीते हैं उसी के अनुकूल ही सारी नीतियां बनती हैं। कला और संस्कृति ऐसा विभाग है जिसका सबसे न्यूनतम बजट होता। इसमें किसी भी राजनेता या अफसर की कोई रुचि नहीं होती और इस कारण सारी कला अकादमियाँ बाबू लोगों के हाथों में चली जाती हैं अभी मध्यप्रदेश की ही सारी अकादमियाँ ज्यादातर बाबू, क्लर्क लोग चला रहे हैं।
इनके अंडर में पूरे प्रदेश के कला विद्यालय हैं, इसके कारण वहां जो कलाकार शिक्षक हैं वो अक्सर अपमानित महसूस करते हैं, इस कारण सारे सरकारी कला विद्यालय बीमार हो चुके हैं या भविष्य में बंद ही हो जाएंगे, क्योंकि सरकार को इससे कोई फायदा नहीं हैं। इसमें तत्काल कोई व्यापार नहीं है और सरकारों के अनुसार समाज के लिए कोई उपयोगी चीज नहीं है इसलिए जैसा चलता है चलने दो वैसे भी कबीर तुलसी के जमाने में कौन से आर्ट कॉलेज थे।
ये नीति निर्धारकों के तर्क होते हैं। देश दुनिया का जो आर्ट मार्केट हैं उन्हें अपने काम के हिसाब से कुछ चंद कलाकार मिल ही जाते हैं जिससे उनका काम चल जाता है और उन कलाकारों को महानगरों में ही रहना पड़ता और गैलरी के बाजार के अनुकूल मिलजुलकर काम करना होता है। यदि कला में व्यावसायिक सफलता चाहिए तो यह सब करना होता है। कर रहे हैं।
कला ही ऐसी चीज है जिसका निजीकरण नहीं हो सकता। वैसे ये हो रहा है पर मैं उसे कुछ समय के लिये ही मानता हूं बाद में वह फिर अपनी प्रकृति की ओर लौटती है। जैसे विचारों का निजीकरण नहीं हो सकता। सरकारें संपत्तियों का ही निजीकरण करेंगे जैसे कला विद्यालयों के भवनों का। यह सब हो रहा है। समाज में जितनी भी हस्त शिल्प की धाराएं थीं सब सुख चुकी हैं, सरकारें हस्तशिल्प के विकास के लिए काम नहीं करती हैं बल्कि मौजूद हस्तशिल्प, यांत्रिक शिल्पों को इकट्ठा कर म्यूजियम बनाकर शहरी को दिखाकर राजस्व वसूलती है। गांव में कभी कुम्हार मटके बना रहे हैं, बेच रहे हैं पर सरकार के लिए वो म्यूजियम की चीज है कितना भद्दा मजाक है। यह सब आधुनिक कलाकारों के निर्देशन में होता है। फिर सरकार उनका विभूषणों से सम्मान करती है।महानगरों के कला विद्यालयों में अब कोई गरीब युवा नहीं पढ़ सकता।
इतिहास में अभी तक जितने महान चित्रकार हुए हैं वो सब इन्हीं गांवों से निकले गरीब युवा ही हुए हैं। वैसे यह सब लिखने के पहले यह लिखना चाह रहा था कि हम जो चित्र बना रहे हैं वो दीवार में टांगने के लिये या गैलरी में दिखाने के लिये या फुटपाथ में बेचने के लिए या इस आभासी दुनिया में दिखाने के लिए। क्योंकि इसमें बहुत सारे संसाधन लगते हैं और इन अभावों के कारण यह सारी कलाएं भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के हाथों में चली जायेगी। बचेगा वही जो अपनी रिस्क में रचनात्मक जीवन जियेगा और शहीद होता रहेगा। आगे आप खुद विस्तार कर लीजिये।