विचार / लेख
अखिलेश प्रसाद
अर्णब गोस्वामी हाथ हिलाकर दूसरे को ललकारते हैं। अरे फलाने अरे चिलाने! कहाँ छुपे हो? सामने आओ। कहाँ मुंह छुपाकर बैठे हो, तुम जहां भी हो हम खोज ले आएंगे। मेरे साथ पूरा भारत तुमको खोज रहा है। क्यों दुम दबाकर छिप गए। पूछता है अर्णब! और हम चुप नहीं बैठेंगे, जबतक आरोपी को बेनकाब नही कर देंगे।
अब उसी के चैनल का सीएफओ महाराष्ट्र पुलिस से छुपता फिर रहा है। महराष्ट्र पुलिस के समन ने उसे छुपने पर मजबूर कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली है कि उसे महाराष्ट्र पुलिस के सामने पेश न होना पड़े। पुलिस को चिट्ठी लिखकर बता रहा है उसे 16 अक्टूबर तक पेश न होने की छूट दी जाए।
आखिर क्यों, भाई? दूसरे को अंगुली नचा नचा कर पलक झपकते ही अपने स्टूडियो में बुलाने वाले को आखिर सांप क्यों सूंघ गया। क्या हो गया! इसी को कहते हैं हवा टाइट होना। पुलिसिया कार्रवाई अच्छे अच्छे को तोड़ देता है। एक कहावत है। पुलिस से न दोस्ती अच्छी और न ही दुश्मनी भली।
सुप्रीम कोर्ट जाना, रिपब्लिक टीवी का अधिकार है, उसे जाना ही चाहिए। इसमे कोई गलत बात नहीं है। कोर्ट में सभी जाते हैं।
लेकिन, लेकिन!
यही जब दूसरे आरोपी जाते हैं तो अर्णव किस मुंह से गला फाड़ते हैं। उसे ललकारते हैं। आपके स्टूडियो आने की क्या बाध्यता है। कोई इतना मजबूर क्यों होगा कि तुम्हारे सामने पेश होगा। और तुम सिर्फ बकवास करोगे।
यह देश भारत है और यहाँ का कानून लोकतंत्र के माध्यम से चलता है। अर्णव गोस्वामी या कोई भी और पत्रकार जो स्टूडियो में बैठकर चीखता चिल्लाता है, वो एक किसी कंपनी का कर्मचारी है। तो फिर भारत का कानून मानने वाला नागरिक एक कम्पनी के कर्मचारी के सामने क्यों जवाब देने के लिए बाध्य होगा?
देश आजाद है, अब कंपनी राज नही चलेगा। अब चलेगा लोकतंत्र का राज्य। अब कानून का राज देश का संसद तय करेगा। किसी स्टूडियो चैनल का मालिक या कर्मचारी नहीं।
जिस तरह से आज यह चैनल पुलिस से आंख मिचौली खेल रहा है और अपने ऊपर लगे आरोप को बेबुनियाद बता रहा है। सभी आरोपी का शुरुआत में यही वर्जन रहता है। बाकी इंसाफ मिलने में सालों साल लग जाते हैं। हो सकता है कि यहाँ भी पुलिस सत्ता के दबाव में यह सब कर रही हो, लेकिन यही बात तो दूसरे के वक्त में भी आपको सोचना चाहिए। यही चैनल है जो पीड़िता के खिलाफ ही जहर उगलता है। शोषकों के पक्ष में इंटरव्यू करता है। आज जब इनको सामना हुआ तो भभक रहे हैं।


