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बाबरी विध्वंस पर सुप्रीम कोर्ट और सीबीआई अदालत की राय बिल्कुल अलग कैसे हो गई?
01-Oct-2020 7:56 PM
बाबरी विध्वंस पर सुप्रीम कोर्ट और सीबीआई अदालत की राय बिल्कुल अलग कैसे हो गई?

सलमान रावी

आयोग ने कुल 100 गवाहों के बयान दर्ज किए और अपनी रिपोर्ट में लाल कृष्णआडवाणी, कलराज मिश्रा, मुरली मनोहर जोशी सहित 68 लोगों की दंगा फैलाने और बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने में अहम भूमिका की बात कही।

छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने को लेकर आपराधिक मामले में फैसले का इंतज़ार किया जा रहा था। सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आया भी, लेकिन इस मामले में पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी समेत सभी 32 अभियुक्तों को बरी कर दिया गया।

इस फैसले को लेकर कई सवाल भी उठ रहे हैं, खासकर उस स्थिति में जब पिछले साल अयोध्या में विवादित जमीन मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था। सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ ने अपने फ़ैसले में कहा था कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना एक ‘गैर कानूनी’ कृत्य था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी इन आरोपों को खारिज कर रही है। भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता जफर इस्लाम ने सीबीआई की स्वायत्ता पर उठ रहे सवालों को गलत बताया है। बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि बीजेपी ने जाँच में कोई दखल नहीं दिया है।

उन्होंने कहा-सीबीआई एक स्वतंत्र जाँच एजेंसी है और उसने साक्ष्य के आधार पर काम किया, जो कांग्रेस की सरकारों के दौर में इक_ा किए गए थे। लेकिन हैदराबाद स्थित नालसार लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फैजान मुस्तफा ने बीबीसी संवाददाता दीप्ति बाथिनी से बातचीत में सीबीआई की विशेष अदालत के फ़ैसले को निराशाजनक बताया और कहा कि ये भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए एक धक्का है।

फैजान मुस्तफा ने कहा, ‘इस फैसले में सबसे बड़ा गैप ये है कि इस मामले में मुख्य आरोप 153ए और 153बी के तहत थे, जो जाति और धर्म के आधार पर नफरत भडक़ाना है। जिस तरह के भाषण दिए गए, उन्हें 153ए और 153बी के अंतर्गत लाया गया था। आप किसी की मंशा का अंदाजा कैसे लगा सकते हैं, ये तो भाषण से पता चलता है। आपराधिक साजिश खुले में नहीं की जाती, बल्कि वो गुप्त रूप में होती हैं। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में ये कहा गया है कि आपराधिक साजिश के मामलों में परिस्थिजन्य सबूतों को लेना चाहिए। कल्याण सिंह, आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी के बयानों को देखिए। साजिश के लिए हमें परिस्थिजन्य सबूतों की जरूरत होती है और वो थी। जिस तरह के हथियार वहाँ मौजूद थे, वो साजि़श दिखाती है। लोगों को दोषी साबित करने के लिए सभी सबूत थे। ये बहुत निराशाजनक है कि इस तरह के अपराध में सभी को बरी कर दिया जाता है। ये तो ‘किसी ने जेसिका को नहीं मारा’ जैसा ही हो गया- किसी ने बाबरी मस्जिद नहीं गिराई।

लेकिन भारतीय जनता पार्टी को इसमें कोई समस्या नहीं दिखती। पार्टी के प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि ये लोग किसी भी साजिश में शामिल नहीं थे और न ही वहाँ जो कुछ हुआ वो पूर्व नियोजित नहीं था। उन्होंने कहा कि कोर्ट ने ये भी स्पष्ट कर दिया है कि वो लोग वहाँ नफरत फैलाने नहीं गए थे। कोर्ट ने तो ये कहा है कि वे उन्होंने शांति क़ायम करने की कोशिश की।

अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि 28 वर्षों से ये मामला चल रहा है, कई बार गवाहों के बयान लिए गए। उन्होंने कहा, ‘सीबीआई को तो पहले भी क्लोजऱ रिपोर्ट दे चुकी थी। क़ानूनी रूप से सीबीआई चाहे तो इसे चुनौती दे सकती है। लेकिन सीबीआई के अधिकारियों को अपनी एनर्जी सही काम में लगानी चाहिए, उन्हें दोबारा अपनी एनर्जी इस केस में नहीं लगानी चाहिए। उनके पास हज़ारों केस पड़े हैं, मुझे लगता है कि उन्हें अपनी एनर्जी उसमें लगानी चाहिए।’

850 गवाहों के बयान, फिर भी कुछ साबित नहीं हुआ

बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में सीबीआई की विशेष अदालत में कुल 850 गवाहों के बयान दर्ज हुए थे।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी का कहना है कि अदालत ने फैसला सुनाने से पहले न तो 6 दिसंबर 1992 की घटना से संबंधित अखबारों और पत्रिकाओं में छपी रिपोर्टों का ही संज्ञान में लिया, न तस्वीरों को और न ही वीडियो का, जबकि ये सब कुछ अब ‘पब्लिक डोमेन’ यानी सार्वजनिक है।

लेकिन बीजेपी प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि फोटो और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की फुटेज देखी गई और विदेशों से बुलाकर भी लोगों की गवाहियाँ ली गई, अब इस मामले में कुछ बचा नहीं है।

लेकिन जिलानी कहते हैं, ‘वो वीडियो इंटरनेट पर अब भी मौजूद हैं, जिनमें भारतीय जाता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद् और दूसरे हिंदू संगठन के नेता कारसेवकों को मस्जिद तोडऩे के लिए उकसाते हुए साफ दिख रहे हैं। उसमें कुछ नेताओं को माइक से घोषणा करते हुए साफ देखा जा सकता है जिनमें वो कह रहे हैं-एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो।’

जिलानी ने इस पर भी आश्चर्य व्यक्त किया कि सार्वजनिक तौर पर मौजूद सबूतों को कोई अदालत कैसे अनदेखा कर सकती है?

उनका तर्क है कि जिनकी गवाही अदालत के रिकॉर्ड में दर्ज हैं, वो उस वक्त अयोध्या में तैनात वरिष्ठ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं। इसके अलावा जो उस वक्त ये पूरा माजरा रिपोर्ट कर रहे थे वो पत्रकार भी गवाह हैं। वो कहते हैं, ‘इन गवाहों ने जो बयान दिए, उन पर अदालत ने भरोसा नहीं किया। फैसला बताता है कि अदालत ने गवाहों की बात को तरजीह नहीं दी। तो क्या ये सभी गवाह झूठ बोल रहे थे? अगर ऐसा है तो फिर अदालत न इन सब पर कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की?’

फैजान मुस्तफा कहते हैं, ‘बीजेपी और शिवसेना के नेताओं के उस वक्त के भाषण उपलब्ध हैं। तब जो धर्म संसद आयोजित हो रही थीं, उनमें दिए नारे देखे जा सकते हैं।

जो कारसेवक उस दिन आए थे, वो कुल्हाड़ी, फावड़ों और रस्सियों से लैस थे। इससे साफ जाहिर होता है कि ये षडय़ंत्र था।’

भडक़ाऊ नारे, हथियारों से लैस कारसेवक

प्रोफेसर मुस्तफा कहते हैं कि इतने बड़े अपराध के लिए किसी को दोषी न पाया जाना देश की कानून व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है।

उन्होंने कहा, ‘इससे यही लगता है कि सीबीआई अपना काम ठीक से नहीं कर पाई क्योंकि इतने ऑडियो, वीडियो साक्ष्य और 350 से ज़्यादा प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों के बावजूद ठोस सबूत ना मिल पाने की बात समझ नहीं आती।’

प्रोफेसर मुस्तफा के मुताबिक जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष का अलग-अलग और स्वायत्त होना जरूरी है। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने 6 दिसंबर 1992 की घटना और उस दौरान पैदा हुए माहौल पर किताब भी लिखी है।

बीबीसी के साथ एक खास बातचीत में उनका कहना था कि वर्ष 1989 में ही विश्व हिंदू परिषद ने अदालत के समक्ष स्पष्ट कर दिया था कि वो वहाँ मौजूद मस्जिद के ढांचे को तोडक़र मंदिर का निर्माण करना चाहता है। विश्व हिंदू परिषद का इरादा साफ था।

मुखोपाध्याय कहते हैं कि ये सिर्फ एक दिन की बात या सिर्फ एक घटना नहीं थी जो अचानक 6 दिसंबर 1992 को घटित हुई।

वो कहते हैं, ‘इसकी तैयारी काफी लंबे समय से चल रही थी और ये पूरी तरह से नियोजित थी। इसके सत्यापन के लिए बहुत सारे सबूत अख़बारों की करतनों और पत्रिकाओं की रिपोर्टों में मौजूद हैं। सब कुछ ‘डॉक्यूमेंटेड’ है और सार्वजनिक भी है। इतने बरसों तक जो हिंदू संगठनों ने अभियान चलाया था उसका असली मकसद ही था कि बाबरी मस्जिद के मौजूदा ढाँचे को तोडक़र वहाँ मंदिर बनाया जाए।

उनका कहना था कि लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा का भी यही मकसद था।

लेकिन बीजेपी प्रवक्ता जफर इस्लाम के मुताबिक अदालत में सबूतों के आधार पर ही सच सामने आया और इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की सरकार के दौरान बीजेपी नेताओं को फँसाने के लिए विध्वंस के बारे में एक भ्रम पैदा किया था।

सीबीआई की विशेष अदालत ने अपने फैसले में साफ किया कि जो आरोपपत्र अभियोजन पक्ष की तरफ से दायर किया गया उसमें कहीं से भी ये बात साबित नहीं होती है कि नामजद अभियुक्तों ने लोगों को उकसाया या दंगे जैसे हालात पैदा किए।

विशेष अदालत ने ये भी पाया कि 6 दिसंबर 1992 को दोपहर में कारसेवक अचानक बेकाबू हो गए और वो नाकेबंदी तो तोड़ते हुए बाबरी मस्जिद पर चढ़ गए थे, जबकि विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल उन्हें ऐसा करने से मना कर रहे थे।

अदालत का ये भी मानना है कि कारसेवकों के बीच कुछ आपराधिक तत्व थे जिन्होंने इस कार्य को अंज़ाम दिया क्योंकि अगर वो राम भक्त होते तो अशोक सिंघल की बात सुनते जो बार-बार कह रहे थे कि उस विवादित जगह पर मूर्तियाँ भी हैं।

वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘कानून में षडय़ंत्र एक ऐसी चीज होती है जिसे साबित करना आसान नहीं होता है। इसमें सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि यह परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर होता है। वहाँ अंजू गुप्ता जो आईपीएस हैं, उनकी और कई अन्य लोगों की गवाही थी जिनकी सत्यनिष्ठा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।’

‘दूसरा, अगर कहीं भीड़ इक_ी होती है और कोई गैर-कानूनी काम करती है तो आईपीसी के सेक्शन 149 के मुताबिक, भीड़ के लोग एक-दूसरे के कार्यों के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह तो स्थापित तथ्य है कि बाबरी मस्जिद थी और गिराई गई। ऐसे में कानून के हिसाब से उन लोगों की जिम्मेदारी बनती है।’

विरोधाभास

भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सेवानिवृत जस्टिस एमएस लिब्राहन के नेतृत्व में एक जांच आयोग का गठन किया था जिसने 17 वर्षों के बाद साल 2009 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी।

आयोग ने कुल 100 गवाहों के बयान दर्ज किए और अपनी रिपोर्ट में लाल कृष्णआडवाणी, कलराज मिश्रा, मुरली मनोहर जोशी सहित 68 लोगों की दंगा फैलाने और बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने में अहम भूमिका की बात कही।

जस्टिस एमएस लिब्राहन ने बीबीसी संवाददाता अरविंद छाबड़ा से कहा कि आयोग की जांच में आपराधिक षड्यंत्र और बाबरी मस्जिद के ढांचे को तोड़े जाने में जिन लोगों की अहम भूमिका थी उनके ख़िलाफ़ सुबूत भी रखे गए थे।

जस्टिस लिब्राहन कहना है कि आयोग की रिपोर्ट और सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले में भी काफ़ी विरोधाभास है। (bbc.com/hind)


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