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अकेलापन क्या डराने वाली चीज है? : दिनेश श्रीनेत
16-Jun-2020 7:20 PM
अकेलापन क्या डराने वाली चीज है? : दिनेश श्रीनेत

अकेलेपन और अवसाद पर इन दिनों बहुत कुछ पढऩे को मिल रहा है। मेरे मन में अक्सर ये ख्याल आता है कि जो अवसाद की तरफ ले जाए उस अकेलेपन की शुरुआत कैसे होती है? जाहिर सी बात है कि इसका कोई बना-बनाया जवाब नहीं है। संसार में जितने मनुष्य हैं उससे भी कई गुना ज्यादा रिश्तों की जटिलताएँ हैं। जब में रिश्तों की बात कर रहा हूँ तो यह मनुष्य से मनुष्य के बीच ही नहीं, मनुष्य से प्रकृति, उसके अपने समय और वातावरण से भी उसके रिश्तों को शामिल कर रहा हूँ। इनके बीच कैसे कोई खुद को संतुलित रख सकता है?

क्षमा मांगना, भूल स्वीकार और धन्यवाद देना। जीवन में ये बड़े काम की तीन बातें हैं। जैसे-जैसे हम ज्ञानी, सफल और लोकप्रिय होते जाते हैं इन तीनों से दूर होते जाते हैं या कई बार इनका प्रयोग महज कूटनीतिक तरीके से करते हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना लगभग हर धर्म का आधार रहा है। जैसे हिंदू और ईसाई धर्म में भोजन से पहले ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना।

जिसे हम नीतिशास्त्र या धर्म की भाषा में अंत:करण कहते हैं वही मनोविज्ञान की भाषा में आपका अवचेतन है। जब हम झूठ बोलते हैं तो सामने वाले के लिए तो वह सच ही होता है मगर हमारा अंत:करण दो खंडों में विभाजित हो चुका होता है। एक वो जो यह जानता है कि आप झूठ बोले रहे हैं और एक वो जो उसे सत्य की तरह स्टैब्लिश कर रहा होता है। हमारे अंवचेतन में ऐसे न जाने कितने विरोधाभासों की तलछट जमा होती जाती है। जब आप किसी के प्रति गलत होते हैं तब भी इसी अंत:करण के विभाजन का शिकार होते हैं। क्षमा का हर शब्द आपके भीतर के इस विभाजन को मिटाता है और खंडित अवचेतन मन को फिर से जोड़ता है।

भूल-स्वीकार भी इसी की एक कड़ी है। गलतियां हमसे होती हैं और हम उन पर शर्मिंदा होते हैं। हमने अपनी एक सामाजिक छवि का निर्माण किया होता है जिसे हम खुद अपने लिए भी सच मान लेते हैं। जैसे कि किसी नामी इतिहासकार से तथ्यात्मक भूल नहीं हो सकती या फिर किसी टीम का लीडर कभी गलत फैसले नहीं लेगा। क्योंकि हमने खुद के लिए एक भ्रामक छवि का निर्माण किया है तो हर ऐसी चीज जो उसे चोट पहुंचाए हमें असह्य होती है। गलतियां स्वीकार न करने की शायद यही सबसे बड़ी वजह होती होगी। जैसे आप खुद से अपना चेहरा नहीं देख सकते वैसे ही आप खुद अपने व्यक्तित्व का आँकलन नहीं कर सकते। जब कोशिश करेंगे तो यह झूठा होगा। कोई आपमें ईर्ष्यावश कमियां गिनाएगा तो कोई चाटुकारिता में तारीफ करेगा।

गलतियां स्वीकार करने की आदत धीरे-धीरे हमें हमारे स्वाभाविक व्यक्तित्व की तरफ ले जाती है। आपने अनजाने में जो सामाजिक मुखौटे लगा रखें है गाहे-बगाहे वो उतरते रहते हैं। आपको उतना ही सरल होने की दिशा में बढऩा है जैसे कोरे कागज पर एक सीधी लकीर होती है। हालांकि याद रखें मनुष्य का स्वभाव बहुत सारे भुलावे रचता है। वो दुनिया के साथ बाद में छल करता है पहले आपके साथ ही आपका मन खेलता है। तो काम की बात है कि मन को अपने साथ खेलने न दें। आप उसके साथ छल करेंगे तो वो आपके साथ बहुत गहरे छल करेगा। बेहतर होगा कि मन को अपना दोस्त बनाएँ और उससे सच्चे दिल से बातें करें।

आखिरी बात है शुक्रिया अदा करना। इसकी जरूरत क्यों पड़ती है? यह भी आपके इगो का कवच तोड़ता है। धन्यवाद देना यह तय करता है कि आप अपने जीवन की खुशियों और उपलब्धियों के अकेले कर्ता नहीं हैं यह सबकी साझेदारी है। आप शुक्रिया के रूप में अपनी खुशियों में उनकी साझेदारी को लौटाने का प्रयास करते हैं। यानी धन्यवाद के रूप में उन्हें एक प्रतीकात्मक खुशी देना चाहते हैं। सिर्फ पाना और देना कुछ नहीं आपके अंत:करण की तलछट में और कीचड़ भरता जाता है। पाना और बदले में देना आपको बदले में फिर-से एक सुकून देता है।

अब एक बात और अकेलापन क्या डराने वाली चीज है? हम जैसे-जैसे अपनी मौलिकता की तरफ बढ़ते हैं अकेले होते जाते हैं। लेकिन यह अकेला होना आपको ऊर्जावान बनाता है। जिस अकेलेपन को हम अवसाद का जनक मानते हैं दरअसल वो अकेलापन है ही नहीं वो आपके अहंकार से निर्मित छवि से किया जा रहा संघर्ष है। वो आपका खंडित मन है। खंडित व्यक्तिव है।

आपके व्यक्तित्व में द्वैत हो सकता है मगर विभाजन नहीं होना चाहिए। द्वैत एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। संसार के सभी महान विचारकों में यह द्वैत था। रवींद्रनाथ टैगोर, विवेकानंद, गांधी, बर्टेंड रसेल। उन्होंने मन के विरोधाभासों से कुछ नया रचा और दुनिया को एक नया दर्शन दिया। इसलिेए कि उनके मन के विरोधाभासों में सतत संवाद संभव था। अहंकार निर्मित छवि आपके मौलिक मन से संवाद नहीं करना चाहती। क्षमा, गलतियों का स्वीकार और धन्यवाद ही हमें उस अहंकारी छवि के ताप से बचाता है।

नोट: इन बातों का कोई सुचिंतित वैज्ञानिक आधार नहीं है। कुछ मेरे अनुभव और सामान्य सी तर्क-श्रृंखला है। इस लिहाज से ये बातें मनोवैज्ञानिक सत्य के करीब होने की बजाय नीति या दर्शन शास्त्र के ज्यादा करीब हैं।


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