विचार / लेख
-समरेंद्र शर्मा
राजधानी रायपुर के जीई रोड स्थित एनआईटी के सामने की चौपाटी केवल एक संरचना नहीं थी। यह सत्ता और विपक्ष की जिद, बदले की भावना और राजनीतिक अहंकार का प्रत्यक्ष प्रदर्शन थी। पिछली कांग्रेस सरकार ने इसे युवाओं के मनोरंजन और शहर की रात्रिकालीन अर्थव्यवस्था का केंद्र बताकर तेजी से बनाया। जिस रफ्तार से निर्माण हुआ, संदेश साफ था कि चौपाटी किसी भी कीमत पर बनेगी।
तब भाजपा विपक्ष में थी और उसने इसे अवैधानिक, अव्यवस्थित एवं नगर नियोजन के नियमों के विरुद्ध बताते हुए सडक़ से सदन तक विरोध किया। धरना, प्रदर्शन, अनशन, विरोध इतना प्रतीकात्मक हो चुका था कि यह साफ हो गया था कि अगर यह बनेगी तो बचेगी नहीं और हुआ भी वही। एक ने बनाकर दम लिया, दूसरे ने तोडक़र।
करोड़ों रुपये का निवेश, समय, योजना और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षण भर में ध्वस्त कर दिया गया और जिन लोगों ने इस चौपाटी से रोजगार पाया था, वे बजट और विकास के बहस के बीच गुम हो गए। निर्माण में भी उनका नाम नहीं, ध्वस्तीकरण में भी नहीं। वे सिर्फ राजनीतिक रस्साकशी के शिकार बने।
रुख बदलने का यह खेल नया नहीं है। दानी स्कूल चौपाटी पर जिन लोगों ने विरोध किया था, उन्हीं में से कई एनआईटी चौपाटी बचाने की अगुवाई करते दिखे और दानी स्कूल चौपाटी का समर्थन करने वाले एनआईटी चौपाटी हटाने बुलडोजर के साथ पहुंचे। यह विरोध या समर्थन का मुद्दा नहीं है बल्कि राजनीतिक सुविधा तथा अवसरवाद का सबसे स्पष्ट चेहरा है।
इतिहास दोहराया जाता है, क्योंकि राजनीतिक चरित्र नहीं बदलता। रायपुर इससे पहले भी स्काईवॉक के मामले में यह अध्याय पढ़ चुका है। भाजपा ने इसे राजधानी की पहचान और भविष्य की परिवहन योजना कहकर बनाया। कांग्रेस ने इसे अव्यावहारिक और जनविरोधी बताते हुए तोडऩे के पक्ष में खड़ी रही। आज फिर उसी स्काईवॉक का पुनर्निर्माण शुरू हो चुका है।
जनता जनप्रतिनिधियों को इस आशा के साथ चुनती है कि वे उसके हित की रक्षा करेंगे। लेकिन बार-बार यही संदेश मिलता है कि जनता की चिंता नहीं, जिद की पूर्ति ज्यादा है। निर्माण में जनता का पैसा, तोडऩे में भी जनता का पैसा। निर्णय सत्ता का होता है और कीमत जनता को चुकानी पड़ती है। शहरी विकास सत्ता परिवर्तन पर निर्भर नहीं होना चाहिए, लेकिन रायपुर में विकास का पहला मतलब पहले निर्माण फिर ध्वस्तीकरण होता जा रहा है और इस चक्र में नुकसान हमेशा उन्हीं को होता है, जो टैक्स देते हैं, जो रोजगार तलाशते हैं, जो शहर के बेहतर भविष्य का सपना देखते हैं।
रायपुर विकास के नाम पर कितनी बार राजनीतिक प्रयोगशाला बनेगा? कब तक शहर सत्ता की जिद को झेलेगा। कब तक करोड़ों रुपये मिटाए जाएंगे सिर्फ इसलिए कि योजना किसी और की थी? जिस दिन जनता सवाल पूछना शुरू करेगी, उसी दिन सत्ता जिद छोडक़र जवाब देने लगेगी। तब तक सत्ता जिद करती रहेगी और शहर कीमत चुका रहा होगा।


