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नीतीश कुमार मुश्किलों के बावजूद बिहार में इतने प्रासंगिक क्यों हैं?
21-Nov-2025 10:21 PM
नीतीश कुमार मुश्किलों के बावजूद बिहार में इतने प्रासंगिक क्यों हैं?

-सीटू तिवारी

नीतीश कुमार गुरुवार को 10वीं बार जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, तो यह पहले की शपथ से बिल्कुल अलग था।

इससे पहले नीतीश कुमार को शब्दों के उच्चारण में कभी इतनी दिक्कत नहीं हुई।

नीतीश कुमार के सार्वजनिक भाषणों का रिकॉर्ड देखें, तो वह आत्मविश्वास से भरे और अच्छी हिन्दी बोलने वाले नेता के तौर पर दिखते थे। लेकिन इस बार बढ़ती उम्र का असर साफ़ दिख रहा था।

इसके बावजूद नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बने हुए हैं।

2005 से वही गठबंधन सत्ता में रहा है, जिसके साथ नीतीश कुमार रहे हैं। 2005 से अकेले अपने दम पर न तो आरजेडी सत्ता में आ पाई है और न ही बीजेपी।

1985 में पहली बार विधायक बने नीतीश राजनीति के सांध्य काल में हैं, लेकिन उनकी प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है।

ऐसे में सवाल उठता है कि नीतीश कुमार का बिहार में कोई विकल्प क्यों नहीं हैं?

2020 के चुनाव में तीसरे नंबर यानी 43 सीट लाने के बाद भी बीजेपी ने नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाया।

2025 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही बनाना पड़ा।

नीतीश : 2005 से अब तक

नीतीश कुमार, बिहार ही नहीं बल्कि पूरी भारतीय राजनीति में एक दिलचस्प किरदार हैं।

नीतीश कुमार, बिहार में सबसे ज्यादा वक्त मुख्यमंत्री के तौर पर रहे और अब उन्होंने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है।

बिहार की राजनीति में देखें, तो यहाँ तीन बड़ी पार्टियां हैं- आरजेडी, बीजेपी और जेडीयू।

आरजेडी में लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के कार्यकाल को विपक्षी पार्टियाँ जंगलराज कहकर आलोचना करती हैं।

बीजेपी खुलकर हिन्दुत्व की राजनीति करती है। वहीं जेडीयू दोनों पार्टियों के साथ अपने लिए मध्यमार्गी राह खोज लेती है। साल 2003 में अस्तित्व में आई जेडीयू ख़ुद को समाजवादी बताती है।

नीतीश कुमार, अपनी पार्टी जेडीयू के संख्याबल के साथ आरजेडी और बीजेपी के साथ गठबंधन में चले जाते हैं। नीतीश कुमार करीब दो दशक से मुख्यमंत्री है।

नीतीश कुमार के राजनीतिक करियर पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, ‘नीतीश कुमार 77 और 80 का चुनाव हार गए थे। 1990 में जब लालू का उभार हुआ, तो बीजेपी को एक ओबीसी चेहरा चाहिए था जो लालू के बरक्स खड़ा किया जा सके।’

‘वह चेहरा नीतीश कुमार थे, बीजेपी ने उनको पॉलिटिकली मज़बूत किया। लेकिन 2010 के प्रचंड बहुमत के बाद नरेंद्र मोदी के सवाल पर नीतीश छिटकते हैं और 17 साल पुराना बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ देते है। उस वक्त 2014 के लोकसभा चुनाव में वो सीपीआई के साथ मिलकर लड़ते हैं लेकिन उन्हें सिर्फ दो सीट मिलती हैं।’

यानी नीतीश कुमार को भी इस बात का अंदाजा है कि वह भी बिना गठबंधन के बिहार में नहीं टिक सकते हैं। यानी एक साथ वह बीजेपी और आरजेडी दोनों से नहीं लड़ सकते हैं।

नीतीश की राजनीति

बिहार में देखें तो दो पार्टियाँ ही कैडर बेस्ड पार्टी है। बीजेपी और वामपंथी पार्टियाँ। आरजेडी का अपना आधार यानी कोर वोटर (एमवाई) रहा है।

नीतीश कुमार को जब नवंबर 2005 में सत्ता मिली, तो जेडीयू बहुत मजबूत सांगठनिक बेस वाली पार्टी नहीं थी।

वरिष्ठ पत्रकार अरुण अशेष कहते हैं, ‘बिहार की राजनीति जाति प्रधान रही। लेकिन नीतीश कुमार इसे कास्ट टू क्लास की ओर ले गए। उन्होंने विकास को केंद्र में रखकर राजनीति की। ऐसा नहीं था कि उन्होंने जातियों की गोलबंदी नहीं की लेकिन उन्होंने यह गोलबंदी करके इन जातियों के लिए नीतिगत फैसले लिए।’

सुरूर अहमद भी कहते हैं, ‘आप लालू की पॉलिटिक्स देखिए, तो वह दलितों, पिछड़ों के यहाँ पहुँच जाते थे और साफ-सफाई पर ध्यान देने की बात करते थे। यानी उनकी पॉलिटिक्स बहुत पर्सनल लेवल पर चीज़ों को डील करती थी, लेकिन नीतीश एक डिस्टेंस रखते हुए नीतिगत परिवर्तन करते हैं, जिनका सकारात्मक असर होता है।’

लालू प्रसाद यादव जिस जाति से ताल्लुक रखते हैं, उसकी आबादी बिहार में 14 फीसदी है लेकिन नीतीश कुमार की जाति कुर्मी तो महज 2.87 फ़ीसदी ही हैं।

अगर कुर्मी के साथ कोइरी को भी जोड़ दिया जाए, तो ये तकरीबन सात फीसदी है। कुर्मी-कोइरी को बिहार की राजनीतिक शब्दावली में ‘लव कुश’ कहा जाता है।

लेकिन नीतीश कुमार ने अपने साथ केवल कोइरी और कुर्मी को ही नहीं, जोड़ा बल्कि महिलाओं और अति पिछड़ी जातियों को भी जोडऩे की सफल कोशिश की। इस बार जेडीयू का वोट शेयर 19 फीसदी से ज्यादा है।

महिलाओंं में नीतीश कुमार की पैठ

नीतीश कुमार ने अति पिछड़ी जातियों, महादलितों और महिलाओं के लिए कई योजनाएँ शुरू कीं।

एएन सिन्हा इंंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज (पटना) के पूर्व निदेशक डी एम दिवाकर कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने बीते 20 सालों में जो सोशल इंजीनियरिंग की है, उससे उनका वोट बेस बढ़ा है। लड़कियों के लिए साइकिल, पोशाक जैसी योजनाएँ चलाकर उन्होनें महिलाओं को अपने वोट बेस में शामिल किया।’

‘साल 2010 में जिस महिला ने नीतीश कुमार के लिए वोट किया होगा, अब उसकी बेटी भी नीतीश कुमार के लिए वोट कर रही है। यानी एक तरीके से जेनरेशन टू जेनरेशन की पसंद नीतीश कुमार हैं।’

वह कहते हैं, ‘दूसरा काम नीतीश कुमार ने यह किया कि उन्होनें कर्पूरी ठाकुर की तरह ही अतिपिछड़ा और महादलित कैटिगरी पर लगातार काम किया। जिससे ये जातियाँ जो आबादी के लिहाज से भी बड़ा वोट बैंक है, वो नीतीश के पक्ष में गोलबंद हुईं। तीसरा बिहार में जातीय गणना। इस गणना का विरोध बीजेपी लगातार कर रही थी, लेकिन नीतीश कुमार ने इसे करवाया और विभिन्न जातियों का आँकड़ा स्पष्ट तौर पर सामने आया। इस डेटा के संदर्भ में भी नीतीश फिलहाल एनडीए की मजबूरी बन जाते हैं।’

इस चुनाव में जीविका दीदियों पर लोगों को मतदान के लिए जागरूक करने की जिम्मेदारी थी। स्वयं सहायता समूह बनाकर जिस तरह से एक करोड़ 40 लाख जीविका दीदियों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश, नीतीश सरकार की तरफ से हुई, उससे भी नीतीश कुमार के पीछे महिलाएँ गोलबंद हुईं।

बुज़ुर्ग नीतीश

सुशासन बाबू के नाम से एक वक्त मशहुर हुए नीतीश अब 75 साल के हो चुके हैं।

लेकिन ये कयास भी लगाए जा रहे है कि 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले नीतीश कुमार कब तक मुख्यमंत्री रहेंगें? आम लोग इस सवाल पर बँटे हुए हैं।

नालंदा के चंड़ी की जीविका दीदी गीता देवी कहती हैं, ‘हमारे लिए नीतीश कुमार ने ही किया है और आगे भी वही करेंगें। इसी उम्मीद से उनको वोट दिया है।’ वहीं उनके बगल में खड़ी सरिता कुमारी कहती हैं, ‘सब मीडिया वाला कहता है कि उनकी तबीयत खऱाब है। नीतीश ही बुज़ुर्गों को 1100 रुपए पेंशन दे रहे हैं।’

सिवान से नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण में हिस्सा लेने आए वीर बहादुर कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने सब मुद्दे पर तो काम किया ही है, अब रोजग़ार पर काम करेंगे और पलायन रोकेंगे।’

आम लोगों की इन भावनाओं से अलग वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, ‘नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं क्योंकि उनके नाम पर एनडीए गठबंधन को वोट मिला है।

ऐसे में वह कुछ दिन तक रहेंगे, क्योंकि अगले साल कई राज्यों में चुनाव है और बीजेपी गलत मैसेज नहीं देना चाहेगी। बीजेपी थोड़ा इंतजार करेगी।’

दिलचस्प है कि 20 साल के नीतीश कुमार के लंबे शासन में बिहार, मानव विकास सूचकांकों में नीचे है। शिक्षा, रोजग़ार, उद्योग, प्रति व्यक्ति आय सभी में अन्य राज्यों की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ है।

फिर भी 2025 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के शासन के खिलाफ कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं थी।

ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या नीतीश कुमार का बिहार की राजनीति में कोई विकल्प नहीं है?

डीएम दिवाकर कहते हैं, ‘विकल्प तो जनता ही देगी। लेकिन हाल के सालों में डेमोक्रेसी में वोट को योजनाओं के जरिए खरीदा जा रहा है। इस बार भी 10,000 रुपए चुनाव के दौरान लाखों महिलाओं के खाते में ट्रांसफर किए गए। जाहिर है कि इसका फायदा सत्ताधारी पार्टी को ही हुआ।’ (bbc.com/hindi)


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