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सितारे जमीन पर : आमिर खान की इस फिल्म पर छिड़ी बहस
24-Jun-2025 9:47 PM
सितारे जमीन पर : आमिर खान की इस फिल्म पर छिड़ी बहस

-वंदना

हाल ही में बॉलीवुड कलाकार आमिर खान की एक फिल्म रिलीज हुई है जो अपने स्टार कास्ट के लिए चर्चा में है। इस फिल्म में कई न्यूरोडाइवरजेंट कलाकारों ने काम किया है जिनमें डाउन सिंड्रोम, ऑटिज़्म जैसी स्थितियों वाले कलाकार हैं।

फि़ल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ में एक संवाद है जो विकलांगता को लेकर लोगों के नजरिए को भी दर्शाता है। इस संवाद में एक सुनवाई के दौरान जज निर्देश देती हैं कि कोच (आमिर) इंटलेक्चुएली डिसएबल्ड लोगों की बास्केटबॉल टीम को प्रशिक्षित करें।

जवाब में आमिर ख़ान कहते हैं, ‘मैडम तीन महीनों के लिए पागलों को सिखाऊँगा मैं? और ये क्या बात हुई पागल को पागल मत बोलो?’

वैसे साल भर में बनी कुल हिंदी फिल्मों का नाममात्र हिस्सा ही विकलांग किरदारों पर बनता है- चाहे वो शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति हो या इंटेलेक्चुअली डिसएबल्ड।

स्पर्श का नसीर-‘हमें मदद चाहिए तरस नहीं’

यहाँ 1980 में सई परांजपे की हिंदी फिल्म ‘स्पर्श’ याद आती है, जिसमें नसीरुद्दीन शाह देख नहीं सकते। वो एक ऐसे स्कूल के प्रिंसिपल हैं जहां वो बच्चे पढ़ाई करते हैं जो देख नहीं सकते।

फिल्म का एक सीन है जहाँ शबाना आज़मी इन बच्चों को पढ़ाने में दिलचस्पी दिखाती हैं और कहती हैं, ‘मैं यही चाहूँगी कि बेचारों को ज़्यादा से ज्यादा दे सकूँ।’

ये सुनकर नसीरुद्दीन शाह बोलते हैं, ‘एक छोटी-सी अर्ज है। एक लफ्ज आप जितनी जल्दी भूल जाएँ उतना अच्छा होगा- बेचारा। हमें मदद चाहिए तरस नहीं। ये मत भूलिए कि अगर आप उन्हें कुछ देंगी तो वो भी आपको बहुत कुछ देंगे। किसी का किसी पर एहसान नहीं। कोई बेचारा नहीं। ठीक?’

जब किसी विकलांग व्यक्ति को ज़रूरत से ज़्यादा तरस या मदद या बेचारगी से देखा जाता है तो उन्हें कैसा महसूस होता है, वही अहसास नसीर के चेहरे पर दिखता है।

कोशिश- न सुन, न बोल पाने वालों का प्रेम

कुछ ऐसी ही कोशिश गुलजार ने फिल्म ‘कोशिश’ में की थी।

इस फिल्म में मुख्य किरदार निभा रहे संजीव कुमार और जया भादुड़ी, दोनों ही सुन और बोल नहीं सकते। किसी भी अन्य दंपती की तरह कैसे वो अपनी दुनिया बसाते हैं, ‘कोशिश’ इसी कोशिश की कहानी है।

फिल्म का एक सीन है जहाँ शादी के बाद रात को दूल्हा और दुल्हन दोनों कमरे में बैठे हैं। संजीव कुमार कागज की एक छोटी-सी चिट निकाल कर जया को देते हैं जिस पर लिखा होता है, ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ।’

दुल्हन के लिबास में सजी जया भी कागज की एक पुडिय़ा लेकर आई हुई होती हैं जिस पर लिखा है, ‘पहली बार जो मैंने (शादी से) इंकार किया था, उसके लिए मुझे माफ़ कर देना। मैं ख़ुशकिस्मत हूँ कि मुझे आपके जैसा पति मिला है।’

न कोई शब्द, न कोई स्पर्श। सिर्फ एक दूसरे के साथ का अहसास। शादी के बाद प्रेम का इज़हार करते दो लोगों के बीच ऐसा सुंदर दृश्य शायद ही किसी फि़ल्म में देखा गया होगा।

गुलजार अपनी इस फिल्म में ये बताने की कोशिश करते हैं कि दोनों विकलांग किरदार हैं, लेकिन वो भी हर किस्म के जज्बात को उसी तरह शिद्दत से महसूस करते हैं जैसे बाकी लोग।

हालांकि ‘कोशिश’ फिल्म के आखिर में संजीव कुमार नैतिकता के आधार पर अपने बेटे को ‘जबरदस्ती’ अपने बॉस की बेटी से शादी करने को कहते हैं क्योंकि वो बोल-सुन नहीं सकती।

विकलांग किरदार- न तरस खाएं, न महान मानें

निपुण मल्होत्रा अपनी संस्था के ज़रिए विकलांग लोगों के मुद्दों पर काम करते हैं। जन्म से ही उन्हें आर्थोग्रीपोसिस है। यानी उनकी बाजुओं और टाँगों की माँसपेशियाँ पूरी तरह विकसित नहीं हैं और वो व्हीलचेयर पर हैं।

निपुण इस बात के खिलाफ हैं कि फिल्मों में विकलांग किरदारों को इस तरह दिखाया जाए कि लोग उस पर तरस खाएं।

जबकि स्पर्श या 2024 में आई ‘श्रीकांत’ जैसी फिल्मों की खास बात ये है कि ये विकलांग किरदारों पर न तरस खाती हैं न उन्हें महान बनाती हैं।

फिल्म श्रीकांत में मूल भूमिका निभाने वाले व्यक्ति एक उद्योगपति हैं, जो देख नहीं सकते। वो हुनरमंद तो हैं, पर थोड़े अहंकारी भी। स्पर्श का नसीर भी कई तरह के कॉम्पलेक्स से ग्रस्त है।

जब स्मिता पूछती हैं, ‘क्या अब भी सुंदर हूँ’

फिल्म ‘एल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ में नसीरुद्दीन शाह और स्मिता पाटिल

फि़ल्म ‘एल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ (1980) में निर्देशक सईद मिर्जा ने एक विकलांग महिला के नजरिए को बख़ूबी दिखाया है जो कम ही देखने को मिलता है।

फिल्म का एक सीन है जहाँ स्मिता पाटिल एक दुकान में बतौर सेल्सवुमन काम करती हैं।

साड़ी खरीद रहा एक पुरुष ग्राहक लगातार स्मिता को गलत नजर से देखता है और कहता है, ‘क्या बताऊँ आप मेरी बहन से कितना मिलती हैं बल्कि आप उससे बेहतर हैं। ये साड़ी पहनकर दिखाएंगी आप। देखता हूँ कितनी सुंदर लगती है मेरी बहन।’

बिना उसके जवाब का इंतजार किए या सहमति के वो ग्राहक स्मिता के कंधों पर साड़ी डाल देता है।

जब स्मिता सीट से उठकर दुकान में चलने लगती हैं तो पुरुष ग्राहक को पता चलता है कि स्मिता ठीक से चल नहीं पातीं।

स्मिता ग्राहक से पूछती हैं, ‘मैं आपकी बहन जैसी हूँ न? और आपकी बहन मेरी जैसी? बिल्कुल मेरे जैसी? क्या मेरे जैसी लंगड़ी भी है? बड़ी सुंदर है न?’

सीन यहीं ख़त्म हो जाता है लेकिन ये बहुत असहज कर देने वाला सीन था। स्मिता का सवाल फि़ल्म ख़त्म होने के बाद भी आपका पीछा करता है।

सेरेब्रल पाल्सी वाले रोल में लिया असल किरदार

फिल्म श्रीकांत के एक दृश्य में राजकुमार राव (दाएं)

बहस इस बात पर भी होती रही है कि फि़ल्मों में कम विकलांग कलाकारों को ही काम करने का मौका मिलता है।

2022 में विद्या बालन की फिल्म ‘जलसा’ में सूर्या कासीभटला नाम के जिस बाल कलाकार ने ये रोल किया था उन्हें असल जिंदगी में भी सेरेब्रल पाल्सी है।

सूर्या ने बीबीसी से बातचीत में कहा था, ‘मैं उम्मीद करता हूँ कि मुझे सेरेब्रल पाल्सी वाले बच्चे के किरदार में कास्ट किए जाने से मेरे जैसे उन लोगों को उम्मीद मिलेगी। वो भी सपना देख सकते हैं और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का हिस्सा बन सकते हैं। मुझे ख़ुशी है कि बॉलीवुड को विविध और इन्क्लूसिव इंडस्ट्री बनाने की कोशिश में मैंने भी अपना रोल निभाया।’

‘सितारे ज़मीन पर’ फिल्म में काम करने वाले एक्टर नमन मिश्रा को इनविजिबल ऑटिज़्म है। वे कहते हैं कि वे हमेशा से एक्टर बनना चाहते थे।

फिल्म के एक्टर गोपीकृष्णन को डाउन सिंड्रोम है। वे कहते हैं, ‘मैं स्टार बनना चाहता हूँ-स्टाइलिश।’

‘हाउसफुल’, ‘गोलमाल’...कॉमेडी या लोगों का मजाक

अक्सर इस बात को लेकर हिंदी फिल्मों की आलोचना भी होती है कि कॉमेडी की आड़ में विकलांग लोगों का मजाक बनाया जाता है या उनके किरदार को लेकर संवेदनशीलता नहीं बरती जाती।

हाउसफुल-3 की सारी कॉमेडी विकलांगता के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म में न देख पाने वाले व्यक्ति की एक्टिंग करने वाले रितेश देशमुख कहते हैं, ‘मेरे दोस्त मुझे कानून बुलाते हैं क्योंकि कानून भी अंधा होता है।’

या फिर ‘गोलमाल’ में न बोल सकने वाले तुषार कपूर के दोस्त उनसे कहते हैं, ‘जब उस लडक़ी को पता चलेगा कि तुम्हारा स्पीकर फटा हुआ है तो ये लडक़ी भी हाथ नहीं आएगी।’

‘अटकी हुई कैसेट’ बोलने पर आपत्ति

2024 में आई फिल्म ‘आँख मिचौली’ के खिलाफ निपुण मल्होत्रा ने केस किया था।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने गाइडलाइन जारी कर कहा था कि फिल्मों में विकलांग लोगों को न तो स्टीरियोटाइप किया जाए और न ही मजाक बनाया जाए।

 निपुण बताते हैं, ‘हमने ये जंग अभी जीती तो नहीं है पर सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन हमारे लिए हथियार की तरह हैं। पॉजिटिव दिशा में बढऩा है तो विकलांगता से जुड़ी फिल्में बनाते वक्त, लिखते वक्त ऐसे लोग शामिल हों जो इन मुद्दों की समझ रखते हों। सेंसर बोर्ड में भी विकलांग सदस्य शामिल होने चाहिए। आप देखिए कि जो लोग ठीक से बोल नहीं पाते, ‘आँख मिचौली’ में उन्हें अटकी हुई कैसेट कहा गया। विकलांग लोगों को रोजमर्रा होने वाली दिक्कतों को फि़ल्मों में कॉमेडी के जरिए दिखाएँ, लेकिन उनके विकलांग होने का मजाक न बनाएं।’

कॉमेडी और विकलांग किरदारों का मेल कैसे हो सकता है इसकी सादी सी मिसाल फिल्म ‘कोशिश’ में है। दीना पाठक संजीव कुमार से उनका नाम पूछती हैं तो वो इशारों से बताने की कोशिश करते हैं।

जब दीना पाठक नहीं समझ पाती तो संजीव कुमार हरी मिर्च उठाकर उनके चरणों में रख देते हैं, क्योंकि उनका नाम हरिचरण है और इस पर दोनों ख़ूब हँसते हैं।

‘सितारे जमीन पर में काम करना पुनर्जन्म की तरह’

आमिर खान की नई फि़ल्म ‘सितारे ज़मीन पर भी’ विकलांग बच्चों की कहानी है जो बास्केटबॉल खेलते हैं। कहानी में ह्यूमर है, इमोशन है और कुछ सवाल भी।

फिल्म में कोच बने आमिर ख़ान परेशान होकर सवाल पूछते हैं कि ‘मैं बास्केटबॉल टीम कैसे बनाऊं। टीम तो नॉर्मल लोगों की बनती है।’

तब उनके साथी जवाब देते हैं, ‘सबका अपना-अपना नॉर्मल होता है। आपका नॉर्मल आपका, उनका नॉर्मल उनका।’

और जहाँ तक फिल्म में काम करने का मौका मिलने की अहमियत की बात है, तो आप ‘सितारे जमीन पर’ के एक्टर आरूश दत्ता की बात पर गौर कर सकते हैं।

वो कहते हैं कि इस फिल्म में काम करने का अनुभव उनके लिए पुनर्जन्म की तरह है। (bbc.com/hindi)


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