विचार / लेख

ऐसा होता है प्रेम
06-Aug-2024 2:40 PM
ऐसा होता है प्रेम

-ध्रुव गुप्त

बहुधा प्रेम को स्त्री-पुरुष के बीच के दैहिक आकर्षण का पर्याय मान लिया जाता है। प्रेम में दैहिक आकर्षण की भूमिका होती है, लेकिन हर दैहिक आकर्षण प्रेम नहीं होता। आकर्षण की उम्र छोटी होती है। यौन आवेग उतर जाने के बाद यह लुप्त होने लगता है। इस आकर्षण से अहंकार का उपनिवेश निर्मित होता है। आपको जो आकर्षित करता है,आप चाहते हैं कि वह सदा आपकी संपत्ति बनकर आपके साथ रहे। आपकी आकांक्षा के अनुरूप चले। आपके अहंकार को सहलाता रहे और आपको विशिष्ट होने का गौरव दे। इच्छाएं पूरी न होने पर यह आकर्षण हिंसा का रूप भी धर ले सकता है। इसके विपरीत प्रेम दो व्यक्तित्वों के मिलने से उपजी एक आंतरिक खुशबू है जो उनके बिछड़ जाने के बाद भी उनके व्यक्तित्व में सदा के लिए बची रह जाती है। प्रेम बेडिय़ां नहीं, मुक्ति देता है। वह एकाधिकार तो नहीं मांगता। किसी ने आपको दो घड़ी, दो दिन भी प्रेम के अनुभव दिए तो आप सदा के लिए उसके कृतज्ञ हो जाते हैं। प्रेम की सफलता पा लेने में नहीं, फासलों और अतृप्तियों में है। दांपत्य में नहीं, उन नाजुक और बेशकीमती संवेदनाओं में है जिन्हें आपके व्यक्तितव में भरकर आपके महबूब ने आपको अनमोल कर दिया।

प्रेम हमारा स्वभाव है। प्रेम। को कुरेदकर जगाने में सबसे बड़ी भूमिका हमारे जीवन में विपरीत सेक्स की होती है। एक पुरुष का स्त्री से या स्त्री का पुरुष से प्रेम स्वाभाविक है। लेकिन यह प्रेम के उत्कर्ष तक पहुंचने का रास्ता भर है, मंजिल नहीं। एक बार प्रेम में पड़ जाने के बाद प्रेम व्यक्ति-केंद्रित नहीं रह जाता। वह हमारी मन:स्थिति बन जाता है। एक बार आप प्रेम में हैं तो आप हमेशा के लिए प्रेम में हैं। आप एक के प्रेम में पड़े तो आप सबके प्रेम में पड़ जाते हैं। समूची मानवता के प्रेम में। सृष्टि के तमाम जीव-जंतुओं के प्रेम में। प्रकृति के प्रेम में।

सोचकर देखिए कि आप सचमुच प्रेम में हैं कि प्रेम के नाम पर अपने अहंकार के उपनिवेश निर्मित करना चाहते हैं ?


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