विचार / लेख
तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’
-अपूर्व गर्ग
इस बार रायपुर की अनवरत बारिश ने भिगा दिया। दो सप्ताह से जारी झड़ी अनवरत जारी है। बहुत दिनों बाद इस तरह घुमड़ रहे बादलों से लोगों को पुराने दिन याद आ रहे।
बारिश की पड़ती बौछारों से अतीत की खिड़कियाँ हिल रही हैं-खुल रही हैं।
ऐसी बारिश में उन दिनों बूढ़ातालाब का दृश्य विहंगम होता और किसी विशाल सागर सा नजर आता। तब ये बूढ़ा इठलाता, इतराता करवटें बदलता रहता और इसकी बाहें कितनी दूर-दूर तक फैली रहतीं, जरा याद करिये!
सारी रात बारिश में भीगने के बाद ये छोटा सा शहर उजला-उजला से नजर आता। कुछ भुट्टे वाले, कुछ मूंगफली वाले और सब एक दूसरे को जानने वाले।
दूसरी ओर सदर, रामसागर पारा, फूल चौक पर गिनती के हलवाई जिनकी कड़ाही मानों ऐसी बारिश से खौल नहीं खिल रही हो।
बारिश और मिट्टी का संगम क्या होता है ये पता चलता भीगी मिट्टी की महक से। आज ड्रेन टू ड्रेन सडक़ के इस दौर में न जाने कहाँ खो गया वो महक, न जाने कहाँ दब गई वो मिट्टी?
बारिश का एक मिजाज था, बौछारों से निकलती धुन ओर बूदें गुनगुनाती हुई महसूस होतीं क्योंकि मेरे शहर के पास ऐसे मौसम में खामोश रहने की तहजीब, तमीज थी।
बादलों के मेहरबान होते ही आसपास फूल ही नहीं खिलते झाडिय़ाँ, लम्बी घासें भी झूमने लगतीं, आज हमारे आसपास न झाडिय़ाँ हैं न घास, न झींगुर, न तितलियाँ न टिड्डे। चिडिय़ों की चहचहाहट तो ‘लक्सेरियस’ हो गई। देखना है तो बर्ड पार्क जाओ। जमाना हो गया कोई कम्बख्त कौआ आकर प्राण खाना तो दूर किसी मुंडेर पर भी नहीं दीखता।
फिर भी उड़ते हुए बादलों में वो उस पुराने शहर की यादें उड़ती दिखाई देती हैं, जहाँ मैदान ही मैदान थे ओर बारिश में कबड्डी-कबड्डी की आवाजें और फुटबॉल उछलती नजर आती। इन दिनों प्रभात टॉकीज की पीछे होने वाले मोहन क्लब फुटबॉल टूर्नामेंट को कोई कैसे भूल सकता है?
मेरे कानों में तो अब भी रेडियो की गूंजती ‘राम-राम बरसाती भैया’ आवाज मिश्री घोलती है।
मुझे ऐसी बारिश में अपने दोस्त के गाने के बोल याद आते हैं जो बारिश में तरबतर ‘खीला गड़वनी’ खेलते मधुर कंठ से गाया करता।
‘हाय चना के दार राजा, चना के दार रानी, चना के दार गोंदली, तडक़त हे वो टुरा हे परबुधिया, होटल में भजिया, झडक़त हे वो।’


