विचार / लेख

आदिवासियों का धर्म क्या है? यह सवाल पूरे देष और खुद आदिवासियों तक को लगातार परेषान किए है। 1951 की मर्दुमशुमारी में ‘आदिवासी’ नाम वाला कॉलम हटा दिया गया। सवाल उत्तेजक और विवादास्पद है कि आदिवासी मूलत: हिंदू हैं या उनका हिंदूकरण करने की कोशिशें लंबे अरसे से की जाती रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी सभी आनुुशंगिक शाखाएं वन क्षेत्रों में वर्षों से कई छोटी बड़ी समाजसेवी और शैक्षणिक संस्थाएं खोलकर आदिवासियों को ‘वनवासी’ कहती उन्हें अपनी परिभाषा में हिंदू बल्कि अब हिंदुत्व का शामिल षरीक मायने दे रही हैं। अंग्रेजी शब्द ‘इंडिजिनिस‘ का हिंदी तर्जुमा ‘आदिवासी‘ की व्याख्या करते दुनिया में विपुल साहित्य और गंभीर लेखन उपलब्ध है। भारत में आदिवासियों का एक बड़ा धड़ा हिंदू कहलाने से परहेज करता है। इसके बरक्स कई आदिवासी हिंदू धर्म की मान्यताओंं, प्रथाओं और परंपराओं में शामिल शरीक होते भी चलते रहे हैं।
संविधान में आदिवासी के बदले ‘अनुसूचित जनजाति’ या कभी ‘ट्राइबल’, या कोई ‘वनवासी’ वगैरह शब्दों के अनुसार संबोधित किया जाता रहता है। अनूसूचित जनजाति शब्द का विरोध आदिवासी करते चले आ रहे हैं। आदिवासियों के लिए पूरे जीवन प्रखर विदुषी, ईमानदार और समाजचेता बुद्धिजीवी झारखंड निवासी रमणिका गुप्ता ने बहुत महत्वपूर्ण बातें कही हैं। आज कोई सबसे बड़ा खतरा अगर आदिवासी जमात को है, तो वह उसकी पहचान मिटने का है। इक्कीसवीं सदी में उसकी पहचान मिटाने की साजिश एक योजनाबद्ध तरीके से रची जा रही है।
अपनी किताब ‘हिंदू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति‘ में ‘समाजचेता’ वैज्ञानिक वृत्ति के लेखक और शोधकर्ता अभय कुमार दुबे आदिवासियों के हिंदूकरण के संबंध में तर्क करते हैं ‘बी.के. रॉय बर्मन, एल.पी. विद्यार्थी और वेरियर एल्विन जैसे अध्येताओं ने जनजातीय समूहों को चार या पांच भागों में अपने-अपने हिसाब से वर्गीकृत किया है। इनमें ऐसे आदिवासियों की श्रेणियां भी शामिल हैं जिनका हिंदू समाज में पूरी तरह से विनियोग किया जा चुका है, या जो हिंदू समाज के प्रति सकारात्मक रुख रखते हैं, या जो ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और जिनका पूरा या आधा रूपांतरण हो चुका है, या जो मैदानी समाज से संपर्क में भी हैं और जिन्होंने अपना आदिवासीपन नहीं छोड़ा है, या जिनका हिंदू समाज के निचले पायदान में विनियोग कर लिया गया है, या जो पूरी तरह से हिंदू हो चुके हैं। जाहिर है इनमें ऐसे आदिवासियों की श्रेणियां भी शामिल हैं जो हिंदू बनने के लिए तैयार नहीं हैं और हिंदू समाज के प्रति नकारात्मक रूख रखते हैं।‘‘
संघ ने आदिवासियों के हिंदूकरण की कोशिश नहीं की थी। उसके पहले ही प्रतिष्ठा प्राप्त गहिरा गुरु (असली नाम रामेश्वर) के प्रभावी नेतृत्व में जशपुरनगर में ईसाइयत के प्रसार का विरोध हो रहा था। गहिरा गुरु ने कुछ शिव मंदिरों और दुर्गा मंदिर की स्थापना भी की थी। संघ परिवार ने गहिरा गुरु की लोकप्रियता का लाभ उठाकर बजरंगबली को आदिवासियों के देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया और साथ में ईसाई मिशनरियों के खिलाफ हिंसा में भी उनका इस्तेमाल किया।
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत मेें आदिवासियों की संख्या 10,42,81,034 अर्थात् देष की कुल आबादी का 8.06 प्रतिशत रही है। भारतीय ट्राइबल पार्टी के मुखिया छोटूभाई वासवा कहते हैं, ‘आदिवासियों के लिए आदिवासी धर्म ही कॉलम होना चाहिए। सरना, भील, गोंड या फिर मुंडा नहीं।’ यह भी कहते हैं कि ‘हिंदू नाम का कोई धर्म नहीं है। संघवाले हिंदू शब्द को स्थापित करना चाहते हैं। यह तो वास्तव में सनातन धर्म है।’ उनके अनुसार, ‘जब तक बाहरी लोग आदिवासी क्षेत्र में नहीं आए थे, जन्म से लेकर मृत्यु तक आदिवासी संस्कृति थी। भारत का असली इतिहास तो आदिवासियों से शुरू होता है।’
प्रसिद्ध मानवशास्त्री निर्मल कुमार बोस गांधीजी के निजी सचिव भी रहे। उन्होंने समाजशास्त्रीय, नृतत्वशास्त्रीय नई अवधारणा प्रस्तुत की जिसे गांधी, नेहरू, ठक्कर बापा बल्कि अंबेडकर सहित पूरी संविधान सभा ने भी स्वीकार कर लिया था। यह अवधारणा अकादेमिक क्षेत्र में ‘आदिवासियों को जज्ब करने की हिंदू विधि’ के नाम से विख्यात है। बोस की थ्योरी है कि आदिवासी हिंदुओं के दिन प्रतिदिन संपर्क में होते रहे हैं। इस प्रक्रिया में वे क्रमश: अपनी आदिवासी पहचान और अस्मिता भूलते गए। प्रसिद्ध मानवशास्त्री और निर्मल बोस के समकालीन तारकचंद्र दास (1898-1964) ने इसके उलट बोस के बरक्स अपनी समझ की तात्विकता को बेहतर, वैज्ञानिक और सेक्युलर आधारों पर समीक्षित करते कहा है कि आदिवासी मूलत: हिन्दू नहीं हैं।
आदिवासियों को दुनियावी कारणों से ईसाई धर्मों मेंं प्रलोभन के आधार पर धर्म परिवर्तित कर लिया जाता रहा हो लेकिन वह आदिवासी होने की मानसिकता का ईसाइयत में अंतरण नहीं कहा जा सकता। भारत के आदिवासी समुदाय के एकमात्र कार्डिनल आर्च बिषप तिल्सेफर टोप्पो भी मानते हैं कि जनजातियों के बीच कैथोलिक चर्च अभी शिशु अवस्था में ही है। संकेत साफ है चर्च को जनजातियों के बीच आगे बढऩे की संभावनाएं दिखाई तो दे रही है। संविधान के अनुसार ईसाई धर्म अल्पसंख्यक धर्म है। आदिवासी संवैधानिक रूप से घोषित अल्पसंख्यक नहीं हैं। आदिवासी के ईसाइयत में धर्म परिवर्तित होने पर उसकी पहचान आदिवासी के रूप में सुरक्षित रहती है। धर्म परिवर्तन करने से भी उसे अल्पसंख्यक की श्रेणी में नहीं माना जाता। यही ईसाई धर्म में तब्दील हो गए आदिवासी अब मांग करते हैं। वे ईसाइयों के रूप में व्यवहार करते हैं, तो कहते हैं कि हमें अल्पसंख्यक माना जाए क्योंकि हम ईसाई हैं। उन्हें संवैधानिक और अन्य तरह की सुरक्षाएं दी जाती हैंं, जिसके वे नौकरी, विधायन में निर्वाचन तथा शिक्षा आदि के लिए हकदार हैं, तब कहते हैं कि हम आदिवासी हैं। ईसाइयत में परिवर्तित सभी ईसाई आदिवासी दोहरा चरित्र जीवन जीने और दोहरे लाभ भी उठाने को मजबूर हैं।
ईसाई मिशनरी और ईसाइयत में तब्दील हो चुके आदिवासी भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद् सहित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ हिंसा का आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि वे आदिवासी ईसाइयों को जबरिया हिंदू धर्म में शामिल करने के लिए तयशुदा अभियान चला रहे हैं। आदिवासियों और चर्च पर भौतिक तथा हिंसात्मक हमले भी करते हैं ताकि डर के कारण ईसाई हो चुके आदिवासी वापस अपने कथित हिंदू धर्म में लौट जाएं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर 2014 के बाद ऐसे इलाकों में जहां आदिवासी ईसाई हो चुके हैं, संघ, विश्व हिंदू परिषद् तथा भारतीय जनता पार्टी की ओर से हमलों का घनत्व लगातार बढ़ता जा रहा है। यह भी आरोप है कि जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें रही हैं, उस दौरान वहां हमले बहुत बढ़े हैं। संयुक्त राज्य अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने भारत के खिलाफ प्रतिबंध लगाने की सिफारिश तक की है। उनकी रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन में लोग संलग्न हैं। आयोग के प्रस्ताव में खासतौर से छत्तीसगढ़ के धर्मांतरण विरोधी कानून छत्तीसगढ़ अर्थात् धर्म स्वातंत्र्य संहिता, 1968 और भारतीय जनता पार्टी की छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पेश किए गए संशोधन का हवाला दिया है।
उन्हें हिंदू धर्म का मान लिया जाए इसको लेकर भी मूल आदिवासियों में विरोध बरकरार है। वे अपने आपको सरना या किसी अन्य मूल आदिवासी धर्म के साथ जुड़े रहना चाहते हैैं। भारतीय जनता पार्टी और सरना धर्म के मानने वालों सहित कुछ और लोगों का तर्क है कि जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं, उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिलना चाहिए। लेकिन सवाल संविधान का है। आदिवासी चिंतक डॉ. रामदयाल मुंडा ने आदिवासी धर्म और आध्यात्मिकता को वैचारिक आधार देते ‘आदि धर्म’ नाम से महत्वपूर्ण किताब लिखी। उनका यह विचार संघ के ‘एक धर्म हिंदू’ नामक नारे का प्रतिपक्ष कहा गया। रांची में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल ने कहा था कि आदिवासियों को सरना धर्म कोड की जरूरत नहीं है। संघ तो उन्हें हिंदू मानता है। तब आदिवासी समाज में इसकी काफी उलट प्रतिक्रिया हुई थी। संघ बिल्कुल नहीं चाहता कि आदिवासी हिंदुत्व के फ्रेम से बाहर हो जाएं। इसलिए जहां जहां भाजपा की सरकारें हैं, वहां वहां धर्मांतरण के खिलाफ अधिनियम पारित कर कठोरता के साथ आदिवासियों के ईसाई बनने पर दबाव बनाया जाएगा और जो आदिवासी ईसाई बन चुके हैं उनकी हिंदू धर्म में वापसी के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा।
ए. के. पंकज कहते हैं कि भारत की मर्दुमशुमारी 1931 के आंकड़ों के आधार पर एक नई बात कहते हैं। अंग्रेजी राज के दौरान उनका आंकड़ा 1931 की जनगणना पर आधारित कहता है कि 30 लाख लोगों में 16 लाख हिंदू बन गए। सिर्फ 35 गोंडों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। बीस लाख भीलों में सोलह लाख हिंदू बन गए। आठ हजार ने मुस्लिम धर्म अपनाया। और केवल 133 ने ईसाइयत ली। पच्चीस लाख संथालों में दस लाख हिंदू बने जबकि ईसाई धर्म अपनाने वालों की संख्या केवल चौबीस हजार रही है। इसी तरह दस लाख उरांव में से चार लाख हिंदू और दो लाख ईसाई बने। ईसाई संगठन चाहते रहे हैं कि आदिवासी ईसाई बन जाएं। हिंदू संगठन उन्हें अपने पाले में लाने पुरजोर कोशिश मेंं लगे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आगामी जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासी अपना धर्म हिंदू लिखें। इसके लिए संघ देश भर में अभियान चलाएगा।
आदिवासी के साथ जुल्म आजाद भारत में हो रहा है। यह असाधारण और अन्यायपूर्ण है। यह कैसा संविधान, शासन और कानून है जो मनुष्य होने की कगार पर गिर रहा है। जो मनुष्य की सांस्कृतिक स्वायत्तता को सुरक्षित रखने का वायदा करने के बावजूद उसके अस्तित्व पर ही चोट कर रहा है। फिर भी उसे समझाता है कि तुम तो वोट बैंक की इकाई हो। तुम भारत के मूल निवास का अहसास भले रहे हो। तो भी तुम्हें किसी न किसी धर्म में शामिल होकर उस धर्म की आदतों, मान्यताओं, आदेशों और परंपराओं को अपने जीवन में उतारना पड़ेगा। यह जद्दोजहद केवल मनुष्यों की चुनौती नहीं है। यह इतिहास का एक भविष्यमूलक पेचीदा सवाल है।