राजपथ - जनपथ
नक्सली और पुलिस के बीच पिसते युवा
सुकमा जिले के मंडीमरका गांव में बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षा दूत लक्ष्मण बारसे की हत्या नक्सलियों ने पुलिस की मुखबिरी के आरोप में कर दी। बस्तर से आ रही रिपोर्ट बताती है कि इस घटना के बाद वहां के शिक्षा दूतों में गहरी दहशत फैल गई है। लक्ष्मण बारसे सचमुच पुलिस का मुखबिर था या नहीं, यह तय करने का नक्सलियों का मानदंड शायद इतना भर है कि कोई व्यक्ति किसी सरकारी योजना में हाथ बंटा रहा हो।
15 अगस्त को कांकेर जिले के बनीगुंडा गांव में भी ऐसा ही हुआ। नक्सली स्मारक पर तिरंगा पहनाने वाले युवक मनेश नरेटी को जन अदालत लगाकर सरेआम मार डाला गया। नक्सलियों ने उसे भी पुलिस का सहयोगी बताया। बस्तर पुलिस ने झंडा फहराने का वीडियो जारी कर इसे शांति की ओर बढ़ते कदम के रूप में पेश किया, लेकिन इस युवक को सुरक्षा देना जरूरी नहीं समझा गया।
पीछे लौटें तो घटनाओं की एक और कड़ी मिलती है। 10 जून को बस्तर पुलिस ने प्रेस नोट जारी कर इंद्रावती टाइगर रिजर्व में 7 माओवादियों के मारे जाने की बात कही थी। इनमें से एक महेश कुडिय़ाम भी था। महेश सरकारी स्कूल में रसोईया था और उसके सात छोटे-छोटे बच्चे हैं। हर महीने उसके खाते में सरकारी भुगतान भी आता था, लेकिन पुलिस का दावा रहा कि वह नक्सलियों का सहयोगी था।
यहां तस्वीर उलट दिखती है। जिस तरह शिक्षा दूत लक्ष्मण को नक्सलियों ने मुखबिर समझा, उसी तरह महेश को पुलिस ने माओवादी मान लिया। मनेश नरेटी का मामला और भी विचलित करने वाला है। हत्या के कुछ दिन पहले सामने आए एक वीडियो में वह रिपोर्टरों से गांव की समस्याओं पर बात कर रहा था। राशन, अस्पताल, सडक़ और पानी जैसी बुनियादी दिक्कतों को उठाते हुए उसने सरकार की आलोचना भी की थी। पढ़ाई-लिखाई में अच्छा, नवोदय विद्यालय से 12वीं तक पढ़ा मनेश अपने गांव का जागरूक और जिम्मेदार युवक दिखता था। बावजूद इसके नक्सलियों ने उसे तिरंगा फहराने की वजह से सरकार का सहयोगी ठहराया और जन अदालत में उसकी हत्या कर दी।
ये तीनों घटनाएं एक ही सच्चाई सामने रखती हैं, वह है बस्तर के युवाओं पर अविश्वास। जो भी शिक्षा देने की कोशिश करेगा, जो भी देशभक्ति जताएगा, जो भी अपनी आवाज उठाएगा, सामने दिख जाएगा- वह नक्सलियों और पुलिस, दोनों की नजर में शक के घेरे में आ जाएगा। यहां युवा किसी भी ओर खड़े हों, अपनी जान को दांव पर लगाना उनकी नियति बन गई है।
ट्रंप का टैरिफ और वेतन आयोग
वर्ष 25 शुरू होते ही केंद्र सरकार ने 19 जनवरी को 8वें वेतन आयोग के गठन की घोषणा कर खूब वाहवाही बटोरी थी लेकिन उसके बाद से इन आठ महीनों में आयोग के अध्यक्ष, सदस्य, सचिव की नियुक्ति नहीं हो पाई है। इसका इंतजार लगातार लंबा होता जा रहा है। यह प्रक्रिया अब तक अटकती नजर आ रही है। दिल्ली से संपर्क में रहने वाले केंद्रीय कर्मचारी संगठनों के नेताओं की मानें तो आयोग की घोषणा में तीन प्रमुख वजहें हैं, जिनकी वजह से सारा मामला खिंचता चला जा रहा है। इनमें पहला आयोग के कामकाज और सिफारिश के लिए नियम शर्तें, कार्य-परिधि यानी (टर्म्स आफ रिफरेंस) तैयार करना है। सरकार अभी तक इसे को अंतिम रूप नहीं दे पाई है। दूसरा,वेतन आयोग की सिफारिशें सरकार की आर्थिक नीति और राजकोषीय संतुलन पर बड़ा असर डालती हैं। 7वें वेतन आयोग के बाद भी सरकारी खजाने पर हज़ारों करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ा था। अब जब देश की अर्थव्यवस्था ट्रंप के टैरिफ जैसे बड़ी चुनौतियों से निपटने के रास्ते तलाश रही है, ऐसे में फिलहाल कोई ऐसा बड़ा कदम उठाने से बच रही है, जिससे वित्तीय स्थिति पर और दबाव आए। यही कारण है कि 8वें वेतन आयोग की दिशा में ठोस बजटीय प्रावधान अभी नहीं किए गए हैं।
तीसरा और सबसे अहम कारण मौजूदा वेतन संरचना का अध्ययन करके नया स्ट्रक्चर तैयार करना। इसमें बेसिक पे, ग्रेड पे, भत्ते और पेंशन सिस्टम तक में बदलाव करना पड़ता है। अलग-अलग वर्गों, विभागों के कर्मचारियों की मांगों को ध्यान में रखकर एक ऐसा मॉडल तैयार करना जो व्यवहारिक भी हो और राजकोष पर ज़्यादा बोझ भी न डाले, आसान काम नहीं है। मौजूदा हालात देखकर लगता है कि यह प्रक्रिया और लंबी खिंच सकती है।
पार्षदों में निराशा
नगरीय निकायों में बड़ी जीत के बाद विकास कार्यों की रफ्तार तेज होने की उम्मीद जताई जा रही थी। कम से कम रायपुर नगर निगम के पार्षद तो ऐसा ही सोचते थे। मगर अब भाजपा के कई पार्षद निजी चर्चा में विकास कार्य नहीं होने की बात कह रहे हैं।
दरअसल, सरकार ने सभी निकायों को नगरीय विकास योजना के अंतर्गत वार्डों का सर्वे कर प्रस्ताव भेजने के लिए कहा है। पिछले चार महीने से सर्वे ही चल रहा है, और अब तक प्रस्ताव नहीं भेजा जा सका है। स्वाभाविक है कि प्रस्ताव नहीं जाएगा तो राशि का आबंटन भी नहीं होगा। इन सब वजहों से विकास कार्य ठप्प पड़े हैं। बारिश के बाद काम तेज होने की उम्मीद जताई जा रही है। देखना है आगे क्या होता है।
महिला अफसरों का प्रमोशन

राज्य पुलिस सेवा के वर्ष-2002 बैच के 7 अफसरों को मंगलवार को आईपीएस अवार्ड हुआ। इनमें तीन महिला अफसर हैं। खास बात ये है कि ये अफसर प्रमोशन के मामले में अपने बैच के राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसरों की तुलना में छह साल पीछे रह गए।
राज्य प्रशासनिक सेवा के वर्ष-2008 बैच तक के अफसरों को आईएएस अवार्ड हो चुका है। दोनों सेवा के अफसरों के प्रमोशन में गैप हाल के वर्षों में हुआ है। राज्य बनने के पहले तो रापुसे के अफसरों को पहले आईपीएस अवार्ड हो जाता था।रापुसे के अफसर आईपीएस अवार्ड होने के बाद रिटायरमेन्ट तक एडीजी तक पहुंच जाते थे। राजीव श्रीवास्तव तो रिटायरमेंट के अंतिम दिन डीजी के पद प्रमोट हो गए थे।
बाद में परिस्थितियां बदली, और राज्य बनने के बाद आईएएस का कैडर रिवीजन हुआ। पदों की संख्या बढऩे से थोक में राप्रसे के अफसरों आईएएस अवार्ड होने लगा, और वो अपने बैच के रापुसे के अफसरों से आगे निकल गए।
आईपीएस अवार्ड होने वाली दो महिला अफसर भावना पांडेय, और श्वेता श्रीवास्तव सिन्हा के पति भी आल इंडिया सर्विस के अफसर हैं। भावना के पति विजय पांडेय जांजगीर-चांपा जिले के एसपी हैं। उन्हें पहले ही आईपीएस अवार्ड हो चुका है। जबकि श्वेता के पति तारण प्रकाश सिन्हा आईएएस अफसर हैं। वो डायरेक्टर पंचायत हैं, और पहले जांजगीर-चांपा, रायगढ़ व राजनांदगांव जिला कलेक्टर रह चुके हैं।
चाकूबाजी पर अमेजऩ इंडिया को नोटिस
छत्तीसगढ़ में चाकूबाजी की घटनाओं का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है। इन वारदातों के पीछे नशेड़ी अपराधी तो हैं ही, लेकिन असल में आग में घी डालने का काम कर रही हैं ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियां। बार-बार चेतावनी और रोक लगाने के निर्देशों के बावजूद ये प्लेटफॉर्म आज भी खुलेआम प्रतिबंधित चाकू की बिक्री कर रहे हैं। सवाल यह है कि किसके बल पर ये कंपनियां कानून को धता बताने का साहस जुटा रही हैं?
अब पहली बार छत्तीसगढ़ की पुलिस ने एक ऑनलाइन शॉपिंग प्लेटफॉर्म पर कुछ कड़ा शिकंजा कसने का इदारा दिखाया है। सक्ती जिले की पुलिस अधीक्षक अंकिता शर्मा ने अमेजऩ इंडिया को सह-अभियुक्त बनाने की नोटिस दी है। इसमें कहा गया है कि शस्त्र अधिनियम 1959 की धारा 2 और 5 बेहद साफ हैं। लाइसेंस के बिना किसी भी प्रतिबंधित शस्त्र की बिक्री, भंडारण और सप्लाई अपराध है। जब्त किए गए चाकू इस निषेध की परिधि में आते हैं। फिर भी अमेजऩ इंडिया इन हथियारों की ऑनलाइन बिक्री और डिलीवरी कर कानून और जनता, दोनों से खिलवाड़ कर रही है। इन चाकुओं का इस्तेमाल लूट, धमकी और हत्याओं में हो रहा है। निर्दोष लोग खून से लथपथ हो रहे हैं और ई कॉमर्स कंपनियां मुनाफे की गद्दी पर बैठी आंख मूंदे हुए हैं। हम सिर्फ बिचौलिये हैं, कहकर पल्ला झाड़ लेने की कोशिश करती हैं। मगर, शस्त्र अधिनियम में भंडारण भी तो अपराध है। बिना भंडारण के चाहे वह सामान भेजने के प्वाइंट पर हो या पहुंचने के प्वाइंट पर क्राइम तो ये कंपनियां भी कर रही हैं। इसी बात को सक्ती एसपी ने पकड़ा है।
वैसे यह केवल छत्तीसगढ़ की समस्या नहीं, पूरे देश की है। ई-कॉमर्स कंपनियां अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रभावशाली कारोबारी हैं। सरकार की कारोबारी नीतियों पर इनका दखल हो सकता है। छत्तीसगढ़ के एक जिले का कोई पुलिस अफसर यदि नोटिस भेज भी दे तो उनके पास बड़े-बड़े वकील भी होते हैं। ऐसे में इस नोटिस से उनकी सेहत पर कोई असर पड़ेगा कहना मुश्किल है। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने प्रदेशभर में बढ़ती चाकूबाजी पर चिंता जताते हुए पुलिस अफसरों को नोटिस जारी की है। पुलिस अफसरों को जवाब में बता देना चाहिए कि हम तो जैसे ही पता चलता है, जब्ती करते हैं, पर ई- कॉमर्स कंपनियां हमारे विरोध के बावजूद सप्लाई कर रही हैं। तब शायद हाईकोर्ट इन कंपनियों को भी नोटिस जारी कर दे।


