राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा एक निष्क्रिय दल
देशभर में निष्क्रिय राजनीतिक दलों की पहचान के लिए चुनाव आयोग की चल रही कार्रवाई के तहत, छत्तीसगढ़ में भी ऐसे दलों की भी जांच-पड़ताल हो रही है जिन्होंने सन् 2019 से कोई चुनाव नहीं लड़ा। राज्य के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी द्वारा ऐसे दलों को नोटिस जारी कर पूछताछ शुरू की गई है। पहले चरण में 9 दलों ने निर्वाचन कार्यालय में उपस्थित होकर अपना पक्ष रखा। सभी ने अगला चुनाव लडऩे की मंशा जताई है।
चुनाव आयोग किसी दल का पंजीयन सीधे-सीधे रद्द नहीं कर सकता। पहले उन्हें नोटिस देकर सुनवाई का अवसर दिया जाता है। यदि कोई दल निर्धारित समय पर वार्षिक लेखा-जोखा जमा नहीं करता या उसके कार्यालय का पता अमान्य है, तो कारण बताओ नोटिस जारी होता है। यदि आयोग को लगे कि यह मामला धोखाधड़ी का है, तभी पंजीकरण रद्द किया जाता है।
सन् 2022 में देशव्यापी स्तर पर ऐसे दलों की पहचान के लिए एक बड़ा अभियान चलाया गया था, जिसमें 2,100 से अधिक दलों को नोटिस जारी किए गए थे। फिलहाल छत्तीसगढ़ में 56 पंजीकृत राजनीतिक दल हैं, जिनमें से सक्रिय रूप से चुनाव लडऩे वाले दलों की संख्या महज आठ-दस ही है।
इन्हीं 9 दलों में एक नाम छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (छमुमो) का भी है, जिसे अब निष्क्रिय की श्रेणी में गिना गया है। यह दल पहले राजनीतिक संगठन नहीं था, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन की उपज था। इसकी स्थापना स्व. शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में हुई थी, जिनका संघर्ष औद्योगिक मजदूरों, किसानों और शराबबंदी जैसे मुद्दों के लिए था।
सन् 1993 में इस दल से, जनकलाल ठाकुर डौंडीलोहारा से विधायक बने थे। 2003 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 8 प्रत्याशी उतारे थे, जिन्हें कुल 35,000 से अधिक वोट मिले। छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य बनने के बाद भी मोर्चा सक्रिय रहा, लेकिन बीते वर्षों में संसाधनों की कमी, संगठनात्मक कमजोरी और चुनावी अनुकूलताओं के अभाव में यह पार्टी चुनाव मैदान से दूर हो गई।
आज के संदर्भ में यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि कई राजनीतिक दल पंजीकरण तो करा लेते हैं, लेकिन उनका उद्देश्य चुनाव लडऩा नहीं, बल्कि पंजीकरण से मिलने वाले फायदे उठाना होता है। आयकर अधिनियम 1961 की धारा 13्र के तहत ऐसे दलों को दान पर कर छूट मिलती है। चंदा देने वाले लोग दल को पैसा देते हैं और फिर 5-10 प्रतिशत कमीशन देकर वही पैसा वापस ले लेते हैं।
इसके अतिरिक्त, कुछ दलों को दल मान्यता की स्थिति के आधार पर सस्ती दरों पर कार्यालय के लिए भूमि भी मिलती है। सन् 2016 में जब आयोग ने ऐसी गतिविधियों की जांच शुरू की, तो 86 दलों का पंजीकरण रद्द किया गया और 253 दल निष्क्रिय घोषित हुए। अब तक 345 ऐसे दलों की पहचान की जा चुकी है जिनकी जांच जारी है।
एक ओर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा जैसे दल हैं, जो वैचारिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकारों के साथ लोकतांत्रिक प्रणाली में योगदान देना चाहते हैं, लेकिन संसाधनों के अभाव में चुनाव नहीं लड़ पा रहे। दूसरी ओर, सैकड़ों ऐसे पंजीकृत दल हैं जिनके लिए राजनीति एक बिना लागत का मुनाफे का कारोबार बन है। मगर चुनाव आयोग के पास ऐसी कोई प्रणाली नहीं है कि वास्तविक लोकतांत्रिक सोच को लेकर पंजीकरण कराने वाले और फर्जीवाड़ा करने के लिए पंजीकरण कराने वाले दल के बीच अंतर कर सके।
अगला सत्र, अगला भवन
तनाव भरे राजनीतिक माहौल में विधानसभा के मानसून सत्र का शुक्रवार को अवसान हुआ। इस भवन में विधानसभा का आखिरी सत्र था। सत्र के आखिरी दिन शराब घोटाला प्रकरण में पूर्व सीएम भूपेश बघेल के निवास पर ईडी ने छापेमारी की, और उनके पुत्र चैतन्य बघेल को हिरासत में लिया है। इससे परे विधानसभा सचिवालय ने अगले सत्र की तैयारी भी शुरू कर दी है।
अगला सत्र नवा रायपुर के नए विधानसभा भवन में होगा। नए विधानसभा भवन का निर्माण तकरीबन पूरा हो चुका है, और आंतरिक साज-सज्जा का काम चल रहा है। चर्चा है कि पीएम नरेन्द्र मोदी एक से पांच नवम्बर के बीच नए विधानसभा भवन का उद्घाटन कर सकते हैं। पीएम सदन में विधायकों को संबोधित भी करेंगे।
विधानसभा का शीतकालीन सत्र 14 दिसंबर के आसपास होगा। इसकी तैयारी चल रही है। समय सीमा के भीतर सारा काम पूरा हो जाए, इसके लिए सीएम विष्णुदेव साय, डिप्टी सीएम अरुण साव, और स्पीकर डॉ. रमन सिंह के बीच बैठक हो चुकी है। मौजूदा विधानसभा भवन में करोड़ों के निर्माण हो चुके हैं, और नए भवन पर कई निगम-मंडलों की नजर है। हालांकि नए भवन में शिफ्ट होने के बावजूद करीब छह महीने पुराना भवन भी विधानसभा सचिवालय के पास ही रहेगा। इसके बाद सरकार किसी, और को आबंटित करने का फैसला ले सकती है।
पांच पेड़ों से बना पचपेड़ी नाका
रायपुर से जगदलपुर जाने वाले रास्ते पर सबसे बड़ा चौक है, पचपेड़ी नाका। राजधानी रायपुर का यह व्यस्तम चौक है। दूसरे शहर के लोग भी पचपेड़ी नाका को जरूर जानते हैं। नवीन नामकरण को लेकर पचपेड़ी नाका पर राजनीति गहराती जा रही है। इस चौक के नामकरण का इतिहास हमें पीएससी के एक अभ्यर्थी ने हमसे शेयर किया है......
अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में चुंगी कर लगाने के लिए शहर में चार नाकों - आमानाका, पुरानी बस्ती, लाखेनगर की स्थापना की। इनमें से एक पचपेड़ी नाका था। बताया जाता है कि अंग्रेज अफसरों ने अपने बैठने और छांव के उद्देश्य से पांच पेड़ लगवाए। कालांतर में पांच पेड़ों के कारण यह चौक पचपेड़ी (पच का मतलब पांच और पेड़ी का अर्थ होता है छोटा पौधा) और नाका होने के कारण पचपेड़ी नाका पड़ गया। ठीक इसी तरह आम की पेड़ों की बहुलता और नाके की उपस्थिति के कारण आमानाका नाम पड़ा। छत्तीसगढ़ी में आम को आमा से संबोधित किया जाता है। 1982 में पचपेड़ी नाका चौक से होते हुए रिंग रोड का निर्माण हुआ। इस चौक से उस समय माना एयरपोर्ट पर उतरने वाले एरोप्लेन आसानी से दिख जाते थे। जानकर आश्चर्य होगा कि इस चौक से भिलाई स्टील प्लांट की कई चिमनियों से उगलते धुआं को देखा जा सकता था।
पचपेड़ी नाका के उस पार राजधानी रायपुर की कई व्यापारिक गतिविधियों के अलावा निजी क्षेत्र के कई बड़े अस्पताल हैं, जिसके कारण यह चौक राजधानी रायपुर में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण छत्तीसगढ़ में अपनी एक अलग पहचान रखता है। भाठागांव में नए बस स्टैंड के निर्माण के बाद इस चौक पर यात्रियों का भारी जमावड़ा लगा रहता है। रायपुर के अधिकांश घरों में सुसज्जित टाइल्स, फर्श, ग्रेनाइट कहीं न कहीं पचपेड़ी नाका क्षेत्र की याद दिलाते हैं, क्योंकि यह क्षेत्र राजधानी का मार्बल हब भी है।
जब सडक़ नहीं होती, तब रास्ता अंधविश्वास
छत्तीसगढ़ के दो हालिया मामले- एक दक्षिणी छोर कांकेर से और दूसरा राज्य के उत्तर के बलरामपुर से। दोनों ही सरकार की बुनियादी विफलताओं की तस्वीर दिखाते हैं। दोनों जिले आदिवासी बहुल हैं, दोनों में संकट एक-सा है। जब राज्य अपने नागरिकों तक सडक़, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंचाता, तब लोग अंधेरे रास्तों की ओर बढ़ जाते हैं, कोई मजबूरी में, कोई अंधविश्वास में।
कांकेर की सुनीता कोमरा की कहानी एक उम्मीद है। 9 महीने की गर्भवती महिला की हालत बिगड़ी, तो परिवार ने गांव में प्रसव कराने का जोखिम नहीं लिया। कीचड़, जंगल और बरसात के बीच चार किलोमीटर तक पैदल चलकर वह एंबुलेंस तक पहुंची। जान जोखिम में थी, लेकिन उसने सिस्टम पर भरोसा किया। यह सोचकर कि अस्पताल तक पहुंच पाई तो मां और गर्भस्थ का बचाव मुमकिन है।
दूसरी तरफ बलरामपुर की घटना है। पिता ने अपने बीमार बेटे को बचाने के लिए एक मासूम की बलि चढ़ा दी। 15 माह पहले की इस घटना का खुलासा कल हुआ। आखिर खुद एक छोटे बच्चे का बाप होते आरोपी को क्यों लगा कि किसी दूसरे बच्चे की बलि चढ़ा देना ही इलाज का आखिरी रास्ता है? क्यों वह डॉक्टर के पास नहीं गया? सीधा जवाब है- क्योंकि उसके पास कोई डॉक्टर था ही नहीं। अस्पताल की दूरी ने उसे तंत्र-मंत्र और झाड़-फूंक की तरफ मोड़ दिया।
इन दोनों घटनाओं में फर्क जरूर है, पर कारण एक है- आधारभूत ढांचे का अभाव। कांकेर में सडक़ नहीं थी, बलरामपुर में स्वास्थ्य सेवा। नतीजा, एक ओर जान जोखिम में डालकर बच्चा जन्मा, दूसरी ओर एक बच्चे की जान ले ली गई।
क्या जागरूकता केवल प्रचार से आएगी? जमीन पर स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल और सडक़ें भी चाहिए। जब तक ये नहीं होंगे, तब तक सुनीता जैसी महिलाएं कीचड़ में घिसटती रहेंगी और बलरामपुर जैसी जगह में फिर कोई मासूम तंत्र-मंत्र का शिकार होगा।