ताजा खबर
नयी दिल्ली, 20 नवंबर। उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्य विधानसभाओं में पारित विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में राज्यपाल एवं राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की जा सकती।
शीर्ष अदालत ने अपने बहुप्रतीक्षित फैसले में कहा कि उच्चतम न्यायालय भी विधेयकों को मंजूरी प्रदान नहीं कर सकता।
अपने सर्वसम्मत फैसले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह भी कहा कि राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत प्रदत्त अधिकारों से परे जाकर विधेयकों को लंबित नहीं रख सकते।
प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई की अगुवाई वाली पीठ ने कहा, ‘‘हमें नहीं लगता कि राज्यपालों के पास राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर रोक लगाने की असीमित शक्ति है।’’
इस पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल थे।
उसने कहा कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राज्यपालों के लिए समय-सीमा तय करना संविधान द्वारा प्रदत्त लचीलेपन के विरुद्ध है।
प्रधान न्यायाधीश ने फैसले का मुख्य भाग पढ़ते हुए कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपालों के पास तीन विकल्प हैं - विधेयकों को मंजूरी देना, उन्हें राष्ट्रपति के पास भेजना या मंजूरी रोककर अपनी टिप्पणियों के साथ उन्हें विधानसभा को वापस भेजना।
पीठ ने कहा, ‘‘चूंकि संविधान में राज्यपाल के अधिकारों के उपयोग के लिए कोई समयसीमा या उसके इस्तेमाल का तरीका निर्धारित नहीं है, ऐसे में इस न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत इन अधिकारों के प्रयोग के लिए समयसीमा तय करना उपयुक्त नहीं होगा।’’
तमिलनाडु सरकार की याचिका पर निर्णय सुनाते हुए न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला की अगुवाई वाली पीठ ने इस वर्ष अप्रैल में यह निर्धारित किया था कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर तीन महीने में मंजूरी देनी होगी।
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा उच्चतम न्यायालय के आठ अप्रैल के फैसले पर उठाए गए 14 महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करने पर सहमति जताई।
मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए कहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में कुछ कानूनी प्रश्न खड़े हुए हैं जो अपने स्वरूप और सार्वजनिक महत्व के कारण ऐसे हैं कि उन पर न्यायालय की राय लेना आवश्यक हो जाता है।
अनुच्छेद 143(1) राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय से सलाह लेने का अधिकार प्रदान करता है।
पीठ ने बृहस्पतिवार को कहा कि संवैधानिक अधिकारों के इस्तेमाल और राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को किसी भी रूप में अनुच्छेद 142 के तहत प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।
उसने कहा, ‘‘…हम स्पष्ट करते हैं कि संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 142 भी विधेयकों की ‘स्वतः स्वीकृति’ (डीम्ड एसेंट) की अवधारणा की अनुमति नहीं देता है।’’
अनुच्छेद 142 शीर्ष अदालत को किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक आदेश पारित करने का व्यापक अधिकार देता है।
पीठ ने कहा, ‘‘अनुच्छेद 200 का पहला प्रावधान इसके मुख्य प्रावधान से ही जुड़ा हुआ है और किसी चौथे विकल्प की पेशकश करने के बजाय मौजूदा विकल्पों को सीमित करता है। महत्वपूर्ण रूप से तीसरा विकल्प-मंजूरी रोककर विधेयक को टिप्पणियों के साथ वापस भेजना- राज्यपाल के लिए तभी उपलब्ध होता है जब वह वित्त विधेयक न हो।’’
उसने कहा कि राज्यपाल इन तीन संवैधानिक विकल्पों में से किसी एक को चुनने का विवेकाधिकार रखते हैं और अनुच्छेद 200 के तहत अधिकारों का इस्तेमाल करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे नहीं होते।
उसने कहा, ‘‘अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के कार्यों का निष्पादन न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आता। अदालत ऐसे किसी निर्णय के गुण-दोष की समीक्षा नहीं कर सकती।’’
पीठ ने कहा कि यदि राज्यपाल की निष्क्रियता अत्यधिक लंबी, अस्पष्ट और अनिश्चितकाल तक बनी रहे तो ऐसे असाधारण हालात में न्यायालय निर्णय के गुण-दोष पर टिप्प्णी किए बिना, संविधान के तहत राज्यपाल को उचित समय के भीतर अपना दायित्व निभाने के लिए सीमित आदेश जारी कर सकता है।
उसने अनुच्छेद 361 का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल को व्यक्तिगत रूप से न्यायिक कार्यवाही के अधीन करने संबंधी न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध है।
इसमें कहा गया है, ‘‘हालांकि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की लंबी अवधि तक बनी रहने वाली निष्क्रियता की स्थिति में, इस न्यायालय को प्राप्त सीमित न्यायिक समीक्षा के दायरे को नकारने के लिए इस प्रावधान का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।’’
पीठ ने स्पष्ट किया कि राज्यपालों को व्यक्तिगत छूट प्राप्त है लेकिन उनका संवैधानिक पद न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अधीन है।
पीठ ने कहा, ‘‘अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय, कानून के प्रभाव में आने से पहले की अवस्था में न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं होते। किसी विधेयक के कानून बनने से पहले अदालतों द्वारा उसकी विषय-वस्तु पर किसी भी तरह से न्यायिक निर्णय लेना अनुचित है।’’
इसमें कहा गया कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की विधायी भूमिका को किसी अन्य संवैधानिक प्राधिकरण द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।
शीर्ष अदालत ने 11 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। (भाषा)


