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झूठ की सुनामी में बह जाने से वोटर बचे, तो कैसे बचे?
सुनील कुमार ने लिखा है
09-Nov-2025 4:08 PM
झूठ की सुनामी में बह जाने से वोटर बचे, तो कैसे बचे?

social media and AI


बिहार की राजनीति वैसे भी जातिवाद से लेकर कुनबापरस्ती तक, और मुख्यमंत्री बने रहने के लिए मतलबपरस्ती तक, कई किस्म की खराब बातों से घिरी रहती है। बाहुबलियों का बोलबाला रहता है, और आमतौर पर किसी पार्टी को उन्हें टिकट देने से परहेज नहीं रहता। ऐसे में बिहार में चल रहे चुनाव के बीच अलग-अलग पार्टियों के भाड़े के भोंपू, या समर्पित सैनिक, जो भी हों, वे झूठ की लड़ाई लडऩे में जुटे हुए हैं। अब मुफ्त के एआई औजारों की मदद से कोई भी पोस्टर बनाना आसान हो गया है, इसलिए नेताओं के, या किसी और के भी, पहली नजर में अविश्वसनीय लगने वाले बयान पोस्ट किए जा रहे हैं। इस बार झूठ और फरेब एक कदम आगे बढ़ गया है, ऐसे बयानों वाले पोस्टरों के किसी कोने में किसी प्रमुख अखबार, टीवी चैनल, या डिजिटल मीडिया का ब्राँड भी लगा दिया जाता है। मीडिया के नाम से धोखाधड़ी, और जालसाजी करना, अफवाहों को विश्वसनीय बनाना नया नहीं है, आधी सदी से ज्यादा हो चुका है जब भारत में किसी अफवाह को फैलाने और विश्वसनीय बनाने के लिए उसके साथ कहा जाता था कि यह बीबीसी रेडियो पर आई है।

आज सोशल मीडिया पर जिस तरह के झूठ पोस्ट किए जा रहे हैं, झूठे पोस्टर पोस्ट किए जा रहे हैं, उनकी जांच-पड़ताल करने, और उन्हें रोकने के लिए ये प्लेटफॉर्म कुछ करते नहीं दिख रहे हैं, जबकि वे भारत में रिकॉर्ड संख्या में अपने इस्तेमाल से इश्तहारों की मोटी कमाई करते हैं। केन्द्र या जिस राज्य सरकार को झूठ और अफवाह पर कार्रवाई करनी चाहिए, वहां पर सत्तारूढ़ पार्टियों के अपने चुनावी-राजनीतिक हित रहते हैं, और राज किसी भी पार्टी का रहे, फैलाए गए, और जा रहे झूठ में एक हिस्सा तो सत्ता के पसंदीदा झूठ का भी रहता है। जब राजनीतिक दलों के बीच परस्पर सहमति से झूठ का मुकाबला चलता है, तो जख्म तो आम जनता की समझ को झेलने पड़ते हैं, क्योंकि वह हर झूठ की शिनाख्त नहीं कर पाती।

झूठ के ऐसे मुकाबले में भाड़े के भोंपुओं, और समर्पित कार्यकर्ताओं से परे कई दूसरे लोग भी अपनी पसंद के चुनिंदा झूठ को फैलाने में लग जाते हैं। मैंने फेसबुक पर कई बार यह लिखा भी है कि आप अपनी विश्वसनीयता खोकर किसी और की विश्वसनीयता स्थापित करने में कामयाबी नहीं पा सकते। लेकिन लोग इस हड़बड़ी में रहते हैं कि सबसे ताजा वाला झूठ कोई और उनसे पहले पोस्ट न कर दे। लोगों को यह भी अंदाज रहता है कि आज के वक्त देश का कानून इतना कड़ा है कि किसी प्रदेश की सत्ता को आपका झूठ पसंद न हो, तो आप तुरंत एक एफआईआर का खतरा झेल सकते हैं। फिर भी लोग जुटे रहते हैं झूठ फैलाने में, और अपने पसंदीदा को आगे बढ़ाने में, और खुद को नापसंद को नीचा दिखाने में।

आज जब एआई किसी भी तस्वीर में लिखी गई बातों को पढ़ सकती है, उसकी भाषा बदलकर भी देख सकती है, किसी फोटो को पोस्ट करने पर वह उसकी लिखी बातों को अलग-अलग समाचार माध्यमों पर जाकर परख सकती है कि वे सच हैं या झूठ हैं, तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इनका इस्तेमाल क्यों नहीं करते? आज किसी बड़े अखबार, या बड़े समाचार चैनल के नाम से एक पोस्टर बनाकर एक झूठ को फैलाया जा रहा है, जिसे हम ही एक मिनट या उससे भी कम में परख लेते हैं कि यह सच है, या झूठ है, तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपनी जांच-पड़ताल की असीमित क्षमता के रहते हुए भी ऐसा क्यों नहीं करते हैं?

इसकी एक वजह तो यह दिखती है कि खालिस सच को ही जगह दे देने, बने रहने देने से वह सच कम लोगों का ध्यान खींचता है। दूसरी तरफ जो खालिस झूठ है, वह खासा सनसनीखेज भी रहता है, और वह नजरों को चुम्बक की तरह खींच लेता है, उंगलियों को की-बोर्ड पर घसीट लेता है कि इसे तुरंत आगे बढ़ाओ, और लोग उसे तुरंत ऐसे लोगों को आगे बढ़ाते हैं जिन्हें वह झूठ बड़ा पसंद हो सकता है। यह सिलसिला जंगल की आग की तरह फैलता है, और जब तक सच अपने जूतों के तस्में बांधता है तब तक झूठ पूरे शहर का चक्कर काटकर आ चुका रहता है। भारत सरकार ने भी फैक्ट चेक करने का एक तरीका इस्तेमाल किया है, लेकिन यह सरकार से जुड़ी खबरों के लिए ही आमतौर पर इस्तेमाल होता है। किसी बड़े नुकसानदेह झूठ पर कार्रवाई करना भी सरकारों के अधिकार क्षेत्र का रहता है। जिन प्रकाशनों के नाम किसी झूठ के साथ चिपका दिए जाते हैं, उन प्रकाशनों को इसका पता लगना भी आसान नहीं रहता, और ऐसे फैलाए जा रहे झूठ का मुकाबला करना तो शायद ही किसी मीडिया-संस्थान के बस का हो।

फिर भी देश-प्रदेश की सरकारों को ऐसे कानून कड़ाई से लागू करना चाहिए कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जिन और जैसे झूठ को आसानी से पकड़ सकते हैं, उन्हें न पकडक़र अपने पेज पर बनाए रखने के लिए उनसे जवाब-तलब किया जाना चाहिए, उन्हें अदालतों में घसीटना चाहिए। दूसरी बात यह कि जो निजी लोग, संगठन, संस्थान, या अखबार-टीवी झूठ को बढ़ावा देते हैं, उन पर कार्रवाई करने के लिए तो सरकार के पास बहुत पहले से ही कानून थे, आईटी एक्ट आने के बाद वे अधिकार और बहुत बढ़ गए हैं। लेकिन आज एआई जैसा औजार जब झूठ को फैलाने के लिए सुपारी उठाता है, तो फिर बाकी तमाम तबकों की सामूहिक ताकत भी उसका मुकाबला करने के लायक नहीं रह जाती। एआई तो किसी झूठ को ठीक ऐसी जगह पहुंचाएगा जहां पर उसका सबसे अधिक असर हो सके, क्योंकि ऐसी जगहों की शिनाख्त करना, ऐसे प्लेटफॉर्म, पेज, और व्यक्तियों को पहचानना एआई के बाएं हाथ का खेल है। हाल के बरसों में कई देशों के चुनावों में एआई ने ऐसा किया है, लेकिन अभी तक उसकी हरकतें पूरी तरह उजागर नहीं हुई हैं। अब दुनिया में कौन से ऐसे चुनाव हो रहे हैं, जिनमें एआई सारे नतीजों को बदल देने के लिए ठेका लेकर बैठा है, यह जब तक उजागर होगा, तब तक शायद वहां सरकार बनकर अपना कार्यकाल पूरा भी कर चुकी होगी।

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