ताजा खबर

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हरियाणा के डीजीपी ने थार और बुलेट के बारे में कुछ गलत तो नहीं कहा
सुनील कुमार ने लिखा है
09-Nov-2025 3:52 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : हरियाणा के डीजीपी ने थार और बुलेट के बारे में कुछ गलत तो नहीं कहा

हरियाणा के डीजीपी ओपी सिंह का एक बयान कुछ लोगों को बड़ा अटपटा लग रहा है। उन्होंने भरी प्रेस कांफ्रेंस में कैमरों के सामने यह कहा कि थार और बुलेट से बदमाश चलते हैं। जिसके भी पास थार होगी, उसका दिमाग घूमा (हुआ) होगा। उन्होंने कहा कि ये जिस तरह की गाडिय़ां हैं, वो ऐसी ही दिमागी हालत उजागर करती हैं। थार गाड़ी वाले स्टंट करते हैं, हमारे एक एसीपी के बेटे ने थार से एक को कुचला, और बाद में वे (उसे बचाने के लिए) पैरवी करने आए। डीजीपी ने कहा कि हम लिस्ट निकाल लें कि हमारे कितने पुलिसवालों की, कितने पुलिसवालों के पास थार है। जिनके पास थार है उनका दिमाग घूमा (हुआ) होगा। थार गाड़ी नहीं है, एक बयान है कि हम ऐसे हैं, तो ठीक है भुगतो फिर। डीजीपी ने कहा दोनों मजे कैसे होंगे, दादागिरी भी करें, और फंसे भी नहीं, ऐसा कैसे होगा।

एक सरकारी अफसर का किसी ब्रांड को लेकर ऐसा कहना थोड़ा सा अटपटा लग सकता है, लेकिन सच तो यही है कि कुछ किस्म की गाडिय़ां दिमाग पर ऐसा असर डालती हैं कि गाड़ी के पहिए तो जमीन पर बने रहते हैं, दिमाग आसमान पर पहुंच जाता है।

इन दो गाडिय़ों के बारे में उनका कहना हमारी देखी जमीनी हकीकत के मुताबिक एकदम सही है, इन गाडिय़ों पर हो सकता है कि कुछ शरीफ लोग भी चलते हों, लेकिन इन गाडिय़ों को चलाना लोगों को एक ऐसी मशीनी ताकत, और अहंकार से भर देता है कि वे सडक़ पर अपने आपको एक अलग दर्जे का वीआईपी समझने लगते हैं। इन दो गाडिय़ों से परे भी आप जिन गाडिय़ों पर आगे-पीछे किसी राजनीतिक, सामाजिक, या धार्मिक संगठन की तख्तियां लगे देखें, गाड़ी पर झंडे-डंडे लगे देखें, गाड़ी की छत पर अतिरिक्त हेडलाईट, सायरन, या स्पीकर लगे देखें, उसका नंबर कोई खास नंबर हो, उनके शीशों पर काली फिल्म चढ़ी हुई हो, तो यह जाहिर है कि वह गाड़ी बददिमाग होगी ही। गाड़ी की अपनी कोई मानसिकता नहीं होती, लेकिन उसकी हैवानी ताकत इंसानों के दिमाग में घुस जाती है, वहां चढक़र बैठ जाती है। जो लोग इनसे और भी ऊपर दर्जे के ताकतवर होते हैं, वे गाड़ी के बोनट में सायरन या हूटर भी लगाकर चलते हैं, और आमतौर पर हॉर्न की जगह उसी का इस्तेमाल करते हैं, और कुछ बददिमाग तो हमने ऐसे भी देखे हैं जो गाड़ी पर नंबर प्लेट न लगाने को अपनी ताकत और इज्जत समझते हैं।

चौराहों, बैरियर, और टोल टैक्स नाकों पर ऐसे ताकतवर लोग पुलिस कर्मचारियों को धकियाते हैं, टोल जमा करवाते कर्मचारियों को पीटते हैं, और जगह-जगह लोगों से यह पूछते हैं- जानते हो मेरा बाप कौन है?

अब ऐसे बददिमाग सवाल का एक ही जवाब हो सकता है- तुम्हें खुद नहीं मालूम है क्या?

लेकिन आमतौर पर किसी न किसी किस्म की सत्ता से बददिमाग हुए ये लोग बाहुबलियों की फौज भी लिए चलते हैं, और उनके साथ कोई व्यंग्य करना खासा खतरनाक और आत्मघाती साबित हो सकता है। सडक़ों पर छिछोरे मवालियों के अंदाज में फौलादी इंजनों की ताकत पर गुंडागर्दी दिखाने वाले लोग जाहिर तौर पर दूसरे शांत लोगों के हक कुचलते हैं, लेकिन सत्ता को इससे कोई परहेज नहीं रहता। कई पार्टियों की सरकारें हमने आते-जाते देखी हैं, लेकिन कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों को अपने मवालियों की सडक़ों पर ऐसी गुंडागर्दी इसलिए नहीं खटकती कि उनके पदाधिकारी भी ऐसा ही काम करते हैं, और मंत्री-संतरी के आसपास के लोग भी सायरन और हूटर बजाए बिना चलना अपना अपमान समझते हैं।

हरियाणा के डीजीपी ने एक बड़ी अच्छी बात कही है जिसे कहने से कई लोग परहेज करते हैं। जानवरों को कुचलना हो, या इंसानों को, खबरें तो यही बताती हैं यूपी के लखीमपुर में चार बरस पहले केन्द्रीय मंत्री अजय मिश्र के बेटे आशीष मिश्र ने किसान आंदोलनकारियों को अपनी थार गाड़ी से कुचलते हुए अपने तेवर दिखाए थे, इसमें 8 लोग मारे गए थे। यह शायद थार गाड़ी का सबसे ही खूंखार इस्तेमाल था। हालांकि इसके ढाई साल बाद लखीमपुर से भाजपा ने अजय मिश्र को तीसरी बार भी अपना उम्मीदवार बनाया था। जितनी ताकत थार के इंजन की थी, उतनी ही ताकत बाप के केन्द्रीय मंत्री रहने की थी। ऐसा जगह-जगह हो रहा है। डीजीपी की गिनाई दूसरी गाड़ी, बुलेट का देखें, तो वह देश की अकेली ऐसी मोटरसाइकिल है जिसमें बड़ी संख्या में छेडख़ानी किए हुए, शोर और फायरिंग की आवाज करने वाले साइलेंसर लगाकर लोग घूमते हैं। निरीह पुलिस कुछ जगहों पर ऐसे कुछ लोगों का चालान जरूर कर लेती है, लेकिन बुलेट चलाने वालों के तेवर, जानता है मेरा बाप कौन है, वाले ही रहते हैं। फिर भले उनके बाप ने जिंदगी में साइकिल या मोपेड ही क्यों न चलाई हुई हो।

सडक़ों पर गाडि़य़ों की गुंडागर्दी का भयानक हाल है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट भी सडक़ सुरक्षा के लिए दिए गए अपने फैसलों को न गाडिय़ों पर लागू करवा पा रहे हैं, और न उन्हें चलाने वालों पर। विकसित देशों में कई दशक पहले से कैमरों और कम्प्यूटरों से गाडिय़ों के चालान की एक आसान व्यवस्था चली आ रही है। अब जाकर भारत के मंझले शहरों तक ऐसा इंतजाम पहुंचा है, लेकिन उसका पूरी तरह इस्तेमाल नहीं हो रहा है। यह बात कुछ हैरान करती है कि क्या गाडिय़ों के चालान को लेकर हाईकोर्ट के जज चौराहों पर खड़े रहेंगे, तो ही ट्रैफिक पुलिस के हाथ-पैर हिलेंगे? आज जब सडक़ चौराहों पर लगे हुए कैमरे हर दिन दसियों हजार गाडिय़ों का चालान एक शहर में कर सकती हैं, तब चालान का एक छोटा सा कोटा तय कर देना, एक छोटी सी सीलिंग तय कर देना तो गुंडागर्दी को बढ़ावा देना भी है। सरकार की नीयत अगर ठीक रहे, तो आम जनता की नियति भी ठीक हो सकती है। आज जब स्पीड रिकॉर्ड करने वाले, गलत नंबर प्लेट की फोटो दर्ज करने वाले उपकरण जगह-जगह इस्तेमाल हो रहे हैं, तो इन्हें बढ़ाकर, गुंडागर्दी को अधिक हद तक रोककर बाकी जनता को सुरक्षित बनाया जा सकता है, और वही बाकी जनता का हक भी है। आज तो सडक़ों पर आम लोगों को मवाली-गाडिय़ों की गुंडागर्दी के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है, यह सरकार का अपनी जिम्मेदारी से दूर भागना है, और ऐसी ही बातों पर अदालतों को सरकारी कामकाज में दखल देने का मौका मिलता है, उन्हें मजबूर होना पड़ता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


अन्य पोस्ट