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सबको मालूम है भ्रष्टाचार की हकीकत लेकिन, दिल बहलाने को ईमानदार का खयाल अच्छा है
सुनील कुमार ने लिखा है
06-Jul-2025 5:33 PM
सबको मालूम है भ्रष्टाचार की हकीकत लेकिन, दिल बहलाने को ईमानदार का खयाल अच्छा है

अभी सोशल मीडिया पर एक ऐसा नक्शा दिखा जिसमें देश के अलग-अलग प्रदेशों ने विधायकों के वेतन का जिक्र था, और जैसा कि ऐसे किसी भी नक्शे में होता है, प्रदेश पर दिखाया गया गाढ़ा रंग अधिक तनख्वाह का था, और कम रंग कम तनख्वाह का। हैरानी की बात यह है कि तकरीबन तमाम उत्तर-पूर्वी राज्यों में तनख्वाह 65 हजार रूपए महीने से कम है, दूसरी तरफ झारखंड, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मणिपुर, दिल्ली, और मध्यप्रदेश में विधायकों की तनख्वाह दो लाख से तीन लाख रूपए महीने के बीच है। बाकी राज्य इनके बीच कहीं आते हैं, और मध्यप्रदेश के दो लाख दस हजार के मुकाबले उससे अलग हुए छत्तीसगढ़ में तनख्वाह एक लाख पैंतीस हजार रूपए ही है। आन्ध्र जैसे संपन्न राज्य में भी विधायकों की तनख्वाह एक लाख तीस हजार रूपए है, और पंजाब में एक लाख पन्द्रह हजार रूपए, गुजरात और हरियाणा जैसे संपन्न राज्यों में एक लाख दस हजार के करीब तनख्वाह विधायक पाते हैं।

इन आंकड़ों को चैटजीपीटी की मदद से बनाते हुए मैंने उससे पूछा कि जिन राज्यों में वामपंथी हैं, या थे, वहां पर तनख्वाह कम दिखती है, तो उसने हामी भरते हुए तुरंत ही हिसाब बता दिया कि वामपंथी राज्यों में औसत वेतन सत्तर हजार से कम है। देश के सबसे अधिक तनख्वाह वाले पांच राज्यों में विधायकों को औसत दो लाख संतावन हजार रूपए मिलते हैं, और सबसे कम तनख्वाह वाले पांच राज्य उत्तर-पूर्व में है जहां औसत वेतन छयालीस हजार रूपए है। उत्तर-पूर्व के बारे में पूछताछ करने पर चैटजीपीटी का कहना था कि वहां का बजट आकार सीमित रहता है, और दूसरी बात यह कि वहां सिर्फ विधानसभा का शासन नहीं है, वहां पर ग्रामसभा, आदिवासीसभा जैसी कई व्यवस्थाएं भी समानांतर चलती हैं जिनकी वजह से विधायकों के अधिकार और उनकी ताकत बड़े राज्यों जैसी नहीं रहते। फिर यह भी है कि उत्तर-पूर्व में नेताओं की जीवनशैली पर आम जनता की बहुत कड़ी नजर रहती है, और उनके अधिक वेतन या दिखावटी खर्च पर सामाजिक आलोचना होती है। चैटजीपीटी का ही कहना है कि मिजोरम जैसे राज्य में चर्च की सामाजिक भूमिका इतनी गहरी है कि विधायक अधिक वेतन या सहूलियत मांगने में नैतिक संकोच महसूस करते हैं।

अब हम उत्तर-पूर्व से परे, और वामपंथी असर वाले राज्यों को छोडक़र बाकी राज्यों को देखें, जहां पर डेढ़ लाख से तीन लाख रूपए महीने की तनख्वाह है, तो यह सोचने का मौका मिलता है कि किस राज्य में विधायकों की तनख्वाह कितनी होनी चाहिए? वैसे तो यह राज्य विधानसभा के अपने फैसले पर रहता है, लेकिन विधायकों के निजी स्वार्थ जनभावनाओं के साथ एक संतुलन बनाकर चलने की कोशिश करते होंगे, ऐसा कम से कम हम मानकर चलते हैं, फिर यह सच हो, या न हो। यह भी समझने की जरूरत है कि किसी राज्य में बजट का आकार क्या रहता है, और विधायकों की कुल तनख्वाह, उनके भत्ते, और उन पर दीगर खर्च मिलाकर कितना बैठता है? कुल मिलाकर यह कहें कि जैसे कोई सरकार अपने सरकारी अमले पर हर किस्म के खर्च को मिलाकर स्थापना व्यय नाम का एक मद निकालती है, जो कि बजट का बहुत बड़ा हिस्सा रहना अच्छा नहीं माना जाता। अब ऐसे ही एक विधानसभा के पूरे खर्च को भी जोडऩा चाहिए कि राज्य के बजट का कितना हिस्सा विधानसभा पर खर्च हो। इन दोनों ही मदों को इस बात से भी जोडक़र देखना चाहिए कि राज्य की प्रति व्यक्ति औसत आय कितनी है, और प्रदेश की सबसे गरीब पचास फीसदी जनता की कमाई कितनी है।

आज शायद ही कोई प्रदेश ऐसा होगा जो कि इस तरह से अपने खर्च पर काबू रखता होगा, लेकिन छत्तीसगढ़ में एक भूतपूर्व भाजपा नेता, और इन दिनों स्वतंत्र राजनीति कर रहे, छत्तीसगढ़ वित्त आयोग के अध्यक्ष रह चुके वीरेन्द्र पाण्डेय ने इस अखबार के यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर इंटरव्यू में बताया था कि किस तरह 2008 में पूर्व विधायकों की पेंशन सोलह हजार रूपए से शुरू हुई जो 2015 में बढ़ाकर पैंतीस हजार कर दी गई, 2020 में इसे बढ़ाकर पचास हजार कर दिया गया। 2023 में इसे एक बार के विधायकों के लिए 98 हजार 3 सौ रूपए महीना कर दिया। छत्तीसगढ़ में पहली बारी के बाद जितने बरस लोग और विधायक रहेंगे, हर बरस पर पेंशन एक-एक हजार रूपए और बढ़ती चलेगी। राज्य के विधायकों का वेतन भी इसी अनुपात में बढ़ते रहा है, और अभी एक लाख पैंतीस हजार है।

अब आंकड़ों से परे अगर देखें, तो विधायकों या सांसदों के वेतन होने कितने चाहिए? और दूसरी बात यह कि एक औसत जनप्रतिनिधि का वेतन क्या सचमुच उनके लिए कोई मायने रखता है? जहां पर चुनावी नतीजा आते ही निर्वाचित नेता के घर पर कम से कम बीस लाख रूपए की गाड़ी लग जाना एकदम ही आम बात है, वहां पर क्या वेतन प्रतीकात्मक ही होता है, और खर्चे उसी तरह चलते हैं, जिस तरह आरटीओ की चेकपोस्ट पर तनख्वाह न मिलने पर भी अधिकारी भुगतान करके भी पोस्टिंग पाने पर भरोसा रखते हैं, या कि किसी डिस्टिलरी में पोस्टिंग पाने पर आबकारी अफसर की तनख्वाह मायने नहीं रखती? मैंने पिछले दशकों में कई बार यह बात लिखी है कि विधायकों, सांसदों, या कि पंचायत और म्युनिसिपल के निर्वाचित प्रतिनिधियों के मामले में भी बड़े-बूढ़ों की एक बात लागू होती है, सस्ता रोए बार-बार, महंगा रोए एक बार।

अगर निर्वाचित जनप्रतिनिधि को उसकी जिम्मेदारियों, और कामकाज के अनुपात में, परिवार ठीक से चलाने के लिए अगर ठीक-ठाक वेतन दिया जाए, और ठीक-ठाक पेंशन दी जाए, तो हो सकता है कि उनमें से कुछ लोग भ्रष्टाचार या उगाही करने से बच भी जाएं। अधिक तनख्वाह किसी ईमानदारी की गारंटी नहीं हो सकती क्योंकि पति-पत्नी दोनों के अखिल भारतीय सेवा के अफसर होने पर भी, घर में हर महीने पांच लाख रूपए वेतन आने पर भी उनकी ईमानदारी की कोई गारंटी नहीं रहती। फिर भी लोकतंत्र में जनता को पूर्णकालिक कामकाज को पूरी तरह से जनसेवा मानकर मुफ्त में उसकी उम्मीद करना जायज नहीं है। मुफ्त के, या सस्ते नेता, शुरू में सस्ते लगते हैं, लेकिन वे खासे महंगे पड़ते हैं। दूसरी बात यह भी है कि अगर तनख्वाह ठीक-ठाक न रहे, तो अच्छा कमाने वाले पेशेवर लोग निर्वाचित राजनीति में आने के बारे में सोचेंगे भी नहीं। इसलिए मैंने बार-बार लिखा है कि नेता सस्ते नहीं ढूंढने चाहिए, बल्कि ऐसे ढूंढने चाहिए जो कि राजनीति में चुन लिए जाने पर उस तनख्वाह को आकर्षक मानकर वहां आएं। अब ऐसे में कुछ लोगों को जनसेवा का ही शौक हो, तो वैसे गरीब लोग भी आ सकते हैं, और उन्हें मिली तनख्वाह को वे लोगों में बांट भी सकते हैं।

आज एक पार्षद से लेकर एक सांसद तक से लोगों को इतने किस्म की उम्मीद रहती है, उनके घर हर दिन इतने लोग पहुंचते हैं कि उन्हें एक कप चाय अगर पिलाना शुरू किया जाए, तो लाख-पचास हजार रूपए महीने उसी में खर्च हो सकते हैं। फिर चुनाव क्षेत्र का दौरा, लोगों के निजी सुख-दुख के समारोह, और धार्मिक-सामाजिक समारोहों में निभाने वाला शिष्टाचार, यह सब खासा पैसा मांगता है। हम अभी इस पर न भी जाएं कि लोगों को अगले चुनाव के लिए रकम बचाकर रखनी पड़ती है, तो भी पांच साल का कार्यकाल सौ फीसदी ईमानदार लोगों के लिए पहाड़ की चढ़ाई सरीखा मुश्किल रहता है।

नेताओं को मुफ्त या सस्ते में पाना वोटरों की हसरत हो सकती है, लेकिन जब सांसद, विधायक, या पार्षद किसी के घर शादी में लिफाफा देते हैं, या पूजा-आरती की थाली में नोट डालते हैं, तो उस पर दर्जनों निगाहें टिकी रहती हैं। इलाके की और आसपास की अधिकतर जनता की यह भी उम्मीद रहती है कि उनके सुख-दुख में निर्वाचित नेता अपनी जेब से भी मदद करे। यह सब आसान नहीं रहता। और पांच बरस अपना सारा कामकाज छोडक़र सिर्फ यही काम करते हुए लोगों का अपना पेशा चौपट हो जाता है, कारोबार में नुकसान होता है, और कार्यकाल खत्म होने के बाद उसकी भरपाई नहीं होती। इसलिए मैं तो इस बात का हिमायती हूं कि नेता को अच्छा भुगतान करके रखना चाहिए, ताकि वे दिल लगाकर काम कर सकें, और उन्हें यह मलाल भी न रहे कि उनका परिवार परेशानी झेल रहा है।

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