संपादकीय
भारत में नए बने हुए शहर तो चंडीगढ़, नया रायपुर, या गांधीनगर जैसे गिनेचुने हैं। अधिकतर शहर तो पुराने शहरों का ही चारों तरफ, या आसमान की तरफ विस्तार करके ही बढ़ते चले जा रहे हैं। इनके फैलाव में एक बड़ी बात यह भी जुड़ी हुई है कि न सिर्फ भारत में, बल्कि पूरी दुनिया में शहरों की आबादी छलांग लगाकर बढ़ रही है, और गांवों की आबादी घटती चली जा रही है। फिर शहरों में इंसानों की टक्कर में ही गाडिय़ों की आबादी भी बढ़ रही है। आज अधिकतर परिवारों में पढऩे वाले बच्चों, या कामकाजी लोगों जितनी ही दुपहिया या चौपहिया रहने लगी हैं। स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, और बाजार इन सभी में आने-जाने के घंटे सीमित रहते हैं, और सडक़ों पर भारी जाम लगना भारत की एक शहरी पहचान हो गई है। ऐसे में आज केंद्र और राज्य सरकार की ओर से रायपुर शहर के लिए दो बड़ी घोषणाएं हुई हैं, शहर के कई चौराहों को पार करते हुए एक छोटा सा फ्लाईओवर पौने दो सौ करोड़ रुपये की लागत से मंजूर किया गया है और दूसरी तरफ शहर के चारों तरफ की रिंग रोड़ के किनारे बनी सर्विस लेन की चौड़ाई को पांच मीटर से बढ़ाकर 11 मीटर करने की मंजूरी केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने रायपुर के सांसद बृजमोहन अग्रवाल के अनुरोध पर दी है। पहली नजर में इन दोनों का काम पूरा हो जाने पर राजधानी के लाखों लोगों को राहत मिलनी चाहिए, हालांकि ये शहर की ट्रैफिक की दिक्कतों के एक छोटे हिस्से का समाधान ही है। इसके बाद भी बाकी दिक्कतें तो बनी ही रहेंगी। इन दोनों में सैकड़ों करोड़ रुपये लगने हैं और यह पैसा जनता की जेब से ही जाएगा।
अब अगर शहरीकरण के किसी छात्र की नजर से हम नमूने के तौर पर किसी भी शहर को देखें तो वहां चौड़ी होने वाली अधिकतर सडक़ों की चौड़ाई गैरकानूनी पार्किंग में जाती है, या फिर उनके किनारे काम करने वाले कारोबारी ही कब्जा कर लेते हैं, और नई बनी चौड़ाई सडक़ के काम नहीं आती, कारोबार के ही काम आती है। यह हाल हमने शहर के भीतर देखा है जहां सरकारी स्कूलों के मैदान काटकर सडक़ चौड़ी की गई, तर्क दिया गया कि मैदान में खेलने वाले खिलाडिय़ों के लिए पार्किंग रहेगी, लेकिन वहां पर आसपास के संपन्न लोगों की कारों की स्थाई पार्किंग हो गई है, मैदान के किसी काम की नहीं रह गई। इसी तरह जहां-जहां सडक़ें चौड़ी की जाती हंै, वहां ट्रांसपोर्ट और बस कारोबारी अपनी गाडिय़ां स्थाई रूप से लगा देते हैं, और चौड़ीकरण की मेहनत, सडक़ की लागत यह सब कुछ कारोबार-कल्याण के लिए किया गया काम होकर रह जाता है।
कारोबारी पार्किंग से परे बाजार के ग्राहकों की पार्किंग, और सडक़ किनारे रहने वाले लोगों की निजी गाडिय़ों से सडक़ों की चौड़ाई खत्म हो जाती है। इस पार्किंग के लिए क्यों तो सरकार को किनारे के लोगों को मुआवजा देकर, उनकी जगह लेकर सडक़ चौड़ी करनी चाहिए, और भारी गाडिय़ों के चलने लायक महंगी सडक़ बनवानी चाहिए? जिन दिक्कतों को गिनाकर शहरों में सैकड़ों-हजारों करोड़ के ये प्रोजेक्ट मंजूर किए जाते हंै, वे दिक्कतें बहुत हद तक तो म्युनिसिपल, जिला प्रशासन, और पुलिस की एक मामूली सी टीम दूर कर सकती है। लेकिन यह काम बिना किसी लागत के होगा, इसलिए भी उसमें किसी की दिलचस्पी नहीं रहती। फिर सडक़ किनारे के बड़े लोगों के कारोबारी कब्जों को हटाने के बजाय अफसर किसी सडक़ के ठेलों और गुमटियों को हटाकर मानो अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं। इन छोटे लोगों के पास तो कारोबार की कुल उतनी सी जगह रहती है, लेकिन जिनके पास धंधे की अपनी बहुत बड़ी जगह है, वे अगर सामने और कब्जा करते हैं, या गाडिय़ों के कारोबारी सडक़ों पर पार्किंग और गोदाम बना लेते हैं, तो वह अधिक नाजायज बात है जिसे दूर करके सडक़ों को पर्याप्त चौड़ा किया जा सकता है। दिक्कत यह है कि जिन निर्वाचित स्थानीय संस्थाओं की जिम्मेदारी बड़े कारोबारियों के कब्जे, और गाडिय़ों की अवैध पार्किंग को हटाने की है, वे संस्थाएं भी कुछ नए प्रोजेक्ट बनाने के काम में जुट जाती हैं, क्योंकि उनमें तरह-तरह के फायदे रहते हैं।
शहरीकरण के कल घोषित इन दो प्रोजेक्ट को देखते हुए हम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के लिए यह भी सुझाना चाहेंगे कि इसके अगले तीन बरस बिना किसी चुनाव के हैं। ऐसे में कारोबारियों या दूसरे लोगों की एक तात्कालिक और मामूली नाराजगी को झेलते हुए भी पूरे प्रदेश के शहर-कस्बों में सडक़ों की प्रभावी-चौड़ाई बढ़ाने का अभियान चलाना चाहिए। इसके तहत किनारे के कच्चे-पक्के अवैध कब्जे भी हटाए जा सकते हैं, और निजी या कारोबारी पार्किंग सडक़ पर करने पर एक टैक्स भी लगाया जा सकता है। हर शहर का म्युनिसिपल-एरिया का एक पार्किंग टैक्स होना चाहिए, जिसका स्टिकर लगे बिना गाड़ी का चालान किया जा सके। सडक़ों पर किसी भी तरह की गाड़ी की स्थाई पार्किंग, हर दिन की पार्किंग म्युनिसिपल को बिना टैक्स मिले क्यों करने देनी चाहिए? लेकिन जब म्युनिसिपल यह जिम्मेदारी पूरी नहीं करता है, अपने अधिकारों का उपयोग नहीं करता है, तो वह अपनी आय की संभावना खोता है। दो चुनावों के बीच का जो समय कुछ कड़वे और कड़े फैसलों का रहता है, उसका उपयोग प्रदेश को सुधारने में करना चाहिए। मतदाता को चुनाव के पहले तो जनवासे में ठहराए गए बाराती जैसा रखने का सिलसिला चले आ रहा है, लेकिन पूरे पांच बरस उसे बाराती बनाए रखने का मतलब तो प्रदेश को बर्बाद कर देना होगा। जनवासे के इंतजामअली, लडक़ी के पिता का पांच बरस की बारात में दीवाला ही निकल जाएगा, और वोटरों से डरे प्रदेशों का निकल भी रहा है। सत्ता पर बैठे लोगों को दिल कड़ा करके, और कमर कसकर यह काम करना चाहिए, ताकि आने वाली पीढिय़ों के लिए एक बेहतर शहर छोड़ा जा सके, बेहतर तो क्या होगा, बदतर छोडऩे से तो बचना ही चाहिए।


