संपादकीय
छत्तीसगढ़ के बालक और बालिका संप्रेक्षण गृहों से लडक़े-लड़कियों का भाग निकलना जारी है। दुर्ग के बाल संप्रेक्षण गृह से इस महीने दो घटनाओं में दस नाबालिग लडक़े भाग निकले जिनमें कुछ तो हत्या और लूट जैसे जुर्म में शामिल थे। शायद कुछ बरस पहले यही बाल सुधारगृह ऐसा था जिसमें लडक़े बागी होकर छत पर चढ़ गए थे, और उन्हें काबू करने के लिए पहुंचे लोगों पर फेंकने के लिए गैस सिलेंडर उठा लिया था। लडक़ों का यह हाल तो अक्सर ही कहीं न कहीं से सुनाई देता है, अब छत्तीसगढ़ के ही राजनांदगांव में बालिका सुधारगृह से निकल भागीं 13 और 15 साल की लड़कियों की तलाश की जा रही है। वे तीन-चार दिन ही यहां पर रही थीं, और मौका मिलते ही दीवाल फांदकर भाग निकलीं। ये वो जगहें हैं जो कि किसी एनजीओ की चलाई हुई नहीं हैं, ये खुद राज्य सरकार के चलाए हुए सुधार केंद्र हैं, और किशोर न्यायालय भी यह मानकर बच्चों को यहां भेजते हैं कि वे यहां से सुधरकर घर लौटेंगे। इन जगहों की जो हालत सुनाई पड़ती है, उनसे साफ होता है कि यहां से नाबालिग बच्चे और अधिक खूंखार, या पेशेवर मुजरिम बनकर निकलते हैं। किशोर न्याय की पूरी सोच इन जगहों की असलियत को देखने पर दम तोड़ती हुई दिखती है। किसी तरह का कोई सुधार इन जगहों पर बच्चों में नहीं हो सकता, बल्कि अधिक बड़ा जुर्म करके यहां पहुंचे हुए बच्चे छोटा जुर्म करके आए हुए बच्चों के लिए पेशेवर-प्रशिक्षक साबित होते हैं। जिस जगह से बच्चे फरार होते हों, उस जगह पर उनमें कोई सुधार होने की कल्पना ही बेबुनियाद रहती है।
भारत में नाबालिगों के लिए कानून, उनके लिए बनी अलग से अदालतें, उनकी जांच और मुकदमे की प्रक्रिया, और उनके सुधारगृह, इन सबमें बुनियादी कमजोरियां हैं, जिनमें से एक, कानून पर तो अलग-अलग जगहों पर बहस चल भी रही है, लेकिन बाकी सबको तो सुधारने की कोई चर्चा तक नहीं होती। गंभीर अपराधों के मामलों में उनमें शामिल नाबालिगों को भी क्या बालिग मानकर उन पर मुकदमा चलाया जाए, यह सवाल अभी सुप्रीम कोर्ट के सामने खड़ा हुआ है। इसमें दोनों पक्षों के लोग अपने-अपने तर्क रख रहे हैं, और अदालत ने कोई आखिरी फैसला अब तक शायद दिया नहीं है। दरअसल नाबालिग हाल के बरसों में जिस किस्म के अपराधों में शामिल हो रहे हैं, उनसे समाज में ऐसी भावना बन रही है कि इन्हें उम्र की छूट क्यों दी जाए? जब वे गैंगरेप कर रहे हैं, कत्ल कर रहे हैं, रेप के बाद कत्ल कर रहे हैं, तो फिर वे किस कोने से नाबालिग रह गए हैं? दिल्ली का सबसे चर्चित निर्भया कांड ऐसा था जिसके सामूहिक बलात्कारियों और कातिलों में एक नाबालिग भी था, और उसी ने सबसे अधिक हिंसा की थी। वह तो बाद में सुधारगृह में कुछ बरस गुजारकर बाहर निकलकर सरकारी पुनर्वास के तहत कहीं बस गया, लेकिन उसने यह बहस छोड़ दी कि वह किस कोने से नाबालिग होने की रियायत का हकदार है?
सुधारगृहों की एक दिक्कत यह भी है कि वे बालिगों की जेलों की तरह की व्यवस्थित जगहें नहीं हैं। जेलों के अधिक व्यवस्थित होने के अपने नुकसान हैं कि वहां पर मुजरिमों का माफिया गिरोह चलता है, लेकिन बच्चों के सुधारगृहों की भी एक दिक्कत है कि वहां अलग-अलग कई उम्र के नाबालिगों को रखा जाता है, और अधिक संगीन जुर्म करके वहां पहुंचे हुए नाबालिग स्वाभाविक रूप से वहां के मुखिया बन जाते हैं, और भीतर उनका एक किस्म से राज चलता है। उनकी उम्र और उनकी अराजकमिजाजी उन्हें किसी एक जगह पर बंधकर रहने के खिलाफ भडक़ाती रहती है, और वे जब खुले में किन्हीं नियमों से बंधकर नहीं रहते, तो फिर वे सुधारगृह की इमारत के भीतर भला कैसे बंधकर रह जाएंगे? बहुत से बच्चे इन जगहों को छोडक़र भाग निकलते हैं। ऐसा भी नहीं कि वे निकलकर अपने घर जाते हैं, वे निकलकर बस खुली दुनिया में जाना चाहते हैं, जहां वे मनमर्जी का नशा कर सकें, जुर्म को आगे बढ़ा सकें, और अपने जायज या नाजायज शौक पूरे कर सकें।
कानून को सुधार की इस सोच को एक बार फिर से तय करना होगा। सुधार का यह कोई तरीका नहीं होता कि कम बिगड़े बच्चों को अधिक बिगड़े बच्चों के साथ स्थायी रूप से रख दिया जाए जहां उनके पास दो-तीन वक्त खाने, सोने के अलावा जुर्म की कहानियां सुनने और जुर्म सीखने का ही काम रह जाता है। सरकारी इंतजाम में सुधार की गुंजाइश! यह तो बात ही कुछ अटपटी लगती है। सुधार को न तो टेंडर करके खरीदा जा सकता, न ही कोटेशन बुलाए जा सकते, सुधार की सप्लाई भी नहीं हो सकती, सुधार का निर्माण भी नहीं हो सकता। सुधार करने के लिए समाज में सबसे अधिक अक्षम अगर कोई तबका है, तो वह सरकार है। और सारे के सारे सुधारगृह ठीक उसी तरह सरकारी हैं, जिस तरह सारी जेलें भी सरकारी हैं।
चूंकि नाबालिग अपराधियों से जुड़ा हुआ एक मामला सुप्रीम कोर्ट में चल ही रहा है, इसलिए बाल सुधारगृहों के अपने सुधार के लिए कोई जनहित याचिका उसके साथ जोड़ी जा सकती है, या फिर अलग से भी दायर हो सकती है। सुधार के नाम पर बच्चों को बरसों तक इन जगहों पर रखना एक अलग किस्म की बेइंसाफी है। उन्हें बालिगों की जेलों से बचाना तो ठीक है, लेकिन उन्हें सुधार के किसी इंतजाम के बिना अधिक हिंसक मुजरिम-बच्चों के बीच में डालकर रखना उन्हें जुर्म की तरफ और आगे बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं है। एक तरफ तो कानून इतना संवेदनशील है कि वह बच्चों को आरोपी या अभियुक्त भी नहीं कहने देता, और उनके लिए कानून से टकराव करते हुए बच्चे जैसे संवेदनशील शब्द इस्तेमाल करता है। दूसरी तरफ इन बच्चों में सचमुच कोई सुधार लाने के लिए सरकार में संवेदनशीलता दिखाई नहीं पड़ती है।
अभी देश की कुछ बड़ी अदालतों ने जेलों की बदहाली पर फिक्र जाहिर करते हुए यह सलाह दी है कि बंद जेलों की जगह खुली जेलें बनाई जाएं, वहां कैदियों को परिवार के साथ कुछ वक्त गुजारने मिले। आज तो बालिग कैदियों की जेलों का हाल अपने आपमें भ्रष्टाचार और रिश्वत से बर्बाद है, और वहां पर जुर्म की एक अलग किस्म की दुनिया का राज चलता है। इसलिए इस देश में बच्चों या बड़ों के सुधारगृहों के सुधार की एक बुनियादी कोशिश की जरूरत है।
चूंकि बाल या बालिका सुधारगृह में किसी जुर्म को करने वाले बच्चों को अधिकतम कुछ बरस ही रखने का इंतजाम रहता है, इसलिए यह जाहिर है कि वे दो-चार बरस बाद खुली दुनिया में लौटते ही हैं। और अगर सुधारगृह उन्हें ऐसी खुली दुनिया में जुर्म की तरफ लौटने से बचाने लायक तैयार नहीं कर पाते हैं, तो सुधारगृह अपने-आपमें एक बड़ी समस्या हैं।
अब इस देश में बीमार या जख्मी वनप्राणियों के लिए भी अंबानी खानदान के चिराग ने एक विवादास्पद केंद्र शुरू किया है जहां देश-विदेश से जानवरों को लाकर रखा जा रहा है, ऐसे में देश के बच्चों के लिए भी बड़ी कंपनियां या बड़े कारोबारी, या यूनिसेफ जैसी अंतरराष्ट्रीय बाल-कल्याण संस्थाएं ऐसे केंद्र चला सकती हैं जहां सजा या सुधार के बरसों में इन बच्चों के सचमुच ही सुधारा जा सके, बाहर की दुनिया में उन्हें पुनर्वास के लायक तैयार किया जा सके। आज तो देश में सरकार कल तक के खूंखार नक्सलियों का भी पुनर्वास करने की हिमायती है। ऐसे में कोई वजह नहीं है कि बाल-अपराधियों के लिए सुधार का बेहतर इंतजाम न किया जा सके। एक तरफ तो उन्हें अपराधी कहने से भी सरकार, अदालत, और समाज भी परहेज करते हैं, दूसरी तरफ उन्हीं को और बुरा बनकर निकलने का इंतजाम भी करके रखते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और सुधार नाम का यह ढकोसला उजागर होना चाहिए कि यह अधिक खूंखार मुजरिम बनाने वाली जगहें हैं, जहां सजा देकर बच्चों को बिल्कुल नहीं रखा जा सकता। और यह इतना संवेदनशील मामला है कि इसे सरकार के भरोसे भी बिल्कुल नहीं छोड़ा जा सकता, जो कि किसी भी तरह के नाजुक कामकाज के लायक नहीं है।


