संपादकीय

छत्तीसगढ़ के बहुचर्चित शराब घोटाले का विकराल आकार बढ़ते-बढ़ते 33 सौ करोड़ पहुंच गया है। और ईडी के अलावा एसीबी-ईओडब्ल्यू की अदालतों में पेश चार्जशीट देखें तो ऐसा लगता है कि भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार के दौरान एक स्वघोषित अनपढ़ आदिवासी मंत्री कवासी लखमा को आबकारी मंत्री की कुर्सी पर बिठाकर दारू अफसर, प्रदेश हांक रहे आईएएस अफसर, और जांच एजेंसियों की जुबान में आबकारी मंत्री की तरह काम कर रहे अनवर ढेबर नाम के एक व्यापारी ने जिस बड़े पैमाने पर सरकारी खजाने को चूना लगाया, वह पूरे देश में बेमिसाल मामला रहा। सरकारों में इससे बड़े आकार के भ्रष्टाचार तो हुए होंगे, लेकिन सरकार खुद ही माफिया के साथ मिलकर, भागीदारी करके, नकली शराब बनवाकर सरकारी दुकानों से बिकवाकर जिस तरह का जुर्म कर रही थी, वह अभूतपूर्व था। राज्य के एक भूतपूर्व मुख्य सचिव, और तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के गुरू रहे विवेक ढांड, और एक दूसरे आईएएस अफसर अनिल टुटेजा को ईडी-एसीबी-ईओडब्ल्यू ने इस पूरे शराब घोटाले का सरगना बताया है, लेकिन अब तक विवेक ढांड पर छापे पडऩे के अलावा और कोई आंच नहीं आई है। कल पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बेटे चैतन्य बघेल को ईडी ने गिरफ्तार किया है, और कहा है कि शराब घोटाले का 16 करोड़ से अधिक चैतन्य के कारोबार में पहुंचा है, और पहुंचाने वालों के बयान और सुबूत के आधार पर गिरफ्तारी करना ईडी ने बताया है। भूपेश बघेल के इर्द-गिर्द के अफसर, व्यापारी, और माफिया अंदाज के काम करने वाले लोग पहले से गिरफ्तार चल रहे हैं, लेकिन उनके बेटे की गिरफ्तारी और अदालत में चार्जशीट में प्रस्तुत जानकारी इस मामले में अब तक उन्हें जोडऩे वाली सबसे गंभीर बात है।
फिर भी केन्द्र सरकार की आईटी, ईडी जैसी बड़ी जांच एजेंसियां जब शराब कारखानेदारों पर बार-बार छापे डाल चुकी हैं, और अदालत में पेश दस्तावेजों में हजारों पेज के सुबूत पेश किए हैं कि राज्य के शराब कारखाने भूपेश सरकार के समय किस तरह इसी शराब माफिया के साथ मिलकर दो नंबर की फर्जी शराब बना रहे थे। अब दिलचस्प बात यह हो गई है कि शराब घोटाले को रोजाना के स्तर पर चलाने वाले आईएएस अनिल टुटेजा, और कारोबारी अनवर ढेबर ने जेल में रहते हुए अदालत में यह पिटीशन लगाई थी कि जब शराब कारखानेदारों की ऐसी हिस्सेदारी जांच एजेंसी बता रही है, तो फिर उन्हें आरोपी क्यों नहीं बनाया जा रहा है? फिर अदालत के आदेश पर राज्य सरकार के आर्थिक अपराध ब्यूरो, और ईडी ने 8 बड़ी डिस्टिलरी कंपनियों, और कुछ शराब कारोबारियों को आरोपी बनाना शुरू किया है। और इनमें से कुछ कंपनियों पर 12 सौ करोड़ तक की काली कमाई का आरोप लगा है। 7 जुलाई को 29 आबकारी अधिकारियों, और डिस्टिलरी मालिकों को ईओडब्ल्यू ने आरोपी बनाया है। इसके बाद इस अखबार के यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर यह सवाल उठाया गया था कि इन अफसरों को गिरफ्तार करके जेल क्यों नहीं भेजा जा रहा है क्योंकि इन्होंने संगठित माफिया की तरह काम करके सरकारी कुर्सी पर रहते हुए सरकार के साथ जालसाजी-धोखाधड़ी की, और जांच एजेंसियों के पास इन पर रहम करने का कोई अधिकार नहीं है। अगले दिन राज्य सरकार ने इनमें से 22 अफसरों को निलंबित किया, लेकिन गिरफ्तारी किसी की अभी तक नहीं हुई है। हर डिस्टिलरी पर एक आबकारी अफसर की तैनाती रहती है, और वहां की ताला-चाबी उसी के पास रहती है। ऐसे में जब हजारों करोड़ की दो नंबर की दारू बनकर वहां से निकली, तो ऐसे अफसर का निलंबन क्या होता है? उसे बाकी लोगों की तरह जेल क्यों नहीं भेजा जाता?
अब जब इस शराब घोटाले के कुछ लोग दो-दो साल से बिना जमानत जेल में पड़े हुए हैं, तो सवाल यह उठता है कि माफिया अंदाज के इस कारोबार में नकली सरकारी सामान बनाने वाले कारखानेदारों को अभी तक गिरफ्तारी से बाहर क्यों रखा गया है? उनमें से हर किसी के खिलाफ इतने पुख्ता सुबूत हैं कि मामूली सा सरकारी वकील भी उन्हें कैद दिला देगा, लेकिन अभी तक वे सुबूतों और गवाहों को तोडऩे-मरोडऩे की आजादी के साथ छुट्टे घूम रहे हैं। जब घोटाले के कुछ बड़े आरोपी ही मासूमियत से, या कि किसी कानूनी तिकड़म के चलते शराब-कारखानेदारों को आरोपी बनाने की मांग कर चुके हैं, उन्हें आरोपी बनाया जा चुका है, तो वे जेल के बाहर क्यों हैं? इससे दारू के धंधे में बदनाम अफसर, कारखानेदार की इज्जत का कुछ नहीं बिगड़ रहा, लेकिन जांच एजेंसियों वाली सरकारों की साख इससे जरूर खराब हो रही है कि इस पूरे खेल में खासा पैसा, सैकड़ों करोड़ रूपए कमाने वाले लोग आज भी दारू बना रहे हैं, आज भी सरकार उनसे खरीद रही है, और आज भी वे शेर बने घूम रहे हैं। यह सिलसिला बड़ा अटपटा है, और सरकार को अपनी छवि साफ रखने के लिए कारखानेदारों की इस ताकत को घटाना होगा, और कानून की मांग पूरी करते हुए इन्हें जेल भेजना होगा। दूसरी बात यह कि छोटे-छोटे से कारोबार या कारखाने कोई नियम तोड़ते हैं तो उनकी बिजली काट दी जाती है, पानी बंद कर दिया जाता है। लेकिन छत्तीसगढ़ में शराब कारखानों का इतिहास अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से यह रहा है कि वे हर नियम को तोड़ते हैं, और उनका कुछ नहीं बिगड़ता। अभी आज की ही एक खबर बताती है कि किस तरह छत्तीसगढ़ की एक डिस्टिलरी ने 27 बरस से जो पानी लिया है, उसका भुगतान नहीं किया, और 90 करोड़ से अधिक का बकाया विधानसभा में उठा, तो यह नोटिस दिया गया है कि कंपनी सोमवार तक 88 करोड़ रूपए जमा करे। इस एक खबर से दारू कारखानेदारों की ताकत पता लगती है, और प्रदेश में लोकतंत्र के लिए इस माफिया को खत्म करना जरूरी है। पिछले महीनों में हाईकोर्ट वाले बिलासपुर के आसपास ही दारू कारखानों से निकले प्रदूषित पानी से लाखों मछलियां मरीं, लेकिन हाईकोर्ट की भारी नाराजगी के बावजूद इन कारखानों से शराब उगलना बंद नहीं हुआ। भूपेश सरकार के समय शराब घोटाले में जो बड़े और सक्रिय खिलाड़ी थे, उनमें से दारू कारखानेदार, और आबकारी अफसर अब तक जेल के बाहर हैं जो कि हैरानी की बात है। सडक़ पर एक ट्रैफिक सिपाही किसी गाड़ी वाले से दो-चार सौ रूपए लेते किसी वीडियो में फंस जाए, तो उसे सस्पेंड कर दिया जाता है। यहां पर कारोबारी-अफसर-नेता-कारखानेदार का हजारों करोड़ का यह माफिया कारोबार नकली सरकारी सामान बना रहा था जो कि राज्य की सत्ता को चुनौती था, यह नकली नोट छापने जैसा काम था क्योंकि इससे सरकारी खजाने को नुकसान हो रहा था। यह समझने की जरूरत है कि जांच एजेंसियां अगर ऐसे लोगों के साथ नर्मी बरतेंगी तो आगे-पीछे अदालत में यह बात उठाई जाएगी।
छत्तीसगढ़ का शराब घोटाला, यहां का कोयला-रंगदारी मामला, यहां का धान मिलिंग घोटाला, डीएमएफ घोटाला, इनमें से हर एक ऐसा रहा जिसमें आईएएस, और उनकी कुर्सियां संभाल रहे दूसरे अखिल भारतीय सेवाओं के अफसर शामिल रहे, आज जेल में हैं। आईएएस चुने जाने के बाद मसूरी की जिस एकेडमी में उनकी ट्रेनिंग होती है, वहां पर कम से कम एक पखवाड़े का एक कोर्स छत्तीसगढ़ पर होना चाहिए कि अफसरों को कैसे-कैसे जुर्म नहीं करना चाहिए। कागजी और सैद्धांतिक बातें पढ़ाने के बजाय यहां के जुर्म की जानकारी सामने रखकर दी गई ट्रेनिंग देश के अधिक काम की होगी।