संपादकीय
तस्वीर / सोशल मीडिया
कश्मीर में हुए आतंकी हमले से हिन्दुस्तान की आम जनता विचलित चल ही रही है, और इस बीच देश भर से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, वे हिन्दुस्तान को एक मजबूत समाज बतलाने वाली हैं। लोकसभा में विपक्ष के नेता, कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कल हुई सर्वदलीय बैठक के बाद कहा है कि सभी राजनीतिक दलों ने, और विपक्ष ने केन्द्र सरकार को किसी भी कार्रवाई के लिए पूर्ण समर्थन दिया है। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर कोई राजनीतिक मतभेद नहीं है, आतंकवाद के खिलाफ किसी भी कठोर कदम के लिए सरकार को पूरा समर्थन प्राप्त है। यह बयान हाल के बरसों में कांग्रेस और भाजपा के बीच बहुत ही कड़वे हो चुके रिश्तों में एक नया मोड़ है कि आज मोदी सरकार को पहलगाम में असफलता की तोहमत देने के बजाय राहुल की अगुवाई में कांग्रेस, और बाकी पार्टियों ने भी बिना किसी आलोचना के मोदी सरकार को एक खुली छूट दी है कि वह जैसी चाहे वैसी कार्रवाई करे। दूसरी तरफ एक अलग खबर में देश की एक बड़ी मुखर मुस्लिम पार्टी एआईएमआईएम के राष्ट्रीय अध्यक्ष और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने मुस्लिमों से यह खास अपील की है कि वे जब जुम्मे की नमाज पढऩे जाएं (बयान कल शाम का है, और इस वक्त तक जुम्मे की नमाज हो चुकी है) तो बांह पर काली पट्टी बांधकर जाएं ताकि आतंक के खिलाफ एकजुटता और शांति का संदेश दिया जा सके। उन्होंने कहा कि देश के तमाम मुसलमानों को यह पैगाम भेजना है कि विदेशी ताकतों को भारत के अमन को कमजोर करने नहीं देंगे। उन्होंने कहा कि वे तमाम भारतीयों से अपील करते हैं कि वे दुश्मन की चाल में न फंसे, किसी भी तरह की भडक़ावे की राजनीति से दूर रहें। उन्होंने कहा कि ऐसे हमलों का मकसद देश को बांटना होता है।
इन दो बातों को देखें तो यह समझ पड़ता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के लोगों में ऐसी जिम्मेदारी भी है कि जब कोई राष्ट्रीय चुनौती आकर खड़ी हो, तो वे किसी नेता, या पार्टी को कोसने के बजाय, एक-दूसरे पर तोहमतें उछालने के बजाय, हिन्दुओं और मुस्लिमों में तनाव खड़ा करने के बजाय, देश के हित में एक साथ खड़े हो सकते हैं। आज सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदारी की बहस जरूर चल रही है, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि सोशल मीडिया एक अराजक हद तक बिखरा हुआ लोकतंत्र है, जिस पर बहुत सी अलोकतांत्रिक बातें भी चलती रहती हैं। लोकतंत्र में इस बात की इजाजत रहती है कि उसमें लोकतंत्र के खिलाफ बातें भी की जा सकें। इसलिए सोशल मीडिया पर कई तरह के लोगों की नफरती बातों पर अधिक गौर करने की जरूरत नहीं है। लोकतंत्र में सबसे बड़ी बात किसी नाजुक मौके पर सत्ता और विपक्ष का साथ रहना होता है, और कल की सर्वदलीय बैठक में, और उसके बाद जिस तरह से विपक्ष ने कोरे कागज पर दस्तखत करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दे दिए हैं, उससे भी इस देश में एकजुटता दिख रही है।
दूसरी तरफ अगर हम सोशल मीडिया की ही बात को कुछ और हद तक ले जाएं, तो यह सोशल मीडिया ही है जिसने नफरत फैलाने में लगे मीडिया के एक हिस्से के बीच लगातार ऐसी सच्ची मानवीय घटनाएं बयानों की रिकॉर्डिंग सहित सामने रखी हैं जिनसे पता चलता है कि पहलगाम के इस हमले के बाद किस तरह वहां के मुस्लिम बाकी देश से पहुंचे हुए अधिकतर गैरमुस्लिम सैलानियों को बचाने में लगे हुए थे। यह देखकर दिल हिल जाता है कि किस तरह गोलियों के बीच, लहूलुहान चेहरे वाले एक बच्चे को पीठ पर लादकर शायद एक खच्चर वाला मुस्लिम पहाड़ी पर दौड़े चले जा रहा था, अपनी जिंदगी को खतरे में डालकर, अपना चेहरा उजागर करके, उसी कश्मीर में रहने की बेबसी के बीच भी वह एक सैलानी-जिंदगी को बचाने में लगा था। दो दर्जन से अधिक सैलानियों के साथ-साथ वहां का एक मुस्लिम खच्चर वाला भी साथ मारा गया, क्योंकि उसने एक आतंकी की बंदूक छीनने की कोशिश की थी, और अपने गरीब घर का वह अकेला कमाऊ पूत चल बसा। आज सोशल मीडिया पर जितने नफरती लोग मुस्लिमों के खिलाफ लिख रहे हैं, उसी की बराबरी से लोग बचकर निकले सैलानियों की बताई बातें भी लिख रहे हैं कि कैसे वहां के गरीब मुसलमानों ने उन्हें बचाया, कैसे अपने घर पर ठहराया, कैसे उनके खाने-पीने का इंतजाम किया, और कैसे श्रीनगर के गरीब ऑटोरिक्शा वालों ने अपनी गाडिय़ों पर सूचना चिपकाकर लोगों को स्टेशन, और एयरपोर्ट मुफ्त में पहुंचाया। जिस तरह सैलानियों के कत्ल के बाद वहां की मस्जिदों से इसे इस्लाम के खिलाफ करार देते हुए लाउडस्पीकरों पर अफसोस जाहिर किया गया, इस हमले के खिलाफ कश्मीर के शहर बंद रहे, वह एकजुटता भी देखने लायक थी।
जिस तरह किसी गिलास को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि वह आधी भरी है, और दूसरी तरफ यह भी कहा जा सकता है कि वह आधी खाली है, उसी तरह हिन्दुस्तान के आज के लोकतंत्र में कुछ लोगों को मुस्लिमों को कोसने का एक मौका मिला है, लेकिन संसद के विपक्ष से लेकर देश की एक मुस्लिम पार्टी तक, और देश भर में बिखरे हुए अलग-अलग किस्म के सामाजिक और राजनीतिक संगठनों तक, तमाम लोग आज जिस तरह एकजुट हुए हैं, पूरे देश में कहीं से भी किसी तनाव की खबर नहीं है, यह सब्र और काबू असाधारण और अभूतपूर्व है। इस हमले के तौर-तरीके जिस तरह लोगों को बांटने की नीयत से किए गए थे, वह नीयत तो कारगर नहीं हो पाई, और इस नीयत की शिनाख्त उजागर हो गई, एकजुट होते हुए इस देश ने यह समझ लिया कि इसे बांटने की नीयत से यह हमला किया गया था।
नफरत की शिनाख्त, और आपसी मोहब्बत की जरूरत, इन दोनों का अहसास छोटा नहीं होता है। लोकतंत्र में एक इतने बड़े देश की यह समझदारी बेमिसाल है कि उसने सरहद पार के आतंकियों के धर्म से इस देश के मुस्लिमों के धर्म को जोडक़र नहीं देखा। सोशल मीडिया पर एक बहस चलती रहेगी, क्योंकि कुछ लोगों की राजनीतिक और मानवीय समझ हमेशा ही कमजोर रहेगी। लेकिन इतना सब कुछ हो जाने पर भी आज यह देश जिस तरह एकजुट बना हुआ है, वह देखने लायक है। हर आपदा कुछ किस्म के अवसर लेकर आती है, मुसीबत में ही भलमनसाहत की पहचान भी होती है। कश्मीर में मारने वालों के धर्म से बचाने वालों का धर्म बड़ा था। कहने के लिए दोनों का धर्म एक कहा जा सकता है, लेकिन उन दोनों का इस्तेमाल बिल्कुल अलग-अलग था। आधा दर्जन से कम लोग मारने वाले थे, और सैकड़ों-हजारों लोग बचाने वाले थे। बचाने वालों ने ही अपने धर्म की इज्जत बढ़ाई, और मस्जिदों ने लाउडस्पीकरों पर बताया कि यह हमला इस्लाम-विरोधी है। हिन्दुस्तान को अपने पर हुए ऐसे आतंकी हमले से परे भी एकजुट रहना चाहिए, और वही एकजुटता इस देश को महफूज रख सकती है, और आगे बढ़ा सकती है। ऐसे तनाव के वक्त भी इस देश का शांत बने रहना ही इस देश का मिजाज रहते आया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)