संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संवैधानिक जिम्मेदारी के तहत राजनीति खेलना अच्छी बात नहीं है...
18-Apr-2025 3:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : संवैधानिक जिम्मेदारी के तहत राजनीति खेलना अच्छी बात नहीं है...

तमिलनाडु के राज्यपाल का राज्य सरकार के खिलाफ अभियान सुप्रीम कोर्ट जाकर ठंडा पड़ा, जब अदालत ने यह फैसला दिया कि राज्यपाल विधानसभा के भेजे विधेयकों को अंतहीन नहीं रोक सकते, और उनके पास ऐसा कोई वीटो नहीं है। इसके साथ ही इस लंबे फैसले में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने यह भी फैसला दिया कि भारत के राष्ट्रपति भी राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों को अंतहीन नहीं रोक सकते, और उन्हें भी इस पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक राय लेनी चाहिए। इस पर देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट पर जमकर हमला बोला, और कहा कि हम ऐसे हालात नहीं बनने दे सकते जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें। धनखड़ खुद एक वकील रह चुके हैं, और पश्चिम बंगाल में राज्यपाल रहते हुए वहां के मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के साथ उनका असाधारण टकराव चलते रहता था। आज वे केन्द्र के सत्तारूढ़ गठबंधन के हिस्सेदार हैं, राज्यसभा में उनका रूख कई बार आलोचना का केन्द्र बनता है। वे इसके पहले भी सुप्रीम कोर्ट की कुछ मामलों को लेकर आलोचना कर चुके हैं, और अभी जब दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के घर से बोरियों में जले हुए नोट मिले थे, तब भी उन्होंने राज्यसभा में बाकी पार्टियों के नेताओं के साथ उत्साह से बैठक की थी, और उनका वह उत्साह कुछ असाधारण था। अब धनखड़ ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत जो असाधारण अधिकार मिला हुआ है, उसे अदालत देश की लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल की तरह इस्तेमाल कर रही है। उन्होंने कहा ऐसे जज हैं जो कानून बनाएंगे, जो सरकार का काम करेंगे, जो सुपर संसद के रूप में काम करेंगे, और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता है। उन्होंने कहा कि भारत ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी जिसमें अदालत राष्ट्रपति को समय सीमा बताएगी।

हमारे पाठकों को याद होगा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद हमने उसकी तारीफ में इसी जगह लिखा था, और यह भी लिखा था कि राष्ट्रपति के लिए भी समय सीमा तय करना एक अच्छा फैसला है क्योंकि राज्यों में राज्यपाल कई जगह राज्य सरकार से टकराव लेकर विधानसभा से आए विधेयकों को रोकते हैं, मुख्यमंत्रियों से टकराव करते हैं, और यह नौबत लाते हैं जिसमें यह लगे कि राजभवन खत्म कर दिए जाने चाहिए। ऐसे में जब   राज्यपाल राज्य सरकार के विधानसभा से पारित विधेयक भेजते हंैं, और उन्हें अपने पास अंतहीन रोकने के बाद वे उसे राष्ट्रपति को भेज देते हैं, और वहां पर राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर उन विधेयकों को और भी अंतहीन रोक सकते हैं। यह व्यवस्था लोकतंत्र के ठीक खिलाफ है, और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला देकर सही काम किया है। राष्ट्रपति चूंकि केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर ही काम करते हैं, इसलिए यह जाहिर है कि उनके दस्तखत राजनीतिक रूझान वाले दस्तावेज पर होते हैं, और लोकतंत्र की मूलभावना को देखते हुए राष्ट्रपति को कोई निर्बाध अधिकार नहीं दिए जा सकते। हमने पहले किसी दूसरे प्रसंग में यह भी लिखा था कि राष्ट्रपति को किसी भी जुर्म में सुप्रीम कोर्ट से भी मिली हुई कुछ किस्म की सजा को बदलने का एक निर्बाध हक मिला हुआ है, और आमतौर पर मौत की सजा पाए हुए लोगों को केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर वे फांसी से बचाने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। हमने सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ जाकर इस तरह की माफी को भी अलोकतांत्रिक माना था, और राष्ट्रपति का यह अधिकार खत्म करने की सिफारिश की थी। जगदीप धनखड़ की यह तकलीफ हो सकती है कि पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते हुए ममता बैनर्जी ने उनके साथ अभूतपूर्व और असाधारण टकराव मोल लिया था, और यही बात उन पर भी लागू होती थी। इसलिए तमिलनाडु के राज्यपाल को फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला लिखा है, उस पर धनखड़ व्यक्तिगत रूप से भी आहत और दुखी हो सकते हैं।

लोकतंत्र में तीनों संस्थाएं, कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका का एक-दूसरे पर कुछ हद तक नियंत्रण संविधान में ही रखा गया है। राष्ट्रपति के पद को मोटेतौर पर इन तीनों से ऊपर रखा गया है, लेकिन जहां कहीं भी राष्ट्रपति के काम का ऐसा हिस्सा मुद्दा बनता है जो कि पूरी तरह केन्द्रीय मंत्रिमंडल के फैसले, और उसकी सिफारिश से तय होता है, तो उस फैसले को कार्यपालिका से परे का राष्ट्रपति का फैसला मानना गलत होगा। हमने अभी इसी हफ्ते इस विषय पर इसी जगह यह भी लिखा था कि दो जजों की बेंच का यह फैसला पुनर्विचार के लिए केन्द्र सरकार या तमिलनाडु के राज्यपाल की तरफ से आएगा ही आएगा, और अब वही हो रहा है। यह ठीक भी है। अधिक जजों की एक संविधानपीठ इस जटिल संवैधानिक मामले को एक बार तय करे। और हम धनखड़ की इस बात से पूरी तरह असहमत हैं कि राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट की सीमा से परे हैं। राष्ट्रपति के विशेषाधिकार उनके खिलाफ किसी मुकदमे की संभावना नहीं रखते, और कार्यकाल चलने तक ऐसा ही विशेषाधिकार राज्यपालों को भी मिला हुआ है। लेकिन केन्द्र सरकार के लिए हुए फैसलों, और उनकी सिफारिश को राष्ट्रपति का काम नहीं माना जा सकता। और खासकर तमिलनाडु का यह मामला तो राज्यपाल, और उन्हें नियुक्त करने वाली केन्द्र सरकार को बहुत ही खराब रौशनी में रख रहा है। इसलिए राजनीतिक दलों को आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि अपनी सरकार के काबू के संवैधानिक ओहदों का खराब राजनीतिक इस्तेमाल करके वे कौन सा लोकतंत्र साबित कर रहे हैं? धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के विशेषाधिकारों, उसके कुछ खास अधिकारों के साथ-साथ जजों के चाल-चलन की तरफ भी इशारा किया है। राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक जिम्मेदारी अलग होती है, और जजों का चाल-चलन अलग होता है। धनखड़ अगर चाहें तो उनकी अगुवाई में देश के पर्याप्त सांसद किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लोकसभा या राज्यसभा में ला सकते हैं, और जजों की जांच हो सकती है, उनसे जवाब-तलब हो सकता है, और उन्हें हटाया जा सकता है। लेकिन राज्यपाल की राजनीतिक तिकड़मों को बचाने के लिए जजों के चाल-चलन का तर्क दमदार नहीं है, खासकर तब जबकि संसद में धनखड़ की पार्टी का स्पष्ट बहुमत है, और वे जजों पर महाभियोग चलाने की ताकत रखते हैं। आज अगर अटलजी होते, तो वे इस बारे में कहते, संवैधानिक जिम्मेदारी के तहत राजनीति खेलना अच्छी बात नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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