संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भारत-अमरीका रिश्तों में दुधारू गाय की उम्मीद थी, यह बिफरा सांड आ गया..
22-Feb-2025 6:14 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : भारत-अमरीका रिश्तों में  दुधारू गाय की उम्मीद थी,  यह बिफरा सांड आ गया..

नए अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की अंतरराष्ट्रीय नीतियों से जो भूचाल आया है, उससे हिन्दुस्तान की जमीन भी हिली हुई है। मोदी सरकार के सामने अपने पहले दस बरसों में विदेश नीति, आर्थिक नीति, और सैन्य नीति की इतनी बड़ी कोई चुनौती नहीं थी जितनी कि इस ग्यारहवें बरस में सामने आई है। ट्रम्प ने दुनिया के अलग-अलग इतने मोर्चों पर एक साथ जंग छेड़ दी है कि हिन्दुस्तान जैसे दूर बसे हुए देश को भी यह समझने में दिक्कत हो रही होगी कि ट्रम्प की किस सनक का भारत पर क्या असर पड़ेगा। अब तक दुनिया में चीन और रूस ये दो अमरीका के अलग-अलग मोर्चों पर दुश्मन माने जाते थे। पिछले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमरीका की पूरी ताकत यूक्रेन के साथ लगाकर रूस को खोखला करने की एक जंग छेड़ रखी थी। जंग हालांकि शुरू रूस ने यूक्रेन पर हमले से की थी, और खुद यूक्रेन ने अपने आखिरी नागरिक तक को झोंककर भी इस जंग में टिके रहने का पुख्ता इरादा दिखाया था, इसलिए यूक्रेन को अमरीका, और योरप के देशों के साथ उसके फौजी संगठन, नैटो का प्रॉक्सी वॉर कहना ठीक नहीं होगा। फिर भी अमरीका और योरप की नीयत यही दिखती थी कि यूक्रेनी लहू की कीमत पर फौजी रसद दे-देकर रूस को खोखला किया जाए। ऐसे तीन बरस गुजर चुके थे कि अमरीकी जनता ने एक बार फिर ट्रम्प को चुन लिया, और अब दुनिया का सबसे बिफरा हुआ सांड परंपरागत बहुत नाजुक विदेश नीति के फैसलों को एक-एक फतवे में तय कर रहा है।

कौन ऐसी कल्पना कर सकते थे कि बाइडन के रहने तक जो अमरीका रूस के खिलाफ सैकड़ों बिलियन डॉलर झोंक चुका था, अब ट्रम्प आकर उसे शून्य तो कर ही देगा, साथ ही यूक्रेन के खनिजों का आधा हिस्सा मांगने लगेगा ताकि अमरीका से उसे मिली फौजी मदद का भुगतान हो सके! यह एक ऐसी अजीब नौबत आ गई है कि अमरीका के सबसे बड़े परमाणु-शत्रु देश रूस का आज अमरीका सबसे बड़ा हिमायती हो गया है, और चीन चूंकि रूस के साथ तालमेल करते हुए चल रहा था, उसे अमरीका के इस फैसले और हमलावर तेवर का साथ देने में कोई दिक्कत नहीं हो रही है। ऐसी नौबत की किसने कल्पना की थी कि अमरीका आज पूरे योरप और यूक्रेन की तरफ देखे बिना भी खुद रूस के साथ मिलकर यूक्रेन का भविष्य तय कर रहा है। उसका यह रूख फिलीस्तीन में भी दिखता है जहां वह फिलीस्तीनियों से बात किए बिना सिर्फ इजराइल के साथ मिलकर यह तय कर रहा है कि गाजा को फिलीस्तीनियों से, उसके मूल निवासियों से खाली करा दिया जाए, और उसे एक कारोबारी निर्माण की तरह विकसित किया जाए। हमलावरों को उनके कब्जे में आई जमीन दे देने की यह नई अंतरराष्ट्रीय गुंडागर्दी संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक, सभी के फैसलों के खिलाफ है, लेकिन ट्रम्प आज जिस बिफरे अंदाज में चल रहा है, उससे यह जाहिर है कि वह धरती का ही नहीं, ब्रम्हांड का भी निर्णायक अपने आपको मान रहा है। कल तक योरप के जिन देशों के साथ मिलकर अमरीका की वैश्विक सैनिक रणनीति चल रही थी, आज उसने एक पल में पूरे योरप को खारिज कर दिया है, बल्कि यूरोपीय समुदाय के एक सबसे बड़े देश, जर्मनी के घरेलू चुनावों में पूरी तरह खुलकर दखल दे रहा है, ब्रिटेन के घरेलू मामलों में बयानबाजी कर रहा है, इन सबसे योरप के साथ उसके रिश्ते और सारा शक्ति संतुलन पूरी तरह गड़बड़ा गया है। अमरीका इसके नतीजों से बेफिक्र दिख रहा है, और ऐसा लगता है कि ट्रम्प को अपने कार्यकाल के साथ ही धरती भी खत्म होते दिख रही है कि उसे चार बरस के बाद के अमरीका की कोई फिक्र नहीं है।

भारत को ट्रम्प ने कुछ फैसलों से इतने बेरहम तरीके से उसकी जगह दिखाई है कि भारत और उसके हिमायती देश हक्का-बक्का हैं। उसने जिस अंदाज में भारत के लोगों को वहां से निकालकर सौ-सौ के खेप में फौजी बंधकों की तरह लाकर हिन्दुस्तान में पटक दिया है, वह भयानक है। और अब तो खबर यह है कि वह अमरीका से दूसरे देशों में लोगों को भेजते हुए अमरीकी जमीन से उन्हें जल्द से जल्द हटा देने के लिए पड़ोसी देशों को वेटिंग हॉल की तरह इस्तेमाल कर रहा है, और पनामा की कैद में अपने-अपने देश लौटाए जा रहे वे लोग रहम और हिफाजत मांग रहे हैं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ट्रम्प से मिलने वाले शुरूआती तीन-चार विदेशी नेताओं में से रहे, लेकिन उनकी इस बातचीत से न तो भारत लौटाए जा रहे लोगों की हथकड़ी-बेड़ी हटी, और न ही भारत को किसी भी किस्म की टैक्स-छूट मिली। ट्रम्प ने बार-बार साफ-साफ शब्दों में कहा कि भारत को जवाबी टैरिफ से कोई रियायत नहीं मिलेगी। और उसका रूख महज भारत के लिए शत्रुता का नहीं है, उसका रूख हर किसी के लिए ऐसा ही है, दिक्कत यह है कि भारत के लोग मोदी और ट्रम्प की चर्चित गलबहियों से बड़ी उम्मीद लगाए हुए थे, लेकिन मोदी अमरीका से बिना कुछ पाए सिर्फ ग्राहक की तरह खरीददारी करके लौटे हैं, वहां के सबसे महंगे फौजी विमान की खरीददारी जो कि कई लोगों के मुताबिक बड़ी महंगी है, और जिन विमानों को अभी कुछ अरसा पहले एलन मस्क ने कबाड़ कहा था।

अमरीका की प्राथमिकता में फिलहाल भारत कहीं नहीं दिख रहा है, और उसने मोदी के अमरीका पहुंचने के पहले ही सबसे महंगी अमरीकी मोटरसाइकिलों, और अमरीकी दारू पर से भारत में लगने वाला टैरिफ घटवा दिया था। भारत सरकार का यह फैसला ट्रम्प-मोदी बातचीत के पहले एक नजराने की तरह था, लेकिन दुनिया भर के देशों से जबराना वसूलने के मूड में बैठे ट्रम्प से मोदी को इस नजराने के एवज में कोई शुकराना नहीं मिला। अब जब रूस-अमरीका, और चीन कम से कम एक बड़े मुद्दे, यूक्रेन पर एक साथ दिख रहे हैं, तो फिर इस साथ का असर कई और जगहों पर भी हो सकता है, और तीन महाशक्तियों का यह नया अघोषित गठबंधन ताइवान और भारत जैसे देशों के लिए फिक्र की बात भी हो सकता है, जिनका कि चीन से टकराव है। इस तरह ट्रम्प ने दुनिया में सारे समीकरण चौपट कर दिए हैं, तमाम गठबंधन प्रसंगहीन बनाकर हाशिए पर धकेल दिए हैं, और अपने आधी-पौन सदी पुराने साथियों को चिलचिलाती धूप में खुला छोडक़र अमरीकी छाता हटा लिया है। भारत के इतिहास में विदेश नीति के सामने भूचाल सरीखी इतनी बड़ी कोई चुनौती कभी नहीं आई थी, और आज बाकी दुनिया की हलचल के साथ-साथ भारत की सोच, पहल, और उसके फैसलों का अध्ययन बड़ा दिलचस्प होगा। अंतरराष्ट्रीय संबंध और विदेश नीति पढ़ाने वाले कामचोरी करने वाले प्राध्यापकों की चर्बी छंटेगी, और उन्हें नए सिरे से सब कुछ समझना, समझाना पड़ेगा।

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