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रायपुर, 11 दिसंबर। सफलता के अनेक सूत्र है। उनमें पुरूषार्थ का स्थान सर्वोपरि है। व्यवसाय, शिक्षा, अध्यात्म आदि कोई भी क्षेत्र हो उसमें सफलता तभी मिलती है जब व्यक्ति का अपना पुरूषार्थ होता है। उस व्यक्ति का भाग्य सो जाता है, जो पुरूषार्थ को खो देता है। मंजिल उसी को मिलती है जो चलता रहता है। आत्म कर्तृत्व का सिद्धांत पुरूषार्थ का मूल मंत्र है। पुरूषार्थी व्यक्ति कभी निराश नहीं होता। जीवन की हर असफलता से प्रेरणा लेकर निरंतर पुरूषार्थ करने वाला व्यक्ति असंभव को भी संभाव करके दिखा सकता है।
पुरूषार्थ का आभार है-आत्मविष्वास। मैं शक्तिसंपन्न हूं, मैं सब कुछ कर सकता हूं, जो मेरे लिए करणीय है। मैं सब कुछ पा सकता हूं, जो मेरे लिए प्राप्य है। मैं वहां पहुंच सकता हूं, जो मेरा गंतव्य है। इस विष्वास के बल पर शक्ति का जागरण होता है, कार्य में दक्षता बढ़ती है, मन में उत्साह जागता है और गति में शीघ्रता आती है। ज्ञान, भक्ति और कर्म की समन्विति का नाम है पुरूषार्थ। दूसरे शब्दों में पुरूषार्थ का अर्थ है शक्ति का स्फोट। आत्मा में अनंत शक्ति होती है पर वह दबी रहती है। उसको काम में लेने का मनोभाव शक्ति-जागरण का प्रथम सोपान है जो कठिन से कठिन काम में प्रवृत्त होने का अग्रिम चरण है। श्रमनिष्ठा और संकल्प निष्ठा के द्वारा व्यक्ति अपने पुरूषर्थ को जागृत कर सकता है। जागृत पुरूषार्थ सफलता की गारंटी है।
पुरूषार्थ से सफलता मिलती है, यह भी एक सापेक्ष सत्य है। सही दिषा में सही विवके के साथ किया गया पुरूषार्थ ही निष्पत्ति लाता है। गलत दिषा में किया गया पुरूषार्थ व्यक्ति को भटका देता है। विवेक चेतना का जागरण न हो तो पुरूषार्थ वांछित परिणाम नहीं ला सकता। इसलिए दिशा-निर्धारण एवं विवके जागरण से समन्वित पुरूषार्थ का ही मूल्य है।


