सलमान रावी
ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) क़ानून यानी 'यूएपीए' और राजद्रोह यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के सबसे ज़्यादा मामले सिर्फ़ साल 2016 से लेकर साल 2019 के बीच दर्ज किये गए हैं. इनमें अकेले 'यूएपीए' के तहत 5,922 मामले दर्ज किये गए हैं.
ये जानकारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो यानी 'एनसीआरबी' की ताज़ा रिपोर्ट में दी गई है. रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि इस दौरान इनमें से कुल 132 लोगों के ख़िलाफ़ ही आरोप तय हो पाए हैं.
एक सवाल के जवाब में केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने राज्यसभा को बताया कि इन आंकड़ों में ये नहीं बताया गया है कि जिनके ख़िलाफ़ यूएपीए के तहत मामले दर्ज किये गए हैं वो किस बिरादरी या जाति समूह से हैं.
उनका कहना था कि रिपोर्ट से ये भी पता नहीं चलता कि गिरफ़्तार किए गए लोगों में से कितने ऐसे हैं जिनका काम नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना है.
रेड्डी ने 'एनसीआरबी' की रिपोर्ट के हवाले से सदन को ये भी बताया कि सिर्फ़ 2019 में ही यूएपीए के तहत पूरे देश में 1,948 मामले दर्ज किए गए हैं. आंकड़े बताते हैं कि इस साल अभियोजन पक्ष किसी पर भी आरोप साबित करने में असफल रहा जिसकी वजह से 64 लोगों को अदालत ने दोषमुक्त करार दिया.
साल 2018 की अगर बात की जाए तो जिन 1,421 लोगों पर यूएपीए के तहत मामले दर्ज हुए उनमें से सिर्फ़ चार मामलों में ही अभियोजन पक्ष व्यक्ति पर आरोप तय करने में कामयाब रहा, जबकि इनमें से 68 लोगों को अदालत ने बरी कर दिया.
इन आंकड़ों को देखने से ये भी पता चलता है कि इस क़ानून के तहत 2016 से लेकर 2019 तक गिरफ़्तार किए गए लोगों में से सिर्फ़ दो प्रतिशत से कुछ ज़्यादा लोगों ऐसे हैं जिनके ख़िलाफ़ आरोप तय किए जा सके.
उसी तरह 2019 में भारतीय दंड विधान की धारा 124ए यानी राजद्रोह के आरोप के तहत कुल 96 लोगों को गिरफ़्तार किया गया जिनमें से सिर्फ़ दो लोगों पर ही आरोप तय किए जा सके, जबकि 29 आरोपियों को बरी कर दिया गया.
2019 अगस्त में इस ऐक्ट में छठा संशोधन किया गया था. संशोधन के अनुसार ऐक्ट के सेक्शन 35 और 36 के तहत सरकार बिना किसी दिशानिर्देश के, बिना किसी तयशुदा प्रक्रिया का पालन किए किसी व्यक्ति को आतंकवादी क़रार दे सकती है. इससे पहले यूएपीए ऐक्ट में पांच बार संशोधन किया जा चुका है. (फ़ाइल फ़ोटो)
'विरोध के स्वर दबाने के लिए क़ानून का इस्तेमाल'
पीपल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) की लारा जेसानी के अनुसार यूएपीए और राजद्रोह के मामलों का इस्तेमाल विरोध की आवाजों को दबाने के लिए किया जाता रहा है.
एक वेबसाइट के अनुसार उनका कहना है कि इन मामलों में जिन लोगों पर ये आरोप लगाए गए जाते हैं उन्हें जिस प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है वो अपने आप में किसी सज़ा से कम नहीं.
जेसानी के अनुसार सभी मामलों के अधय्यन पर एक ख़ास तरह के 'पैटर्न' का पता चलता है. वो लिखती हैं, "साज़िश का आरोप है तो यूएपीए लगेगा ही. इन मामलों में जब अभियोजन पक्ष आरोप साबित नहीं कर पाता है तो साफ़ है कि ये आरोप इसलिए लगाए जाते हैं ताकि लोग परेशान हों. सज़ा मिलना या न मिलना तो बाद की बात है. कई मामलों में अभियुक्तों के ख़िलाफ़ समय पर सुनवाई भी शुरू नहीं की जाती."
लेकिन गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी के अनुसार ये कहना मुश्किल है कि इन क़ानूनों के तहत सिर्फ़ नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों पर ही कार्यवाई की गई है.
उनका कहना है कि ये मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि 'एनसीआरबी' ने अलग से इसका कोई आकलन नहीं किया है कि जिन पर मामले दर्ज हुए हैं वो कौन हैं और किस काम से जुड़े हैं.

एपीए पर क्या है जानकारों की राय?
यूएपीए के अभियुक्तों के मामले लड़ने वाली जानी मानी वकील सौजन्या ने बीबीसी से कहा कि अदालतों ने यूएपीए और राजद्रोह जैसे क़ानूनों की संवैधानिक मान्यता को लेकर अभी तक कोई निर्देश जारी नहीं किये हैं. उनका कहना है, "इन क़ानूनों को चुनौती भी दी गई है लेकिन अभी तक इन पर कोई रोक नहीं लगाई गई है."
उनका कहना है, "जहां तक बात होती है आरोप साबित होने की तो इसमें भी कई तरह के पेंच हैं और अभियोजन पक्ष के अधिकारियों को इन्हें साबित करने के लिए बहुत मशक्क़त करनी पड़ती है. लंबे समय तक सुनवाई टलती रहने की वजह से अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान भी बदलते रहते हैं जो अपने आप में एक बड़ी चुनौती है."
वहीं इन मामलों को लेकर अदालतों में बहस करने वाले वरिष्ठ वकील बद्रीनाथ भी कहते हैं कि यूएपीए के तहत मामला दर्ज हुआ है तो वो ग़लत ही होगा, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा.
वो कहते हैं, "अलग-अलग अभियुक्तों के मामले अलग-अलग सुबूतों पर आधारित होते हैं. किसी एक मामले को लेकर कहना कि सारे मामलों में ग़लत हुआ है, सही नहीं है. इन मामलों में अभियोजन पक्ष के लिए भी ये मुश्किल होता है कि सुबूतों और गवाहों को लंबे समय तक अदालत में मज़बूती के साथ खड़ा रख सकें. वैसे अभी तक अदालतों ने इन मामलों में इंसाफ़ ही किया है."
वरिष्ठ वकील तारा नरूला भी यूएपीए से जुड़े मामलों को क़रीब से देखती रही हैं. इन आरोपों से जुड़े कई मामले वो अदालत में लड़ चुकी हैं.
उन्होंने बीबीसी से कहा कि अभियोजन पक्ष में कमियाँ ज़रूर होंगी और होती भी हैं, मगर उससे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है.
वो कहती हैं, "ये आरोप लगते रहे हैं कि सरकारें विरोध की आवाज़ों को चुप कराने के लिए यूएपीए या राजद्रोह जैसे क़ानूनों का इस्तेमाल करती रही हैं. क़ानून व्यवस्था राज्य सरकारों का विषय है इसलिए ये अकेले केंद्र सरकार ज़िम्मेदार नहीं है."
वहीं संविधान के जानकार और सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि सिर्फ़ यूएपीए और राजद्रोह के क़ानून के आंकड़े अलग से नहीं देखे जाने चाहिये.
उनका कहना है, "इनकी तुलना देश में घटित अन्य अपराधों से की भी जानी चाहिए, तभी पता लग पाएगा कि इन अपराधों में आरोप साबित होने का असल प्रतिशत क्या है."
विराग गुप्ता कहते हैं कि आंकड़े अलग से देखे जाने पर वास्तविक तस्वीर का पता नहीं चलता.
वो कहते हैं, "अन्य आपराधिक मामलों में अभियोजन पक्ष की सफलता कितनी है इसका भी आकलन करना ज़रूरी है, तभी पता लग पायेगा कि यूएपीए और राजद्रोह के मामलों की तुलना में इनकी स्थिति क्या है."
पत्रकार कुणाल पुरोहित ने इन मामलों को लेकर से शोध किया है. इससे जुड़ी उनकी रिपोर्ट रिपोर्ट 'न्यूज़ क्लिक' पोर्टल ने पब्लिश की है. इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि साल 2014 से इस तरह के 96 फीसदी मामले सरकार और नेताओं का आलोचना को लेकर दर्ज किए गए हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि "जिन राज्यों में इस तरह के मामले सबसे ज़्यादा दर्ज किए गए हैं उनमें मुख्य तौर पर बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और झारखण्ड हैं." (bbc.com)