-निक बीके
साल 2018 में, रोहिंग्या मुसलमानों के तथाकथित जनसंहार के एक साल बाद, आंग सान सू ची अपनी कैबिनेट में शामिल सैन्य शासकों की तारीफ़ करते नहीं थकती थीं. उस दौर में वे हर क़दम पर उनका बचाव कर रही थीं, जबकि दुनिया के अधिकांश देश अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों पर हुई सैन्य कार्रवाई की आलोचना कर रहे थे.
अब तीन साल बाद, जब वे एक बार फिर घर में नज़रबंद कर दी गई हैं और इस तख़्तापलट की मुख्य पीड़िता हैं, तब सेना का बचाव करने का उनका फ़ैसला वाक़ई 'एक बुरा फ़ैसला' प्रतीत होता है.
स्पष्ट रूप से ये कहना तो थोड़ा मुश्किल है कि सू ची ने तब निजी, राजनीतिक या देश-भक्ति की वजह से सेना का बचाव किया था. लेकिन उनके समर्थक आपको बतायेंगे कि वे एक कठिन परिस्थिति में थीं और धारा के विपरीत जाना उनके लिए मुश्किल था. जबकि उनके आलोचक कहते हैं कि उस समय रोहिंग्या मुसलमानों का दर्द बाँटने के लिए वे कम से कम दो शब्द तो कह सकती थीं.
ख़ैर अब जो भी है, पर एक लोकतांत्रिक म्यांमार की संभावनाएं फ़िलहाल कम ही दिखाई दे रही हैं.
माना जाता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सू ची की छवि ख़राब हुई है, लेकिन म्यांमार में उनके चाहने वाले अब भी बहुत बड़ी संख्या में हैं और उनकी इस लोकप्रियता को कम नहीं किया जा सकता.
हाल ही में हुए चुनावों में सू ची की 'नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी' पार्टी ने 80 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किये थे. ये उनकी बड़ी जीत थी.
आज भी, जब आप यंगून शहर की गलियों में निकलते हैं, तो हर जगह दिखाई देने वाले सू ची के पोस्टर, पेंटिंग और कैलेंडर, 'मदर सू ची' की लोकप्रियता की ओर इशारा करते हैं.
हालांकि, अब इन गलियों में प्रदर्शनकारियों का शोर है. वे बर्तन बजाकर अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं और वे चाहते हैं कि सू ची को रिहा किया जाये.
म्यांमार में पारंपरिक तौर पर, 'भूतों (बुरी आत्माओं) को भगाने के लिए' बर्तन बजाने का प्रचलन है. सोशल मीडिया पर लोग लिख रहे हैं कि 'वो अब सेना को भगाने के लिए बर्तन बजा रहे हैं, ताकि आंग सान सू ची आज़ाद हो सकें.'
रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकारों के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता वाई वाई नू ने यंगून की सड़कों का एक वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है, जिसके साथ उन्होंने लिखा कि "यह देखना बहुत दर्दनाक है."

aung photo United Nations
इस फ़ुटेज में, एक तस्वीर ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा जो म्यांमार के हिंसक और दुखद इतिहास का प्रतीक है. स्मार्टफ़ोन की रोशनी में चमकती ये तस्वीर आंग सान सू ची के पिता जनरल आंग सान की थी, जिनके बारे में आज भी म्यांमार में सम्मान से बात की जाती है. ब्रितानी शासन से आज़ादी मिलने से पहले ही उनकी हत्या कर दी गई थी. तब उनकी लोकप्रियता बहुत अधिक थी.
वे आधुनिक बर्मी सेना के संस्थापक भी थे जिसे तातमाडॉ के नाम से भी जाना जाता है. उसी सेना ने अब उनकी बेटी को बंदी बना लिया है और एक बार फिर उनकी आज़ादी छीन ली है.
लोगों का मानना है कि म्यांमार में इससे पहले के आंदोलन - चाहे वो 1988 और 2007 का आंदोलन हो - सभी ज़मीन पर लड़े गये. लेकिन इस बार लड़ाई ऑनलाइन होनी है. फ़ेसबुक इसमें सबसे अहम प्लेटफ़ॉर्म कहा जा रहा है जिसे म्यांमार में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है. म्यांमार में फ़ेसबुक समाचार और नज़रिये शेयर करने का प्रमुख माध्यम है.
यही वजह है कि म्यांमार की सेना ने तख़्तापलट के बाद सबसे पहले फ़ेसबुक पर पाबंदी लगायी.
एक वजह ये भी है कि फ़ेसबुक ने म्यांमार के सैन्य शासकों को बैन कर दिया था, जो अब तक लोगों में देशभक्ति की भावना भरने, फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाने और एक ख़ास समुदाय के ख़िलाफ़ ज़हरीली विचारधारा फैलाने के लिए इस प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल करते रहे थे. इसीलिए म्यांमार के सैन्य शासक फ़ेसबुक और सोशल मीडिया की ताक़त जानते हैं.
इसी तरह म्यांमार के लोग ये नहीं भूले हैं कि सेना ने उनकी पिछली पीढ़ी के साथ क्या किया था और म्यांमार में सेना की क्या ताक़त है.
सैन्य शासकों के पास तांडव करने की क्षमता है. हालांकि, जानकार मानते हैं कि सेना इस रास्ते को आसानी से नहीं चुनेगी.
यह भी पढ़ें: म्यांमारः जनरल ह्लाइंग जिन्होंने आंग सान सू ची को गिरफ़्तार कर हथियाई सत्ता
इस बीच आंग सान सू ची और उनके समर्थकों के लिए मंथन करने का विषय ये है कि वो अपनी डिजिटल शक्ति का उपयोग कैसे करें.
कुछ लोगों ने इस दौरान चर्चा में आयी सू ची की एक चिट्ठी पर आशंका जताई है, जिसमें सू ची की ओर से 'तख़्तापलट का विरोध' करने की अपील की गई. पर लोगों का मानना है कि ये सैन्य शासकों की कोई साज़िश हो सकती है, ताकि लोग सड़कों पर निकलें और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाये, या इससे भी बढ़कर कुछ किया जाये.
सू ची के लिए लोगों के सड़कों पर उतर आने का अंतरराष्ट्रीय मीडिया, सोशल मीडिया और टीवी न्यूज़ चैनलों के लिए एक अलग मतलब होगा. इससे उन्हें बेशक हाई-क्वालिटी तस्वीरें और फ़ुटेज मिलेगी. लेकिन '1988 की फ़िल्म' आज भी लोग भूले नहीं है, जब म्यांमार की सेना ने सड़कों को आज़ादी की माँग कर रहे लोगों के ख़ून से भर दिया था.
म्यांमार की पिछली पीढ़ी ने वो सब अपनी आँखों से देखा है, और इसमें कोई नई बात नहीं होगी कि बर्मी सेना एक बार फिर वैसी घटनाओं को अंजाम दे.
हालांकि, म्यांमार के नवीनतम दर्दनाक अध्याय में एक और विरोधाभास है.
मसलन, सू ची का आज़ाद होना और सत्ता में लौटना, बहुत हद तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय की 'सक्रियता और निष्क्रियता' पर निर्भर है.
एक समय था जब सू ची पश्चिमी देशों की लाडली थीं और उन्हें उसूलों के साथ चलने वाली नेत्री समझा जाता था.
लेकिन अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों का समर्थन और उनकी मदद से इनकार कर वे आलोचनाओं में घिर गईं और उनके रवैये से घबराये अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों और संगठनों ने उनसे ज़्यादातर पुरस्कार वापस ले लिये.
इससे पहले जब वे 15 वर्षों के लिए 'हाउस अरेस्ट' (घर में नज़रबंद) में थीं, तब पश्चिम के देश उनके साथ खड़े दिखाई देते थे. बीबीसी ने भी उस दौर में सू ची की आवाज़ को दुनिया तक पहुँचाया.
लेकिन 2017 में म्यांमार के रखाइन प्रांत में हुए जनसंहार के बाद, सब कुछ बदल गया.
अन्य पश्चिमी मीडिया संस्थानों की तरह, बीबीसी को भी म्यांमार से इंटरव्यू की गुज़ारिशों का जवाब मिलना बंद हो गया.
इससे यह समझा गया कि वे शायद उन लोगों से बात ही नहीं करना चाह रहीं, जो उनके देश की जटिलताओं को कभी नहीं समझ सकते.
एक रिपोर्टर के तौर पर क़रीब दो साल तक म्यांमार कवर करने के दौरान, हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मेरी उनसे सबसे क़रीबी बातचीत हुई.
तब सू ची सेना द्वारा किये गए नरसंहार के आरोपों के जवाब में व्यक्तिगत रूप से बर्मी सेना का बचाव कर रही थीं.
'क्या आप कभी माफ़ी माँगेंगी श्रीमती सू ची?' मैंने यह सवाल उनसे अंतरराष्ट्रीय कोर्ट के प्रांगण में पूछा था, जहाँ वे अपनी एग्ज़ीक्यूटिव कार से उतरी थीं. लेकिन उनकी ओर से कोई जवाब नहीं मिला.

aung photo United Nations
तब आंग सान सू ची ने म्यांमार की 'दायित्व-शून्य सेना' के अपराधों को सही ठहराने के प्रयास का चेहरा बनने का निर्णय लिया था.
सेना से व्यापक घृणा के बावजूद, सू ची के इस निर्णय ने म्यांमार में उनकी लोकप्रियता को बढ़ाया और देश के सम्मान की रक्षा करने के लिए उनकी प्रशंसा की गई.
पर कुछ लोगों का अब मानना है कि सू ची को अब सैन्य तानाशाही से म्यांमार को आज़ाद कराने वाले संघर्ष का चेहरा नहीं होना चाहिए.
हालांकि, म्यांमार के कुछ राजनीतिक विश्लेषक ये कह रहे हैं कि 'ये सैन्य तख़्तापलट का विरोध करने और म्यांमार के बहुसंख्यक लोगों समेत लोकतांत्रिक अधिकारों का समर्थन करने का समय है.'
संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के पूर्व राजदूत बिल रिचर्डसन ने कहा है कि "जब मैंने तख़्तापलट के बारे में सुना तो मुझे लगा कि शैतान के साथ समझौता करने का यही नतीजा हो सकता था."
रिचर्डसन 2018 तक सू की के दोस्त थे. लेकिन रोहिंग्या मुसलमानों के जनसंहार के बाद स्थिति बदल गई.
रिचर्डसन ने कहा कि "जब तक सू की निर्वाचित नहीं हुई थीं, तब तक मैं उनके सबसे बड़े प्रशंसकों में से एक था."
रिचर्डसन मानते हैं कि सू ची की पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी को अब नये नेताओं को सामने लेकर आने की ज़रूरत है, ख़ासकर कुछ महिलाएं, जो म्यांमार में पैदा हुए लोकतांत्रिक संकट के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर सकें.
आंग सान सू ची पर जो आरोप लगाये गए हैं, उनके लिए उन्हें जेल की सज़ा हो सकती है, यानी वे फिर कभी राष्ट्र प्रमुख की दौड़ में शामिल नहीं हो सकेंगी.
सैन्य शासकों का दावा है कि 'फ़िलहाल देश में 'इमरजेंसी' की जो स्थिति बनी है, वो बदले तो म्यांमार में चुनाव कराये जा सकेंगे.' इससे यह स्पष्ट है कि वो इस 'चुनावी बाज़ीगरी' के टायर को पंचर करना चाहते हैं, क्योंकि खेल के नियम अगर निष्पक्ष रहे तो लोकतंत्र बड़े आराम से सैन्य शासन को हरा सकता है.
पर मौजूदा स्थिति के बारे में 20 वर्षों तक सू ची के साथी रहे बिल रिचर्डसन क्या सोचते हैं?
इस सवाल पर उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि वे महसूस कर रही होंगी कि उन्हें सेना ने धोखा दिया. वो सेना जिसका वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बचाव कर रही थीं. अब उनकी स्थिति बहुत धूमिल है. लेकिन मुझे उम्मीद है कि बर्मी सेना सू ची को चोट पहुँचाने या उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए चुप करा देने जैसा कोई क़दम नहीं उठायेगी."
और अगर आंग सान सू ची को दोबारा बोलने का मौक़ा दिया गया, तब?
"अगर वे बाहर आकर बोलती हैं और रोहिंग्या लोगों के ख़िलाफ़ हुए अपराधों को इस तरह से स्वीकार करती हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उन पर भरोसा हो, उनमें विश्वसनीयता और ईमानदारी दिखाई दे, तो चीज़ें बदल सकती हैं. अभी भी बहुत देर नहीं हुई है. अगर उन्होंने ऐसा किया तो इस तख़्तापलट के ख़िलाफ़ दुनिया कुछ एक्शन ज़रूरी करेगी."
"मैं मानता हूँ कि इसमें जोखिम होगा, लेकिन ऐसा नहीं है कि सू ची ने इससे पहले जोखिम उठाये नहीं हैं."
(निक बीके ब्रसेल्स (बेल्जियम) में बीबीसी के संवाददाता हैं और 2018 से 2020 तक वे म्यांमार में बीबीसी के संवाददाता थे.) (bbc.com)