अंतरराष्ट्रीय
यूं जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा के इस्तीफे का जापान के रक्षा बजट के एक फीसदी जीडीपी की सीमा को पार करने से कोई लेना देना नहीं है. उन्होंने कोविड-19 और ओलंपिक खेलों के आयोजन पर हुई आलोचना के बाद इस्तीफा दिया है.
डॉयचे वेले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट
बरसों से रक्षा मामलों में चुप-चाप रहने वाले जापान ने पिछले कुछ वर्षों में अपना सामरिक और सुरक्षा दृष्टिकोण बदला है. इस बदलाव का असर न सिर्फ जापान के रक्षा बजट पर पड़ा है बल्कि हाल ही में जारी रक्षा श्वेतपत्र, नेताओं के विदेश और सामरिक नीति संबंधी बयानों और यहां तक कि संविधान संबंधी मामलों में भी यह परिवर्तन देखने को मिला है. इसी कड़ी में एक नया पन्ना हाल ही में तब जुड़ गया जब 31 अगस्त को जापान के रक्षा मंत्रालय ने इस साल के रक्षा बजट को बढ़ा कर 50 अरब अमेरिकी डालर करने की बात कही. जापान जैसे देश के लिए यह कोई छोटी बात नहीं है.
आंकड़े कहते हैं कि 2018 के बाद से यह सबसे तेजी से बढ़ा बजट है जो संस्तुति के बाद लगभग तीन प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कराएगा. इस साल के मुकाबले 2.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करने के साथ ही यह बजट 50 अरब के आंकड़े तक पहुंच जाएगा. बजट की पेशकश और मंजूरी के बीच महीनों का फासला है. और अगर वित्त मंत्रालय और संसद की मंजूरी मिली तो भी यह बजट 1 अप्रैल 2022 से ही प्रभाव में आएगा.
जापान की बदलती प्राथमिकता
लेकिन जापान के रक्षा मंत्रालय की इस पेशकश ने इंडो-प्रशांत क्षेत्र में मंडराते तनाव की ओर इशारा तो किया ही है. और पिछले दिनों हुए परिवर्तनों को देखने तो यह नहीं लगता कि यह बादल आसानी से छंटने वाले हैं. जापानी रक्षा मंत्रालय ने अपने सालाना रक्षा बजट में इतनी बढ़ोत्तरी की वजह चीन को बताया है और कहा है कि चीन के खतरनाक रवैये से उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताएं बढ़ गयी हैं और चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए जापानी सेना को अधिक संसाधनों की जरूरत है.
अभी पिछले साल ही जापान ने चीन को अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा करार दिया था. लेकिन रक्षा बजट में इस बढ़ोत्तरी के बावजूद जापान चीन से अभी काफी पीछे है और यह अंतर सिर्फ धन का नहीं बल्कि तकनीक और कुल ताकत का भी है. गौरतलब है कि अमेरिका के बाद चीन दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य महाशक्ति है. चीन की अमेरिका से बढ़ती तनातनी, दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ दक्षिण चीन सागर में अतिक्रमण के मामले, ताइवान और आये दिन आक्रमण करने की धमकियों के मद्देनजर जापान की चिंता स्वाभाविक है.
चीन की आक्रामकता से चिंता
सेनकाकू द्वीप और अपने एडीआईजेड में चीनी दखल से जहां जापान की चिंताएं बढ़ी हैं तो वहीं ताइवान की सुरक्षा भी जापान के लिए सरदर्द का कारण बन रही है. दूसरे विश्वयुद्ध के समय से ही जापान ताइवान को अपनी सुरक्षा से जोड़कर देखता है. चीन की ताइवान को लेकर बढ़ती आक्रामकता से कहीं न कहीं जापान को यह लग रहा है कि चीनी ड्रैगन के गुस्से की लपट में वह भी आ सकता है. और इस चुनौती से निपटना अब दूरगामी स्ट्रेटेजी नहीं तात्कालिक जरूरत बन गया है.
अगर जापान के रक्षा बजट सम्बन्धी नीतिगत ट्रेंड पर नजर डाली जाय तो इस सन्दर्भ में सबसे बड़े और महत्वपूर्ण कदम तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने ही उठाये थे. सेल्फ डिफेंस फोर्सेस को चुस्त दुरुस्त करने और उन्हें बड़ी अंतरराष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार करने की पहल शिंजो आबे ने ही की थी जब 2015 में उन्होंने संविधान के आर्टिकल 9 में परिवर्तन लाने की कोशिश की हालांकि यह पूरी तरह सफल नहीं हो पाई थी. देखा जाय तो शिंजो आबे के समय से ही सेनकाकू द्वीप के मालिकाना हक को लेकर जापान ने भी अपने रुख में सख्ती बरतना शुरू किया है.
यही नहीं, सूत्रों के अनुसार अमामी, योनागुनी, और मियाको जैसे सुदूर द्वीपों की सुरक्षा को भी चाक चौबंद करने का मंसूबा भी जापानी रक्षा मंत्रालय ने बांध लिया है. इसके तहत ही इसीगाकि द्वीप पर एक नए कैम्प की स्थापना करने की भी योजना है. आबे के उत्तराधिकारी योशिहिदे सुगा ने भी इन प्रयासों को जारी रखा है. भले ही घरेलू राजनीतिक उठापटक और तेजी से घटती लोकप्रियता के कारण उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़ने का फैसला किया है, लेकिन प्रधानमंत्री कोई भी हो, जापान की सामरिक और कूटनीतिक दशा और दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आएगा. (dw.com)
नई दिल्ली, 5 सितंबर | पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हामिद के काबुल पहुंचने के एक दिन बाद तालिबान ने रविवार को कहा कि वह अफगानिस्तान में काबुल और इस्लामाबाद के बीच द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने के लिए है। इस बीच, हिज्ब-ए-इस्लामी पार्टी के नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार के करीबी सूत्रों ने कहा कि हामिद ने हिकमतयार से भी मुलाकात की और उन्होंने देश की मौजूदा स्थिति पर चर्चा की। यह जानकारी टोलो न्यूज ने दी।
इससे पहले, पाकिस्तानी मीडिया ने बताया कि हामिद तालिबान के निमंत्रण पर काबुल में था, लेकिन तालिबान ने कहा कि पाकिस्तान ने काबुल की अपनी यात्रा का प्रस्ताव दिया था।
टोलो न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान के सांस्कृतिक आयोग के उप प्रमुख अहमदुल्ला वासिक ने कहा कि तालिबान नेताओं ने हामिद के साथ द्विपक्षीय संबंधों और अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तोरखम और स्पिन बोल्डक र्दे पर अफगान यात्रियों की समस्याओं के बारे में बात की।
वसीक ने कहा, यह पाकिस्तानी अधिकारी सीमावर्ती इलाकों में विशेष रूप से तोरखम और स्पिन बोल्डक में अफगान यात्रियों की समस्याओं को हल करने के लिए आया है। वे चाहते थे (उनकी काबुल की यात्रा) और हमने स्वीकार कर लिया।
एक पत्रकार द्वारा काबुल दौरे के बारे में पूछे जाने पर हामिद ने कहा, चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा।
हामिद ने यह भी कहा कि उनका देश अफगानिस्तान को काबुल में हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर परिचालन फिर से शुरू करने के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करेगा।
पत्रकार सामी यूसुफजई ने कहा, "हालांकि हामिद का कहना है कि उनकी यात्रा अफगानिस्तान-पाकिस्तान के मुद्दों और अफगान यात्रियों के लिए है, मुझे लगता है कि काबुल की उनकी यात्रा ने अफगानों के बीच चिंता पैदा कर दी है और इसका मतलब है कि पाकिस्तान सरकार को मान्यता देगा कि तालिबान घोषणा करेगा।"
रिपोर्ट में कहा गया है कि हामिद शनिवार को काबुल पहुंचा और तालिबान के शहर पर कब्जा करने के बाद काबुल का दौरा करने वाला वह एकमात्र उच्च पदस्थ विदेशी अधिकारी है।(आईएएनएस)
नई दिल्ली, 5 सितंबर| अफगानिस्तान में तालिबान आतंकवादियों ने एक प्रांतीय शहर में एक पुलिसकर्मी की गोली मारकर हत्या कर दी है। स्थानीय मीडिया में बानू नेगर नाम की महिला की हत्या मध्य घोर प्रांत की राजधानी फिरोजकोह में परिजनों के सामने परिवार के घर में कर दी गई।
यह हत्या अफगानिस्तान में महिलाओं के बढ़ते दमन की बढ़ती खबरों के बीच हुई है।
घटना का विवरण अभी भी अस्पष्ट है, क्योंकि फिरोजकोह में कई लोग बोलते हैं तो प्रतिशोध का डर होता है। लेकिन तीन सूत्रों ने बीबीसी को बताया है कि तालिबान ने शनिवार को बानू नेगर को उसके पति और बच्चों के सामने ही पीट-पीट कर मार डाला।
रिपोर्ट में कहा गया है कि रिश्तेदारों ने एक कमरे के कोने में दीवार पर खून के छींटे और एक शरीर दिखाते हुए ग्राफिक चित्र दिए, जिसमें चेहरा बुरी तरह से विकृत हो गया था।
परिवार का कहना है कि स्थानीय जेल में काम करने वाली बानू आठ महीने की गर्भवती थी।
रिश्तेदारों का कहना है कि शनिवार को तीन बंदूकधारी घर पहुंचे और परिवार के सदस्यों को बांधने से पहले उसकी तलाशी ली।
एक प्रत्यक्षदर्शी ने कहा कि घुसपैठियों को अरबी बोलते हुए सुना गया।
तालिबान ने बीबीसी को बताया कि नेगर की मौत में उनकी कोई संलिप्तता नहीं है और वे इस घटना की जांच कर रहे हैं।
प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा, "हम घटना से अवगत हैं और मैं पुष्टि कर रहा हूं कि तालिबान ने उसे नहीं मारा है, हमारी जांच जारी है।"
उन्होंने कहा कि तालिबान ने पहले ही पिछले प्रशासन के लिए काम करने वाले लोगों के लिए माफी की घोषणा कर दी थी, और नेगर की हत्या को 'व्यक्तिगत दुश्मनी या कुछ और' में डाल दिया। (आईएएनएस)
-रियाज़ मसरूर
जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन के वरिष्ठ नेता सैयद अली शाह गिलानी के अंतिम संस्कार को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ है.
92 वर्षीय गिलानी का निधन एक सितंबर की रात को हुआ था और दो सितंबर तड़के उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया.
गिलानी के बेटों का कहना है कि उनका अंतिम संस्कार परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ किया गया जबकि पुलिस ने इन आरोपों से इनकार किया है.
हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस के अध्यक्ष रहे गिलानी के बेटे डॉक्टर नईम ने कहा, "हमें अपने पिता का इस्लामी क़ायदे के हिसाब से अंतिम संस्कार नहीं करने दिया गया. ये हमारा अधिकार था लेकिन हमसे ये अधिकार भी छीन लिया गया. हम इस बात को लेकर बहुत दुखी हैं."
डॉक्टर नईम और उनके भाई डॉक्टर नसीम का कहना है कि वो अपने पिता के अंतिम संस्कार में हिस्सा नहीं ले सके.
दोनों भाइयों का आरोप है कि बुधवार को जब गिलानी ने अंतिम सांस ली तब पुलिस और सरकारी अधिकारी उनके पिता के शव को ज़बरदस्ती ले गए.
दोनों भाई कहते हैं, "न उन्हें अंतिम स्नान कराया जा सका, न जनाज़े की नमाज़ पढ़ी गई और न ही हम अपने हाथों से उन्हें क़ब्र में उतार सके."
डॉक्टर नसीम के मुताबिक़, मौत से चंद मिनट पहले तक उनका ऑक्सीजन स्तर सामान्य था. इसी समय उनके मेडिकल असिस्टेंट उमर को बुलाया गया था जो लंबे समय से उनकी सेहत का ख़याल रख रहे थे.
उमर को लगा कि सब कुछ ठीक नहीं है और फिर एसकेआईएमएस अस्पताल के निदेशक को बुलाया गया जिन्होंने बताया कि गिलानी का निधन हो चुका है.
इसी दौरान पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने उनके घर को घेर लिया. दो वरिष्ठ अधिकारियों ने उनके अंतिम संस्कार को लेकर परिवार से चर्चा की.
डॉक्टर नसीम बताते हैं, "हमने उनसे कहा कि अंतिम संस्कार सुबह होगा ताकि सभी रिश्तेदार आ सकें और उनका चेहरा देख सकें.''
''घर में मौजूद महिलाओं ने पुलिस से कहा कि वे उनके शव को न छुएं. लेकिन वो सुबह तीन बजे फिर से आए और हमने रात में अंतिम संस्कार करने से इनकार कर दिया. वो ज़बरदस्ती शव को उठाकर ले गए और बिना परिजनों के अंतिम संस्कार कर दिया."
पुलिस ने इन आरोपों का खंडन किया है. पुलिस का कहना है कि गिलानी के शव को छीना नहीं गया था बल्कि पुलिस ने परिवार को 300 मीटर दूर क़ब्रिस्तान तक पहुंचने में मदद की थी.
कश्मीर रेंज के आईजी विजय कुमार ने कहा, "पुलिस ने कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए अंतिम संस्कार कराया. शांति व्यवस्था को ख़तरे के मद्देनज़र जल्दी अंतिम संस्कार कराया गया."
पुलिस का आरोप, पाकिस्तानी झंडे में लपेटा गया शव
जम्मू-कश्मीर पुलिस ने बताया है कि दो सितंबर को "उपद्रवियों और अन्य तत्वों के ख़िलाफ़" बडगाम में एक जनरल एफ़आईआर दर्ज की गई है.
यह एफ़आईआर "भारत विरोधी नारे लगाने और दूसरे देश विरोधी गतिविधियों" में शामिल लोगों के ख़िलाफ़ है.
पुलिस का यह भी कहना है कि अलगाववादी नेता के शव को पाकिस्तानी झंडे में लपेटा गया था.
इस मामले में किसी को नामज़द नहीं किया गया और न ही किसी की गिरफ़्तारी हुई है.
यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस ने अगर अपनी निगरानी में अंतिम संस्कार कराया तो अज्ञात लोगों ने देश विरोधी नारे कैसे लगाए और शव को पाकिस्तानी झंडे में कैसे लपेटा गया.
डॉक्टर नसीम कहते हैं, "पुलिस अधिकारी उस कमरे में गए जहाँ शव रखा था. कश्मीर पुलिस के प्रमुख विजय कुमार ने हमारे आँगन में खड़े होकर मेरे भाई नईम से कहा कि सुरक्षा की चिंताओं को देखते हुए अंतिम संस्कार जल्दी से हो जाना चाहिए."
''हम लोग उस वक़्त सदमे में थे. हमें नहीं पता कि उनके ताबूत पर पाकिस्तानी झंडा किसने लगाया."
इमरान ख़ान का भारत पर निशाना
इस घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने ट्विटर पर लिखा है, "कश्मीर के सबसे सम्मानित नेताओं में से एक 92 साल के सैयद अली शाह गिलानी के शव को छीनना और फिर उनके परिवार पर मुक़दमा दर्ज करना भारत के नाज़ी प्रेरित आरएसएस-बीजेपी के शासनकाल में फ़ासीवाद की तरफ़ बढ़ने की एक और मिसाल है."
सैयद अली शाह गिलानी के निधन के बाद जम्मू-कश्मीर में पुलिस और सुरक्षा बल अलर्ट पर थे. यहाँ फ़िलहाल हालात शांतिपूर्ण बने हुए हैं.
हालाँकि बडगाम ज़िले के नरकारा में पत्थरबाज़ी की एक घटना हुई है.
पुलिस के मुताबिक़ शांति व्यवस्था बनाने के लिए सख़्त क़दम उठाए गए हैं और कई 'शरारती तत्वों' को हिरासत में लिया गया है.
इसी साल जून में हुर्रियत के वरिष्ठ अलगाववादी नेता और गिलानी के क़रीबी मोहम्मद अशरफ़ सेहराई की पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी. उन्हें जन-सुरक्षा क़ानून के तहत हिरासत में लिया गया था.
बाद में पुलिस ने उनके अंतिम संस्कार के दौरान "राष्ट्र विरोधी नारे" लगाने के आरोप में उनके बेटों और दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज किया गया था. सेहराई के बेटों को पुलिस ने हिरासत में भी लिया था. (bbc.com)
काबुल, 5 सितम्बर | काबुल में मुख्य मनी एक्सचेंज मार्केट फिर से खुल गया है, तालिबान के अधिग्रहण के 10 दिन बाद युद्धग्रस्त देश में बैंकिंग संकट अभी भी मौजूद है। इसकी जानकारी एक स्थानीय सूत्र ने दी। मनी एक्सचेंज के एक डीलर नजीबुल्लाह ने समाचार एजेंसी सिन्हुआ को बताया, "द अफगानिस्तान बैंक या सेंट्रल बैंक ने 2 सितंबर को घोषणा की थी कि सराय शाहजादा निजी एक्सचेंज बाजार शनिवार को फिर से खुल गया है।"
उन्होंने कहा कि विदेशी मुद्रा विनिमय दरों में अभी भी उतार-चढ़ाव है क्योंकि दरें स्थिर नहीं हैं और दिन के दौरान अक्सर बदलती रहती हैं।
नजीबुल्लाह ने कहा, "शनिवार की सुबह बाजार फिर से खुलने के बाद एक अमेरिकी डॉलर का कारोबार 87 और 89 अफगानी करेंसी के बीच हुआ। तालिबान के 10 दिन पहले अधिग्रहण से पहले एक डॉलर 79 अफगानी करेंसी के बराबर था।"
पास का व्यापारिक केंद्र, काबुल का मंडावी भी खुल गया है, हालांकि, व्यापार और दैनिक कामकाज अच्छे नहीं हैं क्योंकि राजधानी शहर का मध्य भाग सामान्य नहीं हुआ है और बाकी भीड़ है।
उन्होंने कहा, व्यापार केंद्र में कुछ ग्राहक हैं।
उन्होंने कहा, "देश में अब बैंकिंग का बहुत बड़ा संकट है। शहर के चारों ओर सरकारी और निजी बैंकों की मुख्य शाखाओं के बाहर लोगों की लंबी कतारें लगी रहती हैं।"
"अभी तक बैंकों की शाखाएं नहीं खुल पाई हैं। लोग अपना पैसा नहीं निकाल सकते हैं, उन्हें केंद्रीय बैंक के आदेश के अनुसार साप्ताहिक आधार पर केवल 200 डॉलर या 20,000 अफगानी करेंसी ही मिलते हैं।"
स्थानीय मीडिया र्पिोटों के अनुसार, निजी वेस्टर्न यूनियन और मनी ग्राम, दो मनी ट्रांसफर सेवा एजेंसियों ने भी 3 सितंबर को अफगानिस्तान के अधिकांश 34 प्रांतों में अपना संचालन फिर से शुरू किया और लोग अब विदेशों से पैसा प्राप्त कर सकते हैं। (आईएएनएस)
वाशिंगटन, 5 सितम्बर | अमेरिकी राजधानी में पुलिस ने कहा कि वाशिंगटन डीसी में गोलीबारी की घटना में तीन लोगों की मौत और तीन अन्य घायल हो गए। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार डीसी मेट्रोपॉलिटन पुलिस विभाग ने एक बयान में कहा कि एनडब्ल्यू के लॉन्गफेलो स्ट्रीट के 600 ब्लॉक में शनिवार शाम करीब साढ़े सात बजे गोलीबारी हुई।
कुल छह लोगों को गोली मार दी गई और उन्हें स्थानीय अस्पतालों में ले जाया गया, जिनमें तीन की मौत हो गई।
तीन अन्य का इलाज चल रहा है।
डीसी पुलिस प्रमुख रॉबर्ट कोंटी ने कहा कि संदिग्धों ने एक वाहन से बाहर निकलकर ब्लॉक के नीचे गोलियां चलाईं।
उन्होंने कहा कि अभी यह पता नहीं चल पाया है कि भीड़ को क्यों निशाना बनाया गया।
कोंटी ने कहा कि मारे गए तीन व्यक्ति युवा वयस्क प्रतीत होते हैं।
संदिग्धों के अभी भी बड़े पैमाने पर और तलाशी जारी है। पुलिस संदिग्धों के ठिकाने के बारे में जानकारी देने में सक्षम किसी को भी 75,000 डॉलर तक की पेशकश कर रही है। (आईएएनएस)
अरुल लुइस
न्यूयॉर्क , 5 सितम्बर | अमेरिका में आए तूफान ईडा की वजह से आई बाढ़ से न्यूयॉर्क में भारतीय मूल के चार लोगों और एक नेपाली परिवार के तीन लोगों की मौत हो गई है।
न्यूयॉर्क शहर में 1 सितंबर को बेसमेंट फ्लैट में पानी भर जाने से 43 वर्षीय फामती रामस्क्रिट और 22 वर्षीय उनके बेटे कृशा डूब गए।
शहर में रिकॉर्ड-सेटिंग बारिश से पानी उनके बेसमेंट फ्लैट में भरने से मिंगमा शेरपा, 48, और आंग गेलू लामा, 52, और उनके बच्चे लोबसंग लामा, 2, भी डूब गए।
राष्ट्रपति जो बाइडेन मंगलवार को न्यू यॉर्क सिटी काउंटी का दौरा करने वाले हैं जहां उनकी मौत हो गई और न्यू जर्सी क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित हैं।
पड़ोसी न्यूजर्सी में, 46 वर्षीय मालती कांचे, बाढ़ वाली सड़क पर अपनी कार के रुकने के बाद बह गई, जिससे वह डूब गए।
न्यू जर्सी में भी, 31 वर्षीय धनुष रेड्डी बाढ़ से 36 इंच के सीवर पाइप में फंस गए थे।
भले ही तूफान ईडा लुइसियाना राज्य और दक्षिण में उसके पड़ोसियों में सबसे विनाशकारी था, जहां इलाके पूरी तरह से नष्ट हो गए थे, इसका सबसे घातक मानव टोल न्यूयॉर्क क्षेत्र में था जहां कम से कम 42 लोग मारे गए, जिसमें न्यू जर्सी में 25, न्यू यॉर्क सिटी में 16 और कनेक्टिकट में एक की मौत हो गई।
बारिश की तीव्रता से शहर का बुनियादी ढांचा चरमरा गया।
नेताओं ने मूसलाधार बारिश के लिए ग्लोबल वामिर्ंग को जिम्मेदार ठहराया।
सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता चक शूमर ने कहा, "ग्लोबल वामिर्ंग का बुरा असर हम पर पड़ रहा है और यह बदतर होता जा रहा है, जब तक कि हम इसके बारे में कुछ नहीं करते।"
उन्होंने कहा, "जब आपको मौसम में हमारे द्वारा देखे गए सभी बदलाव मिलते हैं, तो यह कोई संयोग नहीं है।"
बाइडेन ने दोनों राज्यों के लिए आपातकाल की स्थिति घोषित कर दी है ताकि उन्हें तेजी से संघीय सहायता मिल सके।
न्यूयॉर्क पोस्ट ने बताया कि बाढ़ का पानी रामस्क्रिट्स के बेसमेंट फ्लैट से टकराया, उनके मकान मालिक रागेंद्र शिवप्रसाद ने उन्हें आसन्न खतरे से आगाह करने की कोशिश की और उन्हें बाहर निकलने के लिए कहा है।
शिवप्रसाद ने पोस्ट को बताया, "जैसा कि मैंने पानी को ऊपर उठते हुए देखा है, मैं वापस जाता हूं, मैं उनसे कहता हूं, 'तुम लोग सावधान रहो, तुम लोग आगे बढ़ो', लेकिन पानी पहले ही फ्लैट में समा गया था और फामती और कृषा डूब गए थे।"
फामाटी के पति दमेश्वर और एक अन्य बेटा डायलन बच गए।
लामा परिवार की एक पड़ोसी डेबोरा टोरेस ने पोस्ट को बताया कि पानी इतनी तेजी से बढ़ा कि बाहर निकलने का मौका मिलने से पहले ही वह दूसरी मंजिल पर उसके घुटनों तक पहुंच गया।
अखबार ने कहा कि पुलिस गोताखोरों को अगली सुबह शव मिले।
रारिटन के मेयर जाचरी ब्रे ने फेसबुक पर कांचे की मौत की घोषणा करते हुए लिखा, "यह भारी मन के साथ है कि मुझे तूफान ईडा के कारण अपने ही एक नागरिक के नुकसान की रिपोर्ट करनी पड़ रही है।"
पैच, एक ऑनलाइन समाचार आउटलेट ने बताया कि एक रिश्तेदार के अनुसार उसकी कार ब्रिजवाटर में बाढ़ के पानी में रुक गई और वह बह गई, जबकि उसकी 15 वर्षीय बेटी कार डीलरशिप में तैरने में सक्षम थी और उसे बचा लिया गया।
एक अन्य स्थानीय समाचार साइट टेपइन्टू के अनुसार, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर मलाथी कांचे का शव लगभग 8 किमी दूर बाउंडब्रुक में मिला था।
रेड्डी की मौत की घोषणा करने वाले साउथ प्लेनफील्ड के मेयर मैथ्यू अनेश ने कहा कि पुलिस ने बाढ़ में एक आदमी के बह जाने के बारे में मदद के लिए एक महिला की चीख सुनी।
उन्होंने कहा कि जवाब देने वाली पुलिस ने पाया कि दो लोग लापता थे और उनमें से एक को बचाने में सफल रहे।
उन्होंने कहा, "हम जीवन के इस दुखद नुकसान से दुखी हैं और रेड्डी और उनके परिवार के लिए प्रार्थना करते हैं।" (आईएएनएस)
-विनीत खरे
तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन का ये कहना कि उनके पास भी कश्मीर के मुसलमानों के लिए आवाज़ उठाने का अधिकार है, इस पर कश्मीर और कश्मीर के बाहर से प्रतिक्रियाएं आई हैं.
दोहा से बीबीसी के साथ ज़ूम पर बात करते हुए शाहीन ने कहा था, "एक मुसलमान के तौर पर, भारत के कश्मीर में या किसी और देश में मुस्लिमों के लिए आवाज़ उठाने का अधिकार हमारे पास भी है. हम आवाज़ उठाएँगे और कहेंगे कि मुसलमान आपके लोग हैं, आपके देश के नागरिक हैं. आपके क़ानून के मुताबिक़ उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं."
उन्होंने अमेरिका के साथ हुए दोहा समझौते की बात करते हुए कहा कि किसी भी देश के ख़िलाफ़ सशस्त्र अभियान चलाना उनकी नीति का हिस्सा नहीं है. उन्होंने दावा किया कि ताबिलान अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नहीं हैं.
शाहीन के इस बयान के बाद बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी ने कहा था कि तालिबान भारतीय मुसलमानों को 'बख़्श' दे.
समाचार एजेंसी एएनआई के अनुसार नक़वी ने कहा, ''मैं उनसे (तालिबान) से हाथ जोड़कर अपील करता हूँ कि वो भारतीय मुसलमानों को बख़्श दें. यहाँ मस्जिद में नमाज़ अदा करते हुए लोगों पर बम और गोलियों से हमला नहीं किया जाता. यहाँ लड़कियों के स्कूल जाने पर उनके हाथ और पैर नहीं काटे जाते.''
क्या तालिबान लड़ाके कश्मीर में घुसेंगे?
शाहीन के बयान पर श्रीनगर में राजनीतिक विश्लेषक बशीर मंज़र ने कहा, "आज का भारतीय मुसलमान सहमा हुआ है. हो सकता है कि ऐसे में तालिबान भारत से कह रहे हों कि आप अपने अल्पसंख्यकों का ध्यान रखिए और हमें अपने अल्पसंख्यकों का ख़याल रखने दीजिए."
श्रीनगर में एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक नूर अहमद बाबा कहते हैं कि तालिबान जिस तरह की विचारधार के साथ आए हैं, उनकी ओर से इस तरह के बयान आना अपेक्षित था.
नूर अहमद का दावा है कि अफ़गानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े पर बड़ी संख्या में कश्मीरी उत्साहित थे.
तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन के बयान पर नूर अहमद कहते हैं, "तालिबान पाकिस्तान के आभारी हैं लेकिन भारत के हालात को लेकर फ़िक्र तालिबान के अलावा पूरी दुनिया में है."
नूर अहमद के मुताबिक़ बहुत कुछ निर्भर करेगा कि तालिबान कश्मीर और भारत के मुसलमानों पर कितने ज़ोश-खरोश से बात करते हैं.
कश्मीर में सुरक्षा के हालात देखते हुए उन्हें उम्मीद नहीं है कि तालिबान लड़ाके कश्मीर में घुसेंगे.
भारतीय मुसलमानों से जुड़ी ख़बरें देने वाली संस्था 'मिली गज़ेट' के संपादक और दिल्ली माइनॉरिटीज़ कमीशन के पूर्व प्रमुख डॉक्टर ज़फ़रुल इस्लाम खान के मुताबिक़ तालिबान का ये कहना है कि वो कश्मीर और पूरे भारत के मुसलमानों के लिए और भारत के बाहर के मुसलमानों के लिए आवाज़ उठाते रहेंगे, इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है.
वो कहते हैं, "कई देश और अंतरराष्ट्रीय संस्थान राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर मानवाधिकार के हालात पर आवाज़ उठाते रहते हैं और ये बिल्कुल सही और स्वाभाविक है. अगर अफ़गानिस्तान में मानवाधिकारों का हनन होता है तो हमें भी आवाज़ उठाने का अधिकार है."
'ऐसे बयान से फ़ायदा नहीं'
उधर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता सज्जाद नोमानी ने कहा कि मीडिया में इस तरह के बयानों से कोई सकारात्मक नतीजा नहीं आएगा.
सज्जाद नोमानी के मुताबिक़ दोनों ही पक्षों की ओर से अभी तक सकारात्मक पहल नज़र आई है.
वो कहते हैं जहां तालिबान की तरफ़ से भारत को लेकर सकारात्कमक बयान आए हैं, भारत सरकार ने भी संयम बरता है और ये ज़रूरी है कि इस माहौल को खराब न किया जाए क्योंकि ये भारत और अफ़गानिस्तान दोनों के हक़ में बेहतर होगा.
उन्होंने कहा, "पब्लिक कंजंप्शन के लिए और राजनीतिक फ़ायदों के लिए न उनको (तालिबान को) कोई ऐसी बात मीडिया के ज़रिए कहनी चाहिए जिससे करीब होते ताल्लुकात में भी दूरी पैदा हो जाए, फासले जो कम होने लगे वो फिर बढ़ने लगें. न हमारी भारत सरकारी की ओर से ऐसी बात आनी चाहिए."
तालिबान ने अपने पूर्व के वक्तव्यों में कश्मीर या भारत के आंतरिक मुद्दों से बचकर बातें कहीं थीं.
सीएनएन-आईबीएन के साथ के इंटरव्यू में प्रमुख तालिबान नेता अनस हक्कानी ने कहा, कश्मीर हमारे कार्यक्षेत्र में नहीं है और दखलअंदाज़ी करना हमारी नीति के खिलाफ़ है."
एक पाकिस्तानी चैनल के साथ साक्षात्कार में एक अन्य तालिबान प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद भारत और पाकिस्तान को साथ बैठकर सभी समस्याओं को हल करने को कहा था.
सुहैल शाहीन का बीबीसी को दिया बयान ऐसे वक्त आया है जब भारत ने तालिबान इलाकों में अफ़गान हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों की हालत पर चिंता जताई है, और दूसरी ओर आलोचकों का कहना है कि साल 2014 के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ी है, हालाँकि बीजेपी इन आरोपों से इनकार करती रही है.
जम्मू कश्मीर की स्वायत्ता ख़त्म करने का भारत का फ़ैसला और इसे लागू करने के तरीक़ों के कारण वहाँ रहने वाले कई लोग नाराज़ है.
ऐसे में ये साफ़ नहीं है कि तालिबान भारत में किन लोगों को अपने बयान से निशाना बना रहे थे.
इस बीच वायरल हुए एक वीडियो में अभिनेता नसीरुद्दीन शाह में उन मुसलमानों की निंदा की जो उनके शब्दों में तालिबान की जीत का जश्न मना रहे हैं.
तालिबान और कश्मीर का विज़न
श्रीनगर में मौजूद बशीर मंज़र के मुताबिक़ अफ़गानिस्तान में जो हो रहा है वो पूरी तरह इस्लामिक विज़न के आधार पर हो रहा है, लेकिन कश्मीर में जो हो रहा है वो सिर्फ़ इस्लाम को लेकर नहीं है.
वो कहते हैं, "यहां इस्लामिक सोच वाले लोग हैं, राष्ट्रवादी कश्मीरी हैं और भारत की ओर झुकाव रखने वाले कश्मीरी भी हैं. ऐसे में यहां तालिबान की राजनीति सोच के फैलने की गुंजाइश कम है. क्या यहां तालिबान का राजनीतिक असर और बंदूक का असर हो सकता है, ये हमें आगे देखना होगा."
उन्होंने कहा, "कश्मीर में बहुत सारे चरमपंथी पाकिस्तान की ओर से आते रहे हैं. क्या उसमें तालिबान के लोग भी शामिल होंगे, ये अभी नहीं कहा जा सकता."
बशीर मंज़र के मुताबिक़ ताबिलान को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि अभी भी अफ़ग़ानिस्तान में उनकी सरकार नहीं बनी है.
वो कहते हैं कि पुराने और नए तालिबान में कुछ अंतर दिखता है, ये अभी देखना होगा कि इस तालिबान सरकार का रवैया कैसा रहता है.
डॉक्टर ज़फ़रुल इस्लाम खान तालिबान के बयानों की ओर इशारा करते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि उनकी नीति पाकिस्तान की नीति से अलग होगी.
यहां ये बताना ज़रूरी है कि तालिबान पर लगातार आरोप लगे रहे हैं कि उनकी कथनी और करनी में अंतर है.
सज्जाद नोमानी कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान के अंदर भी ज़्यादातर इलाकों में जिस तरह उन लोगों ने आम माफ़ी का ऐलान किया, और एक गोली चलाए बगैर वो आगे बढ़ते गए, और पब्लिक ने भी जिस तरह उनका जिस तरह स्वागत किया, ये सब बहुत सकारात्मक बातें थीं. इससे उम्मीद हो गई थी कि अफ़गानिस्तान के अंदर शांति कायम हो जाएगी."(bbc.com)
सैन फ्रांसिस्को, 4 सितंबर| स्पेसएक्स के सीईओ एलन मस्क ने दावा किया है कि उपग्रह आधारित इंटरनेट सेवा स्टारलिंक में प्रकाश जितनी तेज गति से डेटा ट्रांसफर की क्षमता होगी। जिग्मोचाइना ने बताया कि इस समय स्टारलिंक नेटवर्क एक डिश, उपग्रहों और ग्राउंड स्टेशनों पर निर्भर करता है।
कंपनी का लक्ष्य इन ग्राउंड स्टेशनों से छुटकारा पाना है, जो उपग्रहों के साथ संवाद करने में लगने वाले लंबे समय के कारण तेजी से डेटा ट्रांसफर में बाधा साबित हुए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि लेजर के साथ, ट्रांसमिशन की गति, जैसा कि मस्क का दावा है, ऑप्टिकल फाइबर की तुलना में लगभग 40 प्रतिशत तेज होने की उम्मीद है। नतीजतन, हम जमीन को छूने की आवश्यकता के बिना तेज इंटरनेट हस्तांतरण क्षमताओं को देख सकते हैं।
मस्क के बयान पर विचार करते हुए और ऑप्टिकल फाइबर के साथ मौजूदा गति के आधार पर गति की गणना करते हुए, स्टारलिंक 180,832 मील प्रति सेकंड पर डेटा पैकेट स्थानांतरित करने में सक्षम होगा। पता चला है कि इसकी गति प्रकाश गति की गति का लगभग 97 प्रतिशत है।
मस्क ने सुनिश्चित किया है कि स्टारलिंक जल्द ही पूरे आर्कटिक से ग्राउंड स्टेशन तत्व को काट देगा और पर्याप्त बैंडविड्थ भी प्रदान करेगा।
हाल ही में मस्क ने ट्विटर पर कहा है कि उनकी एयरोस्पेस कंपनी स्पेसएक्स जल्द ही भारत में स्टारलिंक लॉन्च कर सकती है।
मस्क ने एक ट्विटर पोस्ट का जवाब दिया कि कंपनी यह पता लगा रही है कि देश में नियामक अनुमोदन प्रक्रिया स्टारलिंक के लिए कैसे काम करेगी।
स्टारलिंक ने हाल ही में ग्राहकों को 100,000 टर्मिनल भेजे हैं। इस परियोजना का उद्देश्य उपग्रहों के समूह के माध्यम से वैश्विक ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी प्रदान करना है। (आईएएनएस)
काबुल/नई दिल्ली, 4 सितम्बर| एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक घटनाक्रम में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद शनिवार को इस्लामाबाद से एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के साथ काबुल पहुंचे। टोलो न्यूज ने बताया कि तालिबान द्वारा पाकिस्तान के शीर्ष जासूसी एजेंसी के अधिकारी और उनकी टीम को आमंत्रित किया गया था। इस यात्रा का समय बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अटकलें लगाई जा रही हैं कि वह आईएसआई ही है, जिसका तालिबान पर बड़ा प्रभाव है।
आईएसआई न केवल प्रतिबंधित आतंकी संगठन हक्कानी नेटवर्क का मुख्य संरक्षक है, बल्कि आईएसआई बॉस समान रूप से क्वेटा शूरा के मुल्ला याकूब और मुल्ला अब्दुल गनी बरादर तथा हक्कानी नेटवर्क के बीच बढ़ते मतभेदों को हल करना चाहते हैं।
पाकिस्तान के जासूस ऐसे समय में मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे हैं, जब अफगानिस्तान में सरकार के गठन को लेकर तालिबान के शीर्ष नेतृत्व और हक्कानी नेटवर्क के बीच महत्वपूर्ण व्यस्त बातचीत चल रही है।
लीक हुए दस्तावेजों के अनुसार, इस बीच अमेरिका ने अफगानिस्तान में संकट के रूप में पाकिस्तान से आतंकी समूहों से लड़ने का आग्रह किया है।
एक प्रमुख अमेरिकी मीडिया आउटलेट को लीक हुए दस्तावेजों और राजनयिक केबल्स के एक सेट के अनुसार, राष्ट्रपति जो बाइडेन का प्रशासन अफगानिस्तान पर तालिबान के अधिग्रहण के बाद आईएसआईएस-के और अल कायदा जैसे खूंखार आतंकवादी समूहों से निपटने में सहयोग करने के लिए चुपचाप इस्लामाबाद पर दबाव डाल रहा है।
पाकिस्तानी अखबार डॉन ने शनिवार को अफगानिस्तान में तालिबान विद्रोहियों द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के बाद हाल ही में वाशिंगटन और इस्लामाबाद के बीच आदान-प्रदान किए गए राजनयिक संदेशों पर पोलिटिको द्वारा शुक्रवार को प्रकाशित एक समाचार के हवाले से एक रिपोर्ट प्रकाशित की।
तालिबान के दिवंगत संस्थापक मुल्ला उमर के बेटे मोहम्मद याकूब और शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई, जिसने अफगानिस्तान में 1996 और 2001 के बीच विद्रोहियों के आखिरी बार सत्ता में आने पर उप विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया था, की कथित तौर पर नई सरकार में प्रमुख भूमिकाएं होंगी। (आईएएनएस)
वाशिंगटन, 4 सितम्बर | रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) के एक नए अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में 0-17 वर्ष की आयु के बच्चों में कोविड-19 के मामले, आपातकालीन विभाग के दौरे और अस्पताल में भर्ती होने की संख्या जून से अगस्त तक बढ़ी है। दो सप्ताह की अवधि (14-27 अगस्त) में, सबसे कम टीकाकरण कवरेज वाले राज्यों में उल्लिखित आयु वर्ग के बीच कोविड-19 से संबंधित आपातकालीन विभाग का दौरा और अस्पताल में प्रवेश उच्चतम टीकाकरण दर वाले राज्यों की तुलना में 3.4 और 3.7 गुना था। सीडीसी की रुग्णता और मृत्यु दर रिपोर्ट में शुक्रवार को प्रकाशित अध्ययन में क्रमश: कहा गया है।
एक दूसरी सीडीसी रिपोर्ट भी शुक्रवार को प्रकाशित हुई, जिसके अनुसार, बच्चों और किशोरों के बीच साप्ताहिक कोविड -19 से जुड़े अस्पताल में भर्ती होने की दर जून के अंत से अगस्त के मध्य तक लगभग पांच गुना बढ़ गई, जो अत्यधिक पारगम्य डेल्टा वेरिएंट के बढ़ते प्रचलन के साथ मेल खाती है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अस्पताल में भर्ती होने की दर पूरी तरह से टीका लगाए गए किशोरों की तुलना में 10 गुना अधिक थी और अस्पताल में भर्ती बच्चों और गंभीर बीमारी वाले किशोरों का अनुपात डेल्टा प्रबलता की अवधि से पहले और उसके दौरान समान था।
इस बीच, अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स एंड द चिल्ड्रन हॉस्पिटल एसोसिएशन के अनुसार, पिछले सप्ताह लगभग 204,000 मामलों के साथ, बच्चों में कोविड -19 के मामले सामने आए हैं।
26 अगस्त को समाप्त सप्ताह के लिए, रिपोर्ट किए गए साप्ताहिक मामलों में बच्चों का हिस्सा 22.4 प्रतिशत था।
अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स एंड द चिल्ड्रन हॉस्पिटल एसोसिएशन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल की शुरूआत में अमेरिका में महामारी की शुरूआत के बाद से अब तक लगभग 48 लाख बच्चों ने कोविड -19 के लिए पॉजिटिव परीक्षण किया है।(आईएएनएस)
सैन फ्रांसिस्को, 4 सितंबर | फेसबुक के स्वामित्व वाले व्हाट्सएप ने आईओएस से सैमसंग एंड्रॉइड डिवाइस पर स्विच करते समय उपयोगकर्ताओं के लिए अपने चैट इतिहास को स्थानांतरित करने की क्षमता को जोड़ा है। द वर्ज के मुताबिक, सैमसंग ने घोषणा की कि यह फीचर उसके अगस्त अनपैक्ड इवेंट के एक हिस्से के तौर पर आ रहा है।
उपयोगकर्ता यदि पहले व्हाट्सएप के क्लाउड बैकअप फीचर का चयन करते थे, तो आईओएस चैट इतिहास को आईक्लाउड में संग्रहीत किया जाता था, जबकि एंड्रॉइड के इतिहास ने गूगल ड्राइव का बैकअप लिया, जिससे उन फोन के बीच चैट को स्थानांतरित करना लगभग असंभव हो गया जो समान ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं चला रहे थे।
कंपनी ने एक ब्लॉग पोस्ट में कहा, "अगर आप आईफोन से सैमसंग एंड्रॉइड डिवाइस पर जा रहे हैं, तो आप अपने अकाउंट की जानकारी, प्रोफाइल फोटो, व्यक्तिगत चैट, ग्रुप चैट, चैट हिस्ट्री, मीडिया और सेटिंग्स को ट्रांसफर कर सकते हैं।"
इसके अलावा, उपयोगकर्ता केवल नए सैमसंग डिवाइस के शुरुआती सेटअप के दौरान ही माइग्रेशन कर सकते हैं, क्योंकि व्हाट्सएप के निर्देश कहते हैं कि माइग्रेशन की अनुमति देने के लिए आपका नया एंड्रॉइड डिवाइस फैक्टरी नया होना चाहिए या फैक्टरी सेटिंग्स पर रीसेट होना चाहिए, ताकि उपयोगकर्ताओं के पास अपने सैमसंग डिवाइस का पूर्ण फैक्टरी रीसेट करने का विकल्प रहे, यदि यह पहले से ही चालू है।
पुराने आईफोन में व्हाट्सएप आईओएस वर्जन 2.21.160.17 या नया होना चाहिए और नए सैमसंग फोन में व्हाट्सएप एंड्रॉइड वर्जन 2.21.16.20 या नया होना चाहिए।
नए डिवाइस में सैमसंग स्मार्टस्विच ऐप वर्जन 3.7.22.1 या नया इंस्टॉल होना चाहिए। स्थानांतरण यूएसबीसी-सी के माध्यम से लाइटनिंग केबल में होता है, इसलिए उपयोगकर्ताओं को उनमें से एक की जरूरत होगी।(आईएएनएस)
जर्मनी में इस समय संसदीय चुनावों की सरगर्मियां हैं. जर्मनी में भारत जैसी संसदीय व्यवस्था है लेकिन चांसलर का चुनाव भारत के प्रधानमंत्री से अलग है. कितना अलग है चांसलर का चुनाव भारतीय प्रधानमंत्री से?
जर्मनी में चुनाव प्रचार की शुरुआत होने से पहले ही बड़ी पार्टियां इस शीर्ष पद के लिए अपने उम्मीदवार घोषित करती हैं. इस साल हो रहे चुनावों में चांसलर मैर्केल की सत्ताधारी सीडीयू/सीएसयू पार्टियों के असावा देश को तीन बार चांसलर देने वाली सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी और ग्रीन पार्टी ने अपने चांसलर उम्मीदवारों की घोषणा की है. ये पार्टियां इन नेताओं के नाम पर चुनाव लड़ती हैं, किंतु चांसलर का चुनाव तब तक पूरा नहीं होता है जब तक नई संसद बुंडेस्टाग में होने वाले मतदान में किसी उम्मीदवार को बहुमत वोट न मिल जाए.
जर्मनी में हमेशा दो या तीन पार्टियों के गठबंधन वाली सरकार रही है. नई संसद को आम चुनाव के 30 दिनों के भीतर इसकी पहली बैठक बुलानी पड़ती है. ताकि अधिकतम सीटें जीतने वाली पार्टी जल्द से जल्द सरकार बनाने का काम शुरू कर सके. अब तक सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाली पार्टी को सरकार बनाने का असली दावेदार माना जाता है. चुनाव में जीत हासिल करने वाली पार्टी बहुमत सरकार बनाने के लिए एक या अधिक पार्टियों से बातचीत करती है ताकि साझा कार्यक्रमों के आधार पर गठबंधन बनाया जा सके और नई सरकारी बुंडेस्टाग में पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सके.
जीत के बाद सरकार बनाने की कवायद
एक बार जब यह साफ हो जाता है कि सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी किसके साथ गठबंधन बनाएगी, तब गठबंधन के अनुबंध के प्रारूप पर विमर्श किया जाता है जो नई सरकार के गठन का आधार होती है. इस समझौते में चार साल के लिए नई सरकार की योजनाओं का जिक्र होता है. इसी बातचीत के दौरान गठबंधन के सहयोगी दल यह तय करते हैं कि वे किसे चासंलर बनाना चाहते हैं तथा किसे मंत्रिमंडल में जगह देना चाहते हैं. ये तय होता है कि सबसे बड़ी पार्टी का चांसलर उम्मीदवार ही संसद में होने वाले चुनाव में गठबंधन पार्टियों का चांसलर उम्मीदवार भी होगा.
इसके बाद नवनिर्वाचित 600 से अधिक सदस्यों के लिए बुंडेस्टाग का पहले सत्र की बैठक बुलाई जाती है, जिसमें वे नए चांसलर के लिए गुप्त मतदान में भाग लेते हैं. यह राष्ट्रपति पर निर्भर करता है कि वे बुंडेस्टाग की पहली बैठक में चाहें तो किसी प्रत्याशी के बारे में सुझाव दें. यह बाध्यता नहीं है कि वे उस व्यक्ति का नाम प्रस्तावित करें जिसे गठबंधन वार्ता के दौरान चुना गया हो. उनसे ऐसे उम्मीदवार का नाम प्रस्तावित करने की उम्मीद की जाती है जिसके जीतने की संभावना हो. यदि वह व्यक्ति पहले दौर की वोटिंग में पूर्ण बहुमत प्राप्त करता है तो राष्ट्रपति को उसे चांसलर नियुक्त करना होगा.
अब तक पहले ही दौर में चुने गए चांसलर
अब तक सभी जर्मन चांसलर को पहले दौर में ही चुना गया है. हालांकि कभी-कभी बहुमत बहुत मामूली रहा है. कोनराड आडेनावर 1949 में पश्चिम जर्मनी पहले चांसलर चुने गए थे. वे अब तक सबसे कम बहुमत से जीतने वाले चांसलर हैं. 1974 में चांसलर चुने जाने वाले हेल्मुट श्मिट और 1982 में चांसलर बनने वाले हेल्मुट कोल को बहुमत के लिए जरूरी मतों से महज एक वोट ज्यादा हासिल हुआ था. चार बार चांसलर बनने वाली अंगेला मैर्केल के लिए सबसे कम अंतरों से चुनाव जीतने का अनुभव 2009 में रहा जब उन्हें संसद के 612 सदस्यों में से सिर्फ 323 का समर्थन मिला. यह चासंलर बनने के लिए जरूरी मतों से सिर्फ 16 ज्यादा था.
यदि चुनाव के पहले दौर में चांसलर के उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो चुनाव का दूसरा दौर शुरू होता है. इस दौर में संसद के सदस्य दूसरे उम्मीदवारों के नाम प्रस्तावित कर सकते हैं, लेकिन इन प्रत्याशियों को बुंडेस्टाग के एक चौथाई सदस्यों का समर्थन होना जरूरी है. इसके बाद के दो हफ्ते में चांसलर का चुनाव हो जाने तक मतदान के कई दौर हो सकते हैं. यदि 14 दिन के अंत तक भी कोई चांसलर नहीं चुना जाता है तो एक बार आखिरी दौर की वोटिंग होती है.
क्या होता है जब किसी को बहुमत न मिले
इस दौर में यदि कोई प्रत्याशी पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लेता है तो उसका नाम तुरंत ही चांसलर के लिए तय कर दिया जाता है और राष्ट्रपति उसे चांसलर नियुक्त कर देंगे. लेकिन वह अगर उसे बहुमत तो नहीं लेकिन सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं तो राष्ट्रपति के पास यह तय करने के लिए सात दिनों का समय होता है कि अल्पमत चांसलर को स्वीकार किया जाए या नहीं, जिसे पूर्ण बहुमत प्राप्त चांसलर के समान ही अधिकार होंगे या फिर बुंडेस्टाग को भंग कर दिया जाए. अगर राष्ट्रपति संसद को भंग करने का फैसला करते हैं तो 60 दिनों के अंदर फिर से संसद का चुनाव करवाना अनिवार्य है. (dw.com)
यूं जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा के इस्तीफे का जापान के रक्षा बजट के एक फीसदी जीडीपी की सीमा को पार करने से कोई लेना देना नहीं है. उन्होंने कोविड-19 और ओलंपिक खेलों के आयोजन पर हुई आलोचना के बाद इस्तीफा दिया है.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट-
बरसों से रक्षा मामलों में चुप-चाप रहने वाले जापान ने पिछले कुछ वर्षों में अपना सामरिक और सुरक्षा दृष्टिकोण बदला है. इस बदलाव का असर न सिर्फ जापान के रक्षा बजट पर पड़ा है बल्कि हाल ही में जारी रक्षा श्वेतपत्र, नेताओं के विदेश और सामरिक नीति संबंधी बयानों और यहां तक कि संविधान संबंधी मामलों में भी यह परिवर्तन देखने को मिला है. इसी कड़ी में एक नया पन्ना हाल ही में तब जुड़ गया जब 31 अगस्त को जापान के रक्षा मंत्रालय ने इस साल के रक्षा बजट को बढ़ा कर 50 अरब अमेरिकी डालर करने की बात कही. जापान जैसे देश के लिए यह कोई छोटी बात नहीं है.
आंकड़े कहते हैं कि 2018 के बाद से यह सबसे तेजी से बढ़ा बजट है जो संस्तुति के बाद लगभग तीन प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कराएगा. इस साल के मुकाबले 2.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करने के साथ ही यह बजट 50 अरब के आंकड़े तक पहुंच जाएगा. बजट की पेशकश और मंजूरी के बीच महीनों का फासला है. और अगर वित्त मंत्रालय और संसद की मंजूरी मिली तो भी यह बजट 1 अप्रैल 2022 से ही प्रभाव में आएगा.
जापान की बदलती प्राथमिकता
लेकिन जापान के रक्षा मंत्रालय की इस पेशकश ने इंडो-प्रशांत क्षेत्र में मंडराते तनाव की ओर इशारा तो किया ही है. और पिछले दिनों हुए परिवर्तनों को देखने तो यह नहीं लगता कि यह बादल आसानी से छंटने वाले हैं. जापानी रक्षा मंत्रालय ने अपने सालाना रक्षा बजट में इतनी बढ़ोत्तरी की वजह चीन को बताया है और कहा है कि चीन के खतरनाक रवैये से उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताएं बढ़ गयी हैं और चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए जापानी सेना को अधिक संसाधनों की जरूरत है.
अभी पिछले साल ही जापान ने चीन को अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा करार दिया था. लेकिन रक्षा बजट में इस बढ़ोत्तरी के बावजूद जापान चीन से अभी काफी पीछे है और यह अंतर सिर्फ धन का नहीं बल्कि तकनीक और कुल ताकत का भी है. गौरतलब है कि अमेरिका के बाद चीन दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य महाशक्ति है. चीन की अमेरिका से बढ़ती तनातनी, दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ दक्षिण चीन सागर में अतिक्रमण के मामले, ताइवान और आये दिन आक्रमण करने की धमकियों के मद्देनजर जापान की चिंता स्वाभाविक है.
चीन की आक्रामकता से चिंता
सेनकाकू द्वीप और अपने एडीआईजेड में चीनी दखल से जहां जापान की चिंताएं बढ़ी हैं तो वहीं ताइवान की सुरक्षा भी जापान के लिए सरदर्द का कारण बन रही है. दूसरे विश्वयुद्ध के समय से ही जापान ताइवान को अपनी सुरक्षा से जोड़कर देखता है. चीन की ताइवान को लेकर बढ़ती आक्रामकता से कहीं न कहीं जापान को यह लग रहा है कि चीनी ड्रैगन के गुस्से की लपट में वह भी आ सकता है. और इस चुनौती से निपटना अब दूरगामी स्ट्रेटेजी नहीं तात्कालिक जरूरत बन गया है.
अगर जापान के रक्षा बजट सम्बन्धी नीतिगत ट्रेंड पर नजर डाली जाय तो इस सन्दर्भ में सबसे बड़े और महत्वपूर्ण कदम तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने ही उठाये थे. सेल्फ डिफेंस फोर्सेस को चुस्त दुरुस्त करने और उन्हें बड़ी अंतरराष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार करने की पहल शिंजो आबे ने ही की थी जब 2015 में उन्होंने संविधान के आर्टिकल 9 में परिवर्तन लाने की कोशिश की हालांकि यह पूरी तरह सफल नहीं हो पाई थी. देखा जाय तो शिंजो आबे के समय से ही सेनकाकू द्वीप के मालिकाना हक को लेकर जापान ने भी अपने रुख में सख्ती बरतना शुरू किया है.
यही नहीं, सूत्रों के अनुसार अमामी, योनागुनी, और मियाको जैसे सुदूर द्वीपों की सुरक्षा को भी चाक चौबंद करने का मंसूबा भी जापानी रक्षा मंत्रालय ने बांध लिया है. इसके तहत ही इसीगाकि द्वीप पर एक नए कैम्प की स्थापना करने की भी योजना है. आबे के उत्तराधिकारी योशिहिदे सुगा ने भी इन प्रयासों को जारी रखा है. भले ही घरेलू राजनीतिक उठापटक और तेजी से घटती लोकप्रियता के कारण उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़ने का फैसला किया है, लेकिन प्रधानमंत्री कोई भी हो, जापान की सामरिक और कूटनीतिक दशा और दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आएगा.(dw.com)
पिछले कुछ समय में इंस्टाग्राम ऐप में कई बदलाव हुए हैं. कुछ बदलावों की वजह यूजर एक्सपीरियंस अच्छा करना तो कुछ की वजह ऐप को बच्चों के लिए सुरक्षित बनाना बताई गई है. लेकिन कई जानकार इन बदलावों से डरे हुए भी हैं.
डायचे वेले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
पिछले दिनों दो महीनों में इंस्टाग्राम ने अपनी ऐप में कई बदलाव किए हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है दुनियाभर में इसकी बढ़ती लोकप्रियता. दरअसल इंस्टाग्राम अब यूजर्स की संख्या के मामले में फेसबुक और यूट्यूब जैसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को टक्कर दे रहा है.
इस पर एक्टिव यूजर्स की संख्या 1 अरब के आंकड़े को पार कर गई है. भारत, अमेरिका, ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देशों में इसे करोड़ों लोग इस्तेमाल करते हैं. सिर्फ भारत में ही इसके करीब 18 करोड़ यूजर्स हैं.
भारत में चीनी इंटरटेनमेंट ऐप टिकटॉक के बैन होने से इंस्टाग्राम के यूजरबेस में काफी इजाफा हुआ है. इंस्टाग्राम इन वर्चुअल गतिविधियों का भलीभांति फायदा उठा रहा है. यही वजह है कि पिछले कुछ समय में इसने अपनी ऐप में कई बदलाव किए हैं. कुछ बदलावों की वजह यूजर एक्सपीरियंस अच्छा करना तो कुछ की वजह ऐप को बच्चों के लिए सुरक्षित बनाना बताई गई है.
बदला सर्च
इंस्टाग्राम ने अपने सर्च में एक बड़ा बदलाव किया है. कुछ समय पहले तक इंस्टाग्राम पर कुछ सर्च करने पर रिजल्ट में सिर्फ लोगों के इंस्टा हैंडल और उस कीवर्ड से जुड़े हैशटैग आते थे लेकिन अब कुछ सर्च करने पर उससे जुड़े फोटो और वीडियोज भी देखे जा सकते हैं.
हालांकि यह अब भी सीधे नहीं दिख रहे. सर्च करने पर सर्च साइन के साथ लिखे कुछ कीवर्ड्स के सजेशन दिखते हैं, जिन पर आपने क्लिक किया तो आपको फोटो और वीडियोज दिखने लगेंगे. जानकारों का मानना है कि इंस्टाग्राम का यह कदम टिकटॉक जैसी राइवल ऐप को टक्कर देने की रणनीति है. बता दें कि टिकटॉक के सर्च में आप कीवर्ड डाल उससे जुड़े वीडियोज ढूंढ सकते हैं.
हालांकि इंस्टाग्राम कहता है कि उसने यह बदलाव यूजर एक्सपीरियंस को अच्छा करने के लिए किया है ताकि लोग अपनी रुचि के फोटो और वीडियोज बिना हैशटैग सर्च किए ढूंढ सके. इसके लिए अब इंस्टाग्राम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से लोगों की पोस्ट की तस्वीरों और उनके कैप्शन की छानबीन कर रिजल्ट दिखाएगा.इतना ही नहीं वह अपनी ओर से भी कीवर्ड्स सजेस्ट करेगा.
मसलन आपने स्ट्रीट फोटोग्राफी सर्च किया तो वह आपको इसके साथ मुंबई, कोलकाता या हैदराबाद जैसे कुछ और सर्च सजेस्ट करेगा ताकि आप बिल्कुल खास तरह से अपनी रुचि को फॉलो कर सकें. हालांकि इस बदलाव से जानकार डरे हुए भी हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह बदलाव लोगों को और लंबे समय तक इंस्टाग्राम पर फंसाए रखेगा जबकि पहले ही ऐसी ऐप अनंत कंटेंट परोसकर लोगों को घंटों स्क्रीन से चिपकाए रखती हैं.
एक महीने पहले 5 बड़े बदलाव
यूजर एक्सपीरियंस बेहतर करने का दावा करते हुए इंस्टाग्राम ने करीब एक महीने पर ऐप पर एक साथ पांच बदलाव किए थे. इसमें पहला था, 60 सेकेंड की रील. इंस्टाग्राम पर पहले 60 सेकेंड की रील हर यूजर के लिए उपलब्ध नहीं थी. कुछ सिर्फ 15 सेकेंड की रील बना सकते थे तो कुछ 30 सेकेंड की. लेकिन अब हर यूजर इस पर 60 सेकेंड की रील बना सकता है. कई जानकार इस बदलाव को भी टिकटॉक या उसके जैसी शॉर्ट वीडियो ऐप से जोड़ रहे हैं.
किसी भी भाषा में लिखा पढ़ सकेंगे
इंस्टाग्राम किसी खास कला या संस्कृति को फॉलो करना का बेहतरीन जरिया है. और ग्लोबलाइज होती दुनिया में इस प्लेटफॉर्म के जरिए भारत में बैठे यूजर्स का कोरिया, मिडिल ईस्ट, साउथ अमेरिका या यूरोप जैसी जगहों के कलाकारों को फॉलो करना आम हो चला है.
अक्सर ये स्टार अपनी इंस्टा स्टोरी में कुछ लिखकर भी शेयर करते हैं लेकिन ज्यादातर यह लिखी हुई बात उनकी ही भाषा में होती है, जिसे समझ पाना नामुमकिन होता है. इंस्टाग्राम ने इसे समझने की राह आसान कर दी है. अब स्टोरी में लिखे टेक्स्ट का यूजर्स हैंडल के नीचे लिखी सबहेडिंग पर क्लिक कर अनुवाद कर सकते हैं. यही ऐप में हुआ दूसरा बदलाव है.
'ओरिजिनल ऑडियो' को बदल सकेंगे
अगर आप इंस्टा वीडियो देखते हों तो पाएंगे कि जिन वीडियो में कंटेंट क्रिएटर किसी गाने का इस्तेमाल नहीं करते और अपनी आवाज में बोल रहे होते हैं, उसमें उनके नाम के नीचे 'ओरिजिनल ऑडियो' लिखकर आ रहा होता है. लेकिन अब आपको इस ओरिजिनल ऑडियो की जगह क्रिएटर से जुड़ी दूसरी इंफॉर्मेशन दिखने लगी होंगी.
आप भी चाहें तो ऐसा कर सकते हैं. सिर्फ आपको इस ऑप्शन को कस्टमाइज कर अपनी जानकारी डालनी होगी. यही ऐप का तीसरा बदलाव है.
प्लान कर सकेंगे स्टोरीज
मान लीजिए आप इंस्टाग्राम स्टोरी पर रोज कुछ न कुछ पोस्ट करना चाहते हैं लेकिन आप अगले दो दिन ऑफिस के कामों में बहुत बिजी रहने वाले हैं. तो दो दिन इंस्टा बंद? नहीं आपको ऐसा नहीं करना होगा.
अब आप इंस्टाग्राम पर स्टोरी ड्राफ्ट करके रख सकते हैं और इसे बिजी रहने के दौरान पोस्ट कर सकते हैं. पहले भी आप अपने वीडियो और रील्स बनाकर मोबाइल में सेव कर सकते थे और बाद में इन्हें पोस्ट कर सकते थे. लेकिन यह ऑप्शन लिखे हुए टेक्स्ट के लिए मौजूद नहीं था.
रील्स बनाते हुए डाल सकेंगे इफेक्ट्स
पहले आपको रील्स बनाने के लिए इफेक्ट्स ढूंढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी लेकिन अब इंस्टाग्राम ने रील्स वाले इंटरफेस पर ही ट्रेंडिंग का एक नया ऑप्शन जोड़ दिया गया है. जिसके जरिए आप वहीं से रील्स बना सकेंगे. यानी अब इफेक्ट्स खोजने के लिए पहले जितनी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी.
बताना होगा जन्मदिन
इंस्टाग्राम यूजर्स से उनका बर्थडे पूछ रहा है. ऐसा बच्चों की साइबर सुरक्षा के लिहाज से किया जा रहा है. कई बार यह ऐप खोलते ही यूजर्स से जन्मतिथि पूछता है. अगर यूजर कई बार पूछने पर भी बर्थडे नहीं बताते तो यह उन्हें टेम्परेरी ब्लॉक भी कर सकता है.
कंपनी ने एक बयान में कहा, "कुछ लोग जन्मदिन की गलत जानकारी भी देते हैं. ऐसे लोगों से निपटने के लिए एआई का इस्तेमाल कर उनकी उम्र जानने की कोशिश कर रहे हैं. खासकर उनकी जन्मदिन की फोटो के आधार पर." कुछ जानकार टेक्नोलॉजी के इस तरह के प्रयोग से डरे हुए भी हैं और इसे निजता में दखल मान रहे हैं.
कुछ दिन पहले यह खबर भी आई थी कि इंस्टाग्राम 13 साल के कम उम्र के बच्चों के लिए एक नया इंस्टाग्राम प्रोडक्ट लॉन्च कर सकता है. जानकार मानते हैं यह कदम इसकी तैयारी भी हो सकता है. इससे पहले इंस्टाग्राम ने बच्चों की प्रोफाइल को प्राइवेट कर दिया था. साथ ही उन्हें मैसेज कर सकने वाले लोगों के लिए भी रोक लगा दी थी. साथ ही ऐसे यूजर्स की पहचान भी शुरू की थी, जिनका व्यवहार बच्चों के प्रति संदिग्ध होता है. (dw.com)
रोमानिया के तेजी से विकसित हो रहे शहर क्लुज-नेपोका में रहने वाले रोमा समुदाय के लोगों का कहना है कि स्थानीय अधिकारी उनके साथ मानव कचरे की तरह व्यवहार करते हैं.
डायचे वेले पर रूबी रसेल की रिपोर्ट
क्लुज-नेपोका, रोमानिया के सबसे तेजी से विकसित हो रहे शहरों में से एक है. इस शहर के बाहरी इलाके में हवाई अड्डे में बगल में कचरे का विशाल ढेर है. इस कचरे के ढेर कर कई घर बसे हुए हैं. घोड़े से खींची जाने वाली गाड़ियां शहर की ओर लौटने वाले खाली कचरा ट्रकों के साथ रास्ते को पार करती हैं. बच्चे नंगे पांव लकड़ी के बने अस्थायी घरों के बीच दौड़ते हैं और कौवे कचरे के ढेर के उपर चक्कर लगाते हैं.
यह पाटा रैट है, जो देश का सबसे बड़ा लैंडफिल है. दशकों से यहां कचरा जमा किया जा रहा था. कचरे में अक्सर लगने वाली आग से जो प्रदूषण फैलता है, वह कभी-कभी यहां मौजूद लकड़ी के घरों में रहने वाले लोगों की जान ले लेता है.
यूरोपीय संघ के दबाव में, शहर ने 2015 में इस जगह पर कचरा जमा करने पर रोक लगाने का काम शुरू किया. हालांकि, 70 वर्षों में फुटबॉल के 27 मैदानों के बराबर जगह में यहां 2.5 मिलियन मीट्रिक टन कचरा जमा हो चुका था. स्थानीय प्रशासन ने इस कचरे के निपटारे का काम शुरू किया. आखिरकार 2019 के अंत में स्थानीय अधिकारियों ने पाटा रैट को ‘इतिहास' घोषित कर दिया.
इसके बावजूद, यहां रहने वाले 1,500 रोमा लोगों के लिए पाटा रैट अभी भी मौजूद है. उनका कहना है कि अभी भी वे इस पर्यावरणीय संकट से उबरे नहीं हैं. 2015 में पुराने लैंडफिल के बगल में कचरे को रखने के लिए दो अस्थाई जगह बनाई गई थी और वहां कचरे का ढेर लगातार बढ़ रहा है. साथ ही, विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि पुराने कचरे का निपटारा भी ठीक से नहीं किया गया.
नोडिज कहते हैं, "यह एक इकोलॉजिकल लैंडफिल नहीं था. इसे यूरोपीय मानकों के अनुरूप नहीं बनाया गया था. सभी जहरीले पदार्थ मिट्टी और भूजल में मिल गए. इस क्षेत्र में सब कुछ प्रदूषित हो गया है."
पाटा रैट में रहने वाले रोमा समुदाय के लोग 1960 के दशक के अंत में और 1970 के दशक की शुरुआत में यहां रहने आए थे. ये लोग गरीबी की वजह से यहां आए थे और कुछ लोगों ने लैंडफिल में कचरा बीनने का काम शुरू कर दिया. 2000 के दशक में जब क्लुज-नेपोका में रियल एस्टेस की कीमतों में उछाल हुई, जमीन और मकान की कीमतें तेजी से बढ़ीं, तब एक बड़ी आबादी को शहर से बेदखल कर दिया गया और वे यहां रहने लगे.
शहर से कचरे के ढेर पर पहुंचाया गया
आखिरी बार 2010 में, स्थानीय अधिकारियों ने बीच शहर में मौजूद कोस्टेई स्ट्रीट में रहने वाले करीब 350 लोगों को वहां से हटाकर पाटा रैट पहुंचा दिया था. लिंडा ग्रेटा जिसिगा को दिसंबर की वह सर्द सुबह याद है. उस दिन पुलिस, स्थानीय अधिकारी और बुलडोजर की आवाज ने उन्हें और उनके परिवार को जगाया.
इसके ठीक दो दिन पहले, उन्हें और स्ट्रीट में रहने वाले 75 अन्य रोमा परिवारों को यह जगह खाली करने की चेतावनी दी गई थी. अब उनका ठिकाना पाटा रैट में पहले से मौजूद शिविरों के बीच स्थित एक छोटा घर था.
जिसिगा का कहना है कि कोस्टेई स्ट्रीट में रोमा समुदाय पूरी तरह से बसे हुए थे. वे वहां पीढ़ियों से रह रहे थे. उन्होंने वहां मिले सरकारी घर और सुविधाओं के लिए पैसे चुकाए. उनके बच्चे स्थानीय स्कूलों और किंडरगार्टन में गए. इसके बावजूद, उन्हें शहर के कूड़े के ढेर पर फेंका जा रहा था.
वह कहती हैं, "वे हमें कचरा मानते थे, इंसान नहीं. उन्होंने सोचा कि हम उस कचरे के ढेर पर ही रहने लायक हैं."
भेदभाव झेल रहे रोमा
पिछले साल एक सर्वेक्षण के जवाब में, 10 में से 7 रोमानियाई लोगों ने कहा कि उन्हें रोमा पर भरोसा नहीं है. सर्वे में शामिल 20% से 30% लोगों ने कहा कि रोमा के खिलाफ हिंसा करने की अनुमति दी जानी चाहिए या रोमा के खिलाफ भेदभाव और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वाले सजा नहीं दिया जाना चाहिए.
रोमानिया के लिए इस तरह के दृष्टिकोण अलग नहीं है. पूरे यूरोप में, सबसे बड़े जातीय अल्पसंख्यक के खिलाफ नस्लवाद का नतीजा है कि रोमा लोगों को बुनियादी अधिकार नहीं मिल रहे हैं. उन्हें रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं के इस्तेमाल से वंचित किया जाता है.
हाशिए पर खड़े रोमा समुदाय के लोगों को उन जगहों पर भेज दिया जाता है जहां न तो पीने को साफ पानी मिलता है और न ही साफ-सफाई रहती है. साथ ही, कचरों का ढेर मौजूद होता है.
अक्सर ये जगह काफी खतरनाक होते हैं. पिछले साल यूरोपीय पर्यावरण ब्यूरो (ईईबी) ने "मध्य और पूर्वी यूरोप में रोमा समुदायों के खिलाफ पर्यावरण नस्लवाद" पर प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि रोमा लोग "लैंडफिल या गंदे उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित थे."
तेजी से बीमार हो रहे रोमा
पाटा रैट पहुंचने पर, 12 सदस्यों वाले जिसिगा के परिवार को 16 वर्ग मीटर का कमरा रहने को मिला. यह जगह परिवार के हिसाब से इतनी कम थी कि ज्यादातर सामान बाहर रखने पड़े. यहां इसी तरह के तीन अन्य परिवारों के लिए एक शौचालय था और बाथरूम था. सभी को इसी से काम चलाना था.
जिसिगा उस पल को याद करते हुए बताती हैं कि वह अपनी खिड़की से चारों ओर फैले कचरे के समुद्र को देख रही थीं. वह कहती हैं, "मुझे प्रकृति से प्रेम है, लेकिन वहां एक भी कबूतर नहीं था और न ही पेड़ थे."
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की 2012 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि वहां रहने वाले 22% वयस्क पुरानी बीमारी या किसी न किसी प्रकार की विकलांगता से पीड़ित हैं. शोधकर्ताओं ने त्वचा संक्रमण, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, उच्च रक्तचाप, और हृदय और पेट की समस्याओं का विवरण तैयार किया.
इसके अलावा, यूरोपीय रोमा राइट्स सेंटर की एक रिपोर्ट में पाया गया कि शहर से निकाले जाने के दो वर्षों में, कोस्टेई समुदाय के बीच स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं दोगुनी हो गईं.
ईईबी के अध्ययन में बताया गया कि रोमा के खिलाफ पर्यावरणीय नस्लवाद के प्रमुख कारकों में से एक उन्हें "महंगी जगहों" से जबरन बेदखल करना है. कोस्टेई समुदाय को उन्हें उनके पुराने जगह से बेदखल करने का कारण नहीं बताया गया. हालांकि, जिसिगा को पता है कि उन्हें क्यों हटाया गया. वह कहती हैं, "वे क्लुज से रोमा को 'साफ' करना चाहते थे. अब बहुत ही कम रोमा शहर में शहर में रहते हैं."
क्लुज-नेपोका की नगर पालिका ने डीडब्ल्यू को बताया कि वे पाटा रैट की सफाई कर रहे हैं. साथ ही, समुदाय को स्वास्थ्य और अन्य सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं. उन्होंने यह भी कहा कि वे जबरन बेदखल करने को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. 30 परिवारों के लिए घर उपलब्ध कराने के लिए एक कार्यक्रम में भागीदार हैं, हालांकि वे इस योजना के लिए धन उपलब्ध नहीं करा रहे हैं.
कचरा बीनने वालों का कारोबार ठप्प
लैंडफिल कवर होने के बाद से पाटा रैट इलाके में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को लेकर कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. हालांकि, इस इलाके में काम कर रहे एक एनजीओ के कार्यकर्ता के मुताबिक, बच्चों में सांस की बीमारियां आम बात है. लैंडफिल के बंद होने के बाद से, पाटा रैट में जीवन जीना और भी कठिन हो गया है. कचरा बीनने वालों का काम ठप्प हो गया है.
चार बच्चों की मां 28 वर्षीय एडेला लुडविग लैंडफिल के पास रहती हैं. उनका घर प्लाईवुड से बना है. छत के नाम पर विज्ञापन का बैनर है. यह बैनर उन्हें कचरे के ढेर पर मिला था.
लुडविग इस घर को ही अपना ‘विला' मानती हैं. रसायनिक कचरे के ढेर पर बना यह ‘विला' कंटीले तारों से घिरा हुआ और नीले प्लास्टिक की पन्नी से ढका हुआ है.
लुडविग प्लास्टिक की बोतलें और पन्नी, डिब्बे और कार्डबोर्ड इकट्ठा करती थीं. वह कहती हैं कि स्थानीय रीसाइक्लिंग कंपनी एक किलो प्लास्टिक के लिए 12 सेंट के बराबर भुगतान करती थी. ऐसे में वह एक दिन में करीब 40 यूरो तक कमा लेती थीं. वह कहती हैं, "इन पैसों से मैं खाना खरीदती थी और जरूरत पड़ने पर बच्चों के लिए दवा खरीदती थी."
अब नए ‘अस्थायी' लैंडफिल बंद कर दिए गए हैं. इसकी वजह से लुडविग जैसे कचरा बीनने वालों का काम ठप्प हो गया है. वह कहती हैं, "लोग भूख से रो रहे थे." लुडविग को पांचवां बच्चा होने वाला है. उन्हें हर महीने बच्चे के नाम पर 220 यूरो मिलते हैं. इसी के सहारे वह अपने चार बच्चों के साथ जीवन-यापन कर रही हैं.
अपनी बेहतरी के लिए खुद कर रहे संघर्ष
लैंडफिल के ‘इतिहास' घोषित होने के एक साल बाद, क्लुज-नेपोका के प्रमुख ने वादा किया था कि पाटा रैट में मौजूद कैंप "2030 तक हटा दिए जाएंगे" लेकिन यह नहीं बताया गया कि वहां रहने वाले 350 परिवार के लोग कहां जाएंगे. हालांकि, उनकी घोषणा से ठीक पहले, यहां के निवासियों ने इस मामले को अपने हाथों में ले लिया था. अपनी समस्या खुद से दूर करने में जुट गए.
2012 में, जिसिगा और कोस्टेई कैंप के अन्य लोगों ने एक संगठन बनाया. यह संगठन पाटा रैट में रहने वाले लोगों को घर दिलाने के लिए अभियान चलाने और बेदखली के खिलाफ अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम कर रहा है. फिलहाल वे, यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय से अपने मामले पर निर्णय का इंतजार रहे हैं.
वहीं, नॉर्वे ग्रांट्स की पहल से कोस्टेई के 35 परिवारों को 2014 और 2017 के बीच क्लुज-नेपोका या आसपास के गांवों में बसाया गया. नॉर्वे ग्रांट्स के जरिए नॉर्वे सरकार दक्षिणी और पूर्वी यूरोप में सामाजिक परियोजनाओं के लिए फंड मुहैया कराती है.
अब जिसिगा, अपने पार्टनर और तीन बच्चों के साथ शहर में तीन कमरों वाले अपार्टमेंट में रहती हैं, लेकिन उन्होंने पाटा रैट से मुंह नहीं मोड़ा है. उनके भाई-बहन और परिवार के सदस्य अभी भी वहीं रहते हैं. वह नॉर्वे ग्रांट के दूसरे चरण में 30 परिवारों को सहायता दिलाने के लिए साइट पर काम कर रही हैं. वह कहती हैं, "मैं चाहती हूं कि कोई भी पाटा रैट में न रहे. वह जगह किसी के रहने लायक नहीं है." (dw.com)
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में बताया गया है कि महामारी की रोकथाम और स्वास्थ्य कल्याण में हुए खर्चों के बावजूद हालात बदतर हैं.
डायचे वेले पर क्रिस्टी प्लैडसन की रिपोर्ट
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आईएलओ की बुधवार को जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की आधा से ज्यादा आबादी के पास किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है. ये हाल तब है जबकि कोविड-19 की वैश्विक महामारी फैलने के बाद सामाजिक सुरक्षा के विभिन्न उपायों में अभूतपूर्व विस्तार देखा गया है.
2020 में दुनिया के सिर्फ 47 प्रतिशत लोगों को कम से कम एक सामाजिक सुरक्षा उपाय तक प्रभावी पहुंच हासिल हो पाई थी. शेष 53 प्रतिशत लोग यानी करीब 4.1 अरब लोगों के पास कोई बचाव नहीं था.
सामाजिक सुरक्षा में हेल्थ केयर और आय की सुरक्षा भी शामिल है. जैसे बेरोजगारी के मामलों में, काम न कर पाने की स्थिति में, बुढ़ापे की वजह से और बच्चों वाले परिवारों में.
आईएलओ के महानिदेशक गी राइडर ने रिपोर्ट की प्रस्तावना में कहा हैः "सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से हम सब एक ही नाव पर सवार हैं. हमारे सुख और नियतियां अभिन्न हैं और परस्पर गुंथी हुई हैं, भले ही हमारी लोकेशन, पृष्ठभूमि या काम कुछ भी हो. अगर कुछ लोग बीमारी में या क्वॉरंनटाइन की अवस्था में आय की सुरक्षा का लाभ नहीं उठा पाते हैं तब वैसे हालात में पब्लिक हेल्थ का कोई मतलब नहीं रह जाएगा और हमारी सामूहिक खुशहाली भी बाधित होगी.”
सामाजिक सुरक्षा उपायों में तीखे अंतर
वर्ल्ड सोशल प्रोटेक्शन रिपोर्ट 2020-22 में पूरी दुनिया भर की सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों में हाल के बदलावों और सुधारों का आकलन किया गया है. स्टडी के मुताबिक आज भी देश और इलाके के लिहाज से सामाजिक सुरक्षा का कवरेज यानी दायरा काफी अलग है.
यूरोप और मध्य एशिया के लोगों को सबसे अच्छी सामाजिक सुरक्षा हासिल है. उनकी 84 फीसदी आबादी को कम से कम एक लाभ तो मिल ही रहा है. अमेरिकी महाद्वीप में ये दर 64.3 फीसदी है. एशिया और प्रशांत क्षेत्र के अलावा अरब देशों में भी आधा से थोड़ा कम आबादी को सामाजिक सुरक्षा मिली हुई है जबकि अफ्रीका में सिर्फ 17.4 प्रतिशत लोगों को कम से कम एक लाभ ही मिल पाया है.
आईएलओ के मुताबिक, दुनिया के अधिकांश बच्चों के पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है. दुनिया में चार मे से सिर्फ एक बच्चे को एक सामाजिक सुरक्षा लाभ मिल पाता है. नवजात शिशुओं वाली सिर्फ 45 प्रतिशत मांओं को ही नकद मातृत्व लाभ मिल पाता है.
गंभीर विकलांगता वाले तीन में से सिर्फ एक व्यक्ति को विकलांगता से जुड़े लाभ मिल पाते हैं और नौकरी गंवाने वाले पांच में से सिर्फ एक व्यक्ति को ही सामाजिक सुरक्षा मिल पाती है.
रिटायर हो चुके तीन चौथाई लोगों को कुछ पेंशन मिलती है लेकिन ये कवरेज इलाका दर इलाका, गांव बनाम शहर और औरत बनाम आदमी के बीच अलग अलग है.
अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई
रिपोर्ट में सामाजिक सुरक्षा पर कोविड-19 महामारी के दुष्प्रभावों की जांच भी की गई है. सबके लिए न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित कराने के लिए होने वाला अतिरिक्त खर्च, जिसे वित्त अंतराल या फाइनेन्सिंग गैप भी कहा जाता है, वो महामारी की शुरुआत से अब तक करीब 30 प्रतिशत ऊपर जा चुका है.
कम आय वाले देशों को हर साल करीब 78 अरब डॉलर अतिरिक्त के खर्च की जरूरत होगी जिसके जरिए वे कम से कम बुनियादी सामाजिक सुरक्षा कवरेज अपने लोगों को दे पाएंगे. ये रकम उनके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 16 प्रतिशत है. लोअर-मिडल-इनकम वाले देशों को हर साल करीब 363 डॉलर अतिरिक्त की जरूरत होगी और अपर-मिडिल-इनकम वाले देशों को हर साल 750.8 अरब डॉलर अतिरिक्त चाहिए होंगे.
औसतन दुनिया भर के देश सामाजिक सुरक्षा (हेल्थ केयर को हटाकर) पर जीडीपी का 13 प्रतिशत खर्च करते हैं. लेकिन देशों के बीच ये खर्च अलग अलग है. ऊंची आय वाले देश जीडीपी का करीब साढ़े 15 प्रतिशत सामाजिक सुरक्षा पर खर्च कर डालते हैं जबकि कम आय वाले देश अपनी जीडीपी का सिर्फ एक प्रतिशत हिस्सा ही सामाजिक सुरक्षा के नाम दे पाते हैं.
खर्चा बढ़ाने की जरूरत
कोराना वायरस से पैदा हुई वैश्विक स्वास्थ्य इमरजेंसी ने सरकारों को सामाजिक सुरक्षा पर बड़ा खर्च करने के लिए विवश किया है. इसमें लाभ के उपाय बढाने, डिलीवरी मकेनिज्म को सुधारने और पहले असुरक्षित रह गए समूहों तक कवरेज ले जाना शामिल है.
अंतरराष्ट्रीय प्रयत्नों के बावजूद, बड़ी आय वाले देशों में कम और मध्यम आय वाले देशों की अपेक्षा अच्छा रिस्पॉन्स देखा जा रहा है. देशों के बीच सामाजिक सुरक्षा कवरेज और फाइनेन्सिंग गैप- अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, आईएमएफ के एक हालिया अंदेशे की ही तस्दीक करते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक आईएमएफ ने आगाह किया था कि अमीर देशों में रिकवरी के अच्छे निशान नजर आ रहे हैं जबकि गरीब देशों में हालात बिल्कुल उलट दिखते हैं.
असमान वैक्सीन वितरण ने भी भी दुश्वारियां बढ़ाई हैं. सामाजिक सुरक्षा के ये अंतराल, कोविड-19 से वैश्विक स्तर पर हो रही रिकवरी में भी असमानता की बढ़ती आशंका की ओर इशारा करते हैं.
आईएलओ के सामाजिक सुरक्षा विभाग की निदेशक शाहरा रजावी ने एक प्रेस रिलीज में बताया कि सामाजिक सुरक्षा, विकास के सभी स्तरों पर देशों को चौतरफा सामाजिक और आर्थिक लाभ मुहैया करा सकती है. इनमें बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा, ज्यादा टिकाऊ आर्थिक प्रणालियां, बेहतर रूप से संचालित माइग्रेशन और मानवाधिकारों की बेहतर निगरानी शामिल है.
रजावी का कहना है, "संकट से निपटने के उपायों पर भारीभरकम सार्वजनिक खर्च के बाद, देशों को वित्तीय दृढ़ता की ओर बढ़ने के लिए एक जोरदार धक्का मिला है. लेकिन सामाजिक सुरक्षा उपायों में कटौती से गंभीर नुकसान हो सकता है- निवेश की जरूरत यहां है और अभी है.” (dw.com)
हाइड्रोपावर यानी जलबिजली को लंबे समय से एक भरोसेमंद अक्षय ऊर्जा स्रोत माना जाता रहा है. लेकिन सूखे और भारी बारिश में जलबिजली संयत्र अक्सर बैठ जाते हैं. आशंका है कि जलवायु परिवर्तन इस साफ ऊर्जा विकल्प को खत्म न कर दे.
डायचे वेले पर जेनेट सीवींक की रिपोर्ट
साफ उर्जा के विकल्प के रूप में कई साल तक हाइड्रोपावर के इस्तेमाल को लेकर ये धारणा रही है कि एक बार बन जाने के बाद प्लांट विश्वसनीय तरीके से बिजली पैदा करते रह सकता है. 2019 के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया की आधा से ज्यादा अक्षय ऊर्जा, हाइड्रोपावर से हासिल हुई थी.
लेकिन जलवायु में परिवर्तन के साथ साथ पानी से मिलने वाली इस ऊर्जा की सामर्थ्य में भी गिरावट आती जा रही है. इस साल, बढ़ते तापमान से सूखों की आवृत्ति और गंभीरता भी बढ़ी है और उसके चलते जलबिजली उत्पादन में दशकों की गिरावट आई है.
दुनिया भर में बिजली उत्पादन में गिरावट
अमेरिकी शहर लास वेगास के पास कोलोराडो नदी का पानी मीड झील के जरिए हूवर बांध के काम आता है. 14 करोड़ लोगों को इसी बांध से पानी की सप्लाई जाती है. लेकिन इस वक्त बांध का विशाल जलाशय महज एक तिहाई ही भर पाया है.
झील के जलस्तर में गिरावट का मतलब बांध संयंत्र में, इस जुलाई 25 प्रतिशत कम बिजली ही बन पाई जबकि ऐसा होता नहीं था. इसके चलते अमेरिका की संघीय सरकार को जनवरी 2022 से, बांध के निचले इलाकों में बसे शहरों की वॉटर सप्लाई में कटौती का ऐलान करना पड़ा था.
दक्षिणी अमेरिका में भी ऐसे ही हालात हैं. ब्राजील, पराग्वे और अर्जेंटीना से होकर बहने वाली पराना नदी में पानी बहुत कम हो गया है. नदी का उद्गम-स्थल दक्षिणी ब्राजील, तीन साल से गंभीर सूखे की चपेट में रहा है.
स्थानीय रिपोर्टों के मुताबिक, मध्य और दक्षिणी ब्राजील के जलाशयों में जलस्तर पिछले 20 साल के औसत के मुकाबले आधा से भी कम गिर चुका है. ब्राजील में 60 फीसदी बिजली बांध से आती है, लेकिन सूखते जलाशयों ने ब्लैकआउट की आशंका बढ़ा दी है.
फॉसिल ईंधन की ओर वापसी
इसे रोकने के लिए ब्राजीली अधिकारियों ने प्राकृतिक गैस से चलने वाले पावर प्लांटों को फिर से सक्रिय करना शुरू कर दिया है. इससे बिजली की कीमतें बढ़ गई हैं और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ने लगा है.
यही सूरते-हाल अमेरिका का है. सूखाग्रस्त कैलिफोर्निया मे राज्य सरकार ने उद्योंगों और जहाजों को बिजली के लिए डीजल जनरेटर चलाने की इजाजत दे दी है. प्राकृतिक गैस ऊर्जा संयंत्रों को भी बिजली पैदा करने के लिए और गैस फूंकने की अनुमति दी जा रही है.
लेकिन सिर्फ सूखा ही जलबिजली उत्पादन में गिरावट नहीं ला रहा है- भारी बारिश और बाढ़ की समस्याएं भी तीखी हुई हैं. मार्च 2019 में पश्चिमी अफ्रीका मे तबाही मचाने वाले इडाई चक्रवात के बाद आई बेतहाशा बाढ़ ने मलावी मे दो बड़े बांधों को नुकसान पहुंचाया था. कई दिनों तक देश के कई हिस्सों में बिजली गुल रही.
अफ्रीका में हाइड्रोपावर के दिन पूरे?
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के मुताबिक डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कोंगो, इथियोपिया, मलावी और मोजाम्बिक जैसे बहुत से अफ्रीकी देशों में 80 प्रतिशत से ज़्यादा बिजली उत्पादन हाइड्रोपावर से होता है. कुल मिलाकर, 2019 के अंत तक अफ्रीका महाद्वीप में 17 प्रतिशत बिजली हाइड्रोपावर से मिली थी. 2040 में इसके 23 प्रतिशत से ज्यादा होने का अनुमान है.
लेकिन आईईए के मुताबिक अफ्रीका में हाइड्रोपावर प्लांटों के अधिकांश नये प्लान, जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरों पर अव्वल तो तवज्जो नहीं देते और अगर दे भी दें तो उनका सही ढंग से मूल्यांकन नहीं करते हैं.
हाइड्रोपावर विस्तार के खिलाफ चेतावनी
इस बीच, दुनियाभर में सक्रिय कई जलबिजली संयंत्र दूसरी समस्या से जूझ रहे हैं- वो है उनकी उम्र. संयुक्त राष्ट्र यूनिवर्सिटी स्टडी के मुताबिक बांधों की
उपयोगिता 50 से 100 साल तक रहती है. वे जितने पुराने होते जाते हैं, स्टडी के मुताबिक उतने ही कमजोर और नाकाम होने की आशंका से घिर जाते हैं.
स्टडी का कहना है कि बांध के जीवन के 25-30 साल के दौरान उसकी देखरेख के उपायों में आने वाली लागत बढ़ती जाती है.
एक जर्मन एनजीओ, काउंटर करेंट से जुड़े थिलो पापाएक कहते हैं कि बढ़ती लागत के मद्देनजर, जीवाश्म ईंधनों को हटाते हुए हाइड्रोपावर प्लांटों में निवेश करना विनाशकारी हो सकता है. काउंटर करेंट, विदेशों में सक्रिय जर्मन संगठनों के बीच सामाजिक और पर्यावरणीय रूप से जवाबदेही वाली विदेशी भागीदारी के लिए अभियान चलाता है.
पापाएक ने डीडब्लू को बताया कि हाइड्रोपावर प्लांट्स न सिर्फ आसपास के ईकोसिस्टम में दखलअंदाजी करते हैं, लेकिन क्योंकि वे गाद को निचले इलाको में बह जाने से रोकते हैं, तो इस लिहाज से भी वे लोगों के लिए खतरनाक बन सकते हैं. उनका कहना है, "नदी के तटों पर गाद जमा न होने की सूरत में बांध के पीछे के इलाके को नदी गहरा खोद देती है और सिकुड़ जाती है. भारी बारिशों में इससे फिर एक प्रचंड शक्ति पैदा हो सकती है खासकर अगर जलाशय से पानी छोड़ना हो.” वो कहते हैं कि इससे नजदीकी इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है.
बड़े भीमकाय बांधों का विकल्प
फ्रैंकफर्ट की गोएठे यूनिवर्सिटी में ईकोसिस्टम साइंस के प्रोफेसर और सेन्केनबर्ग सोसायटी फॉर नेचर रिसर्च के महानिदेशक क्लेमेट टौक्नर कहते हैं, "ये सही है कि भविष्य में हाइड्रोपावर के बिना हमारा गुजारा नहीं होगा.”
"लेकिन सवाल ये हैः हम बांध कहां बनाएंगे, कैसे बनाएंगे और उन्हें कैसे ऑपरेट करेंगे?”
उनका मानना है कि मौजूदा संरक्षित इलाकों में, जहां नदियां पर्याप्त रूप से निर्बाध बहती हैं, वहां बांध नहीं बनने चाहिए. वो कहते हैं कि जहां उचित हो वहां बांधों के ईकोसिस्टम पर पड़ रहे नकारात्मक असर की भरपाई और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए भी उपाय किए जाने चाहिए. जैसे अवरुद्ध जलमार्गों की बहाली और बांधों को हटाना. नये बांध इस तरह बनने चाहिए कि नदियां यथासंभव पारदर्शी और साफसुथरी बनी रहें. जिससे कि निचले इलाकों की ओर भी मछलियां तैर सकें और गाद सहजता से बहकर जा सके और बाढ़ के दौरान बड़ी मात्रा में पानी छोड़ा जा सके.
इंटरनेशनल वॉटर मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट (आईडब्लूएमआई) में हाइड्रोलॉजिस्ट स्टीफान उहलेनब्रुक कहते हैं, "इसका मतलब ये है कि पानी की फ्लो विलोसिटी यानी उसके प्रवाह के वेग पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ना चाहिए और नदी के पास पर्याप्त शेष पानी और बाढ़ प्रभावित जमीन रहनी चाहिए.” उन्होंने डीडब्लू को बताया, "जरूरी हुआ तो गाद को यांत्रिक तौर पर वापस नदी के रास्ते में डाल देना चाहिए.”
अकेले टेक्नोलॉजी ही काफी नहीं
बड़े बांधों का विकल्प भी है. जैसे, इनस्ट्रीम टरबाइनों को नदी के बीचोंबीच लगा दिया जाता है और बहते पानी के वेग से बिजली पैदा की जाती है. उन्हें बहुत बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य की जरूरत नहीं है और जलस्तर गिरने पर भी काम करती रह सकती हैं. वैसे दूरदराज के इलाकों के लिए तो ऐसी टरबाइनें मुफीद हैं लेकिन महानगरीय इलाकों में सप्लाई नहीं दे सकतीं.
दूसरा उदाहरण है, म्युनिख की टेक्निकल यूनिवर्सिटी (टीयूएम) स्थित शाफ्ट हाइड्रोपावर प्लांट. इसे बाढ़ सुरक्षा और लंबे समय तक कारगर बनाए रखने के लिहाज से डिजाइन किया गया था. जर्मनी के बावरिया प्रांत में एक पायलट प्लांट लगा है जिसके जरिए 800 घरों को बिजली सप्लाई मिल रही है.
लेकिन टेक्नोलॉजी कितनी भी नयी क्यों न हो, अकेले उनसे ही गंभीर और लंबे समय तक रहने वाले सूखों से बचाव नहीं किया जा सकता है.
ईकोसिस्टम वैज्ञानिक टौक्नर कहते हैं, "जमीन का अलग ढंग से इस्तेमाल करने से हम सूखे के असर को कम कर सकते हैं. अर्ध-प्राकृतिक जंगल और वेटलैंड बहुत सारा पानी जमा रखते हैं, जिसे वे सूखे की अवधियों के दौरान छोड़ देते हैं- हमें देखना होगा कि नेचर-फ्रेंडली उपायों के जरिए हम किस तरह सूखे और बाढ़ को कम कर सकते हैं.”
लेकिन वो ये भी जोड़ते हैं कि मौसमी अतिशयतों में वृद्धि को देखते हुए ये साफ है कि "हाइड्रोपावर, लंबे समय तक पहले की तरह ऊर्जा का भरोसेमंद स्रोत बना नहीं रह पाएगा.”
हाइड्रोलॉजिस्ट ऊलेनब्रुक के मुताबिक, ऊर्जा की बहस का एक और पहलू है जिसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता हैः "सबसे जरूरी ये है कि भविष्य में हमें ऊर्जा की हर मुमकिन बचत पर ध्यान देना होगा.” (dw.com)
जिस डिवाइस ने कभी काम ही नहीं किया, उसी के सहारे थेरानोस कंपनी की संस्थापक एलिजाबेथ होम्स मशहूर हो गई थीं. लेकिन कैसे.
डायचे वेले पर सबरीना केसलर की रिपोर्ट
नए प्रकार से खून की सामान्य जांच के जरिए, एलिजाबेथ होम्स स्वास्थ्य उद्योग के क्षेत्र में क्रांति लाना चाहती थीं. उनकी कंपनी थेरानोस की चमक वॉल स्ट्रीट में काफी ज्यादा थी, लेकिन अब धोखाधड़ी का मामला उजागर होने के बाद, कंपनी और एलिजाबेथ दोनों अर्श से फर्श पर आ पहुंचे हैं.
‘यह एक चुभन है जो जान बचा सकती है.' यही वह वादा था जिसने अमेरिकी चिकित्सा कंपनी थेरानोस की संस्थापक एलिजाबेथ होम्स को विलक्षण व्यक्तित्व वाले व्यक्ति की तरह बना दिया था. यह वही वादा था जिसने उनके पतन को और नाटकीय बना दिया.
खून की कुछ बूंदें हार्मोन और वायरल को तय करने, विसंगतियों का पता लगाने, और यहां तक कि विशेष रूप से विकसित डिवाइस की मदद से जानलेवा बीमारियों का पता लगाने के लिए पर्याप्त हो सकती हैं. लेकिन जो सबसे बड़ी समस्या थी, वह थी डिवाइस. इस डिवाइस ने वास्तव में कभी काम ही नहीं किया. इस डिवाइस का नाम महान वैज्ञानिक एडिसन के नाम पर एडिसन डिवाइस रखा गया था.
इसके बावजूद, 12 वर्षों से अधिक समय तक, होम्स ने कंपनियों, पैसे का प्रबंध करने वाले लोगों, और अरबपतियों को यह विश्वास दिलाया कि एडिसन काफी सस्ता है और बेहतर तरीके से काम करता है. यह न सिर्फ खून की जांच को आसान बना देगा, बल्कि ज्यादा समय लेने वाली महंगी प्रयोगशालाएं और जांच घर हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे.
अमेरिका में दवा दुकानों की चेन वॉलग्रीन्स ने एरिजोना और कैलिफोर्निया में अपनी 40 दुकानों में डिवाइस के परीक्षण की पेशकश की. माना जाता है कि हजारों ग्राहकों को खून की जांच के गलत और कभी-कभी खतरनाक नतीजे मिले.
ट्रायल जारी
सच्चाई यह है कि इस घोटाले का पर्दाफाश मुख्य रूप से वॉल स्ट्रीट जर्नल के खोजी पत्रकार जॉन कैरेरो ने किया. करीब छह साल पहले, उन्हें थेरानोस कंपनी के एक पूर्व कर्मचारी का फोन आया. उस कर्मचारी ने उन्हें बताया कि कंपनी में क्या चल रहा है. इसके बाद, कैरेरो की छानबीन, साक्षात्कार, और लेखों ने होम्स को बेनकाब करने में अहम भूमिका निभाई.
साल 2018 में कोर्ट ने होम्स को आरोपित बनाया. उन पर निवेशकों, डॉक्टरों, और मरीजों के साथ धोखाधड़ी करने का आरोप लगा. अब उनके खिलाफ धोखाधड़ी और धोखाधड़ी से जुड़ी साजिश रचने के 12 मामले चल रहे हैं. हालांकि, उनका कहना है कि वह दोषी नहीं हैं.
इस मामले में अब जूरी का चयन हो चुका है और ट्रायल जारी है. कंपनी के पूर्व अध्यक्ष और होम्स के पूर्व प्रेमी रमेश बलवानी को भी जल्द ही कटघरे में खड़ा किया जाएगा. अगर अदालत दोनों में से किसी को भी दोषी पाती है, तो उन्हें 20 साल की जेल और हर एक को 2 मिलियन डॉलर का जुर्माना भरना पड़ सकता है.
इस मामले में अहम सवाल यह है कि क्या कंपनी के मालिक ने जानबूझकर निवेशकों का पैसा गबन करने के लिए यह काम किया? मामले की सुनवाई के दौरान होम्स और बलवानी की शानदार जीवनशैली पर भी ध्यान दिया जाएगा, जिसने शायद उन दोनों को और अधिक लालची बना दिया. इसलिए, अभियोजक होम्स के निजी जीवन से जुड़ी जानकारियों का खुलासा करने की मांग कर रहे हैं. निजी जेट से यात्रा करना, महंगी खरीदारी करना, और अक्सर लक्जरी होटलों में ठहरना उनकी आदतों में शुमार था.
बढ़ता गया रूतबा
होम्स निवेशकों को रिझाना जानती थीं. मंच पर और सभाओं में, वह जानबूझकर गंभीर आवाज में बातचीत करती थीं. वह हमेशा अपने रोल मॉडल एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स की तरह दिखती थीं. वह स्टीब जॉब्स की तरह की कपड़े भी पहनना चाहती थीं. उनकी आलमारी काले और बंद गले वाले कपड़ों से भरी होती थी.
वह विशेष रूप से प्रभावशाली और धनी पुरुषों को अपने इशारों पर काम कराने का तरीका जानती थीं. थेरानोस के सुपरवाइजरी बोर्ड में देश के पूर्व विदेश मंत्री जॉर्ज शुल्त्स, पूर्व रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस और यहां तक कि हेनरी किसिंजर तक शामिल थे. वहीं निवेशकों में, मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक, सिलिकॉन वैली निवेशक टिम ड्रेपर और वॉलमार्ट के संस्थापक वॉल्टन फैमिली जैसे प्रमुख नाम शामिल थे.
इन निवेशकों ने बिना कुछ देखे और जांचे मेडिकल स्टार्टअप में 700 मिलियन से अधिक का निवेश किया. 2014 में यह कंपनी सफलता की ऊंचाइयों को छू रही थी. उस समय थेरानोस का मूल्य 9 अरब डॉलर तक पहुंच गया था. इसके एक साल बाद, टाइम मैग्जीन ने होम्स को दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में शामिल किया. होम्स अब नियमित रूप से बिजनेस मैग्जीन के कवर पर दिखने लगी थीं.
छोटे बक्से में 200 तरह की जांच
पत्रकार जॉन कैरेरौ जैसे आलोचकों का कहना है कि क्या बहुत लोगों ने नहीं देखा या देखना नहीं चाहते थे. उदाहरण के लिए, एडिसन डिवाइस इस्तेमाल में बेहद आसान था. इस मशीन में रोबोटिक हाथ और कई पिपेट थे. ये सब एक बक्से के आकार की मशीन के अंदर फिट किए गए थे. ऐसी मशीन में खून की 200 अलग-अलग तरह की जांच करना असंभव था. यही वजह से थी कि थेरानोस ने गुप्त रूप से प्रतिद्वन्द्वियों की मशीनों का इस्तेमाल किया. होम्स ने कभी इस मशीन का स्विच ऑन नहीं किया.
वह हमेशा कहती थीं कि वह किसी बड़ी चीज पर काम कर रही हैं, इसलिए ज्यादा जानकारी नहीं दे सकतीं. हालांकि डिजाइन से जुड़ी बुनियादी बातों के बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने दिखा दिया कि वह वास्तव में तकनीक के बारे में कितनी कम जानती हैं.
कैरेरौ ने अपनी किताब ‘बैड ब्लड: सीक्रेट ऐंड लाई इन सिलिकॉन वैली स्टार्टअप' में लिखा है, "उनके शब्द प्रयोगशाला में नई खोज करने वाले वैज्ञानिकों की जगह हाई स्कूल में रसायन विज्ञान पढ़ने वाले छात्रों की तरह लग रहे थे." इस किताब में उन्होंने इस मामले से जुड़ी कई चीजों को उजागर किया है.
वहीं, दूसरी ओर होम्स खुद को निर्दोष बता रही हैं. देश के कुछ बेहतरीन वकीलों की मदद से, उन्होंने उन सभी पर कानूनी दबाव डाला जो उनके खिलाफ गवाही देना चाहते थे या उसकी कंपनी को बदनाम करना चाहते थे. उन्होंने कई लोगों को जलनखोर बताया.
2018 में उन्होंने सीएनबीसी से बात करते हुए कहा था, "ऐसा तब होता है जब आप चीजों को बदलने के लिए काम करते हैं. वे पहले सोचते हैं कि आप पागल हैं, फिर वे आपसे लड़ते हैं, फिर आप अचानक दुनिया बदल देते हैं."
होम्स अदालत में भी टकराव की रणनीति पर भरोसा करती हैं. पिछले कुछ दिनों में, संभावित जूरी सदस्यों की संख्या कम कर दी गई है क्योंकि उनके वकीलों ने शिकायत की थी कि उनमें से अधिकांश पक्षपाती थे.
अटॉर्नी केविन डाउनी ने जज से कहा, "30 से 40 जूरी सदस्यों ने इस मामले की पूरी तरह समीक्षा की है. मेरा मतलब है कि मामले के बारे में और प्रतिवादी के बारे में काफी ज्यादा सामग्री है." यह पहले से ही स्पष्ट हो रहा है कि यह एक लंबा ट्रायल होगा.
आक्रामक हैं होम्स
होम्स खुद आक्रामक हो रही हैं. कुछ समय पहले यह खबर आयी कि वह कहेंगी कि पूर्व सीओओ रमेश बलवानी ने उनके साथ एक दशक तक अभद्र व्यवहार किया. दस्तावेजों के अनुसार, वह एक विशेषज्ञ से उस मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और यौन शोषण के बारे में गवाही देने की योजना बना रही है जिससे वह गुजरी थीं.
होम्स के अनुसार, बलवानी ने पहले उन्हें कंट्रोल किया और फिर उनके साथ हेराफेरी की. हालांकि, इस बात की गुंजाइश कम है कि यह रणनीति काम करेगी. होम्स को पहले ही अपने कामों के लिए कई बार जवाब देना पड़ा है और उन्होंने अपने ऊपर लगे कुछ आरोपों को स्वीकार भी किया है.
2018 में एक मुकदमे से बचने के लिए, उन्होंने अमेरिकी सिक्योरिटी ऐंड एक्सचेंज कमीशन के साथ एक समझौता किया था. इसमें कहा गया था कि उन्होंने "अपने प्रमुख उत्पाद के बारे में निवेशकों से झूठ बोला. प्रदर्शनी के दौरान गलत बातें कहीं और मीडिया लेखों में भ्रामक बयान दिए." होम्स ने तब पांच लाख डॉलर का भुगतान किया था और अगले 10 वर्षों तक कोई सार्वजनिक कंपनी नहीं चलाने पर सहमत हुई थीं.
उन्हें सबसे ज्यादा फायदा इस बात से हुआ कि कुछ हफ्ते पहले उन्होंने अपने पहले बच्चे को जन्म दिया है. यह महज एक संयोग है या पहले से तय रणनीति, इसके बारे में कोई पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकता है. हालांकि, कई लोग इसे चालाकी भरा कदम मानते हैं.
एनबीसी न्यूज पर कानूनी विश्लेषक डैनी सेवलोस ने कहा, "नई मां होने से जूरी सदस्यों से सहानुभूति पाने में मदद मिल सकती है. अगर उन्हें दोषी ठहराया जाता है, तो भले ही सजा के तहत कैद का प्रावधान हो, लेकिन उनके वकील जज के सामने उनके मां बनने की बात को रखेंगे और रियायत बरतने की मांग करेंगे." (dw.com)
एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि आर्कटिक के गर्म होने की वजह से पोलर वोर्टेक्स घटनाएं बढ़ गई हैं. इसे फरवरी में अमेरिका में आई शीत लहर से जोड़ कर देखा जा रहा है, जिसके असर से 170 से भी ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी.
पोलर वोर्टेक्स के दौरान सुदूर उत्तर से आने वाली ठंडी हवाएं अमेरिका के केंद्रीय और पूर्वी इलाकों में बेहद ठंड पैदा कर देती हैं. इस नए अध्ययन में दावा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से आर्कटिक प्रांत में जो गर्मी बढ़ रही है, उसकी वजह से इस तरह की घटनाएं बढ़ रही हैं.
"साइंस" पत्रिका में छपे इस अध्ययन में पहली बार इसी साल फरवरी में अमेरिका के कई इलाकों में पड़ी भीषण ठंड को ध्रुवीय क्षेत्रों में हो रहे बदलावों से जोड़ा गया है. उस शीत लहर के दौरान टेक्सस में बड़े पैमाने पर बिजली भी चली गई थी, 170 से ज्यादा लोग मारे गए थे और कम से कम 20 अरब डॉलर की संपत्ति का नुकसान हुआ था.
कमजोर होते पोलर वोर्टेक्स
सामान्य रूप से पोलर वोर्टेक्स बर्फीली हवाओं को आर्कटिक में ही फंसाए रखता है, लेकिन थोड़ी गर्म हवाएं वोर्टेक्स को कमजोर कर देती हैं जिसकी वजह से बर्फीली हवाएं और फैल जाती हैं और दक्षिण की तरफ बह जाती हैं. इस अध्ययन के मुख्य लेखक जूडाह कोहेन का कहना है कि 1980 के दशक के बाद एक साल के अंदर पोलर वोर्टेक्स के कमजोर होने की घटनाएं दोगुना बढ़ी हैं.
कोहेन बोस्टन के करीब स्थित एटमोस्फियरिक एनवायरनमेंटल रिसर्च नाम की कंपनी में सर्दियों के तूफान के विशेषज्ञ हैं. कोहेन कहते हैं, "यह सोचने में थोड़ा उल्टा लगता है कि तेजी से गर्म हो रहे आर्कटिक की वजह से टेक्सस जितनी दूर किसी जगह पर भीषण ठंड बढ़ सकती है, लेकिन हमारे विश्लेषण से यही सबक मिला है कि जब जलवायु परिवर्तन की बात आती है तो आपको चौंकाने वाली घटनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए."
जलवायु वैज्ञानिकों के बीच अभी भी इस बात पर बहस चल रही है कि क्या सही में ग्लोबल वॉर्मिंग इस तरह की घटनाओं पर असर डाल रही है. उन्हें यह तो मालूम है कि ग्लोबल वार्मिंग से ठंडे दिनों की कुल संख्या तो कम हो रही है, लेकिन वो यह अभी भी समझने की कोशिश कर रहे हैं कि इससे और भीषण ठंड की घटनाएं हो रही हैं या नहीं.
आर्कटिक के गर्म होने का असर
कोहेन का अध्ययन पहला ऐसा अध्ययन है जिसमें वातावरण में हो रहे बदलाव का इस्तेमाल एक ऐसी घटना की वजह पता लगाने के लिए किया गया हो जिसे अभी तक समझा नहीं जा सका था. पेंसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी में जलवायु वैज्ञानिक माइकल मान कहते हैं कि कोहेन के अध्ययन से "जो हो रहा है उसकी एक संभावित रूप से ज्यादा सरल विवेचना" सामने आई है. मान इस अध्ययन का हिस्सा नहीं थे.
कोहेन यह दिखा पाए कि खुद आर्कटिक के अंदर तापमान के गर्म होने में नाटकीय अंतर हैं, जो यह निर्धारित करते हैं कि पोलर वोर्टेक्स कितना फैलेगा और कमजोर होगा. जब इंग्लैंड के उत्तर और स्कैंडिनेविया के इर्द गिर्द का इलाका साइबेरिया के इर्द गिर्द के इलाके से ज्यादा गर्म हो जाता है, तो इससे पोलर वोर्टेक्स पूर्व की तरफ फैलता है.
इसके साथ ही ठंडी हवा साइबेरिया के उत्तर से चल कर ध्रुवीय इलाके के ऊपर से होते हुए अमेरिका के केंद्रीय और पूर्वी हिस्सों में पहुंच जाती है. केप कॉड स्थित वुडवेल क्लाइमेट रिसर्च सेंटर में जलवायु वैज्ञानिक जेनिफर फ्रांसिस का कहना है, "फरवरी 2021 का टेक्सस कोल्ड ब्लास्ट" बदलते हुए आर्कटिक और कम ऊंचाई वाले स्थानों में आ रहे "कोल्ड ब्लास्ट" के बीच के संबंध का "एक पोस्टर चाइल्ड" है.
फ्रांसिस ने आर्कटिक से संबंध वाले सिद्धांत को सामने लाने में मदद की थी, लेकिन वो भी कोहेन के अध्ययन का हिस्सा नहीं थीं. उन्होंने कहा, "इस अध्ययन ने इस संबंध को विवादास्पद अवधारणा से अविवादित विज्ञान की तरफ मजबूती से ले जाने का काम किया है."
सीके/एए (एपी)
जर्मन संसदीय चुनावों से तीन हफ्ते पहले चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू-सीएसयू पार्टी के उम्मीदवार आर्मिन लाशेट ने अपना चुनाव टीम पेश किया है. उधर ताजा सर्वे में वित्त मंत्री शॉल्त्स की पार्टी एसपीडी आगे चल रही है.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट-
चांसलर अंगेला मैर्केल की सेंटर राइट पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक यूनियन (CDU) और सहोदर पार्टी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (CSU) ताजा सर्वे में जारी गिरावट के बीच अपनी चुनावी टीम की घोषणा की है. पार्टी अध्यक्ष और चुनावों में चांसलर पद के उम्मीदवार आर्मिन लासेट ने शुक्रवार को चार महिलाओं और चार पुरुषों वाली टीम को पेश किया. इसमें अध्यक्ष पद के चुनावों में उनके प्रतिद्वंद्वी रहे फ्रीडरिष मैर्त्स, आतंकवाद एक्सपर्ट पेटर नॉयमन, पार्टी उपाध्यक्ष सिल्विया ब्रेहर, प्रांतीय शिक्षा मंत्री कारीन प्रीन और बारबरा क्लेप्श, डिटीटल राज्य मंत्री डोरोथी बेयर और संसदीय उपनेता आंद्रेयास युंग के अलावा म्यूजिक मैनेजर जो चियालो शामिल हैं.
पिछले दिनों में पार्टी के समर्थन में अलग अलग चुनाव पूर्व सर्वे में भारी गिरावट देखी जा रही थी. इस गिरावट की जिम्मेदारी मुख्य रूप से आर्मिन लाशेट पर थोपी जा रही थी, जो पार्टी के अध्यक्ष हैं, लेकिन हाल के दिनों में अपने अस्पष्ट बयानों और अनिर्णय के लिए चर्चा में रहे हैं. उनका चुनाव अभियान उनकी गल्तियों के लिए भी चर्चा में रहा है. जर्मनी में आए अप्रत्याशित बाढ़ के बाद एक सभा में वे राष्ट्रपति के भाषण के दौरान हंसते दिखे.
सीडीयू-सीएसयू के संसदीय दल के नेता रहे फ्रीडरिष मैर्त्स इस टीम के सबसे जाने माने चेहरे हैं और अंगेला मैर्केल के पार्टी अध्यक्ष चुने जाने के बाद से वे उनके विरोधी रहे हैं. 1970 में बॉन में जन्मे जो चियालो तंजानिया के राजनयिक के बेटे हैं और 1990 के दशक में ग्रीन पार्टी के सदस्य रहे हैं. ड्रेसडेन की बारबरा क्लेप्श पूर्वी राज्यों के विकास के मुद्दों के लिए जिम्मेदार होंगी. आर्मिन लाशेट ने इस पर जोर दिया है कि उनकी टीम शैडो कैबिनेट नहीं है.
चांसलर की पार्टी की चिंता
उधर इस हफ्ते जारी हुए नए चुनाव सर्वे के अनुसार पिछले चार सालों में पहली बार जर्मनी की सेंटर-लेफ्ट पार्टी सोशल डेमोक्रेट्स (SPD) सीडीयू और सीएसयू पर बढ़त बना ली है. सीडीयू-सीएसयू पिछले आठ सालों से एसपीडी के साथ गठबंधन में सरकार चला रही है.
इंफ्राटेस्ट डिमैप के गुरुवार को कराए गए नवीनतम मासिक सर्वे के नतीजों में सोशल डेमोक्रेट्स को 25 फीसदी मत मिले हैं, जबकि सीडीयू-सीएसयू को 20 फीसदी मत ही मिल सके हैं. इस हफ्ते कराए गए ओपिनियन पोल में 1337 योग्य मतदाताओं ने हिस्सा लिया था. साल 2017 में हुए पिछले आम चुनावों में एसपीडी को 20.5 फीसदी मत मिले थे. जबकि सीडीयू-सीएसयू ने 32.9 फीसदी वोट पाए थे.
ग्रीन पार्टी जिसने इस साल अप्रैल में ऊंची उड़ान भरी थी, उसके भी जनाधार में कमी आई है और उसे 16 फीसदी मत ही मिले हैं. यह सितंबर, 2018 के बाद से इसका सबसे कमजोर प्रदर्शन है. वहीं फ्री मार्केट समर्थक फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी (FDP) को 13 फीसदी मत मिले हैं. जिसके बाद फार-राइट एएफडी का नंबर रहा. 6 फीसदी मतों के साथ लेफ्ट पार्टी का जनाधार पहले जितना ही रहा. पिछले हफ्ते बिल्ड अम सोनटाग नाम के एक अखबार की ओर से कराए गए एक अलग पोल में भी एसपीडी 24 फीसदी मतों के साथ सबसे आगे रही थी, जबकि सीडीयू-सीएसयू गठबंधन को इसमें 21 फीसदी मत ही मिले थे. नए नतीजों ने 26 सितंबर के चुनावों के बाद सरकार बनाने के लिए गठबंधन की कई संभावनाओं का रास्ता खोल दिया है.
ओलाफ शॉल्त्स सबसे आगे
जर्मन मतदाता सीधे सरकार के प्रमुख यानी चांसलर को चुनने के लिए वोट नहीं डालते. 16 साल सत्ता में रहने के बाद चांसलर अंगेला मैर्केल पद छोड़ रही हैं, हालांकि हालिया सर्वे में अप्रूवल रेटिंग के मामले में वे अब भी सभी नेताओं में सबसे आगे हैं. लेकिन डॉयचलैंडट्रेंड पॉपुलैरिटी रेटिंग्स के मुताबिक वाइस चांसलर और वित्त मंत्री ओलाफ शॉल्त्स, जो एसपीडी के प्रमुख उम्मीदवार हैं, उनसे ज्यादा पीछे नहीं हैं. अब तक शॉल्त्स तीनों चांसलर उम्मीदवारों में सबसे लोकप्रिय रहे हैं.
उनके प्रतिद्वंदियों सीडीयू-सीएसयू के आर्मिन लाशेट और ग्रीन पार्टी की अनालेना बेयरबॉक से तुलना की जाए तो शॉल्त्स सबसे ज्यादा पसंदीदा और विश्वसनीय माने जाते हैं. उन्हें नेतृत्व क्षमता के मामले में भी सबसे अच्छा माना जाता है. एसपीडी उम्मीदवार की लोकप्रियता ने पार्टी को सीधा फायदा पहुंचाया है. एसपीडी को वोट देने का दावा करने वाले एक चौथाई लोगों ने कहा है कि वे मुख्यत: इसलिए एसपीडी को वोट देंगे क्योंकि शॉल्त्स और उनकी नेतृत्व क्षमता पर उन्हें विश्वास है.
मुद्दों में जलवायु परिवर्तन सबसे ऊपर
पर्याप्त वेतन, बुजुर्गों की पेंशन की सुरक्षा, पारिवारिक नीति और बच्चों की सुरक्षा के मामले में मतदाता एसपीडी पर विश्वास करते हैं. सीडीयू-सीएसयू अब भी इकॉनमिक पॉलिसी और कोविड त्रासदी से निपटने के मामले में ज्यादातर मतदाताओं का समर्थन पा रही है. जबकि पहले की तरह ही ग्रीन को पर्यावरण और जलवायु नीतियों में सबसे योग्य माना जाता है. और एफडीपी की सबसे बड़ी खासियत डिजिटाइजेशन है. लेकिन इस मामले में बड़ा अंतर यह आ गया है कि जर्मन वोटर किस विषय को अगली सरकार के लिए सबसे जरूरी विषय मानते हैं. एक-तिहाई कहते हैं कि पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन सबसे जरूरी मुद्दे हैं. साल 2017 के पिछले आम चुनावों से पहले सिर्फ 10 फीसदी मतदाता इन मुद्दों को अपनी लिस्ट में सबसे ऊपर रखते थे.
वहीं इस पोल में शामिल हुए 20 फीसदी ने कहा कि पलायन सबसे जरूरी मुद्दा है. जबकि चार साल पहले 47 फीसदी ऐसा मानते थे. इस साल अन्य बड़े मुद्दों में कोविड महामारी रही, जिसे वोट देने वालों में से 20 फीसदी ने अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा. छह में से एक व्यक्ति ने सामाजिक अन्याय और सात में से एक ने बुजुर्गों की पेंशन के मुद्दों को प्राथमिकताओं में रखा.
गठबंधन के विकल्प
आमतौर पर सबसे मजबूत पार्टी, चांसलर और संभावित गठबंधन सरकार के प्रमुख का चयन करती है. ऐसे में संभावित चुनावी नतीजों के साथ तीन पार्टियों का गठबंधन हो सकता है. ऐसे में एसपीडी, ग्रीन और एफपीडी या सीडीयू-सीएसयू और एफडीपी के साथ गठबंधन कर सकती है. एक तीसरा विकल्प सीडीयू-सीएसयू और ग्रीन्स के साथ गठबंधन का भी हो सकता है. हालांकि इसके अलावा एसपीडी, ग्रीन्स और लेफ्ट पार्टी के साथ एक वामपंथी गठबंधन भी बना सकती है. यह एक ऐसा विकल्प है, जिसके बारे में कंजरवेटिव्स लंबे समय से चेतावनी दे रहे हैं.
लेकिन इनके अलावा भी गठबंधन के कई विकल्प संभव हैं. अगर एसपीडी, बुंडेसटाग की सबसे मजबूत पार्टी बन भी जाती है, तो भी एफडीपी और ग्रीन्स मिलकर सीडीयू-सीएसयू के साथ गठबंधन बना सकते हैं, जिससे एसपीडी अकेली छूट जाएगी. हालांकि इन सबसे अलग जो एक बात फिलहाल असंभव लग रही है, वह है दो पार्टियों का गठबंधन क्योंकि किसी भी पार्टी को मजबूत बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है. जिन लोगों ने पोल में हिस्सा लिया, उनमें से एक-तिहाई से ज्यादा चाहते हैं कि एसपीडी के नेतृत्व में गठबंधन बने. जबकि केवल एक-चौथाई ही नए गठबंधन में कंटरवेटिव्स के नेतृत्व वाली सरकार का समर्थन करते हैं. यह सेंटर-राइट सीडीयू-सीएसयू के लिए एक बड़ा नुकसान है, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही ज्यादातर समय सरकार में शामिल रही है. (dw.com)
पाकिस्तान के दौरे पर गए ब्रिटेन के विदेश मंत्री डॉमिनिक राब ने कहा है कि ब्रिटेन ये सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा कि अफ़ग़ानिस्तान भविष्य में आतंकवादियों का ठिकाना न बने.
उन्होंने कहा, “ब्रिटेन ने अफ़ग़ानिस्तान में मदद की राशि इस साल बढ़ाकर 28.6 करोड़ पाउंड कर दी थी. स्थिर और शांतिपूर्ण अफ़ग़ानिस्तान ब्रिटेन और पाकिस्तान दोनों के हित में हैं.''
डॉमिनिक राब ने ये बातें इस्लामाबाद में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी के साथ संयुक्त प्रेस वार्ता में कहीं.
पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने भी इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा कि पाकिस्तान तालिबान के साथ सहअस्तित्व और यथार्थवादी नीति पर आगे बढ़ेगा.
क़ुरैशी ने कहा, ''हम पड़ोसी हैं. हमें सहअस्तित्व के साथ रहना है. भौगोलिक स्थिति हमें जोड़ती है. पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से रोज़ाना 20 से 25 हज़ार लोग आते जाते हैं. क्या हमें इन्हें रोक देंगे?''
क़ुरैशी ने कहा, ''क्या हम इन्हें रोक सकते हैं, नहीं हम नहीं रोक सकते? क्या हम इनके लिए नियम तय कर सकते हैं, हाँ, ये संभव है. क्या इसमें जोख़िम हैं? हाँ, कई ऐसे संगठन हैं जो आपके, हमारे और किसी के प्रति दोस्ताना रवैया नहीं रखते हैं, ऐसे में हमें अपने आपकी उनसे रक्षा करनी है.''
''अफ़ग़ानिस्तान का अधिकांश व्यापार पाकिस्तान से होकर गुज़रता है तो क्या पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान के लिए अपनी सीमा बंद कर सकता है? क्या पाकिस्तान इसके परिणाम स्वरूप किसी मानवीय त्रासदी में अपना योगदान देगा?"
इसके बाद क़ुरैशी ने पाकिस्तान की स्थिति को बयां करते हुए कहा, "अगर हमें उनके साथ व्यापार करना है तो हम किसके साथ बात करें? ये हमारी मजबूरी है कि हमे उससे बात करनी होगी, जिसके भी हाथ में सत्ता की चाबी होगी.''
''इन चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, पाकिस्तान ने कहा है कि अफ़ग़ान लोगों को अपने भविष्य के बारे में फैसला करना है. हम एक ऐसी सरकार के साथ जुड़ेंगे जिसे अफ़ग़ानिस्तान के लोगों का समर्थन प्राप्त होगा.''
हम अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की मदद करना चाहते हैं और हमारा ध्यान इसी पर है क्योंकि हमें लगता है कि वे दशकों से पीड़ित हैं और 40 साल बाद शांति के लिए एक असल मौक़ा आया है.”
शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा कि तालिबान नेताओं में "शांति और स्थिरता" की वकालत करने वाला कोई भी व्यक्ति एक "मित्र" था और "हम इसी वास्तविकता के साथ आगे बढ़ेंगे".
क़ुरैशी ने कहा कि पाकिस्तान अगले कुछ दिनों में "आंख और कान खुले रखकर" घटनाओं पर नज़र रख रहा था.
इसके बाद पाक विदेश मंत्री ने पाकिस्तान के रुख़ को दोहराया कि अफ़ग़ानिस्तान में उसका "कोई पसंदीदा नहीं था".
उन्होंने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न जातीय समूह शामिल हैं. (bbc.com)
-सुशीला सिंह
अमेरिका के टेक्सस राज्य में नए क़ानून के अनुसार गर्भवती महिलाओं को पहले छह हफ़्तों के भीतर गर्भपात कराने का अधिकार दिया गया है.
ये क़ानून एक सितंबर से लागू हुआ है और इस नए क़ानून के अनुसार अगर कोई डॉक्टर इस समय सीमा से बाहर गर्भपात करता है, तो उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई का भी प्रावधान किया गया है.
अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में इस क़ानून पर रोक लगाने की अपील की गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से फ़ैसला करते हुए नए क़ानून पर रोक लगाने से मना कर दिया.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को महिलाओं के अधिकारों पर 'अभूतपूर्व हमला' बताया है.
दुनिया के शक्तिशाली देशों में से एक अमेरिका की बात की जाए, तो यहाँ की सुप्रीम कोर्ट ने साल 1973 में एक मामले की सुनवाई करते हुए देशभर में गर्भपात को वैध करार दिया था लेकिन गर्भपात का मामला हमेशा से यहाँ कंज़र्वेटिव पार्टी के समर्थनकों के निशाने पर रहा है.
अमेरिका में काम करने वाली एक शोध संस्था गुटमाकर इंस्टिट्यूट के मुताबिक़ देश के अलग-अलग राज्यों में गर्भपात को लेकर अपने क़ानून हैं. पिउ रिसर्च सेंटर के अनुसार अमेरिका में गर्भपात एक ऐसा मुद्दा है, जहाँ कांग्रेस सदस्यों में विभाजन साफ़ दिखाई देता है.
लगभग सभी डेमोक्रेट गर्भपात के अधिकारों का समर्थन करते नज़र आते हैं, वहीं लगभग सभी रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य गर्भपात के विरोध में खड़े दिखते हैं. सेंटर के मुताबिक़ अमेरिका की जनता में इतना बड़ा विभाजन नहीं दिखाई देता.
इतना ही नहीं हाल में हुए राष्ट्रपति चुनाव में ये एक बड़ा मुद्दा उभर कर सामने आया था. साल 2020 के जनवरी महीने में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप गर्भपात के विरोध में एक बड़ी रैली में शामिल हुए थे और वो ऐसा करने वाले पहले राष्ट्रपति बताए जाते हैं.
क़ानून के पक्षधर
इस क़ानून को 'हार्टबीट एक्ट' कहा जा रहा है और इसे प्रो-लाइफ़ समूह का समर्थन हासिल है. उनका मानना है कि इस क़ानून से कई बच्चे दुनिया में आ सकेंगे. इस क़ानून को हार्टबीट एक्ट इसलिए भी बताया जा रहा है, क्योंकि छह हफ़्ते में गर्भ में पल रहे भ्रूण में धड़कन आ जाती है.
लेकिन अमेरिकन कॉलेज ऑफ़ ऑब्स्टट्रिशन एंड गाइनोक्लोजिस्ट का कहना है कि ये नाम भ्रमित करने वाला है.
गर्भपात को लेकर अलग-अलग राय सामने आती रही हैं. एक पक्ष के अनुसार गर्भपात कराना एक महिला की अपनी इच्छा और उसके प्रजनन के अधिकार का मामला है, वहीं दूसरी राय ये हैं कि राज्य जीवन के सरंक्षण के लिए बाध्य है और इसलिए भ्रूण को सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए.
मैक्स अस्पताल में प्रिंसिपल कंसल्टेंट और स्त्री रोग विशेषज्ञ, डॉ. भावना चौधरी का कहती हैं, ''अल्ट्रासाउंड करने वाली उच्च तकनीक की मशीनें छह हफ़्ते के भ्रूण में हार्टबीट का पता लगा लेती हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि एक महिला को गर्भपात कराने का अधिकार नहीं होना चाहिए.''
एशिया सेफ़ अबॉर्शन पार्टनरशिप नाम से काम कर रहे नेटवर्क की संयोजक डॉ सुचित्रा दलवी इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि डेमोक्रेट हमेशा प्रो-चॉयस (चयन) रहे हैं और रिपब्लकिन ख़ुद को प्रो-लाइफ(ज़िंदगी) कहते हैं लेकिन हमारे हिसाब से वो प्रो लाइफ़ नहीं हैं क्योंकि उनके लिए औरत की ज़िंदगी के कोई मायने ही नहीं है बल्कि वे भ्रूण की ज़िंदगी की बात करते हैं.
वे कहती हैं, ''औरत या लड़की जो गर्भवती हुई है उसकी ज़िंदगी की ज़्यादा क़ीमत है ना कि वो बच्चा, जो नौ महीने गर्भ में रहेगा और आगे जाकर जन्म लेगा.''
वे कहती हैं, "ये जो 'हार्टबीट बैंड' है, ये महिलाओं के अधिकारों के लिए कतई नहीं है. उसके पीछे उनकी जो मानसिकता या दर्शन है वो ये है कि अगर महिला गर्भवती हो जाती है तो उसके शरीर, ज़िंदगी और चयन पर उसका अधिकार नहीं होता जो एक महिला के अधिकारों के बिल्कुल ख़िलाफ़ है. दरअसल ये महिला विरोधी है. सरकार की ज़िम्मेदारी है कि उसके हर नागरिक को उसका मौलिक अधिकार मिले."
सुरक्षित गर्भपात के मुद्दे पर पिछले 25 सालों से कई संस्थाओं के साथ काम कर रहीं डॉ सुचित्रा दलवी का कहना, ''हमें अमेरिका की राजनीति को समझना होगा. वहाँ धार्मिक समूह हमेशा से रहे हैं और वहाँ रूढ़िवादी मानसिकता रही है लेकिन नागरिक और धर्म ये दो अलग चीज़े हैं और उनको नियम क़ायदों को अलग रखना चाहिए. नागरिक होने के नाते हमारे अधिकार स्वतंत्र होते हैं कि हम किस धर्म का पालन करना चाहते हैं.''
प्रेंगनेंसी रोकने के चार नए तरीके
वे बताती हैं, ''भ्रूण को अधिकार किसने दिया. जब तक वो जन्म लेकर इंसान नहीं बनता है उसके मानवाधिकार तक नहीं हैं. जिसके शरीर में वो पल रहा है उसके शरीर को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और अगर वो गर्भ महिला को अपने शरीर में नहीं चाहिए तो किसी और को क्या अधिकार है कि वो ये बताए कि तुम ऐसा करो?''
भारत में क्या है क़ानून?
डॉ सुचित्रा दलवी मानती हैं कि भारत में गर्भपात का क़ानून दुनियाभर के क़ानूनों से कई मामलों में बहुत बेहतर है.
भारत की बात की जाए, तो मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी (संशोधित) बिल 2020 को दोनों सदनों की मंज़ूरी मिल गई है.
भारत के स्वास्थ्य और कल्याण मंत्रालय के अनुसार इस बिल को राज्यसभा में 16 मार्च 2021 को पास किया गया है
इस बिल के मुताबिक़ गर्भपात की अवधि 20 हफ़्ते से बढ़ाकर 24 हफ़्ते की गई है.
इसमें कहा गया है कि ये समय सीमा विशेष तरह की महिलाओं के लिए बढ़ाई गई है, जिन्हें एमटीपी नियमों में संशोधन के ज़रिए परिभाषित किया जाएगा और इनमें दुष्कर्म पीड़ित, सगे-संबंधियों के साथ यौन संपर्क की पीड़ित और अन्य असुरक्षित महिलाएँ (विकलांग महिलाएँ, नाबालिग) भी शामिल होंगी.
इससे पहले भारत में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेन्सी एक्ट , 1971 था, जिसमें संशोधन किए गए हैं.
इस एक्ट में ये प्रावधान था कि अगर किसी महिला का 12 हफ़्ते का गर्भ है, तो वो एक डॉक्टर की सलाह पर गर्भपात करवा सकती है. वहीं 12-20 हफ़्ते में दो डॉक्टरों की सलाह अनिवार्य थी और 20-24 हफ़्ते में गर्भपात की महिला को अनुमति नहीं थी.
लेकिन इस संशोधित बिल में 12 और 12-20 हफ़्ते में एक डॉक्टर की सलाह लेना ज़रूरी बताया गया है.
इसके अलावा अगर भ्रूण 20-24 हफ़्ते का है, तो इसमें कुछ श्रेणी की महिलाओं को दो डॉक्टरों की सलाह लेनी होगी और अगर भ्रूण 24 हफ़्ते से ज़्यादा समय का है, तो मेडिकल सलाह के बाद ही इजाज़त दी जाएगी.
मैक्स अस्पताल में प्रिंसिपल कंसल्टेंट और स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ भावना चौधरी मानती हैं कि भारत का गर्भपात पर संशोधित क़ानून बहुत विचार-विमर्श के बाद आया है और कई बार बलात्कार पीड़ित लड़कियों, नाबालिग या मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़कियों को अपनी प्रेग्नेंसी के बारे में पता ही नहीं चल पाता था और जब तक पता चलता था तो बहुत देरी हो जाती थी.
वे कहती हैं, ''जब औरतों के गर्भपात की अनुमति अपने देश में नहीं मिलती, तो वो विकल्प के तौर पर दूसरे राज्यों या देशों का रुख़ करती हैं, लेकिन ऐसे में वहीं औरतें बाहर जाकर गर्भपात करवा सकती हैं, जिनके पास उतना ख़र्च करने के लिए पैसे हैं.''
नेशनल सेंटर फ़ॉर बायोटेक्नोलॉजी इनफार्मेशन (एनसीबीआई) में छपी जानकारी से पता चलता है कि आयरलैंड से महिलाएँ गर्भपात कराने के लिए ब्रिटेन जाया करती थी. एनसीबीआई, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ की एक शाखा है.
डॉ दलवी आशंका ज़ाहिर करते हुए कहती हैं कि अब टेक्सस में भी ऐसा हो सकता है, लेकिन उन लड़कियों का सोचिए जिनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि बाहर जाकर गर्भपात करवाएँ या अगर कोई लड़की परिवार के सदस्य द्वारा ही बलात्कार का शिकार होती है और गर्भ धारण कर लेती है, तो वो क्या करेगी?
वे कहती हैं, "हमारे क्षेत्र में पड़ने वाले देशों की बात करें, उदाहरण के तौर पर नेपाल को लें, तो वहाँ अगर कोई महिला तीन महीने की गर्भवती है तो उसे गर्भपात के लिए कोई कारण भी नहीं बताना पड़ता, ऐसे में वहाँ के क़ानून को प्रगतिशील कहा जा सकता है. वहीं वियतनाम, थाइलैंड में भी बेहतर क़ानून हैं. अगर इससे बाहर निकले तो फ्रांस और यूके में अच्छे क़ानून हैं. लेकिन जर्मनी और पोलैंड जैसे रूढ़िवादी देशों में गर्भपात को लेकर भारत से ख़राब स्थिति है." (bbc.com)
जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा सत्तारूढ़ पार्टी के नेतृत्व के चुनावों में हिस्सा नहीं लेंगे, जिसका मतलब है वो प्रधानमंत्री पद छोड़ देंगे. सरकार के कोविड प्रबंधन को लेकर सुगा की लोकप्रियता गिरने के संकेत मिले हैं.
सुगा ने पिछले साल सितंबर में ही प्रधानमंत्री पद संभाला था, जब पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने स्वास्थ्य संबंधी कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफा दे दिया था. सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) के अधिकारियों ने बताया कि सुगा पार्टी अध्यक्ष का अपना कार्यकाल पूरा करेंगे, जिसका मतलब है कि वो पार्टी के आंतरिक चुनावों के होने तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे.
पार्टी के चुनाव 29 सितंबर को होने हैं. देश में आम चुनाव भी इसी साल होने हैं और ऐसे में देश में कोविड-19 महामारी के भारी प्रकोप के बीच सुगा की समर्थन रेटिंग 30 प्रतिशत से नीचे गिर गई हैं. सुगा के पार्टी चुनाव ना लड़ने की खबर बाहर आने के बाद जापान में निक्की सूचकांक में दो प्रतिशत की उछाल आई.
चौंकाने वाला फैसला
जापान की संसद के निचले सदन में एलडीपी को बहुमत प्राप्त है. इस वजह से पार्टी के चुनावों में जो भी जीतेगा उसका प्रधानमंत्री बनना तय है. सरकार 17 अक्टूबर को आम चुनाव आयोजित कराने के बारे में विचार कर रही है. सुगा के फैसले पर एलडीपी के महासचिव तोशिहीरो निकाई ने कहा, "सच बताऊं तो मैं आश्चर्यचकित हूं." निकाई ने पहले ही पार्टी चुनावों में सुगा को समर्थन देने की घोषणा कर दी थी.
उन्होंने बताया कि सुगा अपने मंत्रिमंडल और पार्टी के अधिकारियों में भी फेरबदल करने की योजना बना रहे थे, लेकिन वो योजनाएं अब तो बेकार हैं. पूर्व में विदेश मंत्री रह चुके फुमिओ किशिदा पार्टी के नेता के पद के चुनाव में खड़े होने वाले हैं. दो सितंबर को किशिदा ने सुगा के महामारी प्रबंधन की आलोचना की और कहा कि अब महामारी के असर का मुकाबला करने के लिए एक स्टिमुलस पैकेज की जरूरत है.
सोफिया विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर कोइची नकानो का कहना है, "इस समय तो किशिदा ही सबसे आगे चल रहे हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उनकी जीत सुनिश्चित हो चुकी है. नकानो ने बताया कि अगर लोकप्रिय प्रशासनिक सुधार मंत्री तारो कोनो को उनके गुट के नेता वित्त मंत्री तारो आसो का समर्थन मिल जाए तो वो भी पार्टी चुनाव में खड़े हो सकते हैं.
कई उम्मीदवार हैं
उन्होंने यह भी बताया कि पूर्व रक्षा मंत्री शिगेरु इशीबा भी खड़े हो सकते हैं लेकिन वो प्रतिकूल परिस्थिति में हैं. इस साल पार्टी चुनाव पिछले साल के मुकाबले अलग तरीके से होंगे. इस साल पार्टी के सांसदों के साथ साथ जमीनी कार्यकर्ता भी मतदान करेंगे, जिसकी वजह से कौन जीतेगा यह कहना मुश्किल हो गया है. संभव है कि कम अनुभवी सांसद अपनी सीटें गंवाने के डर से अपने बड़ों के आदेशों को ना मानें.
सुगा के फैसले को लेकर यूबीएस सुमि ट्रस्ट वेल्थ मैनेजमेंट के जापान में मुख्य अर्थशास्त्री डाइजु आओकी ने कहा, "यह आश्चर्यचकित कर देने वाला था, लेकिन इससे अनिश्चितता के मुकाबले ज्यादा निश्चितता और आगे की तरफ देखने की संभावनाएं मिलीं, क्योंकि बाजार को किशिदा की नीतियों के बारे में खबर हो गई थी."
पहले सुगा की छवि सुधार लाने वाले और अधिकारियों से लोहा लेने वाले एक व्यावहारिक राजनेता की थी, जिसकी वजह से प्रधानमंत्री पद ग्रहण करते समय उनकी लोकप्रियता 74 प्रतिशत थी. शुरू में मोबाइल फोन दरें घटाना और फर्टिलिटी उपचार के लिए बीमा देना जैसे लोकवादी कदमों की काफी प्रशंसा की गई.
लेकिन फिर एक सलाहकार समिति से सरकार की आलोचना करने वाले स्कॉलरों को हटाने और बुजुर्गों के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था के खर्चे की नीति पर गठबंधन में एक छोटे घटक दल के साथ समझौता करने के बाद उनकी आलोचना हुई. तरिक यात्रा के "गो टू" कार्यक्रम को रोकने में हुई देरी का काफी नुकसान हुआ.
विशेषज्ञों का कहना है कि संभव है कि इस देर की वजह से देश में कोरोना वायरस इतना फैला. इसके अलावा आम लोग महामारी से निपटने के लिए बार बार लगाए गए आपातकाल से परेशान हो गए, क्योंकि उनसे व्यापार को नुकसान हुआ.
सीके/एए (रॉयटर्स/एपी)
इंग्लैंड में बाल यौन शोषण की पड़ताल में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है. कई धार्मिक नेताओं ने बाल यौन शोषण को अंजाम दिया. इन लोगों ने अपनी ताकत का इस्तेमाल कर मामले को दबा दिया. कई बार घटना की रिपोर्ट तक नहीं होने दी गई.
इंग्लैंड और वेल्स में बाल यौन शोषण की स्वतंत्र जांच के तहत 38 ऐसे संगठन की जांच की गई जिन पर बाल संरक्षण का जिम्मा था, इसमें ईसाई धार्मिक समूह जहोवा, बैपटिस्ट, मेथोडिस्ट, इस्लाम, यहूदी, हिंदू और सिख धर्म से संबंधित संगठन शामिल हैं.
जांच को संकलित करने के लिए, जांचकर्ताओं ने विभिन्न धर्मों के लिए काम करने वाले संगठनों के पीड़ितों से सबूत इकट्ठा करने के लिए दो सप्ताह की सुनवाई भी की. स्वतंत्र जांच ने इस साल की शुरुआत में दो सप्ताह की जन सुनवाई की थी.
पीड़ितों में दस प्रतिशत इन धार्मिक संगठनों के कर्मचारी थे. ऐसी गतिविधियों का ग्यारह प्रतिशत संगठनों के कार्यालयों में किया गया.
चौंकाने वाली रिपोर्ट
जांच में 2015 से 2020 तक धार्मिक संगठनों में हुई ऐसी गतिविधियों और गतिविधियों की विस्तार से जांच की गई. इस शोषण प्रक्रिया में शामिल लोग या तो धार्मिक संगठनों के कर्मचारी थे या उनसे जुड़े लोग.
जांचकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि धार्मिक संगठनों से जुड़े व्यक्तियों की शोषणकारी गतिविधियां निश्चित रूप से शक्ति का स्पष्ट दुरुपयोग थीं. ऐसे लोगों को धार्मिक नेताओं का संरक्षण और कुछ समर्थन भी प्राप्त था.
रिपोर्ट में बाल यौन शोषण को "बेहद दुखद और चौंकाने वाला" बताया गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इंग्लैंड और वेल्स के क्षेत्रों को इस तरह के जघन्य कृत्यों के लिए चुना गया था और धर्म के नाम पर और इसकी आड़ में अंजाम दिया गया था.
रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे कई संगठनों के नियमों में बाल यौन शोषण के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का कोई संदर्भ भी नहीं है.
धर्म मानने वाले नहीं मानेंगे
रिपोर्ट में जांचकर्ताओं ने कहा कि रिपोर्ट के दुर्भाग्यपूर्ण नतीजों में वर्णित धर्मों को मानने वाले इस पर भरोसा नहीं करेंगे और सामग्री की सत्यता को स्वीकार करने के लिए गैर जरूरी बहाने बनाएंगे.
रिपोर्ट के मुताबिक कुरान पढ़ा रहे एक शिक्षक ने नौ साल या उससे कम उम्र के चार बच्चों का मस्जिद के अंदर यौन शोषण किया था. इस क्रूर शिक्षक को साल 2017 में सजा सुनाई गई थी.
जांचकर्ताओं को एक और ऐसी घटना की सूचना मिली थी, जिसके मुताबिक एक लड़के को ईसाई संगठन के कार्यालय धार्मिक गुरु ने यौन शोषण किया था. संगठन युनाइटेड रिफॉर्मेड चर्च से संबंधित था. उसी संगठन के कुछ अन्य कार्यालयों में, उसी धार्मिक गुरु ने सात से दस वर्ष की आयु के बच्चों का यौन शोषण किया. इस धार्मिक गुरु को साल 2017 में सजा हुई.
यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब ऐंग्लिकन और कैथोलिक चर्च द्वारा बाल यौन शोषण की जांच पर जनता का आक्रोश और गुस्सा कम नहीं हुआ है. बाल यौन शोषण पर एक नई अंतिम रिपोर्ट अगले साल संसद में पेश की जाएगी, जिसमें अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की जाएगी.
एए/सीके (एपी)