संपादकीय
मद्रास हाईकोर्ट के 237 वकीलों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को चिट्ठी लिखकर इस बात का विरोध किया है कि मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को मेघालय हाई कोर्ट भेजा जा रहा है। वकीलों ने लिखा है कि 75 जजों वाली मद्रास हाई कोर्ट में हर साल 35 हजार मामले आते हैं, और ऐसे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को दो जजों वाली मेघालय हाई कोर्ट में भेजा जा रहा है जहां साल में मुकदमों की संख्या 70-75 ही रहती है। वकीलों ने 12 पेज लम्बे विरोध पत्र में लिखा है कि मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव बनर्जी भ्रष्टाचार को जरा भी बर्दाश्त नहीं करते थे, और ना ही अक्षमता को, और उनके इस मिजाज को सराहा जाता था। ऐसे ईमानदार चीफ जस्टिस को इस तरह देश के एक सबसे बड़े हाई कोर्ट से, देश के सबसे छोटे हाई कोर्ट में भेजना कई तरह के सवाल खड़े करता है। वकीलों ने लिखा है कि न्यायिक प्रशासन के लिए ट्रांसफर जरूरी होते हैं, लेकिन ऐसा अटपटा ट्रांसफर क्यों किया जा रहा है, इस बारे में वकीलों और आम जनता को पता रहना चाहिए। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने अभी 2 बरस पहले मद्रास हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस विजया के तहिलरामानी का ट्रांसफर मेघालय हाई कोर्ट कर दिया था। जस्टिस विजया ने इसे मंजूर नहीं किया, आपत्ति की, लेकिन कॉलेजियम ने उसे नहीं सुना, इस पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।
भारत की अदालतों के बारे में यह कहा जाता है कि वह कई तरह के दबावों के बीच काम करती हैं। खासकर केंद्र सरकार की एक भूमिका सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में किसी को जज बनाने में या उसके प्रमोशन में रहती है, और ऐसा कहा जाता है कि सरकार अपने मर्जी के लोगों को जज बनवा लेती है, और नापसंद लोगों का जज बनना रोक भी देती है। सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम, जजों की नियुक्ति का एक किस्म से एकाधिकार रखता है, लेकिन उसकी आखिरी मंजूरी तो केंद्र सरकार से होती है। इसलिए यह बात बार-बार होती है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की भेजी गई लिस्ट को केंद्र सरकार क्या करती है। ऐसी हालत में अगर किसी हाई कोर्ट जज का या मुख्य न्यायाधीश का इस केस में से अटपटा तबादला होता है, तो मद्रास हाई कोर्ट के वकीलों की यह बात ठीक लगती है कि यह एक ईमानदार और निडर जज को सजा देने जैसा कदम है।
यह बात भी बड़ी हैरानी खड़ी करती है कि इसी हाईकोर्ट से 2 साल में दो-दो चीफ जस्टिस मेघालय हाई कोर्ट भेजे गए जो कि जाहिर तौर पर प्रशासनिक नियमों की आड़ में दी गई एक सजा है। जब सैकड़ों वकील किसी मुख्य न्यायाधीश को ईमानदार और हिम्मती बताते हुए तबादले का विरोध कर रहे हैं, तो उस जज में कोई तो बात तो होगी ही। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट किसी रहस्य की तरह कैसे तबादला कर सकता है, जो कि जाहिर तौर पर सजा दिख रहा है? यह सिलसिला खत्म होना चाहिए और इस सिलसिले में किसी तरह की पारदर्शिता आनी चाहिए। हमारे पास ऐसे संदेह का कोई तुरंत समाधान नहीं है क्योंकि न्याय व्यवस्था में तबादले किस तरह किए जा सकते हैं इसे दुनिया की दूसरी अदालतों को जानने-समझने वाले लोग बेहतर तरीके से सुझा सकते हैं। लेकिन यह बात तो तय है कि ऐसा रहस्यमय सिलसिला लोकतंत्र में अच्छा नहीं लग रहा है, इसका कोई बेहतर तरीका ईजाद किया जाना चाहिए। यह भी भला कोई बात है कि देश के एक सबसे बड़े हाई कोर्ट से उठाकर किसी को देश के सबसे छोटे एक हाईकोर्ट में भेज दिया जाए, और खासकर तब जबकि बड़े हाईकोर्ट का मुखिया रहते हुए उसके खिलाफ किसी तरह की कोई शिकायत ना आई हो, कोई आरोप ना लगे हो। हो सकता है कि न्याय व्यवस्था के भीतर ऐसे आरोप भी लगे हों जो कि जनता की नजर में न आए हैं, लेकिन ऐसा तबादला लोगों के मन में सरकारी दखल या किसी और तरह के दबाव का शक खड़ा करता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
तमिलनाडु के न्यायिक दायरे में यह जानकारी आम है कि वहां की अदालतों के ईमानदारी और सही तरीके से काम करने के लिए चीफ जस्टिस बनर्जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कई किस्म की जांच शुरू करवाई थी। अभी माना जा रहा है कि ऐसे अचानक तबादले का, भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू करवाई गई जांच से भी लेना-देना हो सकता है। तमिलनाडु से आया हुआ समाचार बतलाता है कि यह बात इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है कि जो जज ईमानदार और कडक़ होते हैं, और जो सरकार के खिलाफ बिना डरे फैसले देते हैं, उन्हें कम महत्वपूर्ण जगहों पर भेज दिया जाता है। ऐसे तबादलों को सजा के बतौर तबादला कहा जाता है। ऐसी तमाम बातों को गिनाते हुए मद्रास हाई कोर्ट के वकीलों ने देश के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है कि यह बहुत ही दुर्भाग्यजनक बात है कि किसी ईमानदार जज का इस तरह सजा दिए सरीखे तबादला किया जा रहा है।
और सरकार की ही बात नहीं है, न्यायपालिका कई किस्म के और आरोपों को भी झेलती है। देश के एक भूतपूर्व कानून मंत्री शांति भूषण और उनके वकील बेटे प्रशांत भूषण ने एक वक्त सुप्रीम कोर्ट के बहुत से जजों के भ्रष्ट होने का आरोप लगाया था, और उस मामले की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसे रोक कर रखा है, माफी न मांगने पर भी इन दोनों को कोई सजा नहीं दी है। और ऐसे आरोप पहले और बाद में भी सुप्रीम कोर्ट के जजों पर लगते रहे हैं। अभी-अभी कुछ अरसा पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तो बहुत ही गंदे गंदे आरोप झेलते रहे, और अपनी कुर्सी पर डटे भी रहे। इसलिए जजों को आलोचना और टिप्पणियों से परे कोई पवित्र संस्थान मानना गलत होगा। यह भी समझ लेना जरूरी है कि अदालतों की प्रशासनिक व्यवस्था अदालत के अदालती कामकाज से अलग है और इसे लेकर अदालत को किसी आलोचना के प्रति अधिक संवेदनशील भी नहीं होना चाहिए। यह बहुत ही अजीब बात है कि देश के सबसे दक्षिणी हिस्से से देश के सबसे पूर्वी हिस्से में इस तरह से 2 बरस में दो मुख्य न्यायाधीशों को भेजा जा रहा है और वकीलों को विरोध करना पड़ रहा है।
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कांग्रेस पार्टी के साथ शायद एक बुनियादी दिक्कत है कि जब कभी चुनाव सामने रहते हैं, उसके कोई ना कोई नेता ऐसे बयान देते हैं कि जिनसे पार्टी का भरपूर नुकसान हो सके। और मानो आज यह काफी नहीं था, तो कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री रहे सलमान खुर्शीद ने अभी आई अपनी एक किताब में हिंदुत्व की तुलना आईएसआईएस और बोको हराम जैसे इस्लामिक आतंकी संगठनों से की है। इससे जिस किस्म का भी धार्मिक ध्रुवीकरण उत्तर प्रदेश के वोटरों के बीच होना है, वह तो होगा ही, लेकिन उससे पहले भी उनकी किताब में लिखी गई यह बात बड़ी अटपटी है, बड़ी नाजायज भी है। फिर यह आलोचना लिखने के लिए हमारी जरूरत नहीं रही क्योंकि उनकी किताब को लेकर जैसे ही यह खबर सामने आई, कांग्रेस के एक दूसरे बड़े मुस्लिम नेता, गुलाम नबी आजाद ने ट्विटर पर लिखा कि सलमान खुर्शीद ने अपनी किताब में भले ही हिंदुत्व को हिंदू धर्म की मिली-जुली संस्कृति से अलग एक राजनीतिक विचारधारा मानकर इससे असहमति जताई, लेकिन हिंदुत्व की तुलना आईएसआईएस और जिहादी इस्लाम से करना तथ्यात्मक रूप से गलत और अतिशयोक्ति है।
यह किताब अयोध्या पर आए फैसले पर लिखी गई है और जिस बात को लेकर बवाल खड़ा हो रहा है उस वाक्य में सलमान खुर्शीद ने लिखा है ‘भारत के साधु-संत सदियों से जिस सनातन धर्म और मूल हिंदुत्व की बात करते आए हैं, आज उसे कट्टर हिंदुत्व के जरिए दरकिनार किया जा रहा है। आज हिंदुत्व का एक ऐसा राजनीतिक संस्करण खड़ा किया जा रहा है जो इस्लामी जेहादी संगठनों आईएसआईएस, और बोको हराम जैसा है।’ जाहिर है कि इस बात पर बवाल तो होना ही था. सलमान खुर्शीद क्योंकि उत्तर प्रदेश के ही रहने वाले हैं इसलिए उन्हें यह पता होगा कि अगले कुछ महीनों में ही वहां पर चुनाव होने जा रहे हैं, और उत्तर प्रदेश के वोटरों के धार्मिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें चल रही हैं. इसलिए ऐसे मौके पर अपनी इस किताब का विमोचन करवाते हुए ऐसा तो है नहीं कि उन्हें उस किताब के बारे में पता नहीं होगा कि उसमें हिंदुत्व के बारे में उन्होंने क्या लिखा है। यह सिलसिला कांग्रेस को हर बार गड्ढे में ले जाकर डालता है। किताब मोटे तौर पर मंदिर के पक्ष में आए फैसले को अच्छा बता कर मंदिर का ही साथ देने वाली है। लेकिन यह लाइन जाहिर तौर पर हिंदुत्व और हिंदू धर्म दोनों से जुड़े हुए लोगों को विचलित करने वाली है।
पूरी किताब में जगह-जगह सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को सही ठहराया गया है कि उसने बाबरी मस्जिद गिराने के बाद खाली हुई उस जगह पर मंदिर बनाने का फैसला दिया है। जबकि किताब के विमोचन के मौके पर मौजूद पिछले केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने माइक से यह कहा था। ‘बहुत समय बीत जाने की वजह से दोनों पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार कर लिया। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया इस वजह से यह अच्छा फैसला हो गया, न कि फैसला अच्छा होने की वजह से दोनों पक्षों ने इसे स्वीकार किया।’ किसी बात को बिना किसी को जख्मी किए हुए भी कहा जा सकता है और चिदंबरम ने फैसले की आलोचना करते हुए भी आपा नहीं खोया और सलमान खुर्शीद ने फैसले की तारीफ में पूरी किताब लिखते हुए भी एक गलत लाइन लिखकर अपनी पार्टी को भारी नुकसान पहुंचा दिया है. फिर मानो यह बात काफी नहीं थी तो कांग्रेस के एक और मुस्लिम नेता और पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता राशिद अल्वी ने अभी एक समारोह में कहा कि जय श्री राम का नारा लगाने वाले सभी लोग मुनि नहीं हो सकते, इन दिनों जय श्री राम बोलने वाले कुछ लोग संत नहीं हैं, बल्कि राक्षस हैं।
इन दोनों मुस्लिम कांग्रेस नेताओं ने अपनी लंबी जिंदगी राजनीति में गुजारी है और हिंदुस्तान के वोटरों की भावनाओं से भी वे पूरी तरह वाकिफ हैं और चुनावी राजनीति में किसी बयान को तोड़-मरोड़ कर उसका कैसा बेजा इस्तेमाल किया जा सकता है इस प्रचलित चतुराई से भी दोनों का तजुर्बा रहा है। इसके बावजूद इस तरह की नाजायज बातों को करने का क्या मकसद हो सकता है? बिना किसी संदर्भ के आज किसी मुस्लिम कांग्रेस नेता को किसी हिंदू धार्मिक मुद्दे पर फिजूल की बात करना क्यों चाहिए? खासकर तब जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं है? यह बात ठीक उसी तरह की है जिस तरह कि किसी मुस्लिम मुद्दे पर किसी हिंदू नेता को फिजूल की कोई बात क्यों करनी चाहिए खासकर तब जब उनकी पार्टी में उस मुद्दे पर बोलने के लिए मुस्लिम नेता मौजूद हैं। हमारी यह बात लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ नहीं है, लेकिन हमारी यह बात किसी राजनीतिक दल को सावधानी सुझाने वाली है कि आज के घोर सांप्रदायिक हो चले सार्वजनिक जीवन में हर पार्टी के प्रवक्ता और नेताओं को किस तरह सावधान रहना चाहिए। आज जब कांग्रेस पार्टी के ही दिग्विजय सिंह संघ परिवार या हमलावर हिंदुत्व के खिलाफ लगातार बोलते हैं, तो उनकी बात को एक सांप्रदायिक मोड़ नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह अपने-आपको एक धर्मालु हिंदू कहते और साबित करते आए हैं। आज यह सावधानी तमाम लोगों को बरतने की जरूरत है जो कि चुनावी राजनीति में हैं। और जो लोग हमारी तरह अखबारनवीसी में हैं वे फिर तमाम धर्मों के बारे में तमाम किस्म की बातें लिखें, और लोगों की नाराजगी झेलने के लिए तैयार भी रहें, लेकिन चूंकि हमें कोई वोट मांगने नहीं जाना है, और हम किसी संगठन के प्रति जवाबदेह नहीं हैं, इसलिए हम अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता के साथ अपनी मर्जी के मालिक हैं। लेकिन जब राजनीतिक दलों को अपनी दाढ़ी-टोपी, तिलक-आरती, और जनेऊ का सार्वजनिक प्रदर्शन करना पड़ता है तो ऐसे माहौल में उसके लोगों को सावधान भी रहना चाहिए।
आज तो हालत यह है कि किसी पार्टी से जुड़े हुए कोई वकील भी अदालत में किन मामलों को लड़ रहे हैं, इसका भी असर उनकी पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर दिखता है। इसलिए सलमान खुर्शीद की बात न सिर्फ बुनियादी रूप से नाजायज बात है, बल्कि वह पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाने वाली बात भी है। हिंदुस्तान अब उतने बर्दाश्त वाला देश नहीं रह गया है कि वह लोगों की लिखी हुई बातों का राजनीतिक इस्तेमाल न करे। और फिर सलमान खुर्शीद की अपनी नीयत शायद यही रही होगी कि वे उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले मंदिर बनाने के अदालती फैसले की तारीफ में यह किताब लिखकर शायद उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक हिंदू वोटरों पर असर डाल सके, और किताब की एक लाइन ने इसका ठीक उल्टा असर डाल दिया है। कांग्रेस के बहुत से नेता इसके हर चुनाव के पहले इस तरह की हरकतें करते हैं, और कांग्रेस की विरोधी पार्टियों को घर बैठे उसका फायदा मिलता है।
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आज माधुरी दीक्षित की एक किसी कामयाब फिल्म के 33 बरस पूरे हुए तो लोगों ने याद किया कि एक वक्त जब माधुरी दीक्षित के करियर की शुरुआत थी तो फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया था और यह कहा जाने लगा था कि वह हीरोइन मटेरियल नहीं हैं, बहुत पतली हैं, इस तरह की कई निगेटिव बातें उनके बारे में कही जाती थी। और वहां से निकलकर वे कामयाबी और शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचीं। आज हिंदुस्तान के सबसे कामयाब फिल्म कलाकार अमिताभ बच्चन के बारे में तो यह बात बहुत अच्छी तरह दर्ज है कि जब वे फिल्मों में जगह ढूंढ रहे थे तो कई निर्देशक या प्रोड्यूसर उन्हें ख़ारिज कर चुके थे. एक ने तो उन्हें सलाह दी थी कि वे इतने अधिक लंबे हैं कि नीचे से पैर 6 इंच कटा कर आएं तो शायद उन्हें काम मिल सकता है। उनका चेहरा उन दिनों बहुत ही आम दिखता था, और कोई काम उन्हें मिलता नहीं था। आज हालत यह है कि इस उम्र में भी वे रात तीन-चार बजे तक किसी-किसी साउंड स्टूडियो से घर लौटते रहते हैं, और सोशल मीडिया पर दिन की मेहनत के बारे में लिखते हैं, और यह भी लिखते हैं कि सुबह सात बजे फिर काम पर निकल जाना है। ऐसे और भी बहुत से कलाकार होंगे, और सिर्फ फिल्मों की ही बात क्यों करें, बहुत से ऐसे लेखक होंगे जिनके लिखे हुए को लंबे समय तक खारिज किया गया होगा। व्यक्तिगत संबंधों में भी बहुत से लोग खारिज होते होंगे, और हो सकता है कि जिंदगी में वह आगे जाकर बहुत कामयाब होते हों। अभी राजस्थान से निकले एक छात्र की कहानी सामने आई जिसमें गांव से निकला हुआ वह बहुत गरीब परिवार का लडक़ा, आसपास के लोगों से दान मांगकर किसी तरह स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाया, और जब वह ट्रिपल आईटी में दाखिला पाकर वहां पहुंचा तो उसने तब तक अपनी जिंदगी का पहला कंप्यूटर भी नहीं देखा था। लेकिन साल गुजरते ना गुजरते वह हिंदुस्तान में कंप्यूटर छात्र-छात्राओं के लिए होने वाले हर कोडिंग मुकाबले को जीत रहा था। आज वह फेसबुक कंपनी के इंस्टाग्राम में न्यूज़ टीम का मुखिया है।
इन बातों को मिलाकर लिखने का मकसद यह है कि अगर किसी को लोग खारिज करते हैं, अगर लोग किसी की खिल्ली उड़ाते हैं, तो उन्हें दिल छोटा नहीं करना चाहिए। बहुत से लोगों ने इस बात को सोशल मीडिया पर लिखा और आगे बढ़ाया है कि आपके ऊपर जो पत्थर फेंके जाते हैं, उन पत्थरों से सीढ़ी बनाकर आप कामयाबी की ऊंचाई तक पहुंच भी सकते हैं। हमने खुद ही अभी कुछ दिन पहले यह लिखा है कि बहुत से लोग अपनी कामयाबी की पूरी कहानी एक रिजेक्शन स्लिप के पीछे के खाली हिस्से में लिख देते हैं। इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत आज इसलिए भी लग रही है कि अभी छत्तीसगढ़ के बस्तर में सीआरपीएफ के एक कैंप में एक जवान ने अपने डेढ़ दर्जन साथियों पर गोलियां चला दीं जिसमें 4 मौतें हो गई हैं। उसका कहना है कि ये लोग उसकी बीवी को लेकर उससे गंदा मजाक करते थे, और उसकी मर्दानगी की खिल्ली उड़ाते थे। ऐसी बातों से थककर जो झगड़ा हुआ था, उसमें उसे ऐसा पता लगा कि बाकी लोग उसे मार डालने वाले हैं, लेकिन वे ऐसा करें, उसके पहले उसने औरों को मार डाला। इस बात में कुछ सच्चाई हो भी सकती है, और नहीं भी हो सकती है। इसलिए हम इस घटना की सच्चाई पर नहीं लिख रहे हैं, हम सिर्फ इस बात पर लिख रहे हैं कि लोगों को बहुत से नकारात्मक हमले झेलने पड़ते हैं, और उनके बीच से उबरकर जो लोग आगे बढ़ते हैं, वे कामयाब होते हैं। आज हिंदुस्तान में एक अभिनेत्री स्वरा भास्कर अपनी राजनीतिक विचारधारा के चलते हुए जिस तरह अपनी हर सोशल मीडिया पोस्ट पर सैकड़ों लोगों के गंदे, घिनौने, अश्लील, और हिंसक हमले झेलती है, वह देखकर दिल दहल जाता है। लेकिन ऐसा कोई भी हमला उसके हौसले को कम नहीं कर पाता और वह अपनी राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक सामाजिक इंसाफ के लिए लगातार लड़ती रहती है। ऐसा काम कुछ अखबारनवीस भी करते हैं, ऐसा काम कई दूसरे लेखक भी करते हैं, जो कि ईमानदारी पर डटे रहते हैं।
अभी दो दिन बाद हिंदी के एक महानतम समझे जाने वाले कवि मुक्तिबोध की सालगिरह है, और लोग तरह-तरह के आयोजन में जुटे हुए हैं, इसलिए यह याद रखने की जरूरत है कि मुक्तिबोध के जीते-जी उनकी कविता की कोई किताब नहीं छपी थी। और आज हिंदुस्तान में हिंदी के कोई भी ऐसे गंभीर लेखक नहीं हैं, जो कि मुक्तिबोध को पढ़े बिना लेखक बने हों, या कि लिख रहे हों। तो मुक्तिबोध जैसे महान कवि को अपने जीते-जी अपनी कविताओं की कोई किताब देखने नहीं मिली। और आज हिंदुस्तान की कोई भी ऐसी सम्माननीय लाइब्रेरी नहीं है जो उनकी किताबों के बिना पूरी हो सकती हो। इसलिए लोगों को न खारिज होने से डरना चाहिए, न ही हमलावर लोगों से डर कर घर बैठना चाहिए। आगे बढऩे का रास्ता लोगों के फेंके पत्थरों से सीढिय़ां बनाकर ऊपर चढ़ते जाने से निकलता है, न कि उन पत्थरों को अपना नसीब मानकर उन्हें अपनी कब्र बना लेने से। यह चर्चा जरूरी इसलिए है कि हिंदुस्तान में पिछले कुछ वर्षों में जिस रफ्तार से आत्महत्याएं बढ़ी हैं, उनके पीछे इन निराश लोगों के साथ समाज का किया हुआ बर्ताव भी बहुत हद तक जिम्मेदार है। अब तमाम लोगों के बर्ताव को तो एकदम से सुधारा नहीं जा सकता, लेकिन हम निराश होने वाले लोगों का हौसला बढ़ाने के लिए उनके सामने यह हकीकत रख रहे हैं कि बहुत ही विपरीत और नकारात्मक स्थितियों में भी बहुत से लोग आगे बढ़ते हैं, और न केवल कामयाबी तक पहुंचते हैं, बल्कि और बहुत से लोगों को भी आगे बढ़ाते हैं। इसलिए हमले झेल रहे लोगों को न केवल खुद आगे बढऩा चाहिए, बल्कि उन्हें यह भी मानकर चलना चाहिए कि उन्हें मजबूत होकर ऐसे दूसरे लोगों की मदद भी करनी है जो समाज के इसी तरह के हमले झेल रहे हैं।
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फेसबुक को लेकर विवाद खत्म होने का नाम नहीं लेते हैं। अभी पश्चिमी दुनिया इस कंपनी में काम करने चुकी एक महिला अधिकारी को सुन रही है जिसने अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक, वहां की सांसदों को इस पर सोचने के लिए मजबूर किया है कि फेसबुक में किस तरह लोगों की हिफाजत से अधिक ख्याल अपनी कमाई का किया जाता है। हालांकि इस कंपनी ने इस बात को गलत करार दिया है, लेकिन इस भूतपूर्व महिला अधिकारी के खुलासे के पहले भी दुनिया में लोग लगातार इस बात को सोच रहे थे। और हिंदुस्तान का तजुर्बा फेसबुक को लेकर इसलिए भी खराब रहा है कि यहां उसने अति महत्वपूर्ण कहे जाने वाले कई लोगों के अकाउंट से नफरत फैलाने को अनदेखा किया, और दूसरे बहुत से भली नीयत वाले लोगों की लिखी गई बातों को ब्लॉक किया, भले लोगों को पोस्ट करने से रोक दिया। इसके साथ-साथ इस बात को याद रखने की जरूरत है कि किस तरह फेसबुक लोगों की जिंदगी पर छाया हुआ एक ऐसा सोशल मीडियम है जिसका गहरा असर लोगों की सोच पर हो रहा है। इस कंपनी के कंप्यूटर यह भी तय करते हैं किस-किस व्यक्ति को किस तरह की चीजें अधिक दिखानी हैं। और इस काम में कंपनी किस राजनीतिक विचारधारा को, या राजनीतिक दल को आगे बढ़ा सकती है, यह बाहरी लोगों के लिए अभी एक रहस्य की बात है। इसके अलावा फेसबुक ने अपने पेज पर दिखाने वाले इश्तहारों को लेकर भी एक और विवाद पैदा किया था कि कुछ खास राजनीतिक दलों का विज्ञापन की जगहों पर इस तरह कब्जा हो जाए कि दूसरों को कोई मौका ही न मिले।
फेसबुक के मुद्दे पर लिखने का हमारा यह कोई पहला मौका नहीं है, लेकिन जिस तरह सोशल मीडिया पर इसका एकाधिकार होते चल रहा है, यह भी समझने की जरूरत है कि इसने सोशल मीडिया या मैसेज मीडिया के दो दूसरे सबसे प्रमुख माध्यमों पर कब्जा कर रखा है, इंस्टाग्राम, और व्हाट्सएप। इन तीनों को अगर देखें तो यह कंपनी विचारों को प्रभावित करने का इतने विकराल आकार का एक खतरा बन चुकी है कि जिसका अंदाज लोगों को ठीक से लग नहीं रहा है। कहने के लिए तो अमेरिका में मीडिया के कारोबार के एकाधिकार के खिलाफ एक वक्त कानून हुआ करता था जो कि टीवी रेडियो और अखबारों के किसी एक हाथ में होने को रोकने के लिए था। अब पता नहीं वह कानून उस कारोबारी देश में इस्तेमाल हो रहा है या नहीं, लेकिन यह तय है कि हिंदुस्तान में विचारों को प्रभावित करने का जिस तरह का एकाधिकार फेसबुक और उसके इन दो औजारों ने हासिल कर लिया है वह हिंदुस्तान के लोकतंत्र के लिए एक बड़ी खतरनाक बात है। खतरनाक बात इसलिए भी है कि इन जगहों पर नफरत और हिंसा की बातों को रोकने का कोई औजार विकसित नहीं किया गया है। फिर जिन लोगों को फेसबुक बहुत खास मानता है उसमें हिंदुस्तान के कुछ खास राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े सत्तारूढ़ नेता हैं जिनके हिंसा के पोस्ट भी किसी कार्रवाई से बच जाते हैं, और दूसरी तरफ जो अमन पसंद लोग हैं उनकी लिखी हुई अहिंसक बातें भी ब्लॉक कर दी जाती हैं।
इसके साथ-साथ यह भी समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान की बाकी भारतीय भाषाओं को समझने और उनमें फैलाई जा रही हिंसा को रोकने के लिए फेसबुक ने पर्याप्त औजार नहीं बनाए हैं। हिंदुस्तान के लोग फेसबुक के सबसे बड़े यूजर हैं, लेकिन हिंदुस्तान को लेकर फेसबुक की सुरक्षा प्रणाली सबसे ही कमजोर है। यह मानना भी ठीक नहीं होगा कि एक चतुर कारोबारी लापरवाही में ऐसा कर रहा है, यह भी हो सकता है कि वह राजनीति करने वाले दूसरे कारोबारियों के साथ मिलकर भी ऐसी लापरवाही दिखा रहा हो ताकि कुछ लोगों की पसंद की हिंसा की बातें फैलाई जा सके। क्योंकि सोशल मीडिया दुनिया में एक नई चीज है, और इसमें जो सबसे कामयाब प्लेटफॉर्म हैं उन्हीं पर सबसे अधिक लोग जाते हैं, क्योंकि उनके सबसे अधिक पहचान के लोग वहीं पर रहते हैं. इसलिए कोई अमनपसंद लोग कोई अलग प्लेटफॉर्म बनाएं तो उसकी कामयाबी की संभावना बिल्कुल ही कम है। अमरीका में तो नफरत पर जिंदा पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ट्विटर पर उन्हें ब्लॉक कर दिए जाने के बाद ट्विटर के मुकाबले एक नया प्लेटफॉर्म शुरू करने की घोषणा की थी और वहां के अनगिनत नफरती अरबपति उनके साथ भी थे, लेकिन उनकी वह मुनादी किसी किनारे नहीं पहुंच पाई।
खुद अमेरिकी लोकतंत्र इस बात को लेकर अभी परेशान है कि रूस की सरकार अमेरिकी सोशल मीडिया के मार्फत अमेरिकी वोटरों को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है या नहीं? और अगर कर भी रही है तो उसे अमेरिका किस तरह रोक सकता है, किस तरह वह बाहरी तत्वों को अपने लोकतंत्र को काबू में करने से रोक सकता है। ऐसी नौबत हिंदुस्तान के भीतर भी आ सकती है, आ रही है, या आ चुकी है। हो सकता है कि सोशल मीडिया पर दिखने वाला सच ऐसा चुनिंदा सच हो जिसे कि दिखाने में किसी राजनीतिक दल की दिलचस्पी हो और जो फेसबुक जैसे कारोबार के साथ सांठगांठ करके उस पर खासा वक्त गुजारने वाले लोगों की सोच को प्रभावित करने का काम कर रहा हो। भारतीय लोकतंत्र को परिपच्ता पाने में लंबा वक्त लगेगा यहां के वोटरों की जागरूकता जागने का काम अभी बाकी ही है। इसलिए फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर की जा रही कारोबारी शरारत का जमकर विरोध करना जरूरी है। इस प्लेटफार्म ने अपने खिलाफ सभी शिकायतों के लिए एक स्वतंत्र ट्रस्ट बना रखा है, लेकिन आज उस पर शिकायत करने वाले लोग किसी एक विचारधारा की तरफ से सैलाब की तरह पहुंच जाते हैं, क्योंकि वे इस औजार को जानते हैं, और ऐसा विरोध दर्ज करने के लिए तैनात हैं। दूसरे लोगों को भी इसकी ताकत को समझना होगा और इसे इस्तेमाल करना होगा।
अभी कुछ दिन पहले ही हमने फेसबुक के एक नए प्रोजेक्ट मेटावर्स के बारे में लिखा था, और वह फेसबुक के मुकाबले भी सैकड़ों गुना अधिक ताकत लेकर आ सकता है। ऐसे किसी दिन की तैयारी करने के लिए हमने कारोबार के लोगों को सावधान किया था, लेकिन अब लग रहा है कि उसके राजनीतिक बेजा इस्तेमाल के बारे में हमने नहीं लिखा था, जो कि अब जरूरी लग रहा है। अगर फेसबुक जैसी कोई ताकत सौ गुना अधिक ताकत हासिल कर लेती है, तो उससे हजार गुना अधिक सावधान रहने की भी जरूरत होगी।
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ऑस्ट्रेलिया में अभी कोरोना का टीका लगवाने के बाद टीके वाले लोगों के बीच हुई एक लॉटरी में एक युवती को एक मिलियन अमेरिकी डॉलर मिल गए। भारत के रुपए के मुताबिक करीब 7.50 करोड़ रुपए। वहां पर लोगों के बीच टीका लगवाने को लेकर अधिक उत्साह नहीं था इसलिए सरकार ने एक लॉटरी शुरू की, और टीकाकरण करवाने वाले लोगों के बीच किसी का नाम निकालकर उसे लॉटरी मिलनी थी, और इस युवती को टीके लगवाने के बाद लॉटरी भी मिल गई। दूसरी तरफ अमेरिका एक ऐसा देश है जहां पर लोग तमाम किस्म के ईनाम, पुरस्कार, और नगद रकम के बावजूद, टीके लगवाने से बड़ी संख्या में कतरा रहे हैं। अमेरिकी लोगों में अपनी आजादी को लेकर एक ऐसी जिद है जो उन्हें उकसाती है कि टीका लगवाना, या न लगवाना, उनका कानूनी हक है। वहां अभी अमेरिकी सरकार ने यह आदेश जारी किया है कि 100 से अधिक कर्मचारियों वाली हर कंपनी को अनिवार्य रूप से अपने कर्मचारियों को दो-दो टीके लगवाने पड़ेंगे, लेकिन इसके खिलाफ लोग अदालत चले गए हैं। लोग मास्क लगाने के खिलाफ हैं, उसे लेकर भी अदालत चले गए, सडक़ों पर उन्होंने मास्क जलाते हुए प्रदर्शन किया। अमेरिकी सरकार चाहकर भी हवाई सफर पर टीकाकरण का प्रतिबंध लागू नहीं कर पा रही है।
दूसरी तरफ हिंदुस्तान को देखें तो यहां सोशल मीडिया पर दो-चार लोगों को छोडक़र टीकाकरण का किसी ने विरोध नहीं किया। लोगों ने लंबी-लंबी कतारें लगाकर टीके लगवाए और राज्य सरकारें लगातार केंद्र सरकार पर दबाव बना रही हैं कि उन्हें अधिक टीके दिए जाएं ताकि वे अपनी तमाम आबादी को लगा सकें। हिंदुस्तान में टीकों को लेकर जागरूकता का एक बड़ा लंबा इतिहास रहा है। इस देश में तकरीबन तमाम आबादी ने अपने बच्चों को पोलियो के टीके लगवाए और कुछ वक़्त के लिए उत्तर भारत के कुछ एक गिने-चुने गांवों के मुस्लिम परिवारों को छोडक़र किसी ने इसका बहिष्कार नहीं किया, और नतीजा यह निकला कि भारत पोलियो मुक्त देश बन गया। कोरोना की मार भी हिंदुस्तान में घनी बस्तियों, और कमजोर अस्पतालों के बावजूद कम रही, उसकी वजह भी कई लोग यह मानते हैं कि तरह-तरह के जो टीके हिंदुस्तान में बचपन से लगते हैं उसकी वजह से बच्चों में कई तरह की प्रतिरोधक क्षमता रहती है, और इसलिए हिंदुस्तान में कमजोर इंतजाम के बावजूद मौतें कम रही। यह कहना वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं होगा कि दूसरी बीमारियों के लिए लगाए गए टीकों की वजह से आज लोगों को कोरोना का असर नहीं हो रहा है, लेकिन यह तथ्य अपनी जगह सही है कि जब कभी ऐसी कोई चुनौती आती है तो हिंदुस्तान की तकरीबन तमाम आबादी एक वैज्ञानिक सोच के साथ अपने बच्चों को, या खुद को टीके लगवाने के लिए खड़ी हो जाती है।
अब इस बात को भी समझने की जरूरत है कि जिस देश में अंधविश्वास घर-घर तक फैला हुआ था, या है, जहां पर चेचक के टीके के मुकाबले लोग माता की पूजा पर अधिक भरोसा करते थे, जहां पर आज भी सांप काटने से लेकर दूसरे कई किस्मों की बीमारियों तक लोग झाड़-फूंक करवाते हैं, वहां भी लोग टीका लगवाने के लिए सामने आए। इस मामले में हिंदुस्तान, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों के मुकाबले बहुत आगे रहा जहां पर किसी ईनाम या नकद रकम की जरूरत नहीं पड़ी और लोगों को दबाव डालकर भी टीके नहीं लगाने पड़े। भारत सरकार जितने टीकों की सप्लाई कर पाई, उतने टीके आनन-फानन लग जा रहे हैं, और कोई टीके लोगों का इंतजार करते हुए फ्रिज में बंद नहीं रहते। मतलब, अब जिस दिन भी बच्चों को टीके लगने शुरू होंगे, उस दिन भी लोग सामने आएंगे, और अधिकतर लोग ऐसे दिन का इंतजार भी कर रहे हैं। इस बात को समझने की जरूरत है कि भारत के कम पढ़े-लिखे लोगों में, अंधविश्वास से भरे हुए देश में, टीकाकरण को लेकर यह जो जागरूकता है, यह कोई छोटी बात नहीं है। इस देश में अगर टीकाकरण के लिए लोगों को नगद रकम या लॉटरी में ईनाम देना पड़ता तो वह कितना महंगा पड़ता है उसकी कितनी लागत आती है। तो भारत में लोगों के बीच टीकाकरण को लेकर यह जो जागरूकता है यह इस देश में आजादी के बाद से लगातार मेहनत करके जो वैज्ञानिक सोच विकसित की गई थी, उसी का नतीजा है कि टीकाकरण पर लोगों का भरोसा है।
लोगों का भरोसा आज भी तंत्र-मंत्र, जादू, झाड़-फूंक पर से पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, लेकिन जो लोग इन बातों पर भरोसा रखते हैं वे लोग भी टीका तो लगा ही लेते हैं। इस बात का सबसे बड़ा सबूत यह है कि पोलियो इस देश से पूरी तरह खत्म हो गया। अगर कहीं भी कोई बच्चा पोलियो वैक्सीन से से बच गया रहता तो पोलियो पूरी तरह खत्म नहीं हुआ रहता। इसलिए आजादी के बाद से लगातार देश के लोगों में जो वैज्ञानिक सोच जिस हद तक भी विकसित हो पाई उसी का नतीजा था कि कोरोना के टीकों का कोई विरोध नहीं हुआ। जब विकसित देशों में लोग टीके लगवा नहीं रहे हैं और आज ऐसे लोग बड़े खतरे में पड़ रहे हैं वहां की सरकारें यह नहीं समझ पा रही हैं कि कैसे लोगों को समझाया जाए, कैसे उनकी कानूनी चुनौतियों से जूझा जाए, ऐसे में हिंदुस्तान में अगर टीकों का कोई भी विरोध नहीं हो रहा है, तो इसकी तारीफ की हक़दार देश में फैल रही तमाम किस्म की धर्मांधता के बावजूद लोगों में बची हुई वैज्ञानिक चेतना है. टीकों पर उनका भरोसा है इसीलिए हिंदुस्तान आज बच पा रहा है। देश में कोरोना के मैनेजमेंट में जितने तरह की नाकामयाबी हुई है, उसके लिए देश की सरकार जिम्मेदार रही है, लेकिन जितने तरह की कामयाबी हुई है, उसके लिए देश की आम जनता हक़दार है।
जब किसी देश में किसी किस्म के इंफ्रास्ट्रक्चर की बात होती है तब वहां गिना जाता है कि वहां पर सडक़ें कितनी हैं, बिजली कितनी फैली हुई है, इलाज की सहूलियतें कितनी हैं, पढ़ाई-लिखाई के संस्थान कितने हैं. जनता की सोच, उसकी जागरूकता को भी ऐसे इंफ्रास्ट्रक्चर में जोड़ कर गिनना चाहिए। जनता की सोच किसी मुसीबत के मौके पर किस तरह सरकार के बोझ को हल्का कर सकती है, यह हिंदुस्तान में कोरोना के इस दौर में साबित हुआ है। अमरीका की तरह ही, हिंदुस्तान के कानून के मुताबिक कोरोना का टीका लगाना किसी के लिए भी जरूरी नहीं है। यहां भी कुछ बददिमाग लोग अगर चाहते, तो अड़ सकते थे कि वे टीका नहीं लगाएंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि देश में जो आम चेतना है, वह टीकाकरण के पक्ष में पीढिय़ों से चली आ रही है। पीढिय़ों की यह जागरूकता हाल के वर्षों में खत्म नहीं की जा सकी है। इस बात को लेकर देश की सरकारों को और राजनीतिक ताकतों को यह सबक लेना चाहिए कि जनता में जागरूकता देश के ढांचे का एक मजबूत हिस्सा रहती है, और उसे न कम आंकना चाहिए और न उसे तबाह करने की कोशिश करनी चाहिए।
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अभी-अभी निपटे दुनिया के सबसे बड़े पर्यावरण सम्मेलन कॉप-26 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदुस्तान के नेट जीरो एमिशिन पाने के लिए 2070 तक का जो लक्ष्य घोषित किया है, उसे देश के सबसे बड़े पर्यावरणवादियों ने बड़ा महत्वाकांक्षी कहा है। भारत की आज की ऊर्जा की जरूरत लगातार बढ़ती चली जा रही है, और बिजली का उत्पादन भी बढ़ते जा रहा है, लेकिन देश में बिजली का अधिकतर उत्पादन कोयले से हो रहा है, और दुनिया का लक्ष्य कोयले के इस्तेमाल को, और दूसरे जीवाश्म ईंधन को घटाते चलने का है। ऐसे में भारत ने यह भी कहा है कि वह 2040 तक पर्यावरण में कारबन या प्रदूषण की बढ़ोतरी अधिकतम स्तर पर पहुंचने पर स्थिर कर देगा, और उसके बाद 2070 तक वह इसे नेटजीरो कर देगा, जिसका मतलब है कि वह पर्यावरण में प्रदूषण या कार्बन नहीं जोड़ेगा। भारत की विख्यात पर्यावरणशास्त्री सुनीता नारायण का मानना है कि भारत के प्रधानमंत्री का यह लक्ष्य घोषित करना तारीफ के काबिल है, और भारत ने समृद्ध दुनिया के पाले में गेंद डाल दी है, अब उन देशों को इसके मुकाबले अपने प्रदूषण और कार्बन उत्पादन कम करना है। पूरी दुनिया के अलग-अलग देशों का पर्यावरण को बचाने में क्या रुख है, उनके क्या खतरे हैं, और उनकी क्या जिम्मेदारियां हैं, इस पर बहुत चर्चा दुनिया भर में जानकार लोग कर रहे हैं, लेकिन हम उसके हिंदुस्तान वाले हिस्से पर, और खासकर देश के संघीय ढांचे को लेकर कुछ बुनियादी बातों पर आज चर्चा करना चाहते हैं, जिन पर गौर किए बिना भारत अपना भी पर्यावरण नहीं बचा सकेगा, और दुनिया के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकेगा।
प्रदूषण को कम करना, कार्बन उत्पादन को घटाना, चीजों की खपत को घटाना, और साफ-सुथरी बिजली बनाना, यह पूरा का पूरा काम अकेले केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, और इसमें से बहुत सारा काम राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है, और जिम्मेदारी है तो जाहिर तौर पर अधिकार क्षेत्र भी उन्हीं का है। यह पूरा का पूरा काम केंद्र सरकार अपने बजट से, अपने पैसों से पूरा नहीं कर पाएगी, यह भी है कि अगर वह बजट भी देगी तो भी उस पर अमल तो राज्य सरकारों के रास्ते ही होगा। इसलिए भारत सरकार को देश के संघीय ढांचे के तकाजे के मुताबिक पर्यावरण के मुद्दे पर राज्य सरकारों को भरोसे में लेकर, और राज्य सरकारों को इस मंजिल को हासिल करने के मकसद में शामिल करके इस काम को आगे बढ़ाना चाहिए। अभी हमारे सामने यह बात साफ नहीं है कि ब्रिटेन के ग्लासगो में हुए इस पर्यावरण सम्मेलन के पहले प्रधानमंत्री ने देश के राज्यों से विस्तृत विचार-विमर्श किया था या नहीं, लेकिन अगर नहीं भी किया था तो भी उन्हें अब राष्ट्रीय स्तर पर यह काम इसलिए भी करना चाहिए कि 2070 तक के जो लक्ष्य हैं, उनके पूरे होने तक केंद्र में बहुत सी सरकारें आएंगी-जाएगी, राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की अलग-अलग सरकारें आएंगी-जाएंगी, और जब तक मन, वचन, और कर्म से केंद्र और राज्य सरकारें इस मुद्दे पर एक साथ नहीं रहेंगी तब तक ऐसी कोई भी घोषणा पूरी होने से रही। हम आज इस मुद्दे को देश के संघीय ढांचे की शुरू से चली आ रही व्यवस्था के बीच भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण इसलिए मान रहे हैं क्योंकि देश का पर्यावरण बाकी दुनिया के पर्यावरण से अछूता नहीं है। और देश का पर्यावरण अलग-अलग राज्यों में बंटा हुआ नहीं है, मौसम और पर्यावरण राज्यों की सरहदों का सम्मान नहीं करते, वे तो देशों की सरहदों का भी सम्मान नहीं करते। इसलिए प्रदेशों के नक्शे से परे जाकर केंद्र सरकार को पहल करके मौसम के बदलाव से जूझने की इस जंग में देश के तमाम राज्यों को शामिल करना चाहिए। प्रधानमंत्री को अपनी इन घोषणाओं के बाद इस जिम्मेदारी को राज्यों के साथ बांटना चाहिए, वरना राजनीतिक मतभेदों के चलते इसकी आशंका अधिक है कि राज्यों पर अगर केंद्र की कोई मनमानी थोपी जाएगी तो कई राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र को यह जवाब दे सकते हैं कि ग्लासगो में की गई घोषणा क्या उनसे पूछकर की गई?
जरा ठोस शब्दों में अपनी बात को अगर हम कहें तो देश में आज एक पर्यावरण-संसद बनाने की जरूरत है जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा केंद्रीय पर्यावरण मंत्री, संसद की पर्यावरण के मामलों से जुड़ी हुई, कोयले और बिजली के मामलों से जुड़ी हुई संसदीय समितियों के सांसद, और इन मंत्रालयों के मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और उद्योग, वित्त, तथा पर्यावरण विभागों के मंत्री रहें। इन सबको शामिल करके एक राष्ट्रीय पर्यावरण संसद तुरंत ही बनानी चाहिए जिसकी साल में कम से कम 2 बैठकें हों। पर्यावरण के मुद्दों को किसी एक राज्य की मनमानी पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए, और न ही इन्हें केंद्र सरकार के रहमोकरम पर छोड़ा जाए। एक राज्य और केंद्र सरकार यह मिलकर भी इसे किसी विपक्षी मुद्दे की तरह ना निपटाएं, क्योंकि किसी भी राज्य का पर्यावरण दूसरे राज्यों को भी प्रभावित करता ही है। इसलिए हमारा यह साफ मानना है कि दुनिया के इस सबसे जलते-सुलगते मुद्दे से निपटने के लिए भारत के भीतर हर प्रदेश को दूसरे प्रदेश के मामलों में अपनी राय रखने का हक रहना चाहिए। जिस तरह संसद में हर प्रदेशों से आए हुए सांसद किसी भी प्रदेश के मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं, ठीक उसी तरह ऐसी एक पर्यावरण संसद बनाकर उसमें तुरंत ही केंद्र सरकार अपनी सोच रखे, अपने बजट को सामने रखे, और राज्य सरकारों से उस पर राय मांगे, उस पर राजनीति से परे का विचार-विमर्श हो, और हर प्रदेश को दूसरे प्रदेशों के मामलों में वहां पर बोलने का खुला मौका मिले।
किसी राज्य के मुख्यमंत्री को भी ऐसी पहल करनी चाहिए कि वह प्रधानमंत्री से पर्यावरण-संसद बनाने को कहे जिसमें कोई ऊपर नीचे न रहे, और जो केंद्र से राज्यों को किसी हुक्म की तरह भी काम न करे, जिसमें हर बात रिकॉर्ड पर दर्ज हो जाए। हमारा तो यह भी मानना है कि किसी भी जिम्मेदार संस्था की तरह ऐसी पर्यावरण-संसद को भी देश और दुनिया के पर्यावरणशास्त्रियों और दूसरे विशेषज्ञों को बुलाकर उनकी राय भी सुननी चाहिए ताकि केंद्र और राज्य सरकारों का अपना ज्ञान भी बढ़ सके, उनमें समझ भी बेहतर हो सके, और उनके फैसले भी बेहतर हो सकें। अलग-अलग राज्य इस मुद्दे पर काम करें इसके बजाय केंद्र के साथ बैठकर तमाम राज्यों को खुली बातचीत करनी चाहिए और ऐसी कोई पहल प्रधानमंत्री के स्तर पर ही हो सकती है। यह बात प्रधानमंत्री के लिए बहुत सुहानी शायद ना हो कि उन्हें अपनी घोषणा पूरी करने के लिए राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मदद लेनी पड़े, लेकिन देश का संघीय ढांचा यही कहता है, और इसके बिना प्रधानमंत्री अपनी कही किसी बात को पूरा कर भी नहीं पाएंगे। साल में कम से कम दो बार प्रधानमंत्री और सारे मुख्यमंत्री पूरे दिन बैठकर पिछले 6 महीनों का हिसाब सामने रखें, और अगले छह महीनों की योजना बनाएं। आज दुनिया में मौसम का बदलाव और पर्यावरण की बर्बादी करोड़ों लोगों की जिंदगी को खतरे में डालने की कगार पर है, इसलिए इस अभूतपूर्व खतरे से निपटने के लिए अभूतपूर्व रास्ते निकालने की जरूरत है, और ऐसा ही एक रास्ता आज हम यहां सुझा रहे हैं। हिंदुस्तान में केंद्र और राज्यों की ऐसी मिली-जुली पर्यावरण-संसद ही 2030 या 2070 तक देश को दुनिया के सामने जिम्मेदार साबित कर सकेगी और ऐसा कुछ करने से पहले ही यह भी जरूरी है कि इस देश के भीतर अपने लोगों को बचाने के लिए पर्यावरण का खराब होना थामा जाए।
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दुनिया के एक विकसित देश न्यूजीलैंड में आज ऐसे इच्छा मृत्यु का कानून लागू हो गया है इसके साथ ही यह देश दुनिया के करीब आधा दर्जन ऐसे देशों की कतार में आ गया है जहां लोग कुछ खास हालात में अपनी मर्जी से मरना तय कर सकते हैं, और इसके लिए डॉक्टर उनकी मदद कर सकते हैं। दुनिया में अभी स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, स्पेन, बेल्जियम, लक्जमबर्ग, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और कोलंबिया ही ऐसे देश है जहां पर यूथिनिसिया का कानून है, जिसका मतलब होता है अच्छी मृत्यु, इच्छा मृत्यु। इसे मर्सी किलिंग भी कहा जाता है, और यह अमेरिका के कुछ राज्यों में भी लागू है। भारत में यह सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से एक सीमित दायरे में लागू है जहां किसी मरणासन्न मरीज को कोमा की हालत में रहने पर, करीबी रिश्तेदार, करीबी दोस्त, या डॉक्टर जीवनरक्षक उपकरणों से और दवाइयों से अलग कर सकते हैं, ताकि वे चैन की मौत मर सके। इसके लिए कई किस्मों की कानूनी औपचारिकताएं रखी गई हैं ताकि कोई इसका बेजा इस्तेमाल करके किसी को आसानी से न मार सके। इसमें बाहर के अफसरों और मेडिकल बोर्ड की मौजूदगी, और उनकी रिपोर्ट, और गवाहों के दस्तखत जैसी कई बातें भी जोड़ी गई हैं। दुनिया के अधिकतर देशों में इच्छा मृत्यु को कानूनी इजाजत नहीं दी गई है, और हिंदुस्तान में भी आत्महत्या की कोशिश अब तक एक अपराध ही है।
अलग-अलग देश की अपनी संस्कृति और संवेदनशीलता से परे, अलग-अलग धर्मों की सोच भी इच्छा मृत्यु को लेकर अलग-अलग होती है। हिंदुस्तान में ही हिंदू और जैन धर्म में कुछ खास परिस्थितियों में लोग ऐसा फैसला ले सकते हैं कि वे अब आमरण उपवास करके अपना जीवन त्याग दें। जैन समाज में बीच-बीच में संथारा नाम की एक परंपरा सुनाई पड़ती है जिसमें कोई व्यक्ति प्राण त्याग करना तय कर लेते हैं, और उसके बाद भी खाना-पीना बंद करके मौत का इंतजार करते हैं। ऐसे मौके को एक सामाजिक जलसे की तरह मनाया जाता है और धर्म के बहुत से अनुयायी ऐसी जगह पर लगातार इक_े रहते हैं। लेकिन भारत की सुप्रीम कोर्ट तक जाने के बाद भी एक मामला अभी तक नहीं निपट पाया है कि आत्महत्या की कोशिश को जुर्म के दर्जे से बाहर निकाला जाए। आज भी इस देश में आत्महत्या की कोशिश पर सजा का प्रावधान है। जबकि लोगों का यह मानना है कि आत्महत्या की कोशिश करने वाले लोग जिंदगी से वैसे भी इतने निराश रहते हैं कि उन्हें उस कोशिश के लिए सजा देना उनके साथ एक असामाजिक बेइंसाफी की बात रहती है। लेकिन अदालतें और संसद इस बारे में अभी कोई फैसला ले नहीं पाई हैं।
हिंदुस्तान में इच्छा मृत्यु को लेकर जो प्रावधान सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में लिखे हैं, और जो कि संसद के बनाए हुए किसी कानून के आने के पहले तक देश में कानून की तरह ही लागू हैं, उनमें यह साफ किया गया है कि लोगों के अपने चाहने पर और उनके मरणासन्न रहने पर, या कोमा में रहने पर ही ऐसा किया जा सकेगा और इसके लिए डॉक्टरी मदद से मौत नहीं दी जाएगी बल्कि जिंदा रखने के साधनों को तमाम औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हटाया जा सकेगा। मतलब यह कि उन्हें मारा नहीं जायेगा, मर जाने दिया जायेगा. आज भारत में जब लोग सरकार से बहुत अधिक निराश हो जाते हैं तो उनमें से कुछ लोग सरकारी दफ्तर या मुख्यमंत्री तक पहुंचते हैं, या सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति को चि_ी लिखते हैं कि उन्हें मरने की इजाजत दी जाए। लेकिन निराशा में मरने का फैसला लोकतंत्र के ऊपर एक कलंक की तरह रहेगा इसलिए तुरंत ही ऐसे मामलों पर कार्रवाई की जाती है, और लोगों को बचाया जाता है। लेकिन दुनिया के जिन देशों ने इच्छा मृत्यु को इजाजत दी है वहां भी उनके तर्कों को समझने की जरूरत है। लोग यह मानते हैं कि जहां गरिमा के साथ जीना मुमकिन ना हो, जहां पर मानवीय परिस्थितियां हासिल न हो, वहां पर क्यों जिंदा रहा जाए? और वैसे हालात से बेहतर मर क्यों न जाया जाए? यह सवाल लोकतंत्र के भीतर हमेशा ही खड़े रहता है कि गरिमा के साथ जीना एक बुनियादी अधिकार होना चाहिए, और अगर यह हासिल नहीं है, तो अपनी जिंदगी पर तो अपना फैसला रहना चाहिए। लेकिन दुनिया में स्थानीय धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक या लोकतंत्र के अपने पाखंड के चलते हुए आमतौर पर कोई भी देश ऐसी नौबत का सामना करना नहीं चाहते कि वहां के लोग उनकी व्यवस्था को जिंदा रहने लायक भी नहीं पा रहे हैं, और देश या सरकार से, समाज या परिवार से निराश होकर मर जाना चाहते हैं, और ऐसी मौत के लिए वे डॉक्टरी मदद भी चाहते हैं ताकि जहर के इंजेक्शन से वे अपनी जिंदगी खत्म कर सकें।
इंसान की जिंदगी के अंत की नौबत बहुत अलग-अलग किस्म की रहती है और किन्हीं दो परिस्थितियों की आपस में तुलना नहीं की जा सकती। लेकिन जो बुनियादी बात लोकतंत्र में होनी चाहिए कि गरिमा के साथ जीने का मौका हर किसी को हासिल होना चाहिए, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। किसी लोकतंत्र में अगर लोगों को उनके धर्म की वजह से, काम या जाति, या रंग की वजह से प्रताडऩा झेलनी पड़ती है, तो उसे गरिमापूर्ण जीवन नहीं माना जा सकता, और ऐसे में उनके भीतर मरने की एक इच्छा हो सकती है। अब उन्हें ऐसा अधिकार देना लोकतंत्र के अपने मुंह पर कालिख लगवाने सरीखा होगा, इसलिए लोकतंत्र इसे मान्यता नहीं देते। और इसीलिए बहुत से लोकतंत्र आत्महत्या के अधिकार को भी नहीं मानते और आत्महत्या की कोशिश को जुर्म करार देते रहते हैं।
अभी हिंदुस्तान में डॉक्टरी मदद से जान देना कोई मुद्दा नहीं है इस पर कोई बड़ी चर्चा नहीं है। लेकिन हम इस चर्चा को छेडक़र गरिमापूर्ण जीवन की बात छेडऩा चाहते हैं क्योंकि देश के नागरिकों को, यहां बसे हुए हर किसी को, इज्जत के साथ जिंदा रहने का एक बुनियादी हक रहना चाहिए। धर्म और जाति, खानपान और पहनावे, इन सबको लेकर अगर भेदभाव किया जा रहा है, तो वह नौबत मानवीय गरिमा के खिलाफ होने से जान देने की वजह बन सकती है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो ऐसी नौबत में फंसकर जान दे भी देते हैं। इच्छा मृत्यु के बारे में दूसरे देशों के फैसले को देखते हुए हिंदुस्तान को यह सोचना चाहिए कि किस तरह यहां पर आत्महत्या की कोशिश को जुर्म के दायरे से बाहर किया जाए क्योंकि वह एक तनावग्रस्त व्यक्ति को और अधिक अपमानित करने, और उसे सजा देने का एक काम होता है। दूसरी तरफ गरिमापूर्ण जीवन की बात भी सोचनी चाहिए जो कि अपने आप में एक बहुत जटिल मुद्दा है और अलग-अलग लोगों के लिए गरिमा अलग-अलग मायने रख सकती है, उसकी परिभाषा अलग-अलग हो सकती है। लेकिन गरिमापूर्ण जिंदगी और गरिमा के साथ मौत का मुद्दा जब दूसरे देशों से लेकर हिंदुस्तान के सुप्रीम कोर्ट तक में आ चुका है, तो फिर समाज को भी इस गरिमा के बारे में सोचना चाहिए और इसकी फिक्र करनी चाहिए।
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दिवाली की अगली सुबह चारों तरफ कचरा ही कचरा फैला हुआ था, संपन्न इलाकों में यह कुछ अधिक था जहां पर लोगों ने बड़े-बड़े महंगे फटाके बड़ी संख्या में फोड़े थे। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे, और उन्होंने एक सफाई अभियान छेड़ा था, तो झाड़ू लेकर तस्वीरें खिंचवाने का एक मुकाबला देश भर में चल निकला था। उस वक्त उन्होंने दिवाली की अगली सुबह लोगों को अपना-अपना पैदा किया हुआ कचरा बटोरने के लिए भी कहा था, और लोग अगली सुबह झाड़ू लेकर अपने घर के सामने कचरा इकट्ठा कर भी रहे थे। लेकिन उसके अगले ही बरस से ऐसा कुछ भी दिखना बंद हो गया, और संपन्न लोगों का खड़ा किया हुआ पटाखों का कचरा विपन्न सफाई कर्मचारियों का इंतजार करते हुए बिखरा रहा। ऐसा इसलिए हुआ कि दिवाली के बाद अपने घर के सामने की सफाई करना, एक राजनीतिक नारे की तरह उछाला गया था, और लोगों ने उसे तब तक ही माना जब तक कि उसकी गूंज हवा में बनी हुई थी, उन्होंने शायद दिवाली की अगली सुबह के बाद से ही इस नारे पर अपने घर के बाहर अमल बंद कर दिया गया। फिर वहां-वहां झाड़ू जारी रहा जहां पर कोई राजनीतिक आयोजन होना था, जहां पर किसी मंत्री को अपने आपको मोदी के प्रति वफादार साबित करने के लिए, अपनी तस्वीर खिंचवाने के लिए, झाड़ू पकडक़र कुछ मिनट कचरा साफ करना था। यह कुछ उसी किस्म का है जिस तरह से आज कॉलेज के छात्रों के बीच राष्ट्रीय सेवा योजना नाम का एनसीसी सरीखा एक कार्यक्रम चलता है जिसमें कहीं कचरा साफ करने या कहीं झाडिय़ों को साफ करने के लिए छात्र-छात्राओं का जत्था अपने प्रभारी प्राध्यापक की अगुवाई में इकट्ठा होता है, और बैनर टांगकर 15-20 मिनट सफाई की जाती है, और तस्वीरें खींचकर वहां से रवानगी डाल दी जाती है। हिंदुस्तानियों के बीच चरित्र की ईमानदारी इस कदर कमजोर है कि वह कदम-कदम पर सामने आती है। दिखावे के लिए किसी काम को करना लोगों को बहुत सुहाता है, लेकिन तस्वीरें खिंच जाएं उसके बाद उनकी दिलचस्पी उस काम में खत्म हो जाती है। लोग बैनर लेकर चलते हैं और जहां मौका मिले वहां चार लोग बैनर लेकर खड़े हो जाते हैं और तस्वीरें खिंचवाते हैं। यह सिलसिला हिंदुस्तान के लोगों में गहराई तक बैठी हुई एक बेईमानी का सुबूत है कि वे दिखावे के लिए भी किसी नेक काम को कुछ घंटे भी करना नहीं चाहते, और एक फर्जी सुबूत गढ़ लेने तक ही उनकी दिलचस्पी इस काम में रहती है।
लोग सोशल मीडिया पर अपनी प्रोफाइल फोटो में अपने बच्चों के साथ अपनी तस्वीर लगाते हैं, और उसके बाद उसी प्रोफाइल से वैचारिक रूप से असहमत दूसरी महिलाओं को बलात्कार की धमकी देते हैं, उनके बारे में अश्लील बातें लिखते हैं, गंदी गालियां लिखते हैं। फिर अगले ही ट्वीट, या अगली फेसबुक पोस्ट पर वे अपने धर्म की तारीफ करते हैं, अपने इष्ट देव या इष्ट देवी की तस्वीरें लगाते हैं। यह पूरा मिजाज चरित्र और तथाकथित नैतिकता की बेईमानी का एक बड़ा खुला मामला है जिसमें लोग अपने आपको धार्मिक बतलाते हैं, आध्यात्मिक बतलाते हैं, किसी एक राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा हुआ बताते हैं, और उसके बाद इस देश की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल करते हुए हिंसा की बातें लिखते हैं, अश्लील बातें लिखते हैं, और धमकियां लिखते हैं। लोगों की ना केवल सार्वजनिक जीवन के प्रति कोई ईमानदारी नहीं है बल्कि लोगों की अपनी खुद की तथाकथित सामाजिक नैतिकता के प्रति भी कोई ईमानदारी नहीं है। लोग इस देश के एक काल्पनिक और गौरवशाली इतिहास का गुणगान करते नहीं थकते, लोग अपने देवी-देवताओं का कीर्तन करते नहीं थकते, लेकिन यही लोग दूसरे इंसानों के खिलाफ वैसे काम करते हैं जैसे कि वे अपनी कहानियों में राक्षसों का किया हुआ बताते हैं।
हिंदुस्तान में जब किसी व्यक्ति के चरित्र की नैतिकता को देखना है तो उसके सार्वजनिक जीवन के व्यवहार को उस वक्त देखना चाहिए जब वे अपने बाहुबल, या धनबल, या अपने दलबल की ताकत से लैस रहते हैं। जब वे अपने घर के सामने पटाखे फोड़ते हैं, या अपने साथियों के साथ सुबह की सैर पर चलते हैं, अपने दोस्तों के साथ सडक़ के बीच गाडिय़ां रोककर गप्पे मारते हैं। हिंदुस्तानियों को सुबह की सैर पर भी देखें तो अगर तीन लोग भी रहेंगे, तो सडक़ की पूरी चौड़ाई को घेरकर इस बदतमीजी से, और इस हमलावर अंदाज में चलते हैं कि कोई दूसरे लोग सडक़ पर आ जाना सकें। इसी तरह जब वे किसी बारात का हिस्सा रहते हैं उस वक्त वे सडक़ को अपनी मिल्कियत मानते हुए वहां जैसे हिंसक अंदाज में लाउडस्पीकर बजाते हुए, ट्रैफिक को रोक करते हुए नाचते हैं, उससे यह समझ में आता है कि वे एक भीड़ के दिमाग का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कि वे अकेले नहीं कर सकते थे। यह सिलसिला हिंदुस्तानियों को पूरी तरह से असभ्य और हिंसक बनाते चल रहा है। इस देश में अदालतों ने कोशिश कर ली कि दिवाली पर एक सीमा से अधिक पटाखे ना चलें, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का मुंह चिढ़ाते हुए लोगों ने इतने पटाखे फोड़े कि वहां की पूरी हवा जहरीली हो गई। दिक्कत यह है कि जहर फैलाने को लोगों ने अपना धार्मिक अधिकार मान लिया है। और बाकी लोग इस बात में जुट गए हैं कि धर्म का यह अधिकार कहीं भी कमजोर ना पड़े। आम बोलचाल की जुबान में एक बात कही जाती है कि ऐसे लोगों का भगवान ही मालिक है। तो ऐसे लोगों को मालिक का जल्द अपने पास बुला ले ताकि बाकी लोग एक खुली और साफ हवा में सांस ले सकें।
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सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेशों के बाद देश के अलग-अलग राज्यों में दिवाली पर पटाखे फोडऩे को लेकर तरह-तरह के आदेश जारी हुए हैं, और इन्हें लेकर कई धार्मिक संगठनों में, और कुछ राजनीतिक पार्टियों में कुछ बेचैनी भी है। कुछ लोग इसे एक हिंदू त्यौहार पर हमला मान रहे हैं, और उनका कहना है कि न क्रिसमस पर ऐसी रोक लगती है, और न नए साल पर, जो कि ईसाई त्योहार हैं। इसके अलावा और धर्मों के भी कुछ ऐसे त्यौहार हो सकते हैं, जब पटाखे फोड़े जाते हैं, लेकिन उन पर भी कोई रोक नहीं लगती है। तो इन लोगों का यह मानना है कि हिंदू त्योहारों पर ही रोक क्यों लगनी चाहिए? यह सिलसिला पिछले कई बरस से चल रहा है, जबसे दिवाली पर पटाखों से होने वाले प्रदूषण का खतरा लोगों को समझ में आ रहा है, और खासकर उत्तर भारत में जहां पर कि ठंड के इस मौसम में प्रदूषण वैसे भी आसमान पर रहता है, दिल्ली में दम घुटने लगता है, दिल्ली में हवा इतनी खतरनाक हो जाती है कि कई बीमार लोगों को दूसरे शहर जाने की सोचना पड़ता है, ऐसी हालत में पटाखों पर रोक की बात अदालत तक पहुंची और बहुत सी वैज्ञानिक संस्थाओं की रिपोर्ट को देखते हुए अदालत ने अलग-अलग किस्मों से रोक लगाई है।
एक तरफ पर्यावरण का मुद्दा है और दूसरी तरफ लोगों के रोजगार की बात भी है। पटाखा बनाने वाले उद्योगों में लाखों मजदूरों को काम मिलता है, और तमिलनाडु के शिवकाशी में जहां सबसे अधिक फटाका कारखाना और कुटीर उद्योग हैं, वहां के मुख्यमंत्री ने राजस्थान के मुख्यमंत्री से अभी अपील की कि वे पटाखों पर रोक ना लगाएं। और राजस्थान के मुख्यमंत्री ने प्रतिबंध में ढील भी दी है। लेकिन पटाखों के मुद्दों पर रोजगार और धर्म से परे भी सोचने की जरूरत है। किसी एक दिन के कुछ घंटों में देश में सबसे अधिक पटाखे साल में केवल दिवाली की रात को फोड़े जाते हैं। नतीजा यह होता है कि शहरों की घनी बस्तियों में जहां पर हिंदू आबादी अधिक है, वहां पर इतने अधिक पटाखे फूटते हैं कि उस इलाके में रहने वाले फेफड़े के मरीजों का जीना मुश्किल हो जाता है, और कई किस्म की सांस की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। जो लोग अपने-आपको हिंदू धर्म का रक्षक कहते हैं और हिंदू धर्म के त्यौहारों के ऐसे रिवाजों पर लगने वाले प्रतिबंध का विरोध करते हैं, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि यह रोक हिंदू धर्म पर नहीं है, यह रोक हिंदू धर्म को मानने वाले और दिवाली मनाने वाले लोगों की सेहत की होने वाली बर्बादी पर रोक है। दूसरे धर्मों के त्यौहार पर अगर पटाखे फूटते भी हैं, तो उन लोगों की आबादी इतनी कम रहती है, वे इतने बिखरे हुए रहते हैं, और पटाखे इतने कम फूटते हैं, कि ऐसी रातों में कहीं कोई अधिक प्रदूषण नहीं हो पाता। अगर फटाका उद्योगों के आंकड़ों को देखें तो दिवाली के बाद हिंदुस्तान में पटाखों की सबसे बड़ी खबर महाराष्ट्र में गणेश उत्सव के दौरान होती है जिसमें पटाखों का इस्तेमाल इतना बिखरा हुआ होता है, और किसी एक रात या किसी एक शाम इनका इस्तेमाल नहीं होता, इसलिए प्रदूषण का घनत्व उतना अधिक नहीं होता। लोगों को अपने धर्म से अधिक अपने फेफड़ों की फिक्र करनी चाहिए। दिवाली के पटाखों से सबसे अधिक नुकसान हिंदू आबादी में बसे हुए हिंदू लोगों के फेफड़ों को होती है क्योंकि दूसरे धर्म के लोगों की बस्तियों में पटाखे उतने अधिक फोड़े नहीं जाते हैं।
अब लंका जीतकर अयोध्या लौटे हुए राम की वापसी की खुशी में मनाया जाने वाला दिवाली का त्यौहार इतने पुराने समय से चले आ रहा है कि जब दुनिया में बारूद का आविष्कार भी नहीं हुआ था। चीन में बारूद करीब 11 वीं सदी के आसपास बनाया गया और हिंदुस्तान में बारूद पहली बार चौदहवीं सदी के आसपास आया और लोगों का मानना है कि 14वीं और 15वीं सदी के बीच में किसी समय हिंदुस्तान में पटाखे बनने शुरू हुए। तो जाहिर है कि राम जब अयोध्या लौटे उस दिन न तो बारूद था, और न पटाखे थे और न कोई आतिशबाजी हुई थी। ऐसे में राम की वापसी की याद में मनाया जाने वाला दिवाली का यह त्यौहार पटाखों को लेकर जिद पर अड़े रहे ऐसा कोई ऐतिहासिक आधार नहीं बनता है, ऐसा कोई पौराणिक आधार भी नहीं बनता है। दूसरी बात यह कि अयोध्या में उस रात आबादी कितनी रही होगी? वह इतनी अधिक नहीं रही होगी कि उनके दिए जलाने से भी कोई प्रदूषण होता हो, इसलिए राम का नाम लेकर हिंदू आबादी वाले इलाकों में प्रदूषण का नुकसान फैलाना कोई समझदारी नहीं है यह सीधे-सीधे हिंदू धर्म के लोगों को अधिक नुकसान पहुंचाने की एक जिद है। कोई भी धर्म क्या जहरीले प्रदूषण को फैलाकर अपने मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाने की नसीहत देता है ? जिस दिन धर्म बना होगा, जिस दिन धर्म के त्योहार बने होंगे, त्यौहार मनाने की परंपराएं बनी बनी होंगी, उन दिनों में किसी बारूद का कोई अस्तित्व नहीं था। इसलिए आज लोगों को आज की दिक्कतों को देखते हुए, आज के प्रदूषण के खतरों को देखते हुए एक समझदारी दिखाने की जरूरत है। यह मौका एक धर्म के दूसरे धर्मों से बराबरी करने का नहीं है, मगर बराबरी करनी है तो भी यह बात साफ है कि दीवाली की एक रात के कुछ घंटों में प्रदूषण का घनत्व जितना बढ़ता है, वह जानलेवा रहता है और उससे होने वाले नुकसान की कोई भरपाई न धर्म कर सकता, न ईश्वर कर सकता। धर्म के ठेकेदार लोगों को इस कदर जिद नहीं करना चाहिए, और पटाखों को बंद करना चाहिए।
हिंदुस्तान में एक दूसरी बेवकूफी चल रही है कि पटाखों की एक किस्म को ग्रीन पटाखा कहा जा रहा है। ग्रीन शब्दों से ऐसा लगता है कि इससे कोई हरियाली पैदा हो जाएगी या कि यह पर्यावरण की बेहतरी करने वाला पटाखा है। इस बात को समझने की जरूरत है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा तय किए गए पैमानों के मुताबिक ग्रीन पटाखे वे हैं जिनमें परंपरागत पटाखों के मुकाबले प्रदूषण 30 फ़ीसदी कम होता है। ग्रीन पटाखों में प्रदूषण शून्य नहीं होता है, यह पुराने पटाखों के मुकाबले 70 फ़ीसदी रहता है। इसलिए यह सोच अपने-आपमें एक झांसा देती है कि कोई ग्रीन पटाखा हो सकता है। किसी को अदालत जाकर इस ग्रीन शब्द को हटाने की मांग करनी चाहिए जिसकी जगह कम प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे जैसा कोई शब्द इस्तेमाल करना चाहिए।
अब इस कारोबार से जुड़ी हुई एक और बात पर चर्चा कर ली जाए कि पटाखे न बनने से शिवकाशी जैसे एक-दो केंद्रों पर जो लाखों लोग रोजगार पाते हैं, उनका क्या होगा? तो सवाल यह है कि जब करोड़ों लोगों की सेहत को इससे नुकसान पहुंच रहा है, तो क्या उस कीमत पर भी इस कारोबार को रहने देना चाहिए, या इस कारोबार का कोई विकल्प वहां के लोगों को रोजगार और कारोबार की शक्ल में मुहैया कराया जाना चाहिए? हिंदुस्तान में ऐसे बहुत से दौर आए हैं। एक समय था जब देशभर में दसियों लाख एसटीडी पीसीओ खुले थे, और एक-एक पीसीओ में दो-दो तीन-तीन लोगों को रोजगार मिलता था। धीरे-धीरे मोबाइल फोन बढ़ते चले गए और आज शायद एसटीडी पीसीओ देश में कहीं भी बचे नहीं है। तो दसियों लाख लोगों का वह रोजगार एसटीडी पीसीओ से तो खत्म हो गया लेकिन लोग मोबाइल के सिम कार्ड बेचने लगे, मोबाइल फोन बेचने लगे, मोबाइल सुधारने लगे, या फिर मोबाइल से जुड़ी हुई छोटी-छोटी दूसरी चीजें बेचने लगे। आज भी शहरों में, हर चौराहे पर, हर सडक़ के किनारे लोग मोबाइल के स्क्रीन गार्ड बेचते मिलते हैं उसके हेडफोन बेचते हुए मिलते हैं। तो रोजगार एसटीडी पीसीओ से निकलकर मोबाइल फोन के सामान बेचने पर आ गया। यह सिलसिला पूरी दुनिया में हमेशा चलते रहता है और चलते रहेगा। एक जगह से रोजगार घट जायेंगे, और दूसरी जगह बढऩे लगेंगे। इसलिए तमिलनाडु के इस एक जिले में अगर बहुत अधिक पटाखा उद्योग हैं तो यह समझने की जरूरत है कि वह इलाका बिना बारिश वाला इलाका माना जाता है, और वहां नमी इतनी कम रहती है, शुष्कता इतनी अधिक रहती है कि वहां पर पटाखे बनाना, और उसके भी पहले से माचिस बनाना एक परंपरागत कारोबार रहा है। लेकिन यह भी याद रखने की जरूरत है कि इसी शिवकाशी में देश के सबसे अधिक कैलेंडर भी छपते थे और यहां पर छपाई का कारोबार भी खूब होता था। तो यह तो राज्य सरकार की फिक्र करने की बात है कि अगर किसी इलाके से पटाखों का कारोबार घटता है तो लोगों को वहां किस तरह का कारोबार मुहैया कराया जाए, और किस तरह के रोजगार वहां पर जुटाए जाएँ। लेकिन यह सिलसिला अंतहीन नहीं चलने देना चाहिए।
आखिर में एक बात रह जाती है कि हर बरस दिवाली के कुछ हफ्ते पहले इस किस्म की रोक खबरों में आती है, लोग अदालत तक दौड़ लगाते हैं, राज्य सरकारें तरह-तरह के प्रतिबंध लगाती हैं, उसके बाद फिर लोग प्रतिबंध को ढीला करने की कोशिश करते हैं। रोक का यह पूरा सिलसिला दिवाली के तुरंत बाद से अगले बरस के लिए तय हो जाना चाहिए क्योंकि यही वक्त है जब शिवकाशी जैसे बड़े पटाखा उत्पादक केंद्र में अगले बरस के लिए तैयारी शुरू हो जाती है। इसलिए अगर फटाका उत्पादकों को, फटाका मजदूरों को, और फटाका कारोबारियों को लंबा घाटा नहीं होने देना है, तो सरकारों को अगली दिवाली के लिए अभी से अपनी नीति घोषित कर देनी चाहिए। त्यौहार के पहले आखिरी हफ्तों में लाए गए प्रतिबंध बहुत ही खराब रहते हैं, और लोग उनके बावजूद बाजार से पटाखे खरीदने की हालत में रहते हैं, और व्यापारी पटाखे बेचने को मजबूर रहते हैं। इसके बाद तो फिर जब बड़ी हिंदू आबादी वाले संपन्न इलाकों में पटाखे फोडऩे के मुकाबले चलते हैं, तो किसी पुलिस थाने की औकात नहीं रह जाती कि वह वहां जाकर सुप्रीम कोर्ट के किसी हुक्म की याद दिला सके। फिर भी हमारा यह मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस बार जिस तरह अफसरों की कुर्सियों के नाम लेकर कहा है कि कौन-कौन जिम्मेदार रहेंगे अगर उनके इलाकों में छूट के घंटों के अलावा पटाखे फोड़े जाएंगे, तो लोगों को भी चाहिए कि अपने-अपने इलाकों में अगर अदालती रोक को तोडक़र लोग पटाखे फोड़ते हैं तो उसके वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करें और पुलिस को भेजें ताकि उसके बाद पुलिस कार्रवाई करने पर मजबूर रहे। यह बात सिर्फ हिंदू धर्म को लेकर नहीं कही जा रही है, और सिर्फ हिंदू धर्म पर रोक लगाने पर को लेकर नहीं कही जा रही है, यह बात हिंदुओं को बचाने के लिए कहीं जा रही है, आज का लिखा हुआ पूरा का पूरा हिंदुओं को बचाने के लिए है उनकी सेहत को बचाने के लिए है।
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मुंबई में इन दिनों खबरों की अंधड़ चल रही है। वहां पर शाहरुख खान के बेटे को नशे के एक कारोबार, या नशा पार्टी के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया, और उसकी रिहाई तक वह खबरों में लगातार बने रहा। इसी दौरान महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री नवाब मलिक ने नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के मुंबई के अफसर के खिलाफ लगातार एक अभियान छेड़ा जिससे जिससे उस अफसर, समीर वानखेडे, की विश्वसनीयता खतरे में पड़ी, और शाहरुख के बेटे की जांच के बजाए, अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो समीर वानखेड़े की जांच कर रहा है। इसी बीच नवाब मलिक ने महाराष्ट्र के भूतपूर्व भाजपा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उनकी पत्नी पर नशे के सौदागरों और तस्करों से संबंध रखने के आरोप लगाए और पति-पत्नी दोनों की नशे के उन सौदागरों के साथ तस्वीरें पोस्ट की, जो कि एनसीबी द्वारा ही गिरफ्तार करके जेल में रखे गए हैं। अब यह मामला चल ही रहा है कि देवेंद्र फडणवीस की पत्नी अमृता फडणवीस ने एक प्रेस कॉन्फे्रंस लेकर कहा कि अगर नवाब मलिक मर्द हैं, तो वे उनके मार्फत उनके पति देवेंद्र फडणवीस को निशाना न बनाएं। और उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन पर कोई आरोप लगाता है तो वह उसे छोड़ती नहीं है। खैर आरोप लगाने वाले को न छोडऩा, इसके कई मतलब हो सकते हैं लेकिन नवाब मलिक के मर्द होने को लेकर उन्होंने जो बात कही है, उसका सिर्फ एक ही मतलब होता है कि मर्द ऐसा काम नहीं करते हैं।
अमृता फडणवीस सार्वजनिक और सामाजिक जीवन में लगातार सक्रिय रहने वाली, और खबरों में भी बने रहने वाली, एक बैंक अफसर रही हैं, जिन पर मुंबई में बैंक का अफसर रहते यह आरोप भी लगे थे कि उनकी वजह से महाराष्ट्र सरकार या वहां की पुलिस के लाखों बैंक खाते उनकी बैंक में खोले गए थे। खैर वह बात तो आई-गई हो गई थी और हम आज जो लिखने जा रहे हैं, उसमें अमृता फडणवीस की राजनीति का कोई लेना-देना नहीं है, न ही शाहरुख खान और नवाब मलिक का, लेकिन हम एक सीमित बात को लेकर लिख रहे हैं कि किस तरह एक पढ़ी-लिखी, कामकाजी, कामयाब, हस्ती होने के बावजूद अमृता फडणवीस की भाषा में मर्दों के किए जाने वाले काम बहादुरी के दर्जे में आते हैं, और बिना कहे इस बात का आगे का मतलब यही निकलता है कि शायद औरतें ऐसा कम करती हैं।
हम इस जगह पर और दूसरी जगहों पर भी लगातार इस बात को लिख-लिखकर थक चुके हैं कि महिलाओं को नीचा दिखाने के काम में हिंदुस्तान की महिलाएं पीछे नहीं रहती हैं। आज महाराष्ट्र जैसे देश के सबसे प्रमुख राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके देवेंद्र फडणवीस की पत्नी रहने के अलावा अपने खुद के जीवन में एक कामयाब बैंक का अफसर रहने के बाद अमृता फडणवीस को यह बात समझ नहीं आ रही कि वे किसी मर्द को कायर मानने से इंकार कर रही हैं, या मर्द के बहादुर रहने की जरूरत बतला रही हैं, या वह औरत को कमजोर और कायर साबित करना चाहती हैं। कुल मिलाकर उनकी बात मर्दों का दबदबा बढ़ाने वाली और औरतों का दर्जा गिराने वाली है, जिसे किसी भी मायने में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन वे अकेली ऐसी नहीं हैं। हिंदुस्तान की संसद की बहुत सी ऐसी महिला सांसद हैं, जो प्रदर्शन करते हुए जब किसी सरकार के खिलाफ अपनी बात रखना चाहती हैं, तो मंत्रियों और अफसरों को चूडिय़ां भेंट करती हैं। मानो चूडिय़ां कमजोरी और नालायकी का प्रतीक हैं, और चूड़ी ना पहनने वाले मर्द मजबूत, बहादुर, और लायक होते हैं। यह सिलसिला राजनीतिक दलों की महिला कार्यकर्ता जगह-जगह करती हैं कि वे अफसरों को चूडिय़ां भेंट करती हैं कि अगर वे काम नहीं कर सकते, तो चूड़ी पहनकर घर बैठ जाएं। जिस कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी जैसी विश्वविख्यात नेता रही हो, जिसकी मुखिया सोनिया गांधी हो, उस पार्टी की नेता भी चूडिय़ां भेंट करने को प्रदर्शन का एक तरीका मानती हैं। दूसरी तरफ भाजपा में भी महिलाएं कम नहीं रहीं, विजयाराजे सिंधिया से लेकर सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सिंधिया तक बहुत सी प्रमुख महिलाएं भाजपा की राजनीति में रहीं, और इस पार्टी को भी चूडिय़ों को कमजोरी का प्रतीक मानने से बचना चाहिए था, लेकिन वह बच नहीं पाई। बाकी बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियां ऐसी हैं जो कि अपनी सोच से ही दकियानूसी हैं और वे महिलाओं के खिलाफ जितने किस्म की बातें कर सकती हैं, वह करती ही हैं, लेकिन जब मुंबई में एक काबिल और कामयाब, आधुनिक महिला बहादुरी के काम को मर्दों से जोडक़र और कमजोरी के काम को गैर मर्द से जोडक़र देख रही हैं, तो फिर बाकी महिलाओं से क्या उम्मीद की जाए।
हिंदुस्तान में यह सिलसिला ही खराब चले आ रहा है जिसमें महिला को सामाजिक व्यवस्था के तहत आगे बढऩे नहीं दिया गया, और फिर उसे कमजोर साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। समाज की पूरी की पूरी भाषा इसी तरह की बनाई गई कि लड़कियों के मन में कोई आत्मविश्वास पैदा न हो सके महिलाओं का अपने खुद पर कोई भरोसा न हो सके। और ऐसी भाषा को कई किस्मों के प्रतीकों से जोड़ दिया गया। महिलाओं को चूड़ी-कंगन से लेकर मंगलसूत्र और पायजेब तक से घेर दिया गया, उसके माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर से इस बात का प्रदर्शन किया गया कि वह शादीशुदा है, उसके नाम के साथ अनिवार्य रूप से श्रीमती जोडक़र उसका शादीशुदा दर्जा उजागर किया गया जबकि मर्दों के साथ ऐसी कोई चीज नहीं की गई। पूरा सिलसिला महिलाओं को कमजोर साबित करने और कमजोर बनाने का था जिससे उबर पाना किसी के लिए आसान नहीं है।
आज जब हिंदुस्तान की सभी पार्टियों की महिलाओं को अलग-अलग अपने स्तर पर अपनी पार्टियों के बीच, और तमाम पार्टियों को मिलकर भी महिला आरक्षण के लिए लडऩा चाहिए था, तो किसी पार्टी ने अपनी महिलाओं को महत्व नहीं दिया, कांग्रेस पार्टी ने भी नहीं। आज उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रियंका गांधी की साख दांव पर लगी हुई है, और वे तुरुप के पत्ते की तरह 40 फीसदी सीटें महिला उम्मीदवारों को देने की घोषणा कर चुकी हैं। लेकिन उनकी पार्टी ने कई दशक पहले से चले आ रहे महिला आरक्षण विधेयक का उस वक्त भी साथ नहीं दिया जिस वक्त वह ताकत में थी, और चाहती तो कोशिश करके उसे देश में लागू कर सकती थी, और आज एक तिहाई महिला सांसद संसद में रहतीं, और उसी अनुपात में महिला विधायक विधानसभा में रहतीं। भारत में महिलाओं के खिलाफ अन्याय ना सिर्फ भाषा में है बल्कि राजनीतिक दलों की रणनीति में भी है, और समाज के सारे तौर-तरीकों में भी है।
अमृता फडणवीस ने कोई बहुत अलग बात नहीं कही है, उसी भाषा को मर्दों के झांसे में अधिकतर महिलाएं इस्तेमाल करती हैं, और बोलचाल की जुबान में महिलाओं का कोई जिक्र भी नहीं होता, सारी भाषा पुरुष के हिसाब से बनाई गई है, और यह मान लिया गया है कि पुरुष के भीतर महिला शामिल है। भारत के कानून में और अदालतों की कार्यवाही में भी, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में भी, सिर्फ अंग्रेजी का पुरुष का ‘ही’ शब्द इस्तेमाल किया जाता है, और महिला के लिए ‘शी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं होता, और अदालत भी यह मानती है कि पुरुष में महिला शामिल है। यह पूरा सिलसिला गलत है और अदालतों को भी अपनी भाषा सुधारनी चाहिए। संसद को भी अपनी भाषा सुधारनी चाहिए। महिलाओं को पुरुषों की लादी गई भाषा का इस्तेमाल करने के बजाय देश में महिला आरक्षण लाने की कोशिश करनी चाहिए और सोशल मीडिया की, सार्वजनिक जीवन की सारी भाषा को आक्रामकता के साथ सुधारना चाहिए।
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हिंदुस्तान के एक फैशन ब्रांड सब्यसाची ने अभी कुछ मंगलसूत्र बाजार में उतारे तो उनके इश्तहार भी आए और इश्तहारों में एक महिला को मंगलसूत्र पहने हुए और अपने पुरुष साथी की छाती पर सिर टिकाए हुए दिखाया गया है। यहां तक तो ठीक था क्योंकि मंगलसूत्र तो भारतीय शादीशुदा महिला के पुरुष साथी का ही प्रतीक होता है, लेकिन इसमें यह महिला बिना अधिक कपड़ों के, काले रंग की ब्रा में दिख रही है, और यह तस्वीर खासी उत्तेजक लग रही है। ऐसी पोशाक में किसी मॉडल या किसी अभिनेत्री का दिखना कोई अटपटी बात नहीं है, बिकिनी में रोज ही बहुत सी मॉडल दिखती हैं, लेकिन किसी को उसके संदर्भ ही उत्तेजक बनाते हैं। अब इस महिला का संदर्भ क्योंकि एक शादीशुदा हिंदू भारतीय महिला का मंगलसूत्र था, जो कि पति की मंगल कामना करने वाला एक सुहाग या सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है, इसलिए इसे परंपरागत भारतीय हिंदू महिला के संदर्भ में देखा गया, और उस नाते सिर्फ एक काली ब्रा वाला हिस्सा लोगों को अटपटा लगा. मध्य प्रदेश के भाजपा सरकार के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने तुरंत यह चुनौती दी कि सब्यसाची मुखर्जी 24 घंटे में यह इश्तहार बंद करें वरना मध्य प्रदेश पुलिस उनके खिलाफ जुर्म दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार करने निकलेगी। आज की खबर के मुताबिक सब्यसाची ने लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए माफी भी मांग ली है और इस इश्तहार को हटा भी दिया है।
हिंदुस्तान इन दिनों विज्ञापनों को लेकर कई किस्म के विवाद देख रहा है। एक दूसरे ब्रांड की ज्वेलरी के विज्ञापन में हिंदू मुस्लिम को लेकर, या किसी और विज्ञापन में समलैंगिकता को लेकर जरा सी प्रगतिशीलता, उदारता दिखाई गई तो परंपरागत लोगों को वह इतनी बुरी तरह खटकी कि सोशल मीडिया पर उसके बायकाट का अभियान छेड़ गया और कंपनियों को वे विज्ञापन हटाने पड़े। इसमें बड़े-बड़े ब्रांड के विज्ञापन थे, और वह इस तरह कोई बदन दिखाने वाले भी नहीं थे, लेकिन लोगों को न हिंदू-मुस्लिम एकता की बात सुहाई और ना ही समलैंगिकता की बात। विज्ञापन देने वाली कंपनियां चाहतीं तो ऐसे विरोध के सामने डटे रहतीं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनको संकीर्णतावादी, परंपरावादी ग्राहकों के खोने का खतरा भी दिख रहा होगा, इसलिए उन्होंने ऐसे विज्ञापन वापस ले लेना बेहतर समझा होगा।
किसी कारोबार के ऐसे किसी एक-दो विज्ञापनों के चलने या न चलने को लेकर हमारी कोई फिक्र नहीं है क्योंकि दुनिया के बहुत से विकसित देशों में या आधुनिक देशों में विज्ञापनों में तरह-तरह का देह प्रदर्शन चलता है, और लोग उसके साथ जीना सीख लेते हैं, वह लोगों को खटकता भी नहीं है। लेकिन जो सबसे उदार देश माने जाते हैं, वहां पर भी राजनीतिक भेदभाव के, रंगभेद के, औरत-मर्द के भेदभाव के विज्ञापनों को बड़ी कड़ाई से रोका जाता है, और कई बार तो ऐसा भी लगता है कि कुछ बड़े ब्रांड भी ऐसे विवादास्पद विज्ञापन जानबूझकर तैयार करवाते हैं, ताकि बाद में उन पर प्रतिबंध लगे, और वे खबरों में बने रहें। इसलिए भारत की संस्कृति और यहां के लोगों का बर्दाश्त देखे बिना यहां कोई विज्ञापन बनाने पर उसका ऐसा नतीजा निकल सकता है। अब यह कानूनी रूप से तो गलत विज्ञापन नहीं था, लेकिन सांस्कृतिक रूप से यह विज्ञापन अटपटा जरूर था, क्योंकि एक शादीशुदा महिला के सुहाग का प्रतीक कहा जाने वाला यह मंगलसूत्र जिस तरह के देह प्रदर्शन के साथ दिखाया जा रहा था, वह मंगलसूत्र की परंपरा से मेल नहीं खा रहा था. कानूनी रूप से यह कोई जुर्म नहीं था लेकिन सांस्कृतिक रूप से लोग इस पर आपत्ति कर सकते थे।
भारत में इन दिनों अलग-अलग प्रदेशों, और देश, की सरकारें अपनी-अपनी सांस्कृतिक सोच, या अपनी धार्मिक प्राथमिकता के मुताबिक अपनी भावनाओं को बहुत जल्दी-जल्दी आहत पा रही हैं, और उन्हें लेकर बड़ी रफ्तार से मामले मुकदमे दर्ज हो रहे हैं। बहुत से मामले ऐसे हैं जो राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी की पसंद या नापसंद के आधार पर दर्ज होते हैं और फिर अदालतों में उनका कोई भविष्य नहीं रहता है। सब्यसाची के इस शहर के लिए मध्य प्रदेश के गृह मंत्री की सार्वजनिक चेतावनी, चेतावनी तो कम थी, वह एक सत्ता की धमकी अधिक थी, जिसके हाथ में जुर्म दर्ज करना और गिरफ्तार करना है. इसके बाद अदालत से क्या फैसला होता इसकी अधिक फि़क्र सत्तारूढ़ पार्टियों को रहती नहीं है क्योंकि वे अपनी जनता के बीच, अपने वोटरों के बीच, जो संदेश देना चाहती हैं, वह संदेश तो ऐसा केस दर्ज करने और ऐसी गिरफ्तारी से चले ही गया रहता। लेकिन ऐसे विज्ञापनों के विवाद से परे यह भी समझने की जरूरत है कि किसी देश में अगर बरदाश्त को इस तरह घटाया जाएगा, तो वह धीरे-धीरे आम जनता के दिमाग में बैठने लग जाएगा कि जो बात उसे सांस्कृतिक रूप से ठीक न लगे, उसे वह गैरकानूनी मानकर उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दे। और फिर हिंदुस्तान में पुलिस और अदालत का सिलसिला तो लोगों ने देखा हुआ है कि किस तरह बेकसूर लोगों को भी मुकदमे से निकलने में वर्षों लग सकते हैं।
इसलिए जब किसी लोकतंत्र में लोगों का बर्दाश्त सत्ता के उकसावे पर इस तरह घटाया जाए, उसे खत्म किया जाए, तो फिर वह सिलसिला खतरनाक हो चलता है। यह हवा का एक ऐसा झोंका है जो कि इस रवैये को आगे बढ़ाते चलेगा। जब लोगों को लगेगा कि खबरों में आने का यह एक अच्छा जरिया है, अपने वोटरों को रिझाने का यह एक असरदार तरीका है, तो लोग उस काम में लग जाएंगे। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा अपनी पार्टी भाजपा की परंपरागत सोच पर चलते हुए ही इस विज्ञापन का ऐसा विरोध कर रहे थे, और उनसे परे भी बहुत से लोगों को यह विज्ञापन अटपटा लगा होगा, लेकिन कानून इस विज्ञापन को गैरकानूनी नहीं मानेगा। अदालत में इस विरोध का कोई भविष्य नहीं है, इसका भविष्य केवल उस सरकार के हाथ है जिसके हाथ में पुलिस नाम का डंडा है। यह डंडा आगे चलकर किस राज्य में किस पर चलेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है, और लोकतंत्र में ऐसी लाठीबाजी को बढ़ावा देना भी ठीक नहीं है। हर जगह सत्ता को नापसंद कई अलग अलग सर हो सकते हैं जो कि इस डंडे से तोड़े जा सकते हैं।
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भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हमेशा कुछ बवाल खड़ा करता है। अभी ऐसे मैच के स्टेडियम से एक पाकिस्तानी खिलाड़ी की फोटो आई है जिसने पाकिस्तानी टीम की जर्सी पहनी हुई है, और उस पर धोनी का नाम लिखा हुआ है। जाहिर है कि वह धोनी का फैन है, और अपनी पसंद जाहिर कर रहा है। अब तक उसके खिलाफ किसी जुर्म दर्ज होने, या उसकी गिरफ्तारी की बात सामने नहीं आई है, लेकिन पाकिस्तान में भी ऐसा हो सकता है। हिंदुस्तान में तो ऐसे हर मैच के बाद में दो चार जगहों पर कहीं पटाखे फूटते हैं तो कहीं कोई खुशी मनाते हैं तो उसके बाद उनके खिलाफ जुर्म दर्ज होता है। अभी उत्तर प्रदेश में आगरा में कुछ कश्मीरी छात्रों ने भारत-पाकिस्तान मैच के बाद खुशी मनाई तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उनके खिलाफ राजद्रोह के आरोप में जुर्म दर्ज किया जाएगा। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व जज दीपक गुप्ता ने एक इंटरव्यू में दिलचस्प बातें कही हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भारतीय टीम को हराने के बाद पाकिस्तानी टीम की जीत का जश्न निश्चित रूप से राजद्रोह का अपराध नहीं है। उन्होंने कहा यह सोचना भी हास्यास्पद है कि यह राजद्रोह के बराबर है। ऐसी खुशी मनाने वालों पर आरोप लगाने के लिए कुछ दूसरी धाराएं हैं, और राजद्रोह के आरोप अदालत में टिक नहीं पाएंगे, इससे समय और जनता का पैसा दोनों बर्बाद होगा। उन्होंने यह भी कहा कि यह जरूरी नहीं है कि हर कानूनी काम अच्छा और नैतिक हो या सभी अनैतिक और बुरे काम गैरकानूनी हों। उन्होंने इस बात पर राहत जाहिर की कि हिंदुस्तान कानून के शासन से चल रहा है, न कि नैतिकता के नियम से. वे बोले-समाज के अलग-अलग धर्मों, और अलग-अलग समय में नैतिकता के अलग-अलग मतलब होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व जज का यह कहना मायने इसलिए रखता है कि उन्होंने पहले भी कई बार सार्वजनिक रूप से भारत के राजद्रोह कानून की व्याख्या की है और उन्होंने यह भी कहा है कि अब समय आ गया है कि राजद्रोह की धारा की संवैधानिकता को दी गई चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट को कदम उठाना चाहिए, और साफ साफ शब्दों में कहना चाहिए कि यह कानून वैध है, या अवैध है, और इसकी सीमाएं क्या हैं जो इसे इतना कड़ा बनाती हैं। उन्होंने कहा कि यह अंग्रेजों के समय का बनाया गया कानून है जिसे खत्म किया जाना चाहिए। इस मौके पर यह याद रखने की जरूरत है कि भारत के आज के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा ने भी राजद्रोह के कानून के इस प्रावधान को जारी रखने पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजी राज के दौरान पेश किया गया कानून आज के संदर्भ में आवश्यक नहीं हो सकता। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक चुनौती सुनी भी जा रही है।
हिंदुस्तान में ना केवल केंद्र सरकार बल्कि राज्य सरकारें भी असहमति को दबाने के लिए बार-बार राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल करती हैं। किसी सरकार से असहमति लोकतंत्र में एक आम बात रहनी चाहिए, और इससे लोकतंत्र के साथ-साथ सरकार को भी संभलने का और विकसित होने का मौका मिलता है। लेकिन हकीकत यह है कि अलग-अलग विचारधाराओं की पार्टियों की बहुत सी सरकारों ने राजद्रोह के कानून का बेजा इस्तेमाल किया है. जिस तरह आपातकाल के दौरान इंदिरा इज इंडिया का नारा लगाया गया था, उसी तरह आज कहीं कोई मोदी को हिंदुस्तान मान लेते हैं, तो कहीं किसी राज्य में किसी मुख्यमंत्री को ही राज्य मान लेते हैं, और उनकी आलोचना पर राजद्रोह के मुकदमे दर्ज हो जाते हैं। जैसा कि जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा है ऐसे मामले अदालत में टिकते नहीं है लेकिन राजद्रोह के मामले में क्योंकि जमानत मिलने में दिक्कत होती है इसलिए जमानत होने तक की जेल को सत्ता एक सजा की तरह लोगों को दिखा देती है, ताकि बाकी लोगों की असहमति उनकी जुबान पर न आ सके, या उनकी कलम से न निकल सके। सरकारों का राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल ऐसा अंधाधुंध है कि जिस पर चाहे उस पर यह कानून लगाकर उसे जेल में डाल दिया जाता है। लेकिन जब अदालतें इस कानून के इस्तेमाल को गलत पाती हैं, और लोगों को महीनों बाद या बरसों बाद जेल से छूटने का मौका मिलता है, तो उस वक्त अदालतें सरकारों पर जुर्माना और हर्जाना नहीं लगाती हैं कि जिसकी जिंदगी का इतना वक्त जेल में गया है, उसे सरकार हर्जाना दे, और इस बात को अदालतें अफसरों के रिकॉर्ड में दर्ज भी नहीं करवाती हैं कि उन्होंने बदनीयत से ऐसे मामले दर्ज किए थे, फिर चाहे वे उन्हें हांकने वाले नेताओं के दबाव में ही क्यों ना दर्ज किए गए हो।
हिंदुस्तान में लोकतंत्र की समझ लगातार कमजोर होते चल रही है, और ऐसी कमजोर समझ के देश में लोगों को आसानी से इस बात पर से सहमत कराया जा सकता है कि सत्ता से असहमति देश से असहमति है, या किसी सत्तारूढ़ नेता से असहमति देश के खिलाफ बगावत है। यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है और सुप्रीम कोर्ट को बिना देर किए हुए इस मामले की सुनवाई करके राजद्रोह के इस कानून को, या इसकी अधिक बेजा इस्तेमाल हो रही धाराओं को खत्म करना चाहिए। कहने के लिए तो केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में लगातार कहा है कि उसने गैरजरूरी हो चुके कानूनों को खत्म करने का अभियान छेड़ा हुआ है, और ऐसे सैकड़ों कानून खत्म किए गए हैं, लेकिन आज इस राजद्रोह कानून का सबसे अधिक बेजा इस्तेमाल अदालतों में जाकर साबित भी हो रहा है, इस कानून को, राजद्रोह कानून की धाराओं को खत्म किया जाना चाहिए। यह अदालती फैसला आने के पहले भी लोगों को सजा देने की नीयत से, कैद में रखने की नीयत से इस्तेमाल किया जा रहा है, यह लोकतंत्र के ठीक खिलाफ है, इनसे लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, और सुप्रीम कोर्ट को इसे प्राथमिकता के साथ सुनना चाहिए, और जो सरकारें, जो अफसर इसका बेजा इस्तेमाल करते हुए मिलते हैं, उनके रिकॉर्ड में ऐसे काम दर्ज भी होने चाहिए।
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केंद्र सरकार के बारे में एक खबर यह आई है कि वह लालफीताशाही और नौकरशाही को घटाने के लिए केंद्र के सचिवालय और मंत्रालय में कोई ऐसी प्रक्रिया लागू कर रही है, जिससे एक फाइल चार अफसरों से अधिक के हाथों तक ना जाए। आज देशभर में अलग-अलग सरकारों में, अलग-अलग सरकारी दफ्तरों में हालत यह रहती है कि एक-एक फाइल बहुत से कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच घूमते रहती है, और जिनका सरकार से वास्ता पड़ता है वे हिंदी के एक बड़े तकलीफदेह सीरियल, ऑफिस-ऑफिस की तरह तकलीफ पाते रहते हैं। अभी इस खबर से हमें केंद्र सरकार के कामकाज में क्या फर्क पड़ेगा यह तो समझ नहीं आ रहा, लेकिन सरकारी दफ्तरों से जिनका वास्ता पड़ता है वे जानते हैं कि वहां बैठे हुए लोगों की दिलचस्पी कागजों को अधिक से अधिक लटकाने और घुमाने में रहती है ताकि थके-हारे लोग खुद होकर रिश्वत की बात करें ताकि काम जल्दी निपट जाए। पर जब लोग इस इशारे को भी नहीं समझते हैं, तो सरकारी अमला खुलकर उन्हें बतलाता है कि इस कागज पर जब तक कुछ नहीं रखोगे, वह उड़ जाएगा, इसलिए कागज पर कुछ रखो। और इस वसूली के चक्कर में सरकारी अमला इतने गैरजरूरी कागजों को मांगता है कि जिन्हें जुटाने में लोग थक जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने रिटायर हुए मुख्य सचिव अरुण कुमार के पीछे लग जाने पर मजबूरी में उन्हें एक काम दिया था, और अपनी पूरी नौकरी काम न करने के लिए जाने जाने वाले अरुण कुमार को उन्होंने प्रशासनिक सुधार कमेटी का चेयरमैन बना दिया था, ताकि 1 बरस उनकी सहूलियतें जारी रहें। आसपास में काम करने वाले लोगों का अरुण कुमार का तजुर्बा यह था कि उनके चेंबर में फाइलें जाती थीं। लेकिन वहां से वापस नहीं आती थीं। ऐसे व्यक्ति को प्रशासनिक सुधार का जिम्मा देकर सरकार ने उससे साल भर के लिए पीछा तो छुड़ा लिया था, लेकिन उससे न कुछ और होना था, और न हुआ। पूरे देश की सरकारों को और दूसरे सरकारी संगठनों, संस्थाओं के दफ्तरों को अपने कामकाज को घटाने की जरूरत है, लेकिन सवाल यह है कि रिश्वत की संभावनाओं को घटाने की यह सलाह दे कौन, और उसे माने कौन?
दुनिया के विकसित और परिपक्व लोकतंत्रों में सरकारों के कागजात देखें, तो उन में लिखा रहता है कि किसी फार्म को भरने में अमूमन कितना वक्त लगेगा। हिंदुस्तान से अमेरिका जाने वाले लोग जब वीजा फार्म भरते हैं, तो उसमें वहां की सरकार ने कोशिश करके कम से कम जानकारी मांगने का काम किया है। ऐसा सभ्य लोकतंत्रों में सभी सरकारी कागजात में होता है। हिंदुस्तान में इसके ठीक उल्टे लोगों को हर सरकारी अर्जी के साथ इतने किस्म के कागज लगाने पड़ते हैं, जो कि उसी सरकारी दफ्तर में पहले से जमा रहते हैं, या उसी सरकारी दफ्तर के जारी किए हुए रहते हैं। किसी विश्वविद्यालय में परीक्षा की अर्जी भरने पर उसी विश्वविद्यालय की पुरानी अंक सूचियों को लगाना पड़ता है जो कि उसी विश्वविद्यालय में जमा हैं, वहीं से बनाई हुई हैं। अब तो तमाम काम का कंप्यूटरीकरण हुए बरसों गुजर चुके हैं, लेकिन अपने चंगुल में फंसे हुए किसी इंसान से अधिक से अधिक कागजात नहीं छोडऩे की सरकारी दफ्तरों की हवस खत्म नहीं होती है।
हिंदुस्तान के दफ्तरों को चाहिए कि अपने हर फार्म में यह देखें कि कौन-कौन सी जानकारी मांगना गैरजरूरी है, कौन-कौन से कागजात मांगना गैरजरूरी है। इसके अलावा अभी केंद्र सरकार जो पहल करते दिख रही है, वैसी पहल भी राज्य सरकारों में और स्थानीय संस्थाओं के दफ्तरों में जरूरी है कि फाइल कम से कम टेबिलों पर जाए, और जल्द से जल्द उसका निपटारा हो। इसके लिए जरूरी हो तो हर फाइल की स्थिति विभागों की वेबसाइट पर चलनी चाहिए ताकि लोगों को घर बैठे पता लग सके और खुद सरकार भी जांच सके कि कौन सी फाइल किस टेबल पर कितने दिन रही। ऐसा नहीं कि सरकार में सारे के सारे लोग खराब रहते हैं, बहुत से ईमानदार, और बहुत से भ्रष्ट लोग, ऐसे रहते हैं जो कि हर शाम ऑफिस छोडऩे के पहले टेबल खाली करके जाते हैं। ऐसे लोग काम को तेजी से निपटाते हैं फिर भले उसके पीछे उनकी कमाई की नीयत हो या ईमानदारी से काम करने की नीयत हो। देर से होने वाले काम से वसूली-उगाही का खतरा तो रहता ही है, देश की उत्पादकता का भी बड़ा नुकसान होता है। लोगों को सरकारी दफ्तरों के बार-बार चक्कर लगाने पड़ते हैं और कुल मिलाकर उन दफ्तरों में काम करवाने वाले दलालों के मार्फत काम करवाना पड़ता है। ऐसा करते हुए बहुत से लोगों के सामने यह दिक्कत भी सामने आती है कि वे जब दफ्तर पहुंचते हैं संबंधित अधिकारी या कर्मचारी छुट्टी पर, या गैरमौजूद मिलते हैं। होना यह चाहिए कि विभागीय वेबसाइट पर हर अधिकारी और कर्मचारी की छुट्टी दिख जानी चाहिए, या वे दौरे पर हैं, या पूरे दिन किसी बैठक में हैं, तो वह भी दिख जाना चाहिए ताकि लोगों का वक्त खराब ना हो। और क्योंकि यह बात मामला सरकारी कामकाज से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसमें लोगों की निजी जिंदगी का कोई राज भी उजागर नहीं हो रहा है। अफसर और कर्मचारी किस-किस दिन दफ्तर में नहीं रहेंगे, यह जानकारी सार्वजनिक रूप से उजागर होनी चाहिए।
हिंदुस्तान में जब से सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ है तबसे फाइलों का रहस्य थोड़ा सा घटा है, फिर भी यह आम लोगों के बस का नहीं रह गया कि वे अपने से संबंधित हर फाइल की कॉपी आरटीआई के तहत हासिल कर सकें, और फिर अपना काम तेजी से करवा सकें। लोग फाइल ले भी लेते हैं, तो भी उनका काम रफ्तार से नहीं हो सकता क्योंकि सरकार का ढांचा काम को रोकने के हिसाब से बनाया गया है, काम को करने के हिसाब से नहीं। सरकारी अमला अपनी जिम्मेदारियों की बात ही नहीं करता, अपने अधिकारों की बात करता है, उन्हें यह मालूम है कि वे कितने दिन तक कागज को रोक सकते हैं, क्या अड़ंगा लगाकर वापस भेज सकते हैं, और कौन-कौन सी दूसरी गैरजरूरी चीजों को मांग सकते हैं।
छत्तीसगढ़ का हमारा तजुर्बा यह कहता है कि यहां जब कभी प्रशासनिक सुधार के बारे में कोई बात तो हुई है, तो वह नारे की तरह अधिक हुई है, लेकिन हकीकत में जमीनी स्तर पर लोगों की परेशानी घटाने की कोई कोशिश नहीं हुई। सरकार को अपने अफसरों से प्रशासनिक सुधार का प्रयोग बंद करना चाहिए। इसके लिए तो आम जनता के बीच के लोगों को लेकर उनसे सलाह लेनी चाहिए कि कौन-कौन सी जानकारी गैरजरूरी है, और कौन-कौन सी प्रक्रिया वक्त बर्बाद करती है। सरकारें अगर यह सोचती हैं कि आम जनता का वक्त बर्बाद करने में कोई हर्ज नहीं है, तो यह भी समझ लेना चाहिए कि इससे राष्ट्रीय उत्पादकता भी प्रभावित होती है और जनता का सरकार में भरोसा तो खत्म होता ही है। यह भी एक बड़ी वजह रहती है कि एक कार्यकाल पूरा करने के बाद कोई-कोई सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव हार जाती है क्योंकि लोगों के मन में उसके कामकाज के खिलाफ एक नाराजगी बैठी रहती है। इसलिए न केवल जनता की तरफ से ऐसी मांग उठनी चाहिए, बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी को भी अपने खुद के भले के लिए ऐसी कोशिश करनी चाहिए जिससे अगले चुनाव के वक्त एंटी इनकंबेंसी कही जाने वाली नौबत ना आए, और लोग सरकार से नाराज होकर सत्तारूढ़ पार्टी को पूरी तरह ख़ारिज न कर दें।
दुनिया में जो लोग पिछले डेढ़ बरस में जगह-जगह हुए लॉकडाउन और वर्क फ्रॉम होम से अब तक पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं, उनके लिए आने वाला वक्त कुछ और चीजें लेकर आने वाला है। एक नई जुबान खबरों में सामने आ रही है, जिसमें वर्चुअल-रियलिटी विजन (मेटावर्स) का इस्तेमाल हो रहा है। और इसी को ध्यान में रखकर दुनिया में ईश्वर की तरह ताकतवर हो चुकी कंपनी फेसबुक ने अपना नाम बदलकर मेटा कर लिया है। अब यह समझना थोड़ा सा मुश्किल भी हो सकता है कि मेटावर्स से क्या होगा। तो इस बारे में फेसबुक सहित दूसरी कुछ कंपनियां मिलकर जो एक नया आभासी वातावरण, वर्चुअल एनवायरमेंट बना रही हैं, उसे समझने की जरूरत है। अभी लोगों ने इंटरनेट पर कंप्यूटर और मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हुए दो लोगों के बीच तरह-तरह की ऑडियोवीजुअल बैठकें की हैं, और इसके साथ-साथ तरह-तरह की कॉन्फ्रेंस भी की हैं। लेकिन अब मेटावर्स के बारे में कहा जा रहा है कि इसे कुछ खास किस्म के हेडसेट लगाकर ऐसा महसूस किया जा सकेगा कि लोग इस आभासी दुनिया के भीतर चल-फिर रहे हैं, उठ-बैठ रहे हैं, वहां दूसरे लोगों से मिल रहे हैं, वहां काम कर रहे हैं, वहां खरीदारी कर रहे हैं, और घर के भीतर भी ऐसे हेड सेट लगाकर लोग दफ्तर की तरह काम कर सकेंगे, या घर में बैठे-बैठे ही दुनिया की दूसरी जगहों की सैर कर सकेंगे। यह कंप्यूटर स्क्रीन पर चलने वाली बैठकों से बहुत ही अलग किस्म का अनुभव होगा और लोग ऐसा महसूस करेंगे कि वे सचमुच इस दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाकर वहां लोगों से मिल रहे हैं, सब कुछ देख रहे हैं, और कई किस्मों के काम कर रहे हैं। यह शायद किसी 3-डी फिल्म देखने की तरह होगा, जिसमें देखने वाले उसके भीतर जाकर उसे जी भी सकेंगे।
अब यह समझने की जरूरत है कि हाल के वर्षों में लोग अपनी असल जिंदगी के मुकाबले ऑनलाइन जिंदगी में जिस तरह उलझे हैं, और जिस तरह की संभावनाओं और आशंकाओं के बीच में अपनी ऑनलाइन मौजूदगी बढ़ाते चल रहे हैं, उस तरह अब अगर वे ऑनलाइन के आभासी वातावरण में जाकर वहां रह सकेंगे, बस सकेंगे, काम कर सकेंगे, वहीं लोगों से मिलजुल सकेंगे, सैर सपाटा कर सकेंगे, तो क्या होगा? उससे असल जिंदगी पर कैसा असर पड़ेगा? आज के मौजूदा रिश्ते पर कैसा असर पड़ेगा? ऐसी बहुत सी बातें टेक्नोलॉजी से परे लोगों के निजी मनोविज्ञान और समाज विज्ञान के नजरिए से देखने और समझने की रहेंगी। जब असल जिंदगी और आभासी जिंदगी के बीच के फासले को इस तरह घटाया जा रहा है, और जब लोगों को आभासी जिंदगी में और अधिक जीने की सहूलियत मुहैया कराई जा रही है जहां पर लोग असल जिंदगी की दिक्कतों से दूर वक्त गुजार सकेंगे, और कामकाज कर सकेंगे, तो फिर यह देखना होगा कि ऐसी आभासी जिंदगी के बढ़ते चलने से उनकी असल जिंदगी पर कैसा असर पड़ेगा? आभासी दुनिया के रिश्तों का असल दुनिया के रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा? और यह अंदाज लगाना अभी आसान इसलिए नहीं होगा कि अभी तो इस आने वाली, आभासी दुनिया, मेटावर्स की संभावनाओं और उसकी दखल के बारे में भी लोगों की कल्पनाएं काम नहीं कर रही हैं। लोगों को अभी यह पता नहीं लग रहा है कि ऐसी आभासी दुनिया या ऐसे आभासी वातावरण में क्या-क्या किया जा सकेगा। लेकिन चूंकि दुनिया की बहुत सी कंपनियां, बहुत से विश्वविद्यालय, बहुत से वैज्ञानिक संस्थान इस मेटावर्स पर काम कर रहे हैं, और जैसा कि फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने कहा, यह इतनी बड़ी सोच है कि फेसबुक जैसी कंपनी भी इसे अकेले पूरा नहीं कर सकती थी, इसलिए वह बाकी संस्थानों और कंपनियों के साथ इस प्रोजेक्ट में भागीदार बनी है। इसलिए आज किसी को इस सोच की विकरालता का कोई अंदाज नहीं है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि 10-15 बरस पहले किसी को फेसबुक की इन संभावनाओं का अंदाज नहीं था, या कि व्हाट्सएप के बारे में किसी ने सोचा नहीं था कि वह जिंदगी को इस तरह बदल देगा।
इंसानी मनोविज्ञान के जानकार लोगों, और समाज विज्ञान के जानकार लोगों के लिए यह एक बड़ी चुनौती का समय है कि वे ऐसे मेटावर्स के बारे में कल्पना करें और उससे इंसानों की जिंदगी में पढऩे वाले फर्क के बारे में सोचें। यह सोचना जरूरी इसलिए भी है कि जिस दिन बाजार इस नए औजार को हथियार की तरह इस्तेमाल करके इंसानों की मौजूदा जिंदगी को तहस-नहस करने, और उसे दुहने पर आमादा हो जाएगा, उस दिन लोगों के पास संभलने का वक्त भी नहीं होगा। यह भी सोचने की जरूरत है कि टेक्नोलॉजी और बाजार मिलकर आज के मौजूदा बाजार और रोजगार को किस तरह खत्म या प्रभावित कर सकते हैं। यह सोचना भी आसान नहीं है, और दूसरी बात यह कि मेटावर्स से जुड़ी हुई कुछ कंपनियों को छोडक़र बाकी बाजार पर इस आभासी वातावरण का क्या असर होगा, इसे भी बाकी कारोबार को सोचना चाहिए। इससे हो सकता है कि बहुत से कारोबार खत्म होने की नौबत आ जाए, बहुत से रोजगार पूरी तरह खत्म ही हो जाएं। यह भी हो सकता है कि इससे कारोबार और रोजगार का एक नया आसमान खुल जाए। कुल मिलाकर इस दुनिया के भीतर एक नई आभासी दुनिया बन जाने से हालात में जो भूचाल आएगा, उसे समझने का काम शुरू किया जाना चाहिए, और उसके हिसाब से लोगों को तैयारी भी करनी चाहिए। फिलहाल तो हम इतना ही सुझा सकते हैं कि तमाम लोगों को, जो पढऩा-लिखना जानते हैं, उन्हें इस विषय पर आने वाली हर नई जानकारी को जरूर पढऩा चाहिए क्योंकि इससे उनकी जिंदगी बहुत जल्द ही बदलने जा रही है। ऐसे बदलाव के लिए उन्हें दिमागी रूप से तैयार रहना चाहिए। आगे-आगे देखिए होता है क्या।
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एक जाने-माने शायर अदम गोंडवी के गुजरने से भी उनकी मौत नहीं हुई। अपनी लिखी बातों को लेकर वे हिंदुस्तान के बहुत तकलीफजदा लोगों की आवाज बनकर हमेशा बने रहेंगे। उनकी गज़लें और उनके शेर किसी दूसरे शायर से अलग, पूरी तरह लोगों के दुख-दर्द से उपजे हैं और दो-दो लाइनों में तकलीफ को इस कदर साफ-साफ बयां करना हमारे लिए भी आसान नहीं है। कमोबेश इसी किस्म की बातें हम आए दिन इस कॉलम में लिखते हैं और आज हमें यह लग रहा है कि हम एक दिन में इतनी जगह में इतनी बातें और किस तरह कह सकते हैं, बजाय अदम गोंडवी को यह जगह दे देने के। हम उनकी बातों से पूरी तरह सहमत हैं और जुड़े हुए हैं, इसलिए आज का संपादकीय उन्हीं का लिखा हुआ है।
सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आजाद है।
कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आंकिये
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।
सत्ताधारी लड़ पड़े है आज कुत्तों की तरह
सूखी रोटी देखकर हम मुफ्लिसों के हाथ में!
जो मिटा पाया न अब तक भूख के अवसाद को
दफन कर दो आज उस मफ्लूज पूंजीवाद को।
बूढ़ा बरगद साक्षी है गांव की चौपाल पर
रमसुदी की झोपड़ी भी ढह गई चौपाल में।
जिस शहर के मुन्तजिम अंधे हों जलवामाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है।
जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
रोशनी वो गांव तक पहुंचेगी कितने साल में।
——
आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
——
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
——
ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
जि़न्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया
——
ज़ुल्फ़-अंगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब
——
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये वन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
——
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
——
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
——
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को
——
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
——
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ्ऩ है जो बात, अब उस बात को मत छेडि़ए
गऱ ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेडि़ए
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेडिय़े
छेडिय़े इक जंग, मिल-जुल कर गऱीबी के खिलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडि़ए
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इजराइली जासूसी घुसपैठिया स्पाइवेयर पेगासस के भारत में इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका पर आज अदालत का बहुत महत्वपूर्ण फैसला आया है। इस फैसले के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज की देखरेख में अदालत ने विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई है जो भारत में पेगासस के इस्तेमाल की जांच करेगी कि इसका इस्तेमाल हुआ है या नहीं, और अगर हुआ है तो किस कानून के तहत, किन लोगों के खिलाफ इससे घुसपैठ की गई है। इस तरह के बहुत से पहलुओं को लेकर अदालत ने बड़ा साफ-साफ आदेश दिया है, और यह आदेश इस सुनवाई के दौरान अदालत में भारत सरकार द्वारा दिए गए तर्कों को खारिज करते हुए सामने आया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की एक बेंच ने यह साफ कर दिया है कि सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा का जिक्र कर देने से ही केंद्र सरकार इस जांच से नहीं बच सकती। सुनवाई के दौरान भारत सरकार कोई भी जवाब देने से बार-बार कतराती रही कि उसने इसका इस्तेमाल किया है या नहीं। सरकार का तर्क था कि ऐसी कोई भी जानकारी देना कि वह किस निगरानी या घुसपैठ सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करती है, उससे आतंकियों को सरकार के तरीकों की जानकारी मिलेगी और उससे वे चौकन्ने भी हो सकते हैं। लेकिन केंद्र सरकार के वकील के यह सारे तर्क मुख्य न्यायाधीश ने खारिज कर दिए और कहा कि अदालत को राष्ट्रीय सुरक्षा के पहलुओं को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है, और वह केवल यह पता लगाना चाहती है कि क्या पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल करके नागरिकों को निशाना बनाया गया था।
सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला देश में नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में एक बड़ा फैसला है। अदालत ने जिन बातों की जांच करने के लिए कहा है उनमें यह भी है कि क्या भारत के नागरिकों के फोन या दूसरे उपकरणों पर मौजूद जानकारी पाने के लिए, उनकी बातचीत सुनने के लिए, या किसी और मकसद से पेगासस का इस्तेमाल किया गया? अदालत ने यह भी जांच करने कहा है कि अगर ऐसा स्पाइवेयर हमला हुआ है तो किन लोगों पर हुआ है? अदालत ने यह भी कहा कि जब भारत के नागरिकों ने 2019 में पेगासस का इस्तेमाल करके उनके व्हाट्सएप अकाउंट हैक करने की जानकारी मीडिया की रिपोर्ट में दी थी, तो उसके बाद से सरकार ने क्या कदम उठाए या क्या कार्यवाही की थी? अदालत ने यह भी जानने के लिए कहा है कि किसी भी राज्य सरकार, केंद्र सरकार, या किसी केंद्रीय और राज्य एजेंसी ने पेगासस का इस्तेमाल किया है, और अगर किया है तो किस कानून, नियम, और वैध प्रक्रिया के तहत ऐसा किया है? अदालत ने इस एक्सपर्ट कमेटी से यह सिफारिश भी मांगी है कि कैसे इस देश में नागरिकों की निजता के अधिकार पर हमले को रोका जा सकता है कैसे नागरिकों के उपकरणों की अवैध निगरानी के संदेह पर शिकायत के लिए एक तंत्र विकसित किया जा सकता है, कैसे साइबर सुरक्षा को बढ़ाया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का आज का यह फैसला जनहित याचिका लेकर अदालत पहुंचने वाले कई लोगों के साथ-साथ देश के तमाम नागरिकों को राहत देगा जिसमें पेगासस के हमले से अब तक प्रभावित न होने वाले लोग भी हैं। अदालत में याचिका लगाने वाले कई ऐसे पत्रकार भी थे जिनको अभी उन पर पेगासस के हमले की जानकारी नहीं थी, लेकिन जिन्होंने व्यापक मीडिया हित में, और जनहित में याचिका लगाई थी। आज का यह फैसला केंद्र सरकार के तर्कों को पूरी तरह खारिज कर दे रहा है और यह फैसला साफ-साफ कह रहा है कि केंद्र सरकार केवल राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क देकर न्यायिक जांच से दूर नहीं हो सकती। उसने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा ऐसी डरावनी नहीं हो सकती कि अदालतें इसका नाम लेने भर से दूर हट जाएं। चूँकि मुख्य न्यायाधीश सहित दो अन्य न्यायाधीशों की बेंच ने यह फैसला दिया है, तो ऐसी गुंजाइश कम दिखती है कि इसके खिलाफ केंद्र सरकार किसी पुनर्विचार याचिका में जाए और केंद्र सरकार को अपनी किसी निगरानी को अदालती जांच-पड़ताल से बाहर रखने की कोई राहत मिल सके। अदालत का रुख बिल्कुल साफ है कि शासन द्वारा केवल राष्ट्रीय सुरक्षा का आव्हान करने से अदालत मूकदर्शक नहीं बन जाती है। फैसले में यह भी लिखा गया है कि भारत सरकार का अदालत में पेगासस के इस्तेमाल पर किसी बात की पुष्टि करने से बहुत स्पष्ट इनकार, पर्याप्त नहीं है, और अदालत ने याचिकाकर्ताओं की रखी गई सामग्री पर विचार और जांच की जरूरत कही है। अदालत ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में याचिकाकर्ताओं के द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच के लिए उनके तर्क मंजूर करने के अलावा अदालत के पास और कोई विकल्प नहीं है।
पेगासस को लेकर हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के बहुत से देशों की सरकारों और वहां की लोकतांत्रिक संस्थाओं में खलबली मची हुई है। कुछ देशों ने औपचारिक रूप से जांच-आदेश भी दिए हैं कि क्या उसके नेताओं पर किसी और देश में पेगासस के माफऱ्त हमला किया है, और घुसपैठ की है? और कम से कम 2 देश ऐसे हैं जहां पर अलग-अलग लोगों की हत्याओं के पीछे पेगासस के इस्तेमाल की बात खुलकर सामने आई है। इन 2 लोगों को मारने के पीछे किसी देश की सरकार का हाथ बताया जा रहा है। हिंदुस्तान में लोकतंत्र की यह मांग है कि जनता की जिंदगी में राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में अगर ऐसी घुसपैठ हुई है, तो सच सामने आना चाहिए।
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हिंदुस्तान का मीडिया पिछले 20-25 दिनों से शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान की गिरफ्तारी को लेकर उफना हुआ है। रात दिन टीवी पर उसी की तस्वीर दिखती है, और अधिकतर अखबारों के पहले पन्ने पर उसका कब्जा है। एक आलीशान जहाज पर चल रही पार्टी में नशा परोसा जा रहा था, और भारत के नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने उस पर छापा मारा तो बिना किसी नशे के आर्यन को भी उसी पार्टी में गिरफ्तार किया गया, और अब तक उसकी जमानत नहीं हो पाई है। बहुत से लोगों का यह मानना है कि क्योंकि शाहरुख खान ने एक-दो बरस पहले बिना नाम लिए देश के माहौल की कुछ आलोचना की थी, या देश में सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के खिलाफ कुछ कहा था, इसलिए उनके बेटे को निशाना बनाकर यह कार्यवाही की जा रही है। जो भी हो अगर किसी ने नशा किया है, या उसके पास से नशा पकड़ाया है, या वह नशे के कारोबार से जुड़ा हुआ मिला है तो उस पर कार्यवाही तो होनी चाहिए। फिर शाहरुख खान का बेटा होने के नाते आर्यन को हिंदुस्तान के सबसे महंगे वकीलों की सहूलियत हासिल है और आज जिस वक्त हम यह लिख रहे हैं उस वक्त उसकी जमानत के लिए देश के एक सबसे महंगे वकील मुकुल रोहतगी के पहुंचने की खबर है। इसलिए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि शाहरुख खान की तमाम दौलत की मदद से उनका बेटा हिंदुस्तानी अदालतों में इंसाफ पाने की अधिक संभावना रखता है बजाए किसी गरीब फटेहाल बेबस के।
लेकिन जितने टीवी चैनल या जितने अखबार सरसरी नजर में हमारे देखने में आते हैं, उनमें आर्यन की गिरफ्तारी की खबर के पीछे दबी-छुपी हुई भी एक खबर नहीं दिखती कि कर्नाटक में 12 बरस पहले एक आदिवासी छात्र को नक्सल साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, और उसके बूढ़े पिता को भी। अदालत ने अभी उन्हें उनके खिलाफ कोई भी सबूत न होने की वजह से रिहा किया है, और जिंदगी के इतने बरस गंवाने के बाद वे अब खुली हवा में आए हैं। लेकिन खबरों में उनका इतना भी महत्व नहीं है कि एक आदिवासी के साथ हो गई ऐसी ज्यादती को ठीक से जगह मिल सके, या मामूली जगह भी मिल सके। इससे यह पता चलता है कि देश में लोकतंत्र का क्या हाल है। जब लोकतंत्र में एक गरीब आदिवासी छात्र और उसके बूढ़े पिता के साथ हो रही ऐसी सरकारी और पुलिसिया ज्यादती के खिलाफ किसी के चेहरे पर कोई शिकन ना पड़े, तो उसका मतलब देश में ऐसी सरकारों और ऐसी अदालतों का बढ़ जाना है जहां से किसी फिल्मी सितारे के बेटे को भी हो सकता है कि बेकसूर होने पर भी इंसाफ ना मिल सके। लोकतंत्र में सबसे कमजोर और सबसे गरीब को इंसाफ न मिलने का एक खतरा यह रहता है कि धीरे-धीरे बेइंसाफी उस लोकतंत्र का मिजाज बनने लगता है। देश में लोकतंत्र के पैमाने नीचे आने लगते हैं, और अदालतों को इंसाफ का ख्याल रखना जरूरी नहीं रह जाता है।
देशभर में केंद्र सरकार और अलग-अलग प्रदेशों की एजेंसियों ने जिस तरह के मामलों को अदालतों में बढ़ावा दिया है और जिस बड़े पैमाने पर ये मामले अदालतों से खारिज हो रहे हैं, उससे भी पता लगता है कि लोकतंत्र में इंसाफ की जरूरत को ही नकार दिया जा रहा है। ऐसे में हो यह रहा है कि हर जगह सत्ता पर बैठे लोग अपनी मर्जी से चुनिंदा लोगों को परेशान करने के लिए कानूनों का बेजा इस्तेमाल करते हैं और जितने समय तक किसी बेकसूर को सता सकते हैं, सताते चलते हैं, जमानत में जितनी देर कर सकते हैं उतनी देर करते हैं, और फिर आखिर में सरकारें अदालतों में मुंह की खाती हैं। लेकिन इंसाफ कहा जाने वाला यह सिलसिला इसी तरह चल रहा है और देश की सबसे बड़ी अदालत भी सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं कर पा रही हैं। अदालतों का हाल तो यह है कि सरकार खाली कुर्सियों के लिए जज नहीं बना रही, और देश का मुख्य न्यायाधीश सरकार की मौजूदगी में बतलाता है कि 26 फ़ीसदी अदालतों में महिला जजों के लिए शौचालय तक नहीं है, और 16 फीसदी अदालतों में तो किसी जज के लिए शौचालय नहीं है। सरकार का न्यायपालिका के लिए यह रुख बताता है कि न्यायपालिका को गैरजरूरी मान लिया गया है, और ऐसा इसलिए किया गया है कि जांच एजेंसियों के रास्ते मनमानी को और अधिक वक्त तक जारी रखा जा सके।
लेकिन सरकार का यह सिलसिला ऐसे लोकतंत्र में कमजोर नहीं पड़ सकता जहां पर कमजोर तबके के लिए बाकी लोगों के मन में कोई रहम न हो, कोई फिकर न हो। आज देश की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में सबसे अधिक संख्या में अल्पसंख्यक, दलित, और आदिवासी तबकों के लोग हैं, क्योंकि ये लोग वकीलों का खर्च नहीं उठा सकते, जांच एजेंसियों में जो भ्रष्ट लोग हैं उन्हें रिश्वत नहीं दे सकते, और अदालतों में जो भ्रष्ट लोग हैं उन्हें खरीद नहीं सकते, सबूतों को तोड़ मरोड़ नहीं सकते, और गवाहों को प्रभावित नहीं कर सकते। जिनके पास पैसा है वे इनमें से सब-कुछ कर सकते हैं। इसलिए आज हिंदुस्तान में इंसाफ पाने के लिए लोगों का संपन्न और सक्षम, ताकतवर और दबदबे वाला होना जरूरी है। जहां पहले कुछ घंटों से ही देश का मीडिया शाहरुख खान के बेटे के लिए बेचैन हो चला है, वहां पर अल्पसंख्यक तबके के आम और गरीब लोग 20-20 बरस जेल में कैद रहकर अदालत से बेकसूर साबित होकर बाहर निकल रहे हैं, तब तक उनके परिवार की जिंदगी खत्म हो चुकी रहती है, उनकी खुद की जिंदगी खत्म हो चुकी रहती है।
देश के नक्सल इलाकों में इसी तरह बरसों से बेकसूर आदिवासी कैद हैं, और सरकारें बार-बार यह कहती हैं कि उनके मामलों को तेजी से निपटाया जाएगा, या उन्हें छोड़ा जाएगा, लेकिन होता इनमें से कुछ नहीं है। कर्नाटक के जिस छात्र की हम बात कर रहे हैं उस कर्नाटक के बारे में अभी-अभी हमने लिखा है कि किस तरह वहां कांग्रेस, भाजपा, और जनता दल तीनों के मुख्यमंत्री रहे लेकिन यह बेकसूर आदिवासी छात्र अपने बाप सहित जेल में बंद रहा। इसलिए जेल में बंद रहा कि वह पत्रकारिता का छात्र था और उसके पास भगत सिंह की किताब सहित कुछ दूसरे लेख मिले जिनमें गांव की समस्या दूर न होने पर संसदीय चुनावों के बहिष्कार की बात लिखी हुई थी। देश का सबसे संपन्न तबका वोट डालने न जाकर वैसे भी चुनावों का बहिष्कार करता ही है, लेकिन अगर किसी ने जागरूकता के साथ इस मुद्दे को लिख रखा है, तो उसे नक्सल करार दे दिया गया। इस देश के लोगों को सोचना है कि क्या तमाम ताकत और असर हासिल रहने पर भी शाहरुख खान का बेटा अधिक हमदर्दी का हकदार है, और बरसों तक बूढ़े बाप के साथ जेल में बंद आदिवासी छात्र हमदर्दी का हकदार नहीं है? जिसकी कि कोई चर्चा भी नहीं हो रही है। यह इस देश की जनता का हाल है जिसके बीच बेबस लोगों की कोई बात नहीं होती है, और जिन्हें देश के सबसे महंगे वकील हासिल हैं, उनकी फिक्र में देश का मीडिया दुबला हुए जा रहा है।
हम कहीं भी शाहरुख खान के बेटे के जमानत के हक को कम नहीं आंक रहे हैं, लेकिन हम सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि इस देश में बेइंसाफी झेल रहे लोगों के बीच प्राथमिकता की लिस्ट में आर्यन खान दसियों लाख लोगों के बाद ही आ सकता है, फिर चाहे वह अखबार के पहले पन्ने पर एकाधिकार क्यों न पा रहा हो।
किसी हार में भी कोई जीत हो सकती है यह सोचना थोड़ा मुश्किल है। बहुत पहले सुदर्शन की बाबा भारती और खडग़सिंह वाली विख्यात कहानी, ‘हार की जीत’ में जरूर ऐसा था, लेकिन असल जिंदगी में बीती रात भारत और पाकिस्तान के मैच में यह देखने मिला। मैच में हिंदुस्तान खासी बुरी तरह हारने के बाद भी बहुत अच्छी तरह जीत गया। खुद पाकिस्तान में पाकिस्तान की जीत की जिस किस्म से खुशी मनाई जा रही है, उसी किस्म से सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के क्रिकेट प्रेमी इस बात की खुशी भी मना रहे हैं कि भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली ने मैच हारने के बाद किस तरह पाकिस्तानी कप्तान को बधाई दी, हंसते-मुस्कुराते हुए हर खिलाड़ी से गले मिले, और पूरे मैच के दौरान भी तनाव मुक्त रहे। इस पर पाकिस्तान के लोगों ने इतना सुंदर लिखा कि बस। एक महिला ने लिखा कि इतिहास इन तस्वीरों को याद रखेगा। एक दूसरे ने लिखा कि विराट कोहली बहुत अच्छे शख्स हैं जो जानते हैं कि यह खेल है युद्ध नहीं। एक खिलाड़ी ने लिखा-‘खुद एक खिलाड़ी होने के नाते मुझे यह लम्हा बहुत अच्छा लगा क्योंकि खेलना ही खेल भावना है शाबाश विराट कोहली’। एक और पाकिस्तानी ने मजाकिया लहजे में लिखा-‘विराट कोहली को अपनी टीम में शामिल होने का न्योता देने में कोई नुकसान नहीं है वह पहले से ही घुले मिले हुए हैं’। एक और ने लिखा-‘वहां भारतीय और पाकिस्तानी साथ साथ खेल रहे हैं और यहां हम बेवकूफों की तरह लड़ रहे हैं’। भारतीय कप्तान विराट कोहली ने मैच के दौरान भी एक बड़प्पन का खुशमिजाज बनाए रखा और मैच के बाद भी उन्होंने कहा कि हम हारे हैं जिसे हम मंजूर करते हैं और पाकिस्तान को जीत का श्रेय देते हैं उन्होंने वाकई हमें हर क्षेत्र में मात्र दी। कोहली ने कहा उनके बल्लेबाजों ने जिस अंदाज में बल्लेबाजी की उसने हमें कोई मौका नहीं दिया। कोहली के अलावा धोनी भी पाकिस्तानी खिलाडिय़ों से खेल भावना में अच्छे मिजाज में बात करते दिखे, और धोनी की भी तारीफ हो रही है।
भारत और पाकिस्तान के बीच सरहद पर जो नफरत चलती है, और जो जंग राजधानियों में बैठकर लड़ी जाती है, और सरहद के दोनों तरफ के जो धर्मांध कट्टरपंथी लगातार एक जंग की उम्मीद करते हैं, और दुनिया के हथियारों के सौदागर इन दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ाते चलने में भरोसा रखते हैं, और जिस तरह इन दोनों देशों के नेता कई बार अपनी घरेलू दिक्कतों को अपने वोटरों की नजरों से पीछे धकेलने के लिए दूसरे देश पर तोहमत लगाते हैं, उन सबको अगर देखें तो लगता है कि जिस तनाव का जिक्र करके क्रिकेट को रोकने की कोशिश की जा रही है, उस तनाव को तो क्रिकेट कम ही करता है। और महज क्रिकेट नहीं इन दोनों देशों के बीच लेखक, शायर, संगीतकार और कलाकार भी तनाव को कम करने में मदद करते हैं, यह एक अलग बात है कि दोनों तरफ के कट्टरपंथी अपनी हस्ती और मौजूदगी को साबित करने के लिए वक्त-वक्त पर तोहमतें लगाते हैं, हिंसा करते हैं, और सरहद पार के लोगों को भगाने की बात करते हैं। ऐसा सिर्फ पाकिस्तान में होता है ऐसा भी नहीं, हिंदुस्तान में भी मुंबई में कई बार ऐसा होता है। मुंबई में भी टीवी के रियलिटी शो में हिस्सा लेने वाले कुछ पाकिस्तानी कलाकारों को वापिस भेज दिया जाता है क्योंकि सांप्रदायिक संगठन उनके खिलाफ तनाव खड़ा करने लगते हैं।
अभी जब भारत और पाकिस्तान के बीच टी-20 का यह मैच खेला जाना तय हुआ था उस वक्त हिंदुस्तान में भाजपा के मददगार माने जाने वाले और एक कट्टर मुस्लिम राजनीति करने वाले असदुद्दीन ओवैसी ने खुलकर इस मैच का विरोध किया था, और कहा था कि जब कश्मीर में आतंकी हमलों में हिंदुस्तानी सैनिक मारे जा रहे हैं, तब हिंदुस्तानी टीम को पाकिस्तानी टीम के साथ क्रिकेट क्यों खेलना चाहिए। यह बात अपने आपको एक कट्टर राष्ट्रवादी साबित करने की कोशिश अधिक थी जिसमें अंतरराष्ट्रीय समझ-बूझ छू भी नहीं गई थी। ओवैसी कट्टरता की बातें करने के लिए जाने जाते हैं, और मुस्लिमों के बीच अपने एक सीमित समर्थक तबके को बाकी हिंदुस्तानियों के मुकाबले अधिक राष्ट्रवादी साबित करने के लिए, अधिक बड़ा देशभक्त साबित करने के लिए, उन्होंने इस किस्म की भडक़ाने वाली बात की थी। ऐसी बात तो हिंदुस्तान के सबसे अधिक सांप्रदायिक दूसरे हिंदू संगठनों ने भी नहीं की थी, उन्होंने भी पाकिस्तान के साथ मैच के बहिष्कार का कोई फतवा नहीं दिया था जो कि ओवैसी ने दिया।
लेकिन विराट कोहली की दरियादिली और खेल भावना के इस मौके पर जब चारों तरफ सब कुछ अच्छा अच्छा लिखा जा रहा था उसके बीच भी एक गंदी बात करने से भारत के एक बड़े उद्योगपति हर्ष गोयनका नहीं चूके। हर्ष गोयनका ट्विटर पर सक्रिय रहते हैं और कई किस्म की सकारात्मक बातें भी पोस्ट करते हैं, लेकिन कल उन्होंने पाकिस्तान के टॉस जीतने के बाद यह लिखा- ‘पाकिस्तान ने टॉस जीता और यह तय किया कि वह इस सिक्के को वापस पाकिस्तान ले जाएंगे ताकि वहां की अर्थव्यवस्था सुधर सके’। यह बात एक मजाक के रूप में तो तीखा तंज हो सकती थी, लेकिन कल का मौका बड़प्पन दिखाने का था, और दोनों देशों के बीच जिसने बड़प्पन दिखाया, उसने महफिल लूटी। हर्ष गोयनका की इस बात पर एक प्रमुख पत्रकार हृदयेश जोशी ने तुरंत लिखा कि इस ट्वीट को देखकर मास्टर कार्ड का विज्ञापन याद आ रहा है जो कहता है कि कुछ चीजें पैसों से नहीं खरीदी जा सकतीं। वैसे ही गोयनका साहब के लिए तमीज किसी मास्टर कार्ड से नहीं खरीदी जा सकती।
भारत और पाकिस्तान के बीच मैच दोनों देशों में खेल की सबसे बड़ी उत्सुकता का मौका रहता है, और इससे बड़ा मैच इन दोनों देशों के लिए दुनिया में और कुछ भी नहीं होता है। ऐसे ही मौके पर खेल यह साबित कर सकता है कि वह सरहद के सारे तनाव को कम करने की ताकत रखता है। ऐसे ही मौके पर खिलाड़ी यह साबित कर सकते हैं कि वे नेताओं और फौजी जनरलों के मुकाबले बेहतर इंसान हैं। ऐसे ही मौके पर क्रिकेट का बैट न केवल गेंद को मैदान के बाहर फेंक पाता है बल्कि हथियारों के सौदागरों की तमाम किस्म की साजिशों को भी दोनों देशों से बाहर फेंकने की कोशिश करता है। ऐसे मौके एक दरियादिली और बड़प्पन दिखाने के रहते हैं, मोहब्बत दिखाने के रहते हैं, और भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली ने सचमुच यही एक विराट दिल कल दिखाया, जब उन्होंने हार के बावजूद पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को लिपटाकर बड़प्पन और मोहब्बत से बातें की, और हारते हुए भी उन्होंने तनाव को अपने पर हावी नहीं होने दिया। यह सिलसिला जारी रखना चाहिए, सरहद के दोनों तरफ बुरे लोग भी हैं, और अच्छे लोग भी हैं, बुरे लोग दिखते अधिक हैं, लेकिन अच्छे लोग गिनती में ज्यादा हैं। ऐसे ही मौके हैं जब लोगों को दोनों देशों के बीच दोस्ती की संभावनाओं को टटोलना चाहिए जिन्हें कि वोटों के चक्कर में पड़े हुए नेता नहीं तलाश सकते। खेल भावना ने बहुत ही तंग नजरिए वाले राष्ट्रवाद को उसकी जगह दिखा दी है, और इसके लिए किसी आंदोलन की जरूरत नहीं पड़ी, झंडे-डंडे की जरूरत नहीं पड़ी, और थोड़ी सी मोहब्बत, और थोड़ी सी दरियादिली से यह काम हो गया। पाकिस्तान की टीम मैच जीतने की लिए, और विराट कोहली और उनकी टीम हार के बाद भी मोहब्बत का बर्ताव करने के लिए बधाई की हकदार है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कर्नाटक की एक जिला अदालत से अभी एक आदिवासी नौजवान को उसके बूढ़े पिता के साथ बरी किया गया है जिन्हें पुलिस ने नक्सलियों से संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया था। इस आदिवासी छात्र के हॉस्टल के कमरे से जिन किताबों को जप्त करके उस पर नक्सली होने का आरोप लगाया गया था, उनमें भगत सिंह की लिखी एक किताब भी थी। उसके पास अखबारों की कुछ कतरनें भी थीं, और एक चिट्ठी लिखी हुई थी कि जब तक गांव को बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलती हैं, तब तक संसद के चुनावों का बहिष्कार करना चाहिए। अब 32 बरस का हो गया यह नौजवान अपने पिता के साथ 9 बरस तक चले इस मुकदमे के बाद बरी किया गया क्योंकि पुलिस कुछ भी साबित नहीं कर सकी और उसके पास कोई सबूत नहीं था। जबकि मामले को दायर करते हुए पुलिस ने इस आदिवासी छात्र के मोबाइल फोन से नक्सलियों की मदद करने और राजद्रोह का अपराध करने की बातें कही थीं, लेकिन इसके मोबाइल फोन के कॉल डिटेल्स तक पुलिस ने अदालत में पेश नहीं किए। देश में बेकसूरों को कुचलने के लिए जो यूएपीए नाम का एक बहुत ही कड़ा कानून इस्तेमाल किया जा रहा है, उस कानून के तहत यह मामला चलाया गया था, और यह गरीब आदिवासी परिवार अपने 9 बरस खोने के बाद अब खुली हवा में सांस ले रहा है। लेकिन अदालत ने इन्हें सिर्फ बरी किया है, इन्हें बाइज्जत बरी नहीं किया है, इसलिए अब ये फिर ऊंची अदालत जा रहे हैं, ताकि उन्हें बाइज्जत बरी किया जाए। फैसले में अदालत ने यह तक लिखा कि चुनाव के बहिष्कार का आह्वान करने की जो चिट्ठी है, तो उसे पत्रकारिता के छात्र ने इसलिए लिखा क्योंकि नेताओं ने उस आदिवासी गांव के लोगों की लंबे समय से चली आ रही मांगों को पूरा नहीं किया था, और इसे पढऩे पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि इस पत्र में स्थानीय लोगों की मांगें हैं।
हिंदुस्तान की सरकारों को इस तरह के कानून बहुत अच्छे लगते हैं जिनमें लोगों के मौलिक अधिकारों को कुचला जा सकता है, उन्हें जमानत पाने से भी रोका जा सकता है, और बरसों तक बिना किसी सुनवाई के, बिना किसी ठोस सुबूत के उन्हें जेलों में बंद करके रखा जा सकता है। यह सारा कानूनी इंतजाम अंग्रेजों के वक्त किया गया था ताकि हिंदुस्तानियों को अदालतों के ढकोसले से भी कोई राहत ना मिल सके, और आजाद हिंदुस्तान की काली सरकारों ने भी इन गोरे कानूनों को और अधिक कड़ा बनाकर जारी रखा और अपने ही लोगों की असहमति को कुचलने का काम किया। हिंदुस्तान में किसी को कुचलना हो तो उसके घर से नक्सलियों के बारे में एक किताब का बरामद होना काफी रहता है. पता नहीं संसद की लाइब्रेरी में नक्सलियों के बारे में किताबें हैं या नहीं, सुप्रीम कोर्ट की लाइब्रेरी में नक्सलियों की किताबें हैं या नहीं। लोकतंत्र से असहमति रखने की किताबें भी अगर किसी को 9 बरस तक जेल में डालने के लिए एक हथियार की तरह इस्तेमाल की जा रही है, तो इस पर धिक्कार है। और कर्नाटक के बारे में यह बात समझने की जरूरत है कि यह 2012 में दर्ज मामला है, और तबसे लेकर अब तक वहां पर भाजपा, कांग्रेस, जनता दल, इन सभी की सरकारें रहीं, इन तीनों पार्टियों के मुख्यमंत्री रहे लेकिन एक गरीब आदिवासी छात्र को उसके बूढ़े बाप के साथ जेल में फंसाकर रखा गया और वे अदालत के धक्के खाते रहे।
हिंदुस्तान में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो या किसी भी गठबंधन की, उन्होंने कभी ऐसे अलोकतांत्रिक कानूनों को हटाने के बारे में कोई कोशिश नहीं की। जब जो सत्ता में रहते हैं उन्हें ऐसा चाबुक पसंद आता है, उन्हें ऐसी हथकड़ी पसंद आती है, जिसे असहमत लोगों के हाथों पर डाला जाए, उन्हें असहमति की जुबान छीन लेने के औजार पसंद आते हैं, और इसलिए हिंदुस्तान में ऐसे भयानक कानून और कड़े बनाए जा रहे हैं। 1967 में बनाया गया यूएपीए कानून 2019 में मोदी सरकार ने संसद में एक संशोधन करके और कड़ा कर दिया, और उसमें कई किस्म की धाराएं जोड़ दीं जिसमें जांच एजेंसियों और मुकदमा चलाने वाली एजेंसी पर से जिम्मेदारी हटा दी गई, और बेकसूर नागरिकों के अधिकार और घटा दिए गए। लोकतंत्र में कानून की जो बुनियादी जरूरतें रहती हैं उन सबको घटाते हुए कानून को इतना कड़ा कर दिया गया है कि जिसके खिलाफ यह इस्तेमाल हो उसके बचने की कोई गुंजाइश न रहे, और 10-20 बरस बाद जाकर हिंदुस्तान के कुछ मुसलमान अगर आतंक के आरोपों से निकलकर बाहर आ रहे हैं तो उनकी जिंदगी भी क्या जिंदगी बच जाती है?
20-20, 25-25 बरस तक लोग जेलों में कैद रहे आतंक के मुकदमे झेलते रहे और आखिर में बिना किसी सबूत के उनको छोड़ देना पड़ा क्योंकि सुबूत कभी था ही नहीं। लोगों को केवल खुली जमीन से हटाने और इसे दूसरे लोगों के लिए एक धमकी की तरह इस्तेमाल करने की नीयत केंद्र सरकार की भी रही, राज्य सरकारों की भी रही, और इनसे शायद ही कोई पार्टी बची रही। भाजपा से लेकर कांग्रेस तक, और ममता बनर्जी से लेकर दूसरे क्षेत्रीय दलों के मुख्यमंत्रियों तक इन सबने ऐसे कानूनों को एक ताकतवर हथियार की शक्ल में पाया, और उसका जमकर इस्तेमाल किया। दिक्कत यह है कि देश के सुप्रीम कोर्ट तक ने इन कानूनों के अलोकतांत्रिक होने के बारे में कोई फैसले नहीं दिए, और सरकारें मनमर्जी से इनका इस्तेमाल कर रही हैं।
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अफगानिस्तान 2011 में जब अमेरिकी फौजों के काबू में था, और कहने के लिए वहां पर एक स्थानीय सरकार थी, उस वक्त काबुल के एक पांच सितारा होटल में तालिबान ने एक आत्मघाती हमला किया था, जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे, मरने वालों में बहुत से अफगानी भी थे. अभी 9 साल बाद तालिबान ने उन आत्मघाती हमलावरों के परिवारों को उसी होटल में न्योता देकर बुलाया और उन्हें पैसे और तोहफे दिए, उनका सम्मान किया। इस मौके पर अफगानिस्तान के गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी भी मौजूद थे और उन्होंने कहा कि ये आत्मघाती हमलावर देश के, और हमारे हीरो हैं। इन हमलावरों के परिवारों को नगद रकम के साथ एक-एक जमीन देने का वादा भी तालिबान ने किया था और अब सरकार बनने पर उसे पूरा किया जा रहा है। इस बात को लेकर अफगानिस्तान के बहुत से दूसरे लोग नाराज भी हैं क्योंकि इस तरह के जितने आत्मघाती हमले तालिबान आतंकियों ने किए थे, उनमें मरने वाले अधिकतर अफगान ही थे। जिस होटल में यह सम्मान समारोह हुआ उस होटल पर तालिबान ने दो बार हमला किया था जिसमें दर्जनों अफगान मारे गए थे। आज तालिबान ने इन हमलावरों की तारीफ में एक वीडियो भी जारी किया है जिसमें उन हमलों में इस्तेमाल की हुई आत्मघाती जैकेट को भी दिखाया गया है. एक आतंकी कहे जाने वाले और अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित संगठन, हक्कानी नेटवर्क, के मुखिया आज अफगानिस्तान के गृह मंत्री हैं और उन्होंने खुलकर यह बात कही है कि दुनिया चाहे कुछ भी कहे आत्मघाती हमलावर हमारे हीरो हैं और बने रहेंगे।
आज इस मामले पर लिखने की जरूरत क्यों लग रही है? यह तो अफगानिस्तान का एक ऐसा अलोकतांत्रिक मामला है जिसकी कि आदत अफगानिस्तान में लोगों को पड़ चुकी है, और ऐसे ही तालिबानी आतंक के बढ़ते-बढ़ते आज हालत यहां तक आ गई है कि वहां औरतों को इंसान नहीं माना जाता। अब सुना जा रहा है कि दूसरे धर्म के लोगों को बाहर निकलने कहा जा रहा है, और खुद मुस्लिम धर्म को मानने वाले शिया समुदाय के लोगों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है। तो ऐसे देश के बारे में वहां अगर आतंकियों का सम्मान हो रहा है तो उस बारे में लिखने की जरूरत क्यों होनी चाहिए? यह सवाल कुछ पाठकों के मन में उठ सकता है इसलिए यह लिख देना ठीक है कि इतिहास से सबक लेना तो बहुत से लोग सुझाते हैं लेकिन वर्तमान से भी सबक लेना चाहिए और अड़ोस-पड़ोस से भी सबक लेना चाहिए यह तमाम लोग नहीं सुझाते। आज हालत यह है कि हिंदुस्तान में दिल्ली हरियाणा सरहद पर किसान आंदोलन के करीब एक सिख धर्म ग्रंथ की बेअदबी का आरोप लगाकर सिख निहंगों ने जिस तरह एक दलित को काट-काटकर टांग दिया, उसे तालिबानी हिंसा से जोडक़र देखने की जरूरत है। तालिबान का किया हुआ सब कुछ अपने धर्म के नाम पर किया हुआ बताया जाता है, महिलाओं के हक कुचल देना भी शरीयत के नाम पर बतलाया जाता है, और हाथ-पैर काटने की सजा भी वहां चौराहों पर दी जाती है और नई तालिबान सरकार ने भी चौराहे पर सिर कलम करने की वह पुरानी सजा कायम रखने की घोषणा की है।
कुछ ऐसा ही मिजाज हिंदुस्तान में धर्म के नाम पर एक इंसान के टुकड़े कर देने का है, और इस हत्यारे निहंग के पुलिस में समर्पण करने जाने के पहले दूसरे निहंगों की तरफ से सार्वजनिक अभिनंदन किया गया और लोगों ने इसे गर्व की बात माना। कुछ ऐसी किस्म की बात देश में दूसरी कई जगहों पर दूसरे धर्मों के लोगों के बीच होती है। राजस्थान में एक किसी मुस्लिम को मारने वाले और उसका वीडियो बनाने वाले हिंदू का सार्वजनिक रूप से अभिनंदन किया गया था। उत्तर प्रदेश की एक छोटी पार्टी जो अपनी सांप्रदायिकता के लिए जानी जाती है, उसने घोषणा की थी कि वह मोहम्मद अफऱाज़ुल नाम के मजदूर को सार्वजनिक रूप से मारने और उसे जिंदा जलाने वाले शंभू लाल रैगर को आगरा से लोकसभा का चुनाव लड़वाएगी। राजस्थान में 3 बरस पहले, बाबरी मस्जिद गिराने के दिन 6 दिसंबर को इस शंभूलाल ने इस मुस्लिम मजदूर को बिना किसी भडक़ावे के, बिना किसी तनाव के, सार्वजनिक जगह पर मारा, जिंदा जलाया, और उसका वीडियो बनाकर चारों तरफ बांटा। उस हत्यारे का भी सम्मान किया गया। ऐसा कई जगह हुआ है। कई जगहों पर गाय ले जाने के आरोप में किसी मुस्लिम को पीट-पीटकर मारने वाले लोगों का सम्मान होता है, तो नाथूराम गोडसे का सम्मान तो होते ही रहता है, जगह-जगह उसकी प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं, जगह-जगह उसके मंदिर बनाए जाते हैं, और उसे महिमामंडित करना बंद ही नहीं होता है।
हिंदुस्तान के बड़े तबके में तालिबान को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है और अगर हिंदुस्तान के किसी संगठन का किसी व्यक्ति का तालिबान से कोई जुबानी नाता भी जोड़ दिया जाए तो उसके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हो जा रही है। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान में जगह-जगह धर्म के आधार पर, नफरत के आधार पर, जब सार्वजनिक रूप से किसी को मारा जा रहा है और हत्यारे का इस तरह सार्वजनिक अभिनंदन हो रहा है, तो ऐसे लोगों में और तालिबान में फर्क क्या है? जिस निहंग ने अभी एक दलित को काटकर टुकड़े टांग दिए वह तालिबान से किस मायने में अलग है? ऐसे ही पंजाब के आतंक के दिनों में भिंडरावाले के आतंकियों ने लगातार छंाट-छाँटकर हिंदुओं को मारा था, और उन हत्यारों का स्वर्ण मंदिर में कितनी ही बार सम्मान हुआ था। अब आतंकियों का ऐसा सम्मान और आत्मघाती तालिबानों का ऐसा सम्मान, इसमें फर्क अगर कोई ढूंढना चाहे तो ढूंढ ले, हमको तो इसमें कोई फर्क दिखता नहीं है। दोनों ही धर्म के नाम पर किए गए हथियारबंद आतंक हैं, जो कातिल थे, कातिल हैं, और कातिल ही रहेंगे। इसलिए दुनिया को महज इतिहास से सबक लेने की जरूरत नहीं रहती, दुनिया को अधिक बड़ा सबक वर्तमान से मिल सकता है. यह देखने की जरूरत है कि जब धर्म के नाम पर हिंसा आगे बढ़ती है और जब धर्म के नाम पर किसी इलाके या देश का राज्य चलाया जाता है तो वह धर्म किस तरह कातिल हो जाता है, वह किस तरह हत्याएं करने लगता है, उसमें इंसाफ की कोई भी गुंजाइश नहीं बच जाती है। इस बात को समझने की जरूरत है जिन लोगों को आज हिंदुस्तान को एक हिंदू राज्य बनाने की सनक सवार है, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि अफगानिस्तान में आज मुस्लिम दूसरे धर्मों के लोगों को कम मार रहे हैं, खुद मुस्लिमों को अधिक मार रहे हैं। ऐसा ही एक संगठन के मुस्लिम आतंकियों ने पाकिस्तान में दूसरे समुदाय के मुस्लिम नागरिकों के साथ किया। धर्म पहले तो दूसरे धर्म के लोगों को मारता है, लेकिन बाद में वह अपने ही धर्म के अलग-अलग समुदाय के लोगों को मारना शुरू करता है। इसलिए तालिबान को हत्यारा मानना और निहंग को या शंभूनाथ रैगर को अलग मानना एक परले दर्जे की बेवकूफी की बात होगी। किसी भी लोकतंत्र में समझदारी की बात यही होगी कि ऐसे तमाम धर्मांध आतंकी संगठनों को काबू में करना, जेल भेजना, सजा दिलवाना, और खत्म करना। लेकिन फिर गोडसे की प्रतिमाएं कैसे लग सकेंगी? कहीं तालिबान ने हिंदुस्तान में गोडसे की पूजा देखकर तो अपने आत्मघाती हमलावरों का अभिनन्दन नहीं सीखा?
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हिंदुस्तान के एक बहुत चर्चित फिल्म कलाकार आमिर खान ने दिवाली के ठीक पहले यह सलाह दी कि लोग सडक़ों पर पटाखे ना फोड़ें। उनकी यह सलाह कोई निजी सलाह नहीं थी, बल्कि टायर बनाने वाली एक कंपनी के एक इश्तहार में उन्होंने यह बात कही। इस तरह इस इश्तहार के लिए मोटे तौर पर यह कंपनी जिम्मेदार थी और क्योंकि टायर का सडक़ों से लेना-देना रहता है इसलिए शायद टायर कंपनी को सडक़ों को महफूज रखना भी सूझा होगा। खैर जो भी हो आमिर खान और उनकी पिछली पत्नी कुछ बरस पहले भी एक विवाद में थे जब उनकी पूर्व पत्नी किरण राव ने भारत में रहने में अपने को सुरक्षित न महसूस करने की बात कही थी। उस बात को लेकर भी सोशल मीडिया पर बात का मतलब समझे और निकाले बिना दुर्भावना से उनके खिलाफ एक बड़ा अभियान चला था, और उसके बाद से आमिर तकरीबन चुप चल रहे थे। अब आमिर खान को दिखाने वाले इस इश्तहार के बारे में कर्नाटक के एक सांप्रदायिक मिजाज वाले भाजपा सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने इस टायर कंपनी को चि_ी लिखकर कहा है कि इस विज्ञापन से हिंदुओं में नाराजगी है। उन्होंने लिखा है- आमिर खान इस इश्तहार में लोगों को सडक़ों पर पटाखे नहीं जलाने की सलाह दे रहे हैं, जो कि बहुत अच्छा संदेश है, सार्वजनिक के मुद्दों पर आपकी चिंता के लिए मैं आपकी सराहना करता हूं, और आपसे एक और समस्या के समाधान का अनुरोध करता हूं जिसमें शुक्रवार और अन्य महत्वपूर्ण त्योहारों के दिन नमाज पढऩे के नाम पर मुस्लिमों द्वारा सडक़ें जाम कर दी जाती हैं। उन्होंने लिखा कि कई भारतीय शहरों में यह बहुत आम नजारा है और ऐसे वक्त एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड जैसी गाडिय़ां भी ट्रैफिक जाम में फंस जाती हैं जिसे बड़ा नुकसान होता है. सांसद हेगड़े ने यह भी लिखा है कि वह अपनी कंपनी के विज्ञापनों में ध्वनि प्रदूषण का मुद्दा भी उठाएं क्योंकि हमारे देश में मस्जिदों के ऊपर लगे लाउडस्पीकर से अजान के समय बहुत अधिक शोर होता है।
आमिर खान ने शायद अपने मन की बात नहीं कही है और एक विज्ञापन में उनसे जो कहने के लिए कहा गया वह कहा हो, और इस कंपनी के मालिक गोयनका तो एक हिंदू हैं इसलिए ऐसा खतरा नहीं लगा होगा कि एक मुस्लिम अपने पैसे से पटाखों के खिलाफ अभियान चला रहा है। भाजपा के इस सांसद से ऐसी ही प्रतिक्रिया की उम्मीद की जा रही थी क्योंकि उनका पुराना रिकॉर्ड कुछ इसी किस्म का रहा है। लेकिन इन दोनों पक्षों की नीयत से परे हम इस मुद्दे पर आना चाहते हैं जिसमें चाहे एक हिंदू त्योहार दिवाली पर चारों तरफ अंधाधुंध पटाखे जलाकर इतना प्रदूषण फैला दिया जाता है कि दमे के मरीजों को सांस के मरीजों को भारी तकलीफ होने लगती है और उनके लिए बड़ा खतरा इक_ा हो जाता है। भारत के शहरों के वैज्ञानिक परीक्षण बतलाते हैं कि दिवाली के पटाखों से प्रदूषण का स्तर कितना बढ़ जाता है और हवा कितनी जहरीली हो जाती है इसलिए किसी बारात में फूटने वाले पटाखे या किसी के जुलूस में फूटने वाले पटाखों से परे दिवाली के पटाखों में फर्क यह है कि एक साथ कुछ घंटों में अंधाधुंध संख्या में फूटने वाले रहते हैं और उसे हवा में प्रदूषण का स्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है।
लेकिन भाजपा सांसद अनंत हेगड़े ने जो दूसरा मुद्दा उठाया है वह मुद्दा भी सही है कि नमाज पढऩे के लिए सडक़ों को कैसे रोका जा सकता है? हिंदुस्तान में जहां पर कि सांप्रदायिक नजरिए से धर्मों के बीच एक अंधा मुकाबला चलता है और एक धर्म सार्वजनिक जीवन को बर्बाद करने के लिए दूसरे धर्म से अधिक गैर जिम्मेदारी दिखाने में लगे रहता है. ऐसे में अगर नमाज से जाम होने वाली सडक़ों के मुकाबले अगर हिंदू मंदिरों के सामने कोई विशाल आरती होने लगे सडक़ों के बीच विशाल भंडारा लगने लगे तो क्या होगा? नमाज तो हफ्ते में एक दिन पढ़ी जाती है, लेकिन आरती तो सडक़ों पर रोज की जा सकती है, दिन में दो बार की जा सकती है। इसका मुकाबला कैसे तय होगा कि किसे कितनी इजाजत मिले? हेगड़े ने मस्जिदों से लाउडस्पीकर से दी जाने वाली अजान की बात उठाई है। दिन में कई बार कुछ -कुछ मिनटों की यह अजान बहुत से लोगों के लिए दिक्कत खड़ी करती है लेकिन इसके टक्कर में साल में कई-कई दिन, शायद दर्जनों दिन हिंदू मंदिरों से और हिंदू धार्मिक आयोजनों से रात-रात भर जगराते के लाउडस्पीकर बजते हैं, अखंड रामधुन एक-एक हफ्ते चलती है, और तरह-तरह के घरेलू हवन और यज्ञ में भी लाउडस्पीकर लगा दिया जाता है। अब इसका हिसाब कैसे लगाया जाए कि दिन में 5 बार अजान में कितने वक्त लाउडस्पीकर चलता है, और अखंड रामधुन में उससे कम घंटे चलता है या उससे अधिक घंटे चलता है?
धर्म से परे भी अगर हम ध्वनि प्रदूषण की बात करें, तो जितने धार्मिक जुलूस निकलते हैं, उन्हीं के टक्कर के लाउडस्पीकर शादी की बारात में भी चलते हैं, किसी तरह के विजय जुलूस में भी चलते हैं, और मोटे तौर पर लाउडस्पीकर का कारोबार करने वाले लोग कानून को हाथ में लेकर चलते हैं, और अपने को मिलने वाले पैसों को जायज ठहराने के लिए अधिक से अधिक ऊंची आवाज में इसे बजाते हैं। यह पूरा सिलसिला बहुत खतरनाक है, सार्वजनिक जीवन में अराजकता पूरी तरह खत्म होनी चाहिए चाहे, वह सडक़ों पर नमाज हो, चाहे वह सडक़ की चौड़ाई को घेरते हुए गणेश और दुर्गा बैठाने का मामला हो, चाहे वह प्रतिमा स्थापना और विसर्जन के जुलूस हों, चाहे वे किसी रिहायशी इलाके में किसी मंदिर या गुरुद्वारे में बजने वाले लाउडस्पीकर हों। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए। राजनीतिक दल धार्मिक तत्वों को खुश करने के लिए कभी इन पर कोई कार्यवाही नहीं करेंगे और कट्टरता बढ़ते-बढ़ते ऐसी बढ़ती है कि अभी धर्मांध निहंगों ने एक गरीब दलित को काट-काट कर उसके बदन के हिस्से टांग दिए और हत्यारे का सार्वजनिक अभिनंदन करते हुए उसे पुलिस के सामने पेश किया गया। यह सिलसिला देश में हाल के वर्षों में एक सबसे ही खतरनाक, वीभत्स, और हिंसक मामला था जिससे कुछ लोग हिले हैं, और कुछ लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि धर्म के नाम पर तमाम हिंसा उन्हें जायज लगती है।
हिंदुस्तान में केवल अदालतों को यह काम करना पड़ेगा कि वह धर्म के सार्वजनिक पहलू को काबू में करें, और किसी का जीना हराम न होने दें। आज हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के ढेर सारे फैसलों और आदेशों के बावजूद धर्म बेकाबू है, और धर्मांध लोग अंधाधुंध हिंसा करते हैं जो उन्हें खुद को हिंसा नहीं दिखती। एक धर्म के लोगों को मिसाल के तौर पर दूसरे धर्म की अराजकता और हिंसा हासिल रहती है और देखा-देखी सिलसिला बढ़ते चले जा रहा है। इस सिलसिले को खत्म करना चाहिए। धर्म एक निजी आस्था का सामान रहना चाहिए जिसके लिए लोग अपनी निजी जगह पर आराधना करें, न कि सार्वजनिक जगह पर अवैध कब्जा करके, अवैध निर्माण करके, नियम-कानून को तोड़ते हुए आराधना करें, लाउडस्पीकर बजाएं। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए। धर्म आज हिंदुस्तान की एक सबसे बड़ी दिक्कत हो गई है, एक सबसे बड़ा खतरा बन गया है, जिससे उबरने की जरूरत है।
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हिंदुस्तान और दूसरे बहुत से देशों की अलग-अलग जुबान में सूअर को एक गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। ठीक उसी तरह जिस तरह की कुत्ते को, या सांप को। जबकि सूअर दुनिया के बहुत से देशों में लोगों के खाने के काम भी आता है, और गंदगी को साफ भी करता है। इस पर भी लोग उसे बहुत बुरी गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं और कुछ धर्मों में तो सूअर को बहुत ही बुरा माना जाता है, और अगर उस धर्म के लोगों को भडक़ाना हो तो किसी एक सूअर को मारकर उस धर्म के धर्मस्थल पर फेंक देना दंगा शुरू करवाने की पर्याप्त वजह हो सकती है। सूअर को लोग गाली की तरह अपने घर-परिवार के सामने या क्लास के बच्चों के सामने इस्तेमाल करते हैं। किसी ने कोई बहुत बुरा काम किया तो उसे कहा जाता है कि सूअर जैसा काम मत करो, मानो कि सूअर बहुत बुरा काम करता है। आमतौर पर जानवरों के खिलाफ जितने किस्म की कहावतें और मुहावरे प्रचलन में रहते हैं, उन्हें देखते हुए हम कई बार इस जगह पर लिखते हैं कि इंसानों को अपनी भाषा से बेइंसाफी खत्म करनी चाहिए। लेकिन कहावतें और मुहावरे उसी युग के बने हुए हैं जिस वक्त जानवरों के अधिकारों का सम्मान करना तो दूर रहा, खुद इंसानों में शूद्रों का सिर्फ अपमान होता था, महिलाओं का सिर्फ अपमान होता था, और किसी किस्म की गंभीर बीमारी, विकलांगता वाले लोग गाली बनाने के ही काम के माने जाते थे। इसलिए अब जब सूअर को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है, तो आज की 2 खबरें याद पड़ती हैं।
यूरोप में हालैंड के एमस्टरडम एयरपोर्ट के आसपास किसान एक मीठी कंद उगाते हैं, और जब मिट्टी खोदकर फसल निकाली जाती है तो कंद के कुछ टुकड़े जमीन में रह जाते हैं और कंद के साथ-साथ कुछ तरह के केंचुए वगैरह बाहर आ जाते हैं। इनको खाने के लिए वहां पर बड़े-बड़े पंछी टूट पड़ते हैं, और लगे हुए एयरपोर्ट पर आते-जाते विमानों के लिए खतरा बन जाते हैं। विमानों के जेट इंजन में अगर कोई बड़ा पंछी चले जाए तो क्रैश लैंडिंग करने की नौबत भी आ जाती है। ऐसे में इस एयरपोर्ट ने एक तरकीब निकाली है, उसने ऐसे खेतों के एक हिस्से में 20 सूअर छोड़ दिए जो कि निकली हुई कंद को तेजी से खाकर खत्म कर रहे थे और एक दिन के भीतर ही उन्होंने कंद के निकले हुए सारे टुकड़े खत्म कर दिए। नतीजा यह हुआ कि यहां पंछियों का आना रुक गया। दूसरी तरफ एयरपोर्ट के एक अलग तरह तरफ, इतनी ही जमीन को बिना सूअर रखा गया और वहां फसल से निकले गए मीठे कंद के टुकड़े पड़े रहे, और उन्हें खाने के लिए बड़े-बड़े पंछी पहुंचते रहे। अब एयरपोर्ट के आसपास के इलाके को पंछियों से मुक्त रखने के लिए यह तरकीब दूसरी जगहों पर भी आजमाने की बात चल रही है।
लेकिन एक दूसरी खबर यूरोप से अलग अमेरिका के न्यूयॉर्क से आई है जहां पर चिकित्सा वैज्ञानिकों ने एक सूअर की किडनी को एक इंसान के शरीर से जोड़ दिया है और वह किडनी ठीक से काम कर रही है। इस ट्रांसप्लांट के पहले सूअर के जींस में इंसानी जींस भी डाले गए थे ताकि मानव शरीर सूअर की किडनी को तुरंत खारिज ना कर दे। यह प्रयोग ब्रेन डेड घोषित हो चुके एक मरीज के शरीर पर उसके परिवार की इजाजत से किया गया, और सूअर की किडनी को इस मरीज के शरीर के बाहर ही रखा गया था जहां वह मरीज की खून की नलियों के साथ ठीक से काम करते रही। डॉक्टरों ने ट्रांसप्लांट के इस प्रयोग को पूरी तरह सामान्य बतलाया है और इसे पहली बार दूसरे प्राणी की किडनी का सफल ट्रांसप्लांट भी कहा है। आज दुनिया भर में एक लाख से अधिक लोग अंग प्रत्यारोपण का इंतजार कर रहे हैं जिसमें से 90 हजार सिर्फ किडनी की कतार में हैं।
यह बात कई बरस पहले भी सामने आई थी जब यह कहा गया था कि सूअर का शरीर इंसान के शरीर से सबसे अधिक मिलता-जुलता है और किसी दिन सूअर के अंग इंसान को लग सकेंगे, इससे दो किस्म की नैतिक अड़चन आ रही थी एक तो यह कि कई धर्मों में सूअर को बहुत ही निकृष्ट प्राणी माना जाता है, ऐसे धर्म के लोग सूअर के अंग लगे हुए इंसानों को क्या मानेंगे? इंसान मानेंगे या सूअर मानेंगे? दूसरा नैतिक सवाल यह खड़ा होता है कि सूअर को इंसान के करीब लाने के लिए जब इंसान के जींस सूअर के शरीर में डाले जाते हैं, तो फिर वह सूअर क्या खाने के काम में भी लाया जा सकता है? या उसे खाना इंसानों के एक हिस्से को खाने जैसा तो नहीं मान लिया जाएगा? लेकिन ये दोनों नैतिक सवाल ऐसे नहीं हैं जिनका रास्ता न निकल सके। सूअर के अंग लगवाना तो दूर की बात है, आज भी अलग-अलग धर्मों के लोग अलग-अलग किस्म से काटे गए जानवरों को ही खाते हैं। मुस्लिमों के तरीके से काटे गए जानवरों को सिक्ख नहीं खाते और सिक्खों के तरीके से काटे गए जानवरों को मुस्लिम नहीं खाते। ऐसा ही कुछ और धर्मों में भी है। लेकिन परहेज की अपनी सीमाएं हैं, जिनको मानने में किसी को बहुत दिक्कत भी नहीं होती। इसी तरह जिन इंसानों को सूअर की किडनी या उसके दूसरे अंगों से परहेज नहीं होगा वही ऐसे अंग लगवाएंगे, और जिन्हें सूअर से परहेज है, वे या तो इंसानी अंग का इंतजार करेंगे या चल बसेंगे।
अभी हम इस बहस में पडऩा नहीं चाहते कि एक जानवर को उसके अंगों के लिए इस तरह से मारना कितनी बड़ी हिंसा है। क्योंकि उसके अंगों के लिए नहीं तो उसके मांस के लिए उसे मारा तो जाता ही है। इसलिए किसी जानवर का मारा जाना इतना बड़ा नहीं नैतिक मुद्दा भी नहीं है और वैज्ञानिक मुद्दा तो है ही नहीं। देखना यही है कि जिस सूअर को सबसे गंदा और सबसे निकृष्ट प्राणी मानकर लोग जिससे नफरत करते हैं, और बिना किसी वजह के नफरत करते हैं, उस प्राणी के बचाए हुए लोग बचना चाहेंगे या नहीं बचना चाहेंगे?
फिलहाल तो लोगों को अपनी जुबान सुधारनी चाहिए और पशु-पक्षियों को गालियां देना बंद करना चाहिए। ऐसा इसलिए भी करना चाहिए कि कुछ विज्ञान कथाओं में पहले भी ऐसा जिक्र हुआ है जिसमें इंसानों की नस्ल के करीब के माने जाने वाले बन्दर जैसे किसी प्राणी के शरीर में इंसान के जींस डालकर उसे एक टापू पर रेडियो कॉलर लगाकर छोड़ दिया जाता है, और जिस दिन उस इंसान को अंग प्रत्यारोपण की जरूरत पड़ती है तो वह पहुंचकर उस टापू के अस्पताल में भर्ती होते हैं, और रेडियो कॉलर के रास्ते उस प्राणी को ढूंढकर लाया जाता है, और उसके शरीर के अंग निकालकर इंसान को लगाए जाते हैं। रॉबिन कुक नाम के एक विज्ञान उपन्यासकार ने दशकों पहले यह कहानी लिखी थी जो कि अभी न्यूयॉर्क में सही साबित होते दिख रही है, और ठीक उस कहानी की तरह पहले सूअर के शरीर में इंसान के जींस डाले गए ताकि उसके अंग इस तरह तैयार रहें कि इंसान का शरीर उन्हें तुरंत ही रिजेक्ट ना कर दे। जानवर आज भी इंसानों के काम आ रहे हैं और आगे भी काम आते रहेंगे। इसलिए लोगों को अपनी कहावतें और मुहावरे सुधारने चाहिए, अपनी बोलचाल की और लिखने की भाषा भी सुधारनी चाहिए और कुत्ते, सूअर इन सबको गालियों की तरह इस्तेमाल करना बंद करना चाहिए।
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करीब 2 बरस की कोरोना के रुकावट के बाद अब उत्तराखंड में चार धाम की यात्रा शुरू होने को थी, कानूनी दिक्कतें भी सब हट गई थीं, और वहां पर ऐसी बाढ़ आई है कि अब तक 50 के करीब मौतें हो चुकी हैं, बहुत से लोग गायब हैं। भारी बारिश हुई है, नदियां उफन रही हैं, बड़े-बड़े रास्ते बंद हैं, सैलानी जगह-जगह फंसे हुए हैं, और फौज बचाव के काम में लगी हुई है। मौतों की तकलीफ से परे एक बात यह भी है कि उत्तराखंड का पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ है, देश भर से आए पर्यटक जगह-जगह फंसे हुए हैं और उन्हें बचाना एक बड़ी चुनौती हो गई है। इससे तुरंत मुसीबत से परे यह बात भी है कि प्रदेश में बहुत सी जगहों पर किसानों की फसल को भारी नुकसान हुआ है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले केदारनाथ में जो भयानक बाढ़ आई थी और जिसमें हजारों मौतों का अंदाज था, हजारों लोगों का अभी तक कोई पता भी नहीं चला है, उसके बाद यह एक बड़ा हादसा है हालांकि मौतें कम हैं लेकिन सैलानी जिस तरह प्रभावित हुए हैं उससे यह बात साफ है कि आने वाले वक्त में भी सैलानी यहां आने से कतराएंगे। दूसरी तरफ यही एक ऐसा वक्त है जब कश्मीर पहुंचने वाले सैलानी वहां छाँट-छाँट कर की जा रही हत्याओं को लेकर सदमे में हैं और कश्मीर का पर्यटन कारोबार भी बुरी तरह प्रभावित होने जा रहा है।
उत्तराखंड के इस ताजा प्राकृतिक हादसे के कई पहलू हैं। पहली बात तो यह कि पूरी दुनिया में मौसम की जो सबसे बड़ी और सबसे कड़ी मार के मौके हैं, वे लगातार बढ़ते चल रहे हैं, और वेदर एक्सट्रीम कही जाने वाली घटनाएं बार-बार हो रही हैं। मौसम में जो तब्दीली इंसानों की करतूतों से आई है, उसी का नतीजा आज उत्तराखंड में इस तरह देखने मिल रहा है। इसके पहले भी लोग लगातार यह बात कर रहे थे कि क्या भारत के पहाड़ी इलाके सचमुच ही इतने पर्यटकों को झेलने की हालत में हैं? क्या वहां पर इतनी सैलानी गाडिय़ों का धुआं, सैलानियों का इतना कचरा, सैलानियों का लाया हुआ खपत का इतना प्रदूषण, क्या ये पहाड़ सचमुच इतना सब कुछ झेलने की हालत में हैं? लगातार होटलों को बनाने के लिए, सडक़ों को चौड़ा करने के लिए, पुल बनाने के लिए, पेड़ कट रहे हैं, जंगल घट रहे हैं, और पत्थरों का सीना चीरकर लोगों की आवाजाही का, रहने का रास्ता तैयार किया जा रहा है। इन सबसे इस पहाड़ी इलाके की प्रकृति पर बड़ा बुरा असर पड़ रहा है जो कि पहले भी भूकंप के खतरे के बीच रहती है। इसलिए आज बिना देर किए यह भी सोचने की जरूरत है कि हिंदुस्तान के पर्यटन केंद्र कितने लोगों को झेल सकते हैं, किन मौसमों में झेल सकते हैं, और अगर पर्यटन उद्योग घटता है, तो फिर इन इलाकों की अर्थव्यवस्था का क्या होगा, क्योंकि यहां का कारोबार कश्मीर के कारोबार की तरह ही सैलानियों पर जिंदा रहता है। आतंक की वारदातों से या प्राकृतिक विपदाओं से जब कभी सैलानी घट जायेंगे तो इस इलाके में रोजगार की बहुत बड़ी दिक्कत खड़ी होगी। इसलिए पर्यटन कारोबार, प्राकृतिक विपदाओं, और जलवायु परिवर्तन के बीच एक संतुलन बनाकर चलना पड़ेगा जो कि आसान बात नहीं है। हिंदुस्तान जैसे देश में जहां पर पर्यटन कारोबार को नियंत्रित करने का अधिकतर अधिकार राज्य सरकारों का रहता है, वहां पर बहुत सोच-विचारकर कोई काम इसलिए नहीं होता कि राज्य सरकारें 5 बरस के लिए ही आती हैं और उन्हें उससे अधिक वक्त की बहुत फिक्र भी नहीं रहती। इसी उत्तराखंड के बारे में यह बात समझने की जरूरत है कि किस तरह वहां हर एक-दो बरस में मुख्यमंत्री बदलते आए हैं, तो ऐसे बदलते हुए मुख्यमंत्रियों से बहुत दीर्घकालीन योजनाओं की उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
दूसरी बात यह भी है कि हिंदुस्तान जैसे बड़े देश को जो कि बहुत विविधताओं वाला है और जहां पर पर्यटन के चुनिंदा इलाकों के बहुत से विकल्प हो सकते हैं, जहां पर बहुत सी ऐसी अच्छी जगहें बाकी हैं जहां पर अभी तक सैलानियों के जाने का कोई ढांचा नहीं बना है, तो हिमाचल, उत्तराखंड, कश्मीर जैसे परंपरागत पहाड़ी पर्यटन केंद्रों के साथ-साथ ऐसे दूसरे पर्यटन केंद्र भी विकसित करने की जरूरत है जिससे देश में कारोबार के कुल जमा मौके कम न हों। वैसे हो सकता है कि किसी एक प्रदेश में मौके कम हों, लेकिन हिंदुस्तान जैसे देश में तो लोग सारे प्रदेशों में आ-जाकर वहां कोई न कोई रोजगार और कारोबार ढूंढ ही लेते हैं। इसलिए देश को राष्ट्रीय स्तर पर यह सोचना चाहिए कि साल के अलग-अलग महीनों के लिए लोगों के पास समंदर से लेकर पहाड़ तक कौन से विकल्प हो सकते हैं? ऐसा करना देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छा होगा और देश का राष्ट्रीय एकता का ढांचा भी इससे विकसित होगा। आज देश के लोकप्रिय पर्यटन केंद्र भीड़ से भरे रहते हैं, और दूसरी तरफ बड़ी संख्या में ऐसे प्रदेश हैं जिनको लोगों ने देखा भी नहीं रहता। कुदरत की ऐसी मार को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर पूरे कैलेंडर को सामने रखकर, और अलग-अलग किस्म की जगहों को उनके मौसम के मुताबिक जांचकर पर्यटन का एक ढांचा विकसित करना चाहिए जिससे लोगों को भी जाने-आने का, देश को देखने का मौका मिले।
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अमरीका के लोग अपने अधिकारों को लेकर दुनिया में सबसे अधिक चौकन्ने लोगों में माने जाते हैं, और आज हालत यह है कि कोरोनावायरस की महामारी के बीच भी अमेरिकी लोग अपनी सरकारों से लड़ रहे हैं कि वे मास्क नहीं लगाएंगे, या टीके नहीं लगवाएंगे, और इसके बावजूद वे विमान में सफर करना चाहेंगे, या दफ्तर में काम करने जाना चाहेंगे। अधिकारों की यह पराकाष्ठा अमेरिका की तरह किसी और देश में देखने नहीं मिलती जहां लोग महामारी के बीच भी सडक़ों पर आकर मास्क जलाकर अपना रुख जाहिर करते थे और सरकारी प्रतिबंधों का विरोध करते थे। ऐसे अमेरिका में एक ताजा मामला सामने आया है जिसे अधिकारों की इस जागरूकता से जोडक़र देखने की जरूरत है।
अमरीका के फिलाडेल्फिया राज्य में एक ट्रेन में सफर कर रही महिला के बगल में बैठे हुए एक निहत्थे मुसाफिर ने उसके कपड़े फाडऩा शुरू कर दिया और फिर वहीं उसके साथ बलात्कार किया। वह अकेली महिला अपनी पूरी ताकत से इसका विरोध करती रही, लेकिन उस आदमी का मुकाबला नहीं कर पाई। करीब 10 मिनट तक चले इस हमले को आसपास के लोग दूसरे मुसाफिर न सिर्फ देखते रहे, बल्कि अपने मोबाइल फोन से फोटो भी खींचते रहे, और वीडियो भी बनाते रहे। उस महिला का बयान और ट्रेन के डिब्बे में लगे सुरक्षा कैमरों की जांच से यह पता लगता है कि इतनी संख्या में मुसाफिर आसपास थे कि वे मिलकर इस बलात्कारी को पकड़ सकते थे, रोक सकते थे, उनमें से हर किसी के पास मोबाइल फोन थे जिससे वे 911 नंबर डायल करके पुलिस को खबर कर सकते थे या ट्रेन के डिब्बे के भीतर लगे हुए इमरजेंसी अलार्म की बटन दबा सकते थे, या जोरों से चीखकर भी बलात्कारी को डरा सकते थे। लेकिन उन्होंने इनमें से कोई भी काम नहीं किया। उस डिब्बे में पहुंची एक सरकारी कर्मचारी ने जब इस महिला की हालत देखी तो उसने रेलवे और पुलिस दोनों को खबर की, अगले स्टेशन पर इस महिला को उतारकर अस्पताल भेजा गया और उस बलात्कारी को गिरफ्तार किया गया। अब फिलाडेल्फिया के सरकारी वकील यह तय करेंगे कि डिब्बे में मौजूद दूसरे लोग जिन्होंने ऐसी मुसीबत के वक्त भी उस महिला की मदद नहीं की, क्या उनके खिलाफ किसी तरह की कानूनी कार्यवाही की जा सकती है? हालांकि जो लोग ऐसी नौबत में आसपास के लोगों को मदद के लिए आगे बढऩे की ट्रेनिंग देते हैं उनका यह भी कहना है कि लोगों के आगे ना आने की कई वजहें हो सकती हैं जिनमें से एक यह कि वे सदमे में चले जाते हैं, दूसरी वजह ये कि वे यह मानकर चल रहे हैं कि कोई और पहल करें, और तीसरी वजह यह भी हो सकती है कि उन्हें यह भरोसा ना हो कि वे अगर पहल करें तो दूसरे लोग साथ देंगे या नहीं। लेकिन इस मामले में बलात्कारी जाहिर तौर पर निहत्था था, वह एक अकेली महिला से डिब्बे के भीतर बलात्कार कर रहा था, और आसपास के लोग उसका फोटो ले रहे थे उसके वीडियो बना रहे थे, जबकि वे इतनी संख्या में थे कि वे बलात्कार रोक सकते थे।
इस बात को समझने की जरूरत है कि जो समाज अपने अधिकारों को लेकर इस कदर चौकन्ना रहता है कि बात-बात में सरकार के खिलाफ, स्थानीय संस्थाओं के खिलाफ अदालतों तक पहुंच जाता है, मुकदमे दायर करने लगता है, ऐसा समाज अपने बीच किसी महिला पर हुए ऐसे हमले की नौबत में कैसे दर्शनार्थी बने रहता है, बल्कि कैसे वह इसका वीडियो बनाते बैठे रह सकता है, जबकि किसी एक की पहल करने पर और लोग भी सामने आ सकते थे, या किसी एक के चीखने-चिल्लाने पर बलात्कारी डरकर हट सकता था। अपने अधिकारों और अपनी जिम्मेदारियों के बीच का यह बहुत बड़ा फासला अमेरिकी समाज की आज की एक बहुत ही कड़वी और दर्दनाक हकीकत बतलाता है कि लोगों की कानूनी जागरूकता महज अपनी मतलबपरस्ती तक सीमित है, और अपनी जिम्मेदारियों को लेकर उनके बीच जागरूकता नहीं है, उन्हें उसकी परवाह भी नहीं है। अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग किस्म के कानून हैं, और शायद इस राज्य फिलाडेल्फिया में ऐसा कानून नहीं है कि किसी जुर्म के गवाह लोगों को जुर्म के शिकार की किसी तरह की मदद करना ही चाहिए। इसलिए हो सकता है कि इस डिब्बे के बाकी मुसाफिरों के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही ना हो सके।
एक दूसरी हकीकत यह है जो अमरीका के बाहर भी बाकी दुनिया पर भी लागू होती है कि आज लोगों ने मानो अपनी आंखों से कोई भी उल्लेखनीय, महत्वपूर्ण, चौंकाने वाली या सदमा पहुंचाने वाली बात देखना बंद कर दिया है। आज लोग इनमें से जो भी देखते हैं, वह किसी मोबाइल कैमरे के मार्फत देखते हैं। उनके भीतर के इंसान ऐसे मोबाइल फोन के पीछे रहते हैं और कैमरे का लेंस मानो एक सरहद बन जाता है जिसके पास जाकर इन इंसानों को किसी दूसरे की कोई मदद करना जरूरी नहीं रहता। लोगों को याद होगा कि पिछले बहुत सालों से एक कार्टून चारों तरफ फैला हुआ है जिसमें पानी में डूबते हुए किसी एक इंसान का एक हाथ ही बचाने की अपील करता हुआ सतह के ऊपर, बाहर दिख रहा है, और किनारे खड़े हुए दर्जनों लोग अपने-अपने मोबाइल फोन से उसकी फोटो ले रहे हैं, या उसका वीडियो बना रहे हैं। यह नौबत बहुत ही खतरनाक है। हम बहुत दूर जाना नहीं चाहते, अभी 4 दिन पहले ही दिल्ली-हरियाणा सीमा पर किसान आंदोलन के धरना स्थल के पास ही निहंगों के एक जत्थे ने एक दलित नौजवान को सिख धार्मिक ग्रंथ की बेअदबी के आरोप में काटकर टांग दिया, और इस क़त्ल को रोकने वाले कोई नहीं थे। सिख निहंगों ने इस पूरे जुर्म की तोहमत अपने पर ली है और शान से सम्मान करवाते हुए पुलिस के सामने समर्पण किया है। अब जांच में ही पता लग सकेगा कि क्या इतनी हिंसा और इतना खून-खराबा यह किसान आंदोलन के पास, उनके देखते हुए हुआ, या उनके देखे बिना हुआ। और यही एक मामला नहीं है, हिंदुस्तान में जगह-जगह जहां-जहां भीड़त्या कर दी जाती है, या कि गुंडे और दबंग किसी एक गरीब या कमजोर पर हिंसा करते हैं, उसे मार डालते हैं, या जख्मी करते हैं, या उसके कपड़े उतारकर उसका जुलूस निकालते हैं, किसी महिला के साथ भी ऐसा सुलूक करते हैं, और लोग उसके वीडियो बनाते खड़े रहते हैं। पिछले कई वर्षों में ऐसा कोई वीडियो देखना हमें याद नहीं पड़ रहा जिसमें लोग हिंसा का कोई विरोध कर रहे हैं, उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए वह आज महज अमरीकियों को गाली देना ठीक नहीं है। यह भी याद करने की जरूरत है कि हिंदुस्तान में जब कोई गिरोह कोई टोली या कोई भीड़त्या करने की हद तक हमलावर हो जाती है, तो हिंदुस्तानी भी महज उसका वीडियो बनाने तक सीमित रहते हैं।
यह पूरा सिलसिला इंसान के भीतर की सोच को एक चुनौती देता है जिसे कि बोलचाल में इंसान इंसानियत कहते हैं। हालांकि इंसानियत और हैवानियत नाम की दो अलग-अलग चीजें होती नहीं हैं, और ये दोनों ही एक ही इंसान के भीतर अलग-अलग अनुपात में हो सकती हैं या होती हैं। यह सिलसिला बहुत ही भयानक है क्योंकि यह एक और झूठ को उजागर करता है जिसे समाज की सामूहिक चेतना कहा जाता है। जब लोग समाज की इज्जत करना चाहते हैं, या समाज के लोगों की इज्जत करना चाहते हैं, तो वे समाज की सामूहिक चेतना जैसे फर्जी शब्द का इस्तेमाल करते हैं। जैसा कि अमेरिकी ट्रेन के एक डिब्बे के लोगों ने साबित किया, या जैसा कि सिंघु बॉर्डर पर एक निहत्थे दलित की हत्या से साबित हुआ, या कि जैसा देश भर में कमजोर तबकों पर सार्वजनिक जुल्म से साबित होता है, समाज की सामूहिक चेतना एक फर्जी मुखौटा है जिसके पीछे कोई सच नहीं होता। सच तो यही होता है कि लोग अपने मोबाइल फोन के कैमरे के लेंस के पीछे महफूज बैठे रहना चाहते हैं, और वे दूसरों पर हो रही हिंसा को भी अपने मजे का सामान मानकर चलते हैं। अपने आसपास के बारे में सोचकर देखें कि क्या आपके इर्द-गिर्द ऐसा कोई बलात्कार होने लगेगा तो आप उठकर, खड़े होकर उसे रोकने की कोशिश करेंगे, या फिर उसका वीडियो ही बनाते रहेंगे। अपने खुद के हौसले और अपनी नैतिक जिम्मेदारी इन दोनों को तौल लेना ठीक है। और इसके साथ-साथ यह भी समझ लेना बेहतर होगा कि आपके घर वालों के साथ अगर ऐसा बलात्कार होगा, और दूसरों के पास महज वीडियो कैमरे की बटन दबाने के लिए एक अंगूठा होगा, तो आपको कैसा लगेगा?
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छत्तीसगढ़ में एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब सडक़ों पर दुपहियों के एक्सीडेंट में किसी की मौत ना होती हो। और ऐसा करीब-करीब बाहर राज्य में होता होगा, बहुत छोटे राज्यों में शायद हर दिन मौत न होती हो, लेकिन देश के छत्तीसगढ़ जितने बड़े किसी भी राज्य में रोजाना सडक़ों पर कई मौतें होती हैं, और यहां इस राज्य में तो लगातार दुपहियों पर मौत दिखती है। पुलिस की जानकारी बतलाती है कि इनमें से शायद ही कोई हेलमेट पहने रहते हैं, और किसी भी हादसे में सिर पर लगने वाली चोट के बाद बचने की गुंजाइश कम रहती है, जो कि हेलमेट से बच सकती थी। देशभर में सडक़ों के लिए यह नियम तो लागू है कि बिना हेलमेट लोगों पर जुर्माना लगाया जाए, दुपहिया पर तीन लोग दिखें तो जुर्माना लगाया जाए, या कारों और बड़ी गाडिय़ों में लोग बिना सीट बेल्ट दिखें तो जुर्माना लगाया जाए, या किसी भी तरह की गाड़ी चलाते हुए लोग अगर मोबाइल फोन पर बात कर रहे हैं तो उन पर जुर्माना लगाया जाए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। छत्तीसगढ़ की राजधानी में बैठकर हम देखते हैं जहां पर पुलिस की कोई कमी भी नहीं है वहां पर भी चौराहों पर से इन तमाम नियमों को तोड़ते हुए लोग निकलते हैं, लेकिन उनका चालान होते नहीं दिखता। नतीजा यह होता है कि बड़ों को देखकर बच्चे भी कम उम्र से ही इन तमाम नियमों को तोडऩा सीख जाते हैं, और उनके मिजाज में नियमों का सम्मान करना कभी आ भी नहीं पाता।
दिक्कत यह है कि जो लोग ऐसे नियम तोड़ते हैं वे न सिर्फ खुद खतरे में पड़ते हैं बल्कि सडक़ों पर दूसरे तमाम लोगों को भी बड़े खतरे में डालते हैं। कुछ लोगों की लापरवाही का दाम दूसरे लोग अपनी जिंदगी देकर चुकाते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार की वजह से या लापरवाही की वजह से, या ताकतवर लोगों से किसी टकराव से बचने के लिए, जब कभी पुलिस सडक़ों पर अपनी जिम्मेदारी से मुकरती है, वह बहुत सी जिंदगियों को खतरे में डालती है। इसी छत्तीसगढ़ में आज से 20-25 बरस पहले हमने एक जिले के एसपी को कड़ाई से हेलमेट लागू करवाते देखा था, और उस पूरे जिले में कोई दुपहिया बिना हेलमेट नहीं दिखता था। अगर लोगों पर हजार-पांच सौ रुपये जुर्माना होने लगे तो तुरंत ही सारे लोग नियमों को मानने लगेंगे। लगातार जुर्माना करके नियम लागू करवाने में पुलिस का कुछ भी नहीं जाता, लेकिन जैसे-जैसे सत्तारूढ़ दल, दूसरी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया के लोग अपनी ताकत का इस्तेमाल करके ट्रैफिक पुलिस की कार्यवाही को रोकते हैं, वैसे-वैसे पुलिस का हौसला पस्त होते जाता है, और सडक़ों पर तमाम लोगों के लिए खतरा बढ़ जाता है।
हिंदुस्तान में कई ऐसे प्रदेश हैं जहां कई शहरों में हेलमेट लागू है और 100 फ़ीसदी लोग उसका इस्तेमाल करते हैं या फिर जुर्माना पटाते हैं। इन शहरों में बिना हेलमेट लोग 2-4 चौराहे भी पार नहीं कर पाते। हेलमेट जैसे नियम को लागू करना सत्तारूढ़ लोगों के लिए चुनाव के ठीक पहले तो एक परेशानी की वजह हो सकती है क्योंकि जिन लोगों की जिंदगी बचाने के लिए यह किया जा रहा है, वैसे वोटर भी इस बात को लेकर तात्कालिक रूप से नाराज हो सकते हैं, और अगर चुनाव कुछ महीनों के भीतर हों, तो उसमें सत्तारूढ़ पार्टी को इस नियम को लागू करवाने का नुकसान हो सकता है। लेकिन जब कोई चुनाव सामने नहीं रहता, वह वक्त किसी भी सरकार के लिए या स्थानीय संस्थाओं के लिए नियमों को कड़ाई से लागू करवाने का मौका रहता है, जिससे नियम भी लागू हो जाए और वोटरों की नाराजगी चुनाव तक शांत भी हो जाए. लोगों को यह समझ भी आ जाए कि हेलमेट सरकार की जिंदगी बचाने के लिए नहीं है, दुपहिया चलाने वालों की जिंदगी बचाने के लिए है। हमने इस अखबार में वर्षों तक हेलमेट की जरूरत को लेकर जन जागरण अभियान चलाया। लेकिन जब सरकार की नीयत ही इसे लागू करने की नहीं रहती, तो कोई अखबार इसमें क्या कर ले।
छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश की हालत यह है कि जब भाजपा में सरकार रहती है तो विपक्षी कांग्रेस पार्टी सरकार के फैसले को ‘हेलमेट के दलाल का फैसला’ करार देती है। और जब कांग्रेस सत्ता में आती है तो विपक्षी भाजपा हेलमेट के खिलाफ हो जाती है। राजनीति इतनी सस्ती और घटिया हो चुकी है कि नेता लोगों की जिंदगी की कीमत पर उन्हें जागरूकता से दूर रखना चाहते हैं, गैर जिम्मेदारी सिखाते हैं, और उनकी जिंदगी खतरे में डालते हैं। जो नेता हेलमेट के खिलाफ सडक़ों पर आते हैं वे खुद तो जाने कहां से की गई कमाई से खरीदी गई बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में चलते हैं खुद महफूज रहते हैं, और दुपहिया वालों की जिंदगी खतरे में डालकर अपनी नेतागिरी चलाते हैं। हम ऐसी किसी भी सरकार को गैर जिम्मेदार मानते हैं जो लोगों की जिंदगी बचाने की पूरी-पूरी संभावना रखने वाले नियमों को लागू करने की अपनी जिम्मेदारी से कतराती हैं, और लोगों को गैर जिम्मेदार बनाती हैं। छत्तीसगढ़ में अभी अगला चुनाव 2 बरस बाद है । अगर सरकार अभी से ट्रैफिक नियम कड़ाई से लागू करे तो अगले चुनाव तक लोगों का गैरजिम्मेदारी छोडऩे का दर्द जाता रहेगा, और वे हेलमेट लगाना सीख जाएंगे, सीट बेल्ट लगाना सीख जाएंगे, मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चलाना छोड़ देंगे। लेकिन इसके लिए सरकार में जिम्मेदारी की जरूरत है। देश में नियम-कानून पर्याप्त बने हुए हैं, और उनका इस्तेमाल करना सरकार की एक बुनियादी जिम्मेदारी है।
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